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अध्याय ३
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अध्याय
+
अध्याय
   −
युगानुकूल और देशानुकूल
+
युगानुकूलता के कुछ आयाम
   −
तत्त्व एवं व्यवहार में अन्तर क्यों
+
व्यवहार के विभिन्न आयाम
   −
SEM APT के आठ अंगों में पहला अंग है यम । यम
+
तत्त्व के अनुसार व्यवहार करते समय जो विभाग होते
   −
पाँच हैं, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, अपरिग्रह, ब्रह्मचर्य इनके
+
हैं, उनके प्रकार ऐसे हैं - रचना, व्यवस्था, प्रक्रिया और क्रिया
   −
विषय में कहा गया है कि वे सार्वभोम महाब्रत हैं । इसका अर्थ
+
स्चना का संबंध निर्माण से है । हम काव्य की रचना करते हैं,
   −
है कि वह समय के प्रवाह में और स्थान के बदलने से परिवर्तित
+
इसका अर्थ है शब्दों और पंक्तियों को साथ साथ रखकर कोई
   −
नहीं होते, वे हमेशा किसी भी परिस्थिति में और किसी भी
+
एक भाव या विचार की अभिव्यक्ति करते हैं । मैदान में छात्रों
   −
समय में लागू हैं । इनका आचरण करना ही है । फिर भी उनका
+
को विशिष्ट रचना में खड़े कर हम व्यायाम के लिए कोई एक
   −
स्वरूप परिवर्तित होते रहता है तत्त्व की अहिंसा और व्यवहार
+
आकृति बनाते हैं उदाहरण के लिए स्वस्तिक या शंख या
   −
की अहिंसा का स्वरूप अलग होता है तत्त्व के रूप में वे
+
कमल हम नगर रचना करते हैं अर्थात्‌ कौन से भवन कौन
   −
अमूर्त है परंतु व्यवहार के रूप में वे मूर्त हैं । हम सब जानते
+
से रास्ते किस प्रकार होंगे, यह निश्चित्‌ करते हैं । बगीचा कहाँ
   −
हैं कि मन, कर्म, वचन से किसी को भी दुःख नहीं पहुँचाना,
+
होगा, जलाशय कहाँ होगा, मंदिर कहाँ होगा, गोचर कहाँ होगा,
   −
किसी का भी अहित नहीं करना अहिंसा है किसी चींटी को
+
यह निश्चित करते हैं निवास के भवन कहाँ होंगे ? विभिन्न
   −
भी मारना हिंसा है । किसी को कठोर वचन कहना हिंसा है ।
+
प्रकार के कार्यालय कहाँ होंगे, कारखाने कहाँ होंगे ? इसकी
   −
परंतु न्यायालय में न्यायाधीश अपराधी को कोड़े लगाने की सजा
+
योजना करते हैं । संगीत में हम स्वरों की रचना करते हैं, इनमें
   −
देते ही हैं । किसी अपराधी को फाँसी की सजा भी दी जाती
+
से ही विभिन्न राग-रागिनियाँ निर्मित होती हैं, विभिन्न बंदिें
   −
है । इतना ही क्यों भगवान कृष्ण ने अर्जुन को बार-बार युद्ध
+
निर्माण होती हैं । इस प्रकार रचना का संबंध निर्माण से है ।
   −
करने का उपदेश दिया । युद्ध में हिंसा होती है । श्री कृष्ण
+
व्यवस्था का संबंध सुविधा और आवश्यकताओं की पूर्ति के
   −
योगेश्वर थे, इसका अर्थ है कि वे योगसाधना करते ही थे योग
+
साथ है । उदाहरण के लिए हम नगर में, विद्यालय में,
   −
का उपदेश भी वे देते ही हैं । फिर उन्होंने हिंसा का उपदेश
+
कार्यालय में या घर में प्रकाश और पानी की व्यवस्था करते
   −
क्यों दिया ? क्या यह सार्वभौम महाव्रत का उल्लंघन नहीं है,
+
हैं । किसी कार्यक्रम में लोगों को बैठने की व्यवस्था करते हैं ।
   −
ऐसा प्रश्न कोई भी पूछ सकता है अनेक लोगों ने पूछा भी
+
सबको सुनाई दे इस प्रकार से ध्वनि की व्यवस्था करते हैं
   −
है । यही तो रहस्य है । किसी को भी दुःख पहुँचाना, किसी
+
सबके लिए भोजन की व्यवस्था करते हैं, सब में अर्थव्यवस्था
   −
को भी हानि पहुँचाना हिंसा ही है । फिर भी भगवान कृष्ण
+
होती है, राज्यव्यवस्था होती है, शिक्षा व्यवस्था होती है । धर्म
   −
की दिखने वाली हिंसा, हिंसा नहीं है । क्यों कि धर्म की रक्षा
+
व्यवस्था, न्याय व्यवस्था, कानून व्यवस्था आदि भी बहुत बड़ी
   −
के लिए की जाने वाली तथा दिखाई देने वाली हिंसा, हिंसा
+
व्यवस्थाएँ हैं । व्यवस्थाएँ आवश्यकता की पूर्ति के लिए तो
   −
नहीं है । धर्म की रक्षा करना विश्व का कल्याण करना ही है ।
+
होती ही हैं साथ ही सब कुछ ठीक बना रहे, इसलिए भी होती
   −
विश्व का कल्याण करने के लिए एक व्यक्ति को या उस व्यक्ति
+
हैं । प्रक्रिया किसी भी पदार्थ की बनावट के साथ सम्बंधित
   −
के पक्ष में युद्ध करने वाले अनेक व्यक्तियों को मारना आवश्यक
+
होती है । उदाहरण के लिए रोटी बनाते समय विभिन्न प्रकार
   −
है । यदि उन्हें नहीं मारेंगे तो व्यापक हिंसा होगी इस अर्थ में
+
की क्रियाओं का एक निश्चित क्रम बना होता है । वस््र बनाने
   −
वह कल्याण होगा इसलिए उनको मार कर व्यापक रूप में
+
की एक निश्चित पद्धति होती है भवन स्चना में जो विभिन्न
   −
विश्व की रक्षा करना अहिंसा है । अधर्म के पक्ष के लोगों को
+
प्रकार की क्रियाएँ हैं, उनका निश्चित क्रम और एक दूसरे के
   −
मारने पर या मरवाने पर भी भगवान कृष्ण के हृदय में सबके
+
साथ सम्बंध होता है । प्रक्रिया का पदार्थ की बनावट पर
   −
लिए प्रेम की ही भावना थी और सब के कल्याण की ही इच्छा
+
............. page-26 .............
   −
थी । इसलिए उन्होंने करवाई हुई हिंसा, अहिंसा ही है । तत्त्व
+
परिणाम होता है । उदाहरण के लिए घड़ा
   −
की और व्यवहार की अहिंसा का यही अंतर है । यही बात
+
बनाते समय मिट्टी को ठीक तरह से गूँधा नहीं गया या ठीक
   −
सत्य के विषय में भी सही है, सत्य सार्वभौमक वैश्विक नियमों
+
तरह से भट्टी में पकाया नहीं गया तो घड़ा कच्चा रह जाता है
   −
की वाचिक अभिव्यक्ति है । वह भी सार्वभौम महाब्रत है परंतु
+
वस्त्र बनाते समय यदि धागे को पक्का नहीं बनाया गया तो वस्त्र
   −
विभिन्न परिस्थितियों में यह अभिव्यक्ति भिन्न-भिन्न होती है,
+
अच्छा नहीं बनता । कपड़ा रंगने के समय यदि प्रक्रिया ठीक
   −
यह तो हमारा सब का अनुभव है । एक महात्मा वृक्ष के नीचे
+
से नहीं हुई तो कपड़े का रंग कच्चा रह जाता है और पानी में
   −
ध्यान लगा कर बैठे थे उस समय एक घबराई हुई महिला
+
भिगोते समय उतर जाता है या दूसरे कपड़े पर बैठ जाता है
   −
भागती-भागती आई और उसने महात्मा से छिपने का उपाय
+
भवन बनाते समय ईंटों को और प्लास्टर को पानी से सींचा
   −
पूछा महात्मा ने उसे कुछ दूरी पर स्थित अपने आश्रम में छिप
+
नहीं गया तो दीवारें कच्ची रह जाती हैं अध्यापन करते समय
   −
जाने के लिए बताया । वह महिला वहाँ जाकर छिप गई कुछ
+
छात्र को ठीक से समझ में आया कि नहीं, यह देखा नहीं गया
   −
देर पश्चात एक मनुष्य आया । उसने महात्मा को उस महिला
+
तो ठीक से अध्यापन नहीं होता । एक वस्तु में जितने भी पदार्थ
   −
के बारे में पूछा । महात्मा को पता चल गया की वह उस
+
होते हैं उनकी मिलावट ठीक मात्रा में और ठीक पद्धति से नहीं
   −
महिला को परेशान करना चाहता था महात्मा ने उस महिला
+
हुई तो वस्तु अच्छी नहीं बनती इसका अर्थ है कि प्रक्रिया
   −
को बचाने की दृष्टि से झूठ बोला और कहा कि वह महिला
+
का अत्यंत महत्व है । हम शारीरिक और मानसिक रूप से जो-
   −
यहाँ नहीं आई उस मनुष्य ने महात्मा पर विश्वास कर लिया
+
जो भी करते हैं, वह सारी क्रियाएँ हैं तत्त्व के व्यावहारिक
   −
और वह दूसरी दिशा में चला गया । यह तो सरासर झूठ है
+
स्वरूप का यह बहुत बड़ा आयाम है, शरीर से हम बहुत सारी
   −
महात्मा ने झूठ बोला ही है, फिर भी महिला को बचाने की
+
क्रियाएँ करते हैं उदाहरण के लिए चलना, उठना, बैठना,
   −
दृष्टि से वह एकमात्र मार्ग था, इसलिए उन्होंने असत्य कहा
+
पकड़ना, फेंकना, बोलना, गाना इत्यादि मानसिक रूप से
   −
व्यापक अर्थ में या व्यापक संदर्भ में यह असत्य नहीं कहा
+
हम विचार करते हैं, इच्छाएँ करते हैं और विभिन्न प्रकार के
   −
जाएगा यही बात सभी महाब्रतों को लागू है । जो स्वार्थी
+
भावों का अनुभव करते हैं हमारी पसंद-नापसंद होती है ।
   −
के लिए सत्य है, जो केवल अपनी ही दृष्टि से या अनिष्ट हेतु
+
इन शारीरिक और मानसिक क्रियाओं का बनावट, रचना,
   −
............. page-23 .............
+
व्यवस्था आदि सभी पर बहुत बड़ा परिणाम होता है । सम्पूर्ण
   −
पर्व १ : विषय प्रवेश
+
विश्व के समग्र व्यवहार में रचना, व्यवस्था, प्रक्रिया और क्रिया
   −
सिद्ध करने के लिए बोला जाता है, वह दिखने में सत्य होने
+
की बहुत बड़ी भूमिका है । इसलिए इन सभी बातों के लिए
   −
पर भी असत्य है, दिखने में अहिंसा होने पर भी हिंसा है
+
बहुत सजग और कुशल रहना चाहिए
   −
अपराधी के पक्ष में लाभ हो और निरपराधी को हानि हो ऐसा
+
युगानुकूलता के मानक
   −
सत्य भी असत्य ही होता है या ऐसी अहिंसा भी हिंसा ही होती
+
इन सभी के लिए कुछ सामान्य मानक बने हुए हैं । ये
   −
है अन्याय का पक्ष लेना असत्य है, अपराधी का पक्ष लेना
+
मानक इस प्रकार हैं एक, हमारा सारा व्यवहार सत्य और
   −
हिंसा है, फिर हम चाहे कितने ही सत्यवादी हैं या अहिंसावादी
+
धर्म के अविरोधी होना चाहिए । दूसरा, चराचर के हित और
   −
हैं अन्याय होते हुए देखकर मौन रहना भी असत्य भाषण
+
सुख का अविरोधी होना चाहिए तीसरा, पर्यावरण के
   −
है शक्तिमान के आगे निष्क्रिय रहना, दुर्बल को नहीं बचाना
+
अविरोधी होना चाहिए चौथा मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी
   −
और अपनी सुरक्षा कर लेना हिंसा है इस प्रकार सभी बातों
+
होना चाहिए पाँचवा, अहिंसक होना चाहिए । वैसे तो सत्य
   −
के लिए तत्त्व और व्यवहार का स्वरूप अलग अलग होता
+
और धर्म के अविरोधी होना चाहिए, ऐसा कहने में शेष सारे
   −
है । तत्त्व अमूर्त है इसलिए भिन्नता दिखती नहीं है परंतु व्यवहार
+
मानक समाविष्ट हो जाते हैं तथापि सरलता पूर्वक समझने के
   −
दिखते हैं, इसलिए यह भिन्नता दिखाई देती है । कहाँ क्या
+
श्०
   −
करना इसके विवेक से और मनोभाव प्रेमपूर्ण होने से विभिन्न
+
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
  −
परिस्थितियों में कौन सा अच्छा है, कौन सा व्यवहार सत्य
  −
 
  −
और अहिंसा का होगा इसका निर्णय होता है । कहने का तात्पर्य
  −
 
  −
यह है कि व्यवहार करते समय हमें अनेक बातों का विचार
  −
 
  −
करना होता है । व्यवहार का मूल्यांकन करते समय भी हमें
  −
 
  −
अनेक बातों का विचार करना होता है । सत्य और असत्य
  −
 
  −
का, हिंसा और अहिंसा का, इसी प्रकार अच्छे और बुरे का
  −
 
  −
विवेक करना आवश्यक होता है । इसका अर्थ यह है कि
  −
 
  −
शास्त्रों में और स्मृतियों में भिन्न-भिन्न बातें कही हुई होती हैं
  −
 
  −
परंतु वह निरपेक्ष रूप से हमारे लिए प्रमाण नहीं हो सकती,
  −
 
  −
हमें या तो विवेक सीखना है या फिर महाजनों के उदाहरण
  −
 
  −
देखकर अपना आचरण निश्चित करना है ।
  −
 
  −
युग क्या है
  −
 
  −
आजकल हम युग के अनुकूल ऐसी संज्ञा बार-बार सुनते
  −
 
  −
हैं । लोग कहते हैं कि हमें आज के जमाने के अनुसार चलना
  −
 
  −
चाहिए । प्राचीन काल का सिद्धांत आज लागू नहीं हो
  −
 
  −
सकता । हमें समय के अनुसार परिवर्तन करना ही चाहिए, यही
  −
 
  −
व्यावहारिक है । इस बात में कितना तथ्य है ? इस कथन में
  −
 
  −
तो सत्यता है, परंतु इसे ठीक से समझा नहीं जाता है । युग के
  −
 
  −
अनुकूल होना, इसका अर्थ है, समय के साथ परिवर्तन करना ।
  −
 
  −
यह तो बिल्कुल सत्य है । यह तो सर्वथा व्यावहारिक है । जरा
  −
 
  −
ठीक से इसे समझें । सत्य युग में समाज व्यवस्था में धर्म
  −
 
  −
स्वाभाविक रूप से प्रतिष्ठित था । इसलिए
  −
 
  −
वहाँ राज्य की, राजा की या दंड की आवश्यकता नहीं थी ।
  −
 
  −
धर्म से ही प्रजा अपने आप नियंत्रित होती थी । परंतु त्रेता युग
  −
 
  −
में धर्म के ट्वारा नियंत्रित होना इतना संभव नहीं रहा । यह काल
  −
 
  −
का प्रभाव था । इसलिए राज्य की और राजा की व्यवस्था
  −
 
  −
निर्माण हुई । इसी प्रकार त्रेता से द्वापर में और ट्रापर से कलियुग
  −
 
  −
में मनुष्य की शारीरिक, मानसिक, बौद्धिक क्षमता कम हुई ।
  −
 
  −
प्रकृति में भी क्षरण हुआ । इसलिए नियंत्रण की अधिक
     −
आवश्यकता पड़ने लगी इस प्रकार कलियुग की व्यवस्थाएँ
+
लिए इतने विभाग किए हैं सत्य के अविरोधी ही क्यों होना
   −
सत्ययुग की अपेक्षा अथवा अन्य तीनों युगों की अपेक्षा भिन्न
+
चाहिए ? इसलिए कि सत्य ऋत की वाचिक अभिव्यक्ति है ।
   −
प्रकार की होना स्वाभाविक है जीवन के मूल तत्त्वों के
+
क्रूत विश्व नियम को कहते हैं नियम से ही विश्व का सारा
   −
सिद्धांत सत्ययुग में और कलियुग में तो एक ही रहेंगे परंतु उनके
+
व्यवहार सुचारु रूप से चलता है । इसलिए उसका पालन
   −
आविष्कार में और उनकी व्यवस्था में उनका स्वरूप भिन्न
+
करना अनिवार्य है । कृत उन्हें नियमों में बताता है, सत्य वाणी
   −
होगा इसे ही युगों की व्यवस्थाएँ कहते हैं । यह बात केवल
+
में अभिव्यक्त करता है इसलिए उसका पालन करना
   −
कलियुग, दट्वापरयुग आदि युगों को ही लागू नहीं होती अपितु
+
चाहिए | pa at धर्म है । धर्म से ही सारे ब्रह्मांड का धारण
   −
दो-तीन पीढ़ियों में भी लागू होती है । ५००० वर्ष पहले जो
+
होता है, इसलिए उसका आधार लेना चाहिए धर्म को कभी
   −
स्थिति थी, वह आज नहीं है तीन पीढ़ियों पहले जो स्थिति
+
भी छोड़ना नहीं चाहिए सत्य और धर्म को छोड़ने से सर्व
   −
थी वह भी आज नहीं है, इस बात को ध्यान में रखकर हमें
+
प्रकार के संकट आते हैं । चराचर के हित और सुख का ध्यान
   −
अपनी अपेक्षाओं में और अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन
+
क्यों रखना चाहिए ? इसलिए क्योंकि चर और अचर एक दूसरे
   −
करना होता है, इसे युग के अनुकूल परिवर्तन कहते हैं । इतना
+
के साथ अभिन्न रूप से संलग्न हैं । एक के दुःख का सभी पर
   −
ही क्यों समय के परिवर्तन के साथ हम छोटी मोटी बातों में
+
प्रभाव होता है । एक के भले से सभी का भला होता है, हम
   −
परिवर्तन करते ही हैं । ठंड के दिनों में जो कपड़े पहनते हैं,
+
समझें या न समझें, मानें या न मानें, कोई चाहे या न चाहे
   −
वह गर्मी के दिनों में नहीं पहनते । वर्षा की तु में जो आहार
+
ऐसा होता ही है क्योंकि छोटे-बड़े सभी का एक दूसरे के साथ
   −
लेते हैं, वह गर्मी की क्रतु में नहीं लेते दो पीढ़ियों पहले
+
सम्बन्ध है । यह सम्बन्ध हमने नहीं बनाया वह तो विश्व
   −
मनुष्य की आकलन शक्ति और स्मरण शक्ति अधिक थी
+
की रचना के समय से ही बना हुआ है इसलिए उसके
   −
उसकी श्रवण शक्ति और दर्शन शक्ति भी अधिक थी इसलिए
+
अविरोधी होना ही हमारे लिए बाध्यता है पर्यावरण के
   −
उनकी शिक्षा योजना में अधिक उपकरणों की और अधिक
+
अविरोधी क्यों होना चाहिए ? पर्यावरण का अर्थ है, हमारे
   −
परिश्रम की आवश्यकता नहीं पड़ती थी आज उस पीढ़ी की
+
चारों ओर की प्रकृति यह प्रकृति पंचमहाभूत, मन, बुद्धि और
   −
अपेक्षा यह सारी शक्तियाँ और साथ साथ संयम शक्ति, एकाग्रता
+
अहंकार की बनी है । हमारे चारों ओर पृथ्वी, जल, अभि,
   −
की शक्ति आदि भी कम हुई हैं । मनुष्य की भावना शक्ति और
+
वायु और आकाश विभिन्न रूप धारण कर फैले हुए हैं । हमारे
   −
संवेदना शक्ति भी कम हुई है । इस बात को ध्यान में रखकर
+
चारों ओर वनस्पति जगत्‌ है तो कहीं प्राणी जगत्‌ फैला हुआ
   −
ही आज शिक्षा व्यवस्था और कानून व्यवस्था करनी होगी
+
है हमारे चारों ओर बसे हुए मनुष्यों के मन के भाव अहंकार
   −
इसे ही युग के अनुकूल परिवर्तन कहते हैं ।
+
के विविध रूप और बुद्धि की सारी क्रिया-प्रक्रियाएँ फैली हुई
   −
तत्त्व के अनुकूल युग, युग के अनुकूल व्यवहार
+
हैं। इन सब के प्रति अविरोधी रहना सत्य और धर्म का
   −
फिर भी एक बात का स्मरण रखना आवश्यक है ।
+
आचरण करने के बराबर है । इन सबका ध्यान रखना व्यवहार
   −
............. page-24 .............
+
के लिए बहुत आवश्यक है । मनुष्य के स्वास्थ्य के अविरोधी
   −
कुछ बातों में जमाने के अनुसार परिवर्तन
+
क्यों होना चाहिए ? इसलिए कि मनुष्य का स्वास्थ्य यदि ठीक
   −
करना होता है और कुछ बातों में जमाने का परिवर्तन करना
+
नहीं रहा तो हित और सुख की सारी सम्भावनाएँ समाप्त हो
   −
होता है। इसका विवेक करना अत्यंत आवश्यक है।
+
जाती हैं । कहा ही है, शरीरमाद्यं खलु धर्म साधनम्‌ । धर्म के
   −
उदाहरण के लिए छात्रों के अध्ययन की क्षमताएँ कम हुई हैं,
+
आचरण का प्रमुख साधन शरीर है । इस कथन के तत्त्व को
   −
इस बात को स्वीकार कर अध्यापन पद्धति का निरूपण करना
+
समझाने की आवश्यकता नहीं है । इसलिए हम जो-जो भी
   −
चाहिए । यह नहीं किया तो छात्रों के लिए अध्ययन असंभव
+
रचना, व्यवस्था, क्रिया, प्रक्रिया आदि सब करते हैं, वे शरीर
   −
हो जाएगा उस समय में क्या या आज के समय में क्या ज्ञान
+
स्वास्थ्य के अनुकूल होनी चाहिए
   −
कभी बेचा नहीं जा सकता । अर्थ और काम धर्मानुसार होने
+
............. page-27 .............
   −
ही चाहिए । इस बात में समझौता नहीं हो सकता । इसलिए
+
पर्व २ : विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार ५५५४४
   −
ज्ञान की सर्वोपरिता के विषय में आज के जमाने को परिवर्तित
+
५ ५
   −
करना चाहिए । यह बात सभी व्यवस्थाओं को और सभी
+
८ ७ ७ ४ ७/ ४
   −
विषयों को लागू होती है । यही व्यवहार का नियम है ।
+
पर्व २
   −
तत्त्वानुसारी व्यवहार की यही विशेषता है ।
+
विद्यार्थी, शिक्षक, विद्यालय, परिवार
   −
आज के समय में शब्दों के अर्थ बहुत बदल गए हैं
+
इस ग्रन्थमाला में बार बार इस सूत्र का प्रतिपादन होता रहा है कि शिक्षा के दो
   −
इसलिए उनके स्वाभाविक अर्थों को हम जल्दी से और
+
केन्द्र होते हैं । एक होता है विद्यालय और दूसरा घर । विद्यालय में शिक्षक और
   −
सरलता से समझ नहीं सकते हैं । इसलिए युग के अनुकूल
+
विद्यार्थी मिलकर ज्ञानसाधना करते हैं और घर में दो पीढ़ियों में संस्कृति के हस्तान्तरण
   −
परिवर्तन के मामले में हम उलझ जाते हैं युग के अनुकूल
+
का कार्य होता है इन दोनों केन्द्रों का भी परस्पर सम्बन्ध होता है । इन दो केन्द्रों
   −
परिवर्तन केवल हमारे करने से ही नहीं होता । हमारी इच्छा
+
का सम्बन्ध जोडने का माध्यम विद्यार्थी है जो घर में रहता है और विद्यालय में आता
   −
से भी नहीं होता वह प्रकृति के नियमों के अनुसार होता
+
है इन तथ्यों का कुछ विश्लेषणात्मक विचार इस पर्व में किया गया है । विद्यार्थी
   −
है । प्रकृति स्वभाव से नित्य परिवर्तनशील है । हमें प्रकृति के
+
और शिक्षक के व्यक्तित्व के विभिन्न आयाम कौन से हैं, शिक्षक और विद्यार्थी के
   −
परिवर्तन को समझ कर उसके अनुसार हमारी व्यवस्था और
+
सम्बन्ध का आन्तरिक और बाह्य स्वरूप कैसे होता है, शिक्षा और शिक्षाकेन्द्र में
   −
व्यवहार में भी परिवर्तन करना होता है । इसे ही युगानुकूल
+
शिक्षक का महत्त्व कितना है और उसके साथ शिक्षा से सम्बन्धित अन्य लोगों ने कैसा
   −
परिवर्तन कहते हैं । आज हम जिसे युगानुकूल परिवर्तन कहते
+
व्यवहार करना चाहिये, विद्यालय के सन्दर्भ में अपनी भूमिका कैसे निभानी चाहिये
   −
हैं उसके लिए प्रचलित शब्द है, आधुनिक काल के अनुसार
+
इसका विचार इस पर्व में किया गया है । यह केवल तात्तिक चर्चा नहीं है मुख्य रूप
   −
परिवर्तन आधुनिक काल का अर्थ है आज का समय । वह
+
से व्यावहारिक ही है शिक्षा के भारतीयकरण का स्वरूप किन प्रक्रियाओं से बनता है
   −
भी स्वाभाविक है परंतु हम उसे अपने आसपास के लोगों के
+
इसकी ओर ध्यान आकर्षित करने का प्रयास यहाँ किया गया है
   −
विचार और व्यवहार के साथ जोड़ते हैं । इसलिए वह कृत्रिम
+
श्१
   −
अर्थात्‌ अप्राकृतिक हो जाता है । जो भी कृत्रिम है वह
+
............. page-28 .............
   −
हानिकारक होता है, वह या तो अपने स्वास्थ्य के लिए या
+
cm £ &
   −
तो प्रकृति के पर्यावरण के लिए हानिकारक होता है।
+
अनुक्रमणिका
   −
इसलिए लोगों की मानसिकता के अनुसार या लोगों के
+
शिक्षा का केन्द्रबिन्दु विद्यार्थी
   −
व्यवहार के अनुसार परिवर्तन करना अनुकूल परिवर्तन नहीं
+
शिक्षक का शिक्षकत्व
   −
है । प्रकृति में होने वाले परिवर्तनों के अनुसार किया जाने
+
विद्यालय का सामाजिक दायित्व
   −
वाला परिवर्तन युगानुकूल परिवर्तन है । और तभी हमारी
+
परिवार की शैक्षिक भूमिका
   −
सारी व्यवस्थाएँ स्वाभाविक बनेंगी ।
+
श्र
    
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
 
भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम
   −
देशानुकूल संकल्पना क्या है
+
RR
 
  −
देशानुकूल का अर्थ है, देश के अनुकूल । इसे समझना
  −
 
  −
तो सरल है । विश्व में अनेक देश हैं, अनेक प्रजाएँ हैं । इन
  −
 
  −
सब का खानपान, वेशभूषा, दिनचर्या आदि सब अलग
  −
 
  −
अलग ही होते हैं । यह सारी तो बाहरी बातें हैं । एक दूसरे के
  −
 
  −
साथ के संबंध, उनकी घटनाओं के प्रति देखने की दृष्टि,
  −
 
  −
जीवन को समझने की पद्धति, सुविधाओं की आवश्यकता
  −
 
  −
आदि सभी भिन्न-भिन्न होते हैं । जब यह प्रजा एक दूसरे के
  −
 
  −
साथ संपर्क में आती है तब वह एक दूसरे को प्रभावित करती
  −
 
  −
है और एक दूसरे से प्रभावित होती है । इससे अनेक बातों
  −
 
  −
का. आदान-प्रदान होता है। यह आदान-प्रदान भी
  −
 
  −
स्वाभाविक है । जब तक यह स्वाभाविक है, वह उचित है
  −
 
  −
परंतु जब वह अस्वाभाविक होता है, तब विचित्रता निर्माण
  −
 
  −
करता है । उदाहरण के लिए विश्व के सभी देशों में लोग वस्त्र
  −
 
  −
पहनते हैं । अफ्रीका के जंगलों में रहने वाले लोग वृक्षों के
  −
 
  −
छाल के वख््र पहनते हैं । पशुओं की हड्डियों के अलंकार
  −
 
  −
बनाकर पहनते हैं । यूरोप-अमेरिका के लोग सूट-बूट का
  −
 
  −
वेश पहनते हैं । भारत में धोती कुर्ता, साड़ी व पगड़ी आदि
  −
 
  −
पहनते हैं । जापान के लोग किमोनो पहनते हैं । यह सब
  −
 
  −
अपने-अपने देश की जलवायु के अनुकूल और प्राप्त सामग्री
  −
 
  −
के अनुकूल होते हैं, इसलिए वह उन-उन देशों में
  −
 
  −
स्वाभाविक है । यूरोप के या भारत के नगरवासी लोग वृक्षों
  −
 
  −
के छाल के वस्त्र पहनने लगे तो अस्वाभाविक लगेगा । भारत
  −
 
  −
की गृहिणियाँ किमोनो पहनने लगेंगी तो वह अस्वाभाविक
  −
 
  −
लगेगा । इसी प्रकार बड़ी आयु के लोग बच्चों जैसे कपड़े
  −
 
  −
पहनेंगे तो अस्वाभाविक लगेगा । आज हम देखते हैं कि
  −
 
  −
भारत में लोग यूरोपीय वेशभूषा पहनते हैं । ख्ियों ने पुरुषों
  −
 
  −
जैसे कपड़े पहनना शुरु किया है । भारत के लोगों का यह
  −
 
  −
अनुकरण स्वाभाविक नहीं है, क्योंकि वह देशानुकूल नहीं
  −
 
  −
है । इसी प्रकार भारत के लोग जब यूरोपीय जीवन दृष्टि
  −
 
  −
अपनाते हैं तो वह भी देशानुकूल नहीं है क्योंकि वह भारत
  −
 
  −
की संस्कृति और परंपरा से मेल नहीं खाता । इसलिए
  −
 
  −
विवेकशील लोग कहते हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं जो कुछ
  −
 
  −
भी अच्छा है, लाभकारी है, शुभ है उसे खुले मन से अपनाना
  −
 
  −
चाहिए, जो इससे विपरीत है उसे नहीं अपनाना चाहिए ।
  −
 
  −
............. page-25 .............
  −
 
  −
पर्व १ : विषय प्रवेश
  −
 
  −
देशानुकूल परिवर्तन क्या है
  −
 
  −
दूसरों से कुछ भी अपनाने पर जो परिवर्तन होता है,
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वह देशानुकूल होना चाहिए । उदाहरण के लिए हम
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अमेरिकन या ऑस्ट्रेलियन प्रजा से कानून का पालन करने का
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नागरिक धर्म अपना सकते हैं परंतु समाज व्यवस्था को करार
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मानना स्वीकार नहीं कर सकते । आज के समय में हम देखते
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हैं कि हमने जो अपनाना चाहिए, वह नहीं अपनाया है और
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जो नहीं अपनाना चाहिए, उसे अपना लिया है और हमारे
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स्वयं के लिए बहुत बड़े संकट मोल ले लिए हैं ।
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हम ऐसा करते हैं इसका कारण हमारा हीनताबोध है ।
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ब्रिटिशों के आक्रमण का प्रभाव हमारे मानस पर कुछ ऐसा हुआ
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है कि हमें यूरोप अमेरिका का सब कुछ अच्छा और श्रेष्ठ लगने
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लगा है । जब कोई भी व्यक्ति हीनताबोध से ग्रस्त हो जाता है
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तब उसका विवेक नष्ट हो जाता है । हमारी संपूर्ण प्रजा की
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आज यही स्थिति हो गई है । अन्यथा हम
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तो ऋग्वेद काल से कहते ही आए हैं कि विश्वभर में जहाँ कहीं
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भी कुछ भी कल्याणकारी हो, हम उसे अपनाएँगे । इस
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हीनताबोध को समाप्त करने का उपाय शिक्षा और धर्म में है ।
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धर्माचार्य ने प्रजा को धर्मनिष्ठ बनाने के और शिक्षाविदों ने प्रजा
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को ज्ञाननिष्ठ बनाने के प्रयास करने चाहिए । धर्म और ज्ञान
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ही आत्मबोध और स्वाभिमान निर्माण करते हैं । इन दोनों से
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ही विवेक जाग्रत होता है । जब तत्त्व का विवेक आता है,
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तब व्यवहार में भी विवेक आता है । उसके बाद हम दूसरों से
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अनेक बातें ग्रहण करते हैं और अपनी जीवन पद्धति के अनुसार
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उनको ढालकर लाभान्वित होते हैं । यही देशानुकूल परिवर्तन
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है । किसी भी विषय की चर्चा करते समय हम देश-काल-
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परिस्थिति के अनुसार व्यवहार करें, ऐसा ही कहते हैं । यह
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सर्व स्वीकृत प्रचलन है ।
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