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| + | भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला २ |
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| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
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| + | Gage |
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| + | प्रकाशक |
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| + | पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट |
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| + | ९बी, ज्ञानमू, बलियाकाका मार्ग, जूना ढोर बजार, कांकरिया, अहमदाबाद-३े८० ०२८ |
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| + | GENT : (०७९) २५३२२६५५ |
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| + | Website : www.punarutthan.org |
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| + | Email : punvidya2012 @ gmail.com |
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| + | Ce) |
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| + | भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला २ |
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| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
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| + | लेखन एवं संपादन |
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| + | इन्दुमति काटदरे अहमदाबाद... ०९४२८८२६७३१ |
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| + | सह संपादक |
| + | |
| + | aca Heh नासिक ९४२२९४६४७५ |
| + | |
| + | सुधा करंजगावकर अहमदाबाद ९८७९५८८०१० |
| + | |
| + | वासुदेव प्रजापति जोधपुर ९द१४१३६३१४ |
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| + | संकलन सहयोग |
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| + | पराग बाबरिया दिलीप केलकर तारा हातवलणे विपुल रावल ब्रजमोहन रामदेव |
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| + | राजकोट डॉबीवली अकोला अहमदाबाद जैसलमेर |
| + | |
| + | ९४२७२ ३७७१९ ९४२२६६२१६६ ९०१५११०२०६९ ९९७९०९९५१४२ ९७८३८०४२३६ |
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| + | प्रकाशक |
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| + | पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट |
| + | |
| + | ९बी, ज्ञानमू, बलियाकाका मार्ग, जूना ढोर बजार, |
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| + | कांकरिया, अहमदाबाद-३८० ०२८ |
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| + | दूरभाष : (०७९) २५३२२६५५ |
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| + | ash |
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| + | नूतन आर्ट, अहमदाबाद |
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| + | प्रकाशन तिथि |
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| + | व्यास पूर्णिमा, युगाब्द ५११९, दि. ९ जुलै २०१७ |
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| + | प्रतियाँ : १००० |
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| + | मूल्य : रु. ८००/- |
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| + | ।। मंगलाचरण ।। |
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| + | हे सरस्वती ! आप विद्या की देवी हैं । शुद्ध बुद्धि देने |
| + | |
| + | वाली हैं । नादब्रह्मा आपका मूल रूप है। आप परा, |
| + | |
| + | पश्यन्ति, मध्यमा और वैखरी के रूप में प्रकट होती हैं । |
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| + | आप क्रत को सत्य के रूप में प्रकट करती हैं । आप |
| + | |
| + | ब्रह्मानन्दसहोदर काव्यरस को बहाने वाली हैं । आपको |
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| + | नमस्कार कर इस ग्रन्थ का लेखन प्रारम्भ कर रहे हैं । |
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| + | हे भगवान व्यास ! आप आर्षद्रष्टा ऋषियों द्वारा देखे |
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| + | गये मंत्रों का सम्पादन कर उन्हें जिज्ञासुओं को सुलभ |
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| + | बनाने हेतु वेदों के रूप में सुलभ बनाने वाले हैं । कठिन |
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| + | और जटिल रचना को अभ्यासुओं के लिये सुगम बनाने |
| + | |
| + | हेतु एक वेद को चार वेदों में वर्गीकृत करने वाले आद्य |
| + | |
| + | सम्पादक हैं । आप उपनिषदों के प्रेरक हैं । वेदों का ज्ञान |
| + | |
| + | सर्वजनसुलभ बनाने हेतु अष्टादश पुराणों की रचना करने |
| + | |
| + | वाले हैं । आप विद्वानों के शास्रार्थ हेतु ब्रह्मसूत्रों की रचना |
| + | |
| + | करने वाले हैं । आप विश्व को शास्त्रीय और लोकज्ञान के |
| + | |
| + | आगर ऐसे महाभारत ग्रंथ को देने वाले हैं । आजतक ज्ञान |
| + | |
| + | के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसे अद्भुत, सर्व उपनिषदों के साररूप |
| + | |
| + | ग्रन्थ भगवद्वीता के रचयिता हैं । जो भी लोककल्याण हेतु |
| + | |
| + | ज्ञान को प्रस्तुत करना चाहता है उसके लिये आप आदर्श |
| + | |
| + | हैं । आपसे सदैव प्रेरणा प्राप्त होती रहे ऐसी प्रार्थना के साथ |
| + | |
| + | आपको नमस्कार करते हैं । |
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| + | अर्पण पत्रिका |
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| + | भारतीय शिक्षा ग्रंथमाला का श्री ज्ञानसरस्वती (बासर क्षेत्र) के |
| + | |
| + | चरणों में अर्पण । |
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| + | हे माँ सरस्वती ! |
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| + | पुनरुत्थान विद्यापीठने भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के नाम से भारतीय |
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| + | शिक्षा के पाँच संदर्भ ग्रन्थों का निर्माण कार्य संपन्न किया है । आज संपूर्ण |
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| + | भारतवर्ष में प्रतिष्ठित पाश्चात्य शिक्षणपद्धति से भारत का अध्यात्म, ज्ञान, |
| + | |
| + | धर्म तथा संस्कृति सब अस्तव्यस्त हुए हैं । इस के उपाय स्वरूप इस ग्रंथ |
| + | |
| + | निर्माण योजना का कार्य विद्यापीठने हाथों में लिया है । हे माते आप इन |
| + | |
| + | ग्रंथों के एक एक अक्षर को सत्यरूप दें । हम सब भारतवासियों के मन में |
| + | |
| + | ज्ञानरूपी सरस्वती को प्रतिष्ठित होने दें । इन ग्रन्थों द्वारा सर्वजनसमाज के |
| + | |
| + | आचरण से भारतीय संस्कृति प्रत्यक्ष व्यवहार में उतरे जिससे हमारा |
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| + | भारतवर्ष फिर से विश्वगुरु के पद पर विराजित हो । |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा द्वारा ज्ञान का पुनरुत्थान हो ऐसा आशिष हमें प्रदान |
| + | |
| + | करें । पूर्णता को पहुँचे ये पाँचों ग्रन्थ हम सब सर्व प्रथम आपके चरणों में |
| + | |
| + | सादर सविनय समर्पित करते हैं । |
| + | |
| + | पुनरुत्थान विद्यापीठ के प्रमुख कार्यकर्ता श्रावण कृ. ६, |
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| + | दि. १३-८-२०१७ को श्रीक्षेत्र बासर गये । और मा ज्ञानसरस्वती के |
| + | |
| + | चरणों में यह पाँच ग्रंथ सादर समर्पित किये । |
| + | |
| + | ............. page-5 ............. |
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| + | सम्पादकीय... . |
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| + | g |
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| + | पुनरुत्थान विद्यापीठ शिक्षा का भारतीयकरण करने के लिये प्रयासरत है । पश्चिमीकरण से भारतीय शिक्षा की मुक्ति |
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| + | और भारतीय शिक्षा की पुनर्प्रतिष्ठा करना ही इन प्रयासों का स्वरूप है । इस कार्य के लिये विद्यापीठ ने चरणबद्ध योजना |
| + | |
| + | बनाई है । इस योजना का प्रथम चरण है भारतीय शिक्षा विषयक अध्ययन, अनुसन्धान, साहित्य निर्माण और विमर्श । |
| + | |
| + | भारतीय ज्ञानधारा जिन शाख्रग्रन्थों में सुरक्षित है उन शाख्रग्रन्थों का अध्ययन, उसे वर्तमान परिप्रेक्ष्य में लागू किया |
| + | |
| + | जा सके उस रूप में उसका पुनर्नि्माण करने के उद्देश्य से अनुसन्धान, उसे विद्वानों और सामान्यजनों के लिये सुलभ बनाने |
| + | |
| + | हेतु साहित्य निर्माण और उसकी उपयोगिता और प्रासंगिकता किस प्रकार बढाई जाय इसका विचार करने हेतु विद्वानों और |
| + | |
| + | कार्यकर्ताओं का विमर्श इस प्रकार से कार्य चलता है । |
| + | |
| + | साहित्यनिर्माण के क्षेत्र में विद्यापीठ ने अब तक भारतीय ज्ञानधारा को विद्यार्थियों तक पहुँचाने हेतु 'पुण्यभूमि भारत |
| + | |
| + | संस्कृति वाचनमाला' के नाम से एक सौ पुस्तिकाओं का निर्माण किया है । साथ ही परिवारजीवन से सम्बन्धित विषयों |
| + | |
| + | को लेकर पांच सन्दर्भग्रन्थ निर्माण किये हैं । विद्यापीठ का मत है कि शिक्षा व्यक्ति के जीवन के साथ प्रारम्भ से ही जुडी |
| + | |
| + | हुई है और वह आजीवन चलती है । वह परिवार में शुरू होती है । व्यक्ति के जीवनविकास का एक बहुत बडा हिस्सा |
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| + | परिवार में ही होता है । घर भी एक महत्त्वपूर्ण पाठशाला है । परिवार विषयक ये पाँच ग्रन्थ - गृहशास्त्र, अधिजननशास्त्र, |
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| + | आहारशासख्र, गृहअर्थशास्त्र और गृहस्थाश्रमी का समाजधर्म - शिक्षा विषयक सन्दर्भ ग्रन्थ हैं जिनका क्रियान्वयन का क्षेत्र |
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| + | घर और समाज है । |
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| + | इसी कडी में आगे विद्याकेन्द्रों - प्राथमिक, माध्यमिक विद्यालय तथा उच्च शिक्षा हेतु महाविद्यालय और |
| + | |
| + | विश्वविद्यालय - में शिक्षा विषयक पाँच सन्दर्भग्रन्थ निर्माण करने की योजना बनी । सन २०१५ के प्रारम्भ में बनी |
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| + | इस योजना की आज लगभग ढाई वर्ष के बाद सिद्धता हो रही है और देश के शिक्षाक्षेत्र में कार्यरत विदट्रज्जनों के |
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| + | सम्मुख इन्हें प्रस्तुत करते हुए हम हर्ष और सन्तोष का अनुभव कर रहे हैं । प्रत्येक ग्रन्थ चार सौ पृष्ठी का है । ये ग्रन्थ |
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| + | इस प्रकार हैं - |
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| + | १, भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
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| + | २. शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
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| + | ३. भारतीय शिक्षा के व्यावहारिक आयाम |
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| + | ४. पश्चिमीकरण से भारतीय शिक्षा की मुक्ति |
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| + | ५. वैश्विक संकटों का निवारण भारतीय शिक्षा |
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| + | शिक्षा का भारतीयकरण करने हेतु जितने अंगों से विचार करना चाहिये उन सभी अंगों का विचार करने का प्रयास |
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| + | इन ग्रन्थों में किया गया है । |
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| + | 2. |
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| + | यद्यपि इन पांच ग्रन्थों में “पश्चिमीकरण से शिक्षा की मुक्ति' एक ग्रन्थ है, और वह चौथे क्रमांक पर है तो भी शिक्षा |
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| + | के भारतीयकरण का विषय इससे या इससे भी पूर्व से प्रारम्भ होता है । शिक्षा के पश्चिमीकरण से मुक्ति का विषय तो तब |
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| + | आता है जब शिक्षा का पश्चिमीकरण हुआ हो । भारत में शिक्षा के पश्चिमीकरण का मामला पाँचसौ वर्ष पूर्व से प्रारम्भ |
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| + | होता है जब यूरोपीय देशों के लोग विश्व के अन्यान्य देशों में जाने लगे । पन्द्रहबीं शताब्दी के अन्त में वे भारत में आये । |
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| + | भारत में स्थिर होते होते उन्हें एक सौ वर्ष लगे । सन सोलह सौ में इस्ट इण्डिया कम्पनी भारत में आई और आज की |
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| + | दुःस्थिति का प्रारम्भ हुआ । वह लूट के उद्देश्य से आई थी । लूट निरन्तरता से, बिना अवरोध के होती रहे इस दृष्टि से |
| + | |
| + | उसने व्यापार शुरु किया । व्यापार भारत भी करता था । धर्मपालजी लिखते हैं कि सत्रहवीं और अठारहवीं शताब्दी में चीन |
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| + | और भारत का मिलकर विश्वव्यापार में तिहत्तर प्रतिशत हिस्सा था । अतः भारत को भी व्यापार का अनुभव कम नहीं |
| + | |
| + | था । परन्तु भारत को नीतिधर्म के अनुसार व्यापार करने का अनुभव और अभ्यास था । ब्रिटीशों के लिये अधिक से |
| + | |
| + | अधिक मुनाफा ही नीति थी । अतः व्यापार के नाम पर वे लूट ही करते रहे । व्यापार भी अनिर्बन्ध रूप से चले इस हेतु |
| + | |
| + | से उन्होंने राज्य हथियाना प्रारम्भ किया । ब्रिटीशों का दूसरा उद्देश्य था भारत का इसाईकरण करना । इस उद्देश्य की पूर्ति |
| + | |
| + | के लिये उन्होंने वनवासी, गिरिवासी, निर्धन लोगों को लक्ष्य बनाया, वर्गभेद निर्माण किये, भारत की समाज व्यवस्था को |
| + | |
| + | ऊँचनीच का स्वरूप दिया, एक वर्ग को उच्च और दूसरे वर्ग को नीच बताकर उच्च वर्ग को अत्याचारी और नीच वर्ग को |
| + | |
| + | शोषित और पीडित बताकर पीडित वर्ग की सेवा के नाम पर इसाईकरण के प्रयास शुरू किये । उनका तीसरा उद्देश्य था |
| + | |
| + | भारत का यूरोपीकरण करना । उनके पहले उद्देश्य को स्थायी स्वरूप देने में भारत का यूरोपीकरण बडा कारगर उपाय था । |
| + | |
| + | यूरोपीकरण करने के लिये उन्होंने शिक्षा को माध्यम बनाया । उनकी प्रत्यक्ष शिक्षा के ही यूरोपीकरण की योजना इतनी |
| + | |
| + | यशस्वी हुई कि आज हम जानते तक नहीं है कि हम यूरोपीय शिक्षा प्राप्त कर रहे हैं और यूरोपीय सोच से जी रहे हैं । |
| + | |
| + | भारत को अभारत बनाने की प्रक्रिया दो सौ वर्ष पूर्व शुरू हुई और आज भी चल रही है । हम निरन्तर उल्टी दिशा में जा |
| + | |
| + | रहे हैं और उसे विकास कह रहे हैं । अब प्रथम आवश्यकता दिशा बदलने की है । दिशा बदले बिना तो कोई भी प्रयास |
| + | |
| + | यशस्वी होने वाला नहीं है । |
| + | |
| + | इस ग्रन्थमाला में दिशा कैसे बदलना, दिशा बदलकर कहाँ जाना, कैसे जाना, क्यों जाना, मार्ग में कौन से अवरोध |
| + | |
| + | हैं, उन अवरोधों को कैसे पार करना आदि विषयों की यथासम्भव विस्तार से चर्चा की गई है । |
| + | |
| + | आज भारत में अच्छी शिक्षा की चर्चा सर्वत्र होती है परन्तु भारतीय शिक्षा की नहीं । अर्थात् एक छोटा वर्ग है जो |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा की बात करता है । परन्तु दोनों वर्गों की अपने अपने विषय की कल्पनायें बहुत मजेदार हैं । अच्छी शिक्षा |
| + | |
| + | के पक्षधर अंग्रेजी माध्यम की शिक्षा को, तो कभी ऊँचे शुल्क वाली शिक्षा को, तो कभी संगणक जैसे भरपूर साधनसामग्री |
| + | |
| + | के उपयोग वाली शिक्षा को, तो कभी अच्छे वेतनवाली नौकरी मिले ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश दिलाने वाली शिक्षा को |
| + | |
| + | अच्छी शिक्षा कहते हैं । ये सभी आयाम एक साथ हों तो वह उत्तमोत्तम शिक्षा है। ऐसी शिक्षा देने वाले विद्यालय, |
| + | |
| + | महाविद्यालय या विश्वविद्यालय श्रेष्ठ हैं । भारतीय शिक्षा के पक्षधर संस्कृत में लिखे गये ज्योतिष, व्याकरण जैसे वेदांगों |
| + | |
| + | की, न्यायशास्त्र जैसे ग्रन्थों की, वैदिक गणित जैसे विषयों की शिक्षा को भारतीय शिक्षा कहते हैं । वेदों, dard और |
| + | |
| + | योगदर्शन, उपनिषद आदि की शिक्षा को भारतीय शिक्षा कहते हैं । दोनों ही वर्गों में उत्तम विद्याकेन्द्रों के नमूने हैं । परन्तु |
| + | |
| + | देश और दुनिया की स्थिति तो उत्तरोत्तर बिगडती ही जा रही है, संकट बढ़ते ही जा रहे हैं । |
| + | |
| + | इसलिये इन सभी प्रयासों के स्वरूप का आकलन और क्या कुछ करने की आवश्यकता है इसका चिन्तन आवश्यक |
| + | |
| + | है। |
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| + | |
| + | जो लोग अच्छी शिक्षा के पक्षधर हैं उन्हें राष्ट्रीय शिक्षा की संकल्पना समझने की और जो लोग भारतीय शिक्षा के |
| + | |
| + | प्रयासों में रत हैं उन्हें युगानुकूल शिक्षा की संकल्पना समझने की आवश्यकता है । प्रत्येक राष्ट्र का एक विशेष स्वभाव होता |
| + | |
| + | है जिसके अनुसार उसका स्वधर्म निश्चित होता है । राष्ट्र की जीवनदृष्टि और विश्वदृष्टि ही उसका स्वधर्म है । इस जीवन में |
| + | |
| + | और इस जगत में राष्ट्र की क्या भूमिका है यह जानना ही राष्ट्र का स्वधर्म जानना है । उदाहरण के लिये स्वामी विवेकानन्द् |
| + | |
| + | कहते हैं कि भारत का स्वभाव आध्यात्मिक है इसलिये विश्व के प्रति स्वधर्म के अनुसार ही राष्ट्रजीवन की सभी व्यवस्थायें |
| + | |
| + | बनती हैं, संकल्पनायें और सम्बन्ध बनते हैं । अर्थात् स्वभाव, स्वधर्म, व्यवहार, व्यवस्थायें, समझ सब एक दूसरे के अनुकूल |
| + | |
| + | और अनुरूप होकर एक समग्र जीवनशैली बनती है जिसे उस राष्ट्र की राष्ट्रीय शैली कहा जाता है, उसे ही संस्कृति कहते हैं । |
| + | |
| + | एक पीढ़ी से दूसरी पीढी को हस्तान्तरित होते होते उसकी परम्परा बनती है । शिक्षा संस्कृति की परम्परा बनाये रखने का, |
| + | |
| + | उसे निरन्तर परिष्कृत करने का, उसे नष्ट नहीं होने देने का एकमात्र साधन है । अच्छी शिक्षा और भारतीय शिक्षा दोनों के |
| + | |
| + | पक्षधरों को राष्ट्रीता और उसके सभी व्यावहारिक आयामों को एक साथ रखकर समग्रता में अपना चिन्तन विकसित करने की |
| + | |
| + | आवश्यकता है । यह ग्रन्थमाला इसके लिये संकेत मात्र देने का प्रयास करती है । |
| + | |
| + | शिक्षा का भारतीयकरण करने की दिशा में यदि समग्रता में प्रयास करना है तो हमें एक सर्वआयामी प्रतिमान का |
| + | |
| + | विचार करना होगा । इस बात का विशेष उल्लेख इसलिये करना है क्योंकि भारत में एक बहुत बडा वर्ग ऐसा है जो |
| + | |
| + | वर्तमान ढाँचे में ही भारतीय जीवन मूल्यों के अनुसार कुछ बातें जोडने का आग्रह रखता है । सरकार भी इनमें एक है । ये |
| + | |
| + | प्रयास उपयोगी नहीं हैं ऐसा तो नहीं कहा जा सकता क्योंकि आज सर्वथा विपरीत स्थिति में भी भारत जीवित है तो इन |
| + | |
| + | प्रयासों के परिणामस्वरूप ही है । शिक्षा के ऐसे असंख्य छोटे से छोटे और बडे से बडे प्रयास आज चल रहे हैं । परन्तु |
| + | |
| + | भारत को भारत बनाना है तो आमूल और सम्पूर्ण परिवर्तन की रूपरेखा तो हमारे पास होनी ही चाहिये । “समग्र विकास |
| + | |
| + | प्रतिमान' नाम से ऐसे प्रतिमान का निरूपण यहाँ किया गया है और जो भी प्रयोग करना चाहता है उसकी सहायता वह |
| + | |
| + | कर सकता है । |
| + | |
| + | पश्चिमी प्रभाव से शिक्षा की मुक्ति का सीधा अर्थ है सरकार के स्थान पर शिक्षकों का शिक्षा पर नियन्त्रण । परन्तु |
| + | |
| + | यह समीकरण अभी तो असम्भव सी लगनेवाली अत्यन्त अव्यावहारिक कल्पना है । एक ओर सरकार से स्थिति चाहे |
| + | |
| + | सम्हले या न सम्हले वह शिक्षा को नियन्त्रण से मुक्त नहीं कर सकती, दूसरी ओर सरकार या प्रजा कितना भी आग्रह करे, |
| + | |
| + | शिक्षक वर्ग शिक्षा का जिम्मेदारीपूर्वक नियन्त्रण करने के लिये इच्छुक नहीं है । यह एक ऐसी पहेली है जो सुलझाना |
| + | |
| + | महाकठिन काम है परन्तु जिसकी ओर खास ध्यान ही नहीं गया है, उल्टे सब कहा करते हैं कि शिक्षा सरकार की |
| + | |
| + | जिम्मेदारी है । एक वर्ग तो ऐसा भी कहने वाला है कि शिक्षा के सर्व अधिकार तो शिक्षकों के पास होने चाहिये परन्तु |
| + | |
| + | कर्तव्य सारे सरकार के पास, विशेष रूप से आर्थिक कर्तव्य । शिक्षा की बात दोनों के लिये गौण है, प्रशासकीय अधिकार |
| + | |
| + | शिक्षकों के और वित्तीय जिम्मेदारी सरकार की ऐसे समीकरण को स्वायत्तता कहा जाता है । सैद्धान्तिक, व्यावहारिक और |
| + | |
| + | पारम्परिक दृष्टि से यह कभी भी सम्भव नहीं होने वाली बात है । इस कठिन पहेली को कैसे सुलझायें इसके भी संकेत |
| + | |
| + | इसमें दिये गये हैं । |
| + | |
| + | समग्रता में यदि शिक्षा का विचार करना है तो पठनपाठन विधि, पाठ्यक्रम, विषयवस्तु आदि बातों का पुनर्विचार |
| + | |
| + | करना होगा । इस कथन से तो लगभग सभी सहमत होंगे । परन्तु अच्छा पढने के लिये दिनचर्या, ्रतुचर्या, जीवनचर्या, |
| + | |
| + | आहार, निद्रा, खेल, व्यायाम, सत्संग, सेवा, संयम, अनुशासन आदि को भी उतना ही महत्त्व देना होगा । विद्यालय में |
| + | |
| + | अध्ययन अध्यापन जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही महत्त्वपूर्ण भवन की रचना, पानी की, कचरे की निकासी की, गणवेश |
| + | |
| + | की, पर्यावरण की रक्षा की व्यवस्थाओं का है । इनका विचार नहीं करना अधूरी शिक्षा की निशानी है । विद्यालय के |
| + | |
| + | Ce ) |
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| + | |
| + | समय, गणवेश, वाहनव्यवस्था, बगीचा, रंगमंच कार्यक्रम आदि के बारे में शास्त्रीय, आर्थिक, सुविधा की और स्वास्थ्य की |
| + | |
| + | दृष्टि से विचार करना ही शैक्षिक दृष्टि है । व्यवहार या व्यवस्था की एक भी बात नहीं है जिसका शैक्षिक दृष्टि से विचार |
| + | |
| + | न किया जा सकता हो । आज कक्षाकक्ष में विषयों की शिक्षा और कक्षाकक्ष के अन्दर और बाहर की व्यवस्थाओं का |
| + | |
| + | सम्बन्ध जोड़ने की आवश्यकता का आग्रह किया गया है । |
| + | |
| + | भारत आज पश्चिमी प्रभाव से ग्रस्त है । पश्चिम अपनी दृष्टि को वैश्विक कह रहा है । उसके प्रभाव में आज हम भी |
| + | |
| + | पश्चिमी दृष्टि को वैश्विक दृष्टि कह रहे हैं । हमारे लिये यह आवश्यक है कि हम इस पश्चिमी दृष्टि को समझें, भारत की दृष्टि |
| + | |
| + | और पश्चिमी दृष्टि में क्या अन्तर है यह भी समझे और सही वैश्विकता किसे कहते हैं इसका विचार करें । यह तो भारत की |
| + | |
| + | वर्तमान शिक्षा की स्थिति समझने का प्रयास है। परन्तु अधिक कठिन तो अगले दो चरण हैं । पहला चरण है |
| + | |
| + | पश्चिमीकरण से मुक्ति का क्या स्वरूप है । पश्चीमी प्रभाव को नष्ट करने का अर्थ क्या होता है इसको समझने के लिये हमें |
| + | |
| + | बहुत पुरुषार्थ करना पडेगा । हम उल्टी दिशा में अर्थात् पश्चिमीकरण की दिशा में इतने दूर निकल गये है कि सही मार्ग पर |
| + | |
| + | का एक एक पडाव, छोटे से छोटा कदम भी हमें अव्यावहारिक लगने लगेगा । उदाहरण के लिये यदि हम कहें कि शिक्षा |
| + | |
| + | की भारतीय संकल्पना के अनुसार शिक्षा निःशुल्क होनी चाहिये तो यह बात सर्वथा अव्यावहारिक लगेगी । यदि हम कहें |
| + | |
| + | कि अंग्रेजी से अध्ययन को मुक्त करना चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा । यदि कहा जाय कि साधनसामग्री की |
| + | |
| + | भरमार कम करनी चाहिये तो वह भी अव्यावहारिक लगेगा और यदि कहें कि शिक्षा को सरकारी नियन्त्रण से मुक्त करना |
| + | |
| + | चाहिये तो वह सर्वथा अव्यावहारिक लगेगा । अर्थात् शिक्षा को पश्चिमीकरण से मुक्त करने का अर्थ समझना और उसे |
| + | |
| + | हृदयस्थ और मस्तिष्कस्थ करना होगा । बाद में उसके क्रियान्वयन की भी बात आयेगी । दूसरा चरण होगा पश्चिमीकरण से |
| + | |
| + | शिक्षा को मुक्त कर उसे भारतीय बनाना । यह भी पर्याप्त अध्ययन की अपेक्षा करेगा । इस प्रकार शिक्षा के भारतीयकरण |
| + | |
| + | का विषय विश्लेषणपूर्वक समझना होगा । |
| + | |
| + | एक बार भारतीय शिक्षा की भारत में प्रतिष्ठा होगी और भारत भारत बनेगा तब फिर भारत की विश्व में क्या भूमिका |
| + | |
| + | है इस विषय का विचार करने का विषय आता है। आज विश्व संकटों से ग्रस्त है उसका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कारण |
| + | |
| + | पश्चिमी जीवनदृष्टि का प्रभाव ही है । पश्चिम की जीवनदृष्टि शेष विश्व के लिये ही नहीं तो उसके अपने लिये भी विनाशक |
| + | |
| + | ही है । विश्व को और पश्चिम को बचाने वाली तो भारतीय जीवनदृष्टि ही है । हमें चार आयामों में विश्वस्थिति और भारत |
| + | |
| + | के बारे में विचार करना होगा । एक, पश्चिम की दृष्टि में पश्चिम, दो, पश्चिम की दृष्टि में भारत, तीन, भारत की दृष्टि में |
| + | |
| + | पश्चिम और भारत की दृष्टि में भारत । ऐसा विश्लेषण पूर्वक आकलन करने के बाद भारत विश्व के हित और सुख के लिये |
| + | |
| + | क्या कर सकता है इसका विचार करने का रास्ता खुलेगा । यहाँ तक पहुँचते पहुँचते तो हमारी श्रद्धा द्रंढ होगी कि वास्तव |
| + | |
| + | में भारत विश्व का कल्याण कर सकता है । |
| + | |
| + | इस प्रकार सभी आयामों में शिक्षा के भारतीय करण का विचार इस ग्रन्थमाला में किया गया है । |
| + | |
| + | 3. |
| + | |
| + | इस ग्रन्थमाला के निर्माण में अधिकाधिक विट्रज्जनों एवं सामान्यजनों को सहभागी बनाने का प्रयास किया गया है । |
| + | |
| + | ग्रन्थों के विभिन्न विषयों पर प्रश्नावलियाँ बनाकर सम्बन्धित समूहों को भेज कर उनसे उत्तर मँगवाकर उनका संकलन किया |
| + | |
| + | गया और निष्कर्ष निकाले गये । इन प्रश्नावलियों के माध्यम से कम से कम पाँच हजार लोगों तक पहुंचना हुआ । इसी |
| + | |
| + | प्रकार से अध्ययन यात्रा का आयोजन किया गया जिसमें देश के विभिन्न महानगरों में जाकर विद्वान प्राध्यापकों से मार्गदर्शन |
| + | |
| + | प्राप्त किया गया | तीसरा माध्यम था विट्रतू गोष्टियों का । प्रत्येक ग्रन्थ के विषय में एक, ऐसी पाँच अखिल भारतीय स्तर |
| + | |
| + | ............. page-9 ............. |
| + | |
| + | at afsat ar strats किया गया जिनमें कुल मिलाकर पाँचसौ से भी अधिक विद्वानों ने भाग लिया । इन विषयों पर |
| + | |
| + | स्थानिक स्वरूप की भी बीस से अधिक गोष्ठियाँ हुई । उनसे पूर्व ग्रन्थमाला निर्माण की पूर्वतैयारी के रूप में तीस के |
| + | |
| + | लगभग पग्रन्थगोष्टियाँ हुई । इस ग्रन्थनिर्माण में अनुवाद, संकलन, सम्पादन, संक्षेपीकरण, जानकारी का पृथक्करण, उसके |
| + | |
| + | आधार पर निष्कर्ष, मुद्रित शोधन, चिकित्सक बुद्धि से पठन, आदि सन्दर्भ कार्यों में अनेकानेक लोग सहभागी हुए । इस |
| + | |
| + | प्रकार इन ग्रन्थों का निर्माण सामूहिक प्रयास का फल है । इसमें सहभागी प्रमुख लोगों की सूची भी इतनी लम्बी है कि |
| + | |
| + | उसे यहाँ नहीं दी जा सकती । उसे परिशिष्ट में दिया गया है । पुनरुत्थान विद्यापीठ उन सभी सहायकों और सहभागियों का |
| + | |
| + | आभारी है । |
| + | |
| + | v. |
| + | |
| + | यह ग्रन्थमाला किसके लिये है इस प्रश्न का सरल उत्तर होगा “सबके लिये । फिर भी कुछ स्पष्टताओं की |
| + | |
| + | आवश्यकता है । |
| + | |
| + | -. यह ग्रन्थमाला भारतीय शिक्षा के प्रश्न को समग्रता में समझना और सुलझाना चाहते हैं उनके लिये है । |
| + | |
| + | -. यह ग्रन्थमाला भारतीय शिक्षा के विषय में अनुसन्धान करना चाहते हैं उनके लिये है । |
| + | |
| + | -. यह ग्रन्थमाला शिक्षा के भारतीय प्रतिमान को लेकर जो प्रयोग करना चाहते हैं उनके लिये चिन्तन प्रस्तुत करती |
| + | |
| + | है । |
| + | |
| + | -. यह verre विश्वविद्यालयों के अध्ययन मण्डलों को भारतीय संकल्पना के अनुसार विभिन्न विषयों के स्वरूप |
| + | |
| + | Tet Sg सूत्र देने का प्रयास करती है । |
| + | |
| + | -. यह ग्रन्थमाला सरकार के शिक्षा विषयक नीति निर्धारकों को एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने का प्रयास करती है । |
| + | |
| + | - देशभर में शिक्षा विषयक प्रयोग कर रहे शैक्षिक, धार्मिक, सामाजिक संगठनों को शिक्षा में आमूल परिवर्तन करने |
| + | |
| + | हेतु, कार्ययोजना की एक रूपरेखा प्रस्तुत करती है । |
| + | |
| + | -. यह ग्रन्थमाला पश्चिमीकरण से भारतीय मानस की मुक्ति हेतु प्रयास करने वाले सबको एक सन्दर्भ प्रस्तुत करने |
| + | |
| + | का प्रयास करती है । |
| + | |
| + | अधिकांश ऐसा समझा जाता है कि शिक्षा का भारतीयकरण शिक्षा विभाग का विषय है । इसलिये इस विषय की |
| + | |
| + | चर्चा विश्वविद्यालयों के शिक्षाविभाग में, बी.एड. या एम.एड. कोलेजों में, शिक्षकों की सभाओं में की जाती है । गोष्टियों |
| + | |
| + | और परिचर्चाओं का आयोजन भी शैक्षिक संगठनों द्वारा अथवा सरकार के शिक्षाविभागों ट्वारा होता है । इसी क्रम में ऐसा |
| + | |
| + | मान लिया जाता है कि शिक्षा विषयक यह ग्रन्थमाला या अन्य पुस्तकें शिक्षा विषय के प्राध्यापकों के लिये हैं । इसका |
| + | |
| + | ही स्वाभाविक अंग यह बनता है कि शिक्षा विषयक कार्यक्रमों में शिक्षा, मनोविज्ञान, अध्ययन, अध्यापन पद्धति, परीक्षा |
| + | |
| + | अथवा मूल्यांकन, विद्यार्थियों का चरित्र, शिक्षक की निष्ठा, जीवनमूल्य आदि की चर्चा होती है । विभिन्न विषयों के |
| + | |
| + | पाठ्यक्रमों की चर्चा नहीं होती क्योंकि उनके विषय में तो उन उन विषयों के शास्त्रों के जानकार विद्वानों की भूमिका होती |
| + | |
| + | है शिक्षाशास्र विषय के अध्यापकों की नहीं । आश्चर्य की बात यह है कि शिक्षाशास्त्र अपने आपको अध्ययन और |
| + | |
| + | अध्यापन तक सीमित रखता है, क्या पढाना है उसके विषय में अपने आपको जिम्मेदार नहीं मानता । अर्थात् शिक्षा |
| + | |
| + | विभाग शिक्षक को अच्छा शिक्षक अर्थात् सिखाने की कला में निपुण बनाने के लिये है, पाठ्यपुस्तकों की सामग्री के |
| + | |
| + | विषय में उसकी भूमिका नहीं है । |
| + | |
| + | (९) |
| + | |
| + | ............. page-10 ............. |
| + | |
| + | शिक्षा के भारतीयकरण हेतु इतनी सीमित भूमिका से काम नहीं चलेगा । उस अर्थ में यह एक वैचारिक विषय है |
| + | |
| + | और देश के सर्वसामान्य बौद्धिक वर्ग के लिये इसकी चिन्ता और चिन्तन करने की आवश्यकता है । पढने वाले छोटे से |
| + | |
| + | विद्यार्थी से लेकर किसी भी विषय का अध्ययन करने वाले अध्यापक अथवा किसी भी क्षेत्र में कार्यरत विद्वानों, समाज |
| + | |
| + | का हित चाहने वाले राजनीति के क्षेत्र के लोगों तथा सन्तों, धर्माचार्यो, आदि सबका यह विषय बनता है । शिक्षा के |
| + | |
| + | पश्चिमीकरण ने अर्थक्षेत्र, राजनीति, शासन, समाज व्यवस्था, कुट्म्ब जीवन, उद्योगतन्त्र आदि सभी क्षेत्रों को प्रभावित किया |
| + | |
| + | है इसलिये भारतीयकरण भी सभी क्षेत्रों के सरोकार का विषय बनेगा । शिक्षा अपने आपमें तो ऐसा कोई विषय नहीं है । |
| + | |
| + | अतः सभी क्षेत्रों में कार्यरत लोगों को अपने अपने क्षेत्र के विचार और व्यवस्था के सम्बन्ध में तथा शिक्षा के सम्बन्ध में |
| + | |
| + | साथ साथ विचार करना होगा । भारतीयकरण का विचार भी समग्रता में ही हो सकता है । |
| + | |
| + | इस ग्रन्थमाला में इसी प्रकार की भूमिका अपनाई गई है । |
| + | |
| + | यह ग्रन्थमला कुछ विस्तृत सी लगती है फिर भी यह प्राथमिक स्वरूप का ही प्रतिपादन है । |
| + | |
| + | इस ग्रन्थमाला का कथन एक ग्रन्थ में भी हो सकता है और कोई चाहे तो आधे ग्रन्थ में भी हो सकता है परन्तु |
| + | |
| + | इतना विस्तार करने पर भी ऐसा लगता है कि बहुत कुछ करना शेष है । ऐसे कई विषय हैं जिन पर अधिक सामग्री |
| + | |
| + | चाहिये । ऐसे कई विषय हैं जिन पर स्वतन्त्र रूप से ग्रन्थों की रचना होने की आवश्यकता है । परन्तु यहाँ एक सीमा है । |
| + | |
| + | सुधी लोग आवश्यकता के अनुसार इस विषय को आगे बढ़ाते ही रहेंगे ऐसा विश्वास है । |
| + | |
| + | इस ग्रन्थमाला के माध्यम से विद्यापीठ ऐसे सभी लोगों का भारतीय शिक्षा के विषय पर ध्रुवीकरण करना चाहता है |
| + | |
| + | जो भारतीय शिक्षा के विषय में चिन्तित हैं, कुछ करना चाहते हैं, अन्यान्य प्रकार से कुछ कर रहे हैं और जिज्ञासु और |
| + | |
| + | प्रयोगशील हैं । इस दृष्टि से भविष्य में इसका भारत की अन्याय भाषाओं में अनुवाद हो यह पुनरुत्थान विद्यापीठ की |
| + | |
| + | आकांक्षा रहेगी । साथ ही अनुवर्ती कार्य के रूप में इस ग्रन्थमाला के आधार पर चर्चासत्रों और अभ्यासवर्गों का आयोजन |
| + | |
| + | हो ऐसी भी अपेक्षा रहेगी । |
| + | |
| + | शिशुअवस्था में घर से प्रास्भ कर विश्वविद्यालय तक और बाद में समाज के व्यापक क्षेत्र में शिक्षा के भारतीयकरण के |
| + | |
| + | प्रभावी प्रयास हो इस दृष्टि से इस ग्रन्थमाला जैसे सैंकडों ग्रन्थों की स्वना करने की आवश्यकता रहेगी । श्रेष्ठ विद्वानों से लेकर |
| + | |
| + | शिशु और बाल अवस्था के विद्यार्थियों तक तथा गृहिणियों , व्यापारियों, राजनयिकों, उद्योजकों, कारीगरों तक यह विषय |
| + | |
| + | पहुँचे इस दृष्टि से विभिन्न प्रकार का विपुल साहित्य निर्माण होने की आवश्यकता है । जनमानस को आप्लावित करनेवाले |
| + | |
| + | साहित्य के निर्माण हेतु यह ग्रन्थमाला एक प्रस्थान बिन्दु बनती है तो हमें अपने प्रयास सार्थक हुए ऐसा लगेगा । |
| + | |
| + | ale ale ale |
| + | |
| + | — 4 mF |
| + | |
| + | इस ग्रन्थों की शैली को हम पुराणशैली कह सकते हैं । पुराणशैली के लिये दूसरा शब्द है व्यासशैली । हर बिन्दु को |
| + | |
| + | उदाहरणों सहित, विश्लेषण सहित, किंचित पुनरावर्तन के साथ स्पष्ट करने को व्यासशैली कहते हैं । इससे दूसरे प्रकार की |
| + | |
| + | होती है समासशैली जो किसी भी बात को संक्षेप में प्रस्तुत करती है । जिन्हें विषय ज्ञात होता है, जो सन्दर्भ जानते हैं, |
| + | |
| + | जो सद्यग्राही होते हैं उनके लिये समासशैली अनुकूल होती है, वे व्यासशैली से कभी कभी चिढते भी हैं परन्तु सर्वसामान्य |
| + | |
| + | पाठक वर्ग के लिये व्यासशैली अनुकूल होती है । भारतीय शिक्षा का विषय ज्ञानात्मक दृष्टि से गम्भीर है, व्यवहार की |
| + | |
| + | दृष्टि से तो और भी गम्भीर और उलझा हुआ है इसलिये उसे सलझाने के लिये व्यासशैली ही चाहिये । कभी कभी तो यह |
| + | |
| + | मनोवैज्ञानिक विश्लेषण जैसा मामला हो जाता है । |
| + | |
| + | ............. page-11 ............. |
| + | |
| + | हम सबका सौभाग्य है कि इस ग्रन्थमाला का लोकार्पण राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ के परम पूजनीय सरसंघवालक |
| + | |
| + | माननीय मोहनजी भागवत के करकमलों से हो रहा है । |
| + | |
| + | पुनश्च सभी परामर्शकों, मार्गदर्शकों, सहभागियों, सहयोगियों के प्रति कृतज्ञता व्यक्त करते हुए यह ग्रन्थमाला पाठकों |
| + | |
| + | के हाथों सौंप रहे हैं । |
| + | |
| + | ग्रन्थ में विषय प्रतिपादन, निरूपण शैली, रचना, भाषाशुद्धि की दृष्टि से दोष रहे ही होंगे । सम्पादकों की मर्यादा |
| + | |
| + | समझकर पाठक इसे क्षमा करें, स्वयं सुधार कर लें और उनकी ओर हमारा ध्यान आकर्षित करें यही निवेदन हैं । |
| + | |
| + | इति शुभम् । |
| + | |
| + | व्यासपूर्णिमा सम्पादकमण्डल |
| + | |
| + | युगाब्दू ५११८ |
| + | |
| + | ९ जुलाई २०२१७ |
| + | |
| + | श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य |
| + | |
| + | वाग्देवी, माँ वीणापाणि, शारदा, विद्यादायिनी आदि नामों से |
| + | |
| + | स्मरण की जानेवाली मा वाणी अर्थात् सरस्वतीजी के भारत में दो |
| + | |
| + | ही प्राचीन देवस्थल माने जाते हैं । पहला आंध्र प्रदेश में जो महर्षि |
| + | |
| + | वेदव्यास द्वारा बनाया गया था । आंध्रप्रदेश के इस बासर स्थित |
| + | |
| + | वैद्किकालीन देवस्थल के बारे में कहा जाता है कि कुरुक्षेत्र युद्ध |
| + | |
| + | से निराश और उदास होकर महर्षि व्यास, उनके पुत्र शुकदेवजी एवं |
| + | |
| + | अन्य अनुयायी दक्षिण की ओर तीर्थयात्रा पर चल पडे और |
| + | |
| + | गोदावरी के तट पर तप के लिए उन्हों ने डेरा डाल दिया । उनके |
| + | |
| + | निवास के कारण वह स्थान व्यासर कहा जाने लगा जो कालांतर |
| + | |
| + | में बासर हो गया । क्षि व्यास नित्यप्रति जब स्नान करके आते |
| + | |
| + | तो गोदावरी की तीन मुट्ठी बालू लाते थे और तीन ढेर बना देते |
| + | |
| + | थे । बालू मे हल्दी का भी घोल मिलाया गया और फिर धीरे धीरे |
| + | |
| + | ये ढेर आकार लेते गये और इन्होंने तीन देवियों लक्ष्मी शारदा एवं |
| + | |
| + | गौरी का रूप ले लिया | |
| + | |
| + | ............. page-12 ............. |
| + | |
| + | मुखपृष्ठ परिचय |
| + | |
| + | यह सरस्वती यन्त्र है । मुखपृष्ठ पर चित्रित आकृति इसी सरस्वती यन्त्र का कलात्मक स्वरूप में किया हुआ प्रकटीकरण |
| + | |
| + | है । महाराष्ट्र प्रान्त में यह रंगोली के रूप में सरस्वती कही जाती है । |
| + | |
| + | माँ सरस्वती के भक्त उसकी उपासना सगुण और निर्गुण इन दोनों स्वरूपों में करते हैं । तब देवी इस सरस्वती यन्त्र के |
| + | |
| + | माध्यम से विविध पहलुओं द्वारा साकार होती है और शीघ्रतासे भक्तों की कामनाएँ पूरी करती है ऐसी श्रद्धा है । |
| + | |
| + | यंत्र का विश्लेषण |
| + | |
| + | श्, |
| + | |
| + | वलयांकित रेखाएँ : इस यन्त्र में दिखाई देनेवाली वलयांकित रेखाएँ वीणावादन |
| + | |
| + | करती हुई सरस्वती का कृतिरूप सूचित करती है । आकृति के १, २, रे, ४ ये अंक |
| + | |
| + | देवी के निर्गुण स्तर के चार वेद हैं । ५, ६, ७ ये तीन अंक भगवती की इच्छाशक्ति |
| + | |
| + | क्रियाशक्ति एवं ज्ञानशक्ति के द्योतक हैं । ८, ९ ये दो अंक उसके Ga EN Ft |
| + | |
| + | पहचान करवाते हैं । १० यह अंक कार्य के अंतिम स्वरूप अट्रैत का चिन्ह है । |
| + | |
| + | अ अक्षर शक्ति का उत्सर्जन और ग्रहण ब अक्षर कार्यशक्ति का प्रवाह तथा |
| + | |
| + | क अक्षर मंडलाकार इच्छाशक्ति की तरंगों का प्रतिनिधित्व करते हैं । |
| + | |
| + | आकृति में जो अंक है वह ज्ञानशक्ति के हाथों में जो वेद और जपमाला है उनका प्रतीक है । |
| + | |
| + | यन्त्र में जो वृत्ताकार आकृति है वह भगवती के इच्छाशक्तिरूप मयूर वाहन का प्रतीक है । इस प्रकार यह यन्त्र सरस्वती |
| + | |
| + | के सगुण स्वरूप का प्रत्यक्ष रूप है । यह यन्त्र प्रतिमास अधिक सूक्ष्म स्तर पर कार्य करता है । |
| + | |
| + | इस यन्त्र में ४, ३े, २, १ इस क्रम से ज्यादा से कम की ओर अंकों की रचना की गयी है । वहाँ |
| + | |
| + | १, २, रे, ४ इन अंकों से दर्शाया स्तर चारों वेदों की निर्गुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है । |
| + | |
| + | ५, ६, ७ अंकों का दूसरा स्तर इच्छा, क्रिया एवं ज्ञानशक्ति रूप में सगुण शक्ति का प्रतिनिधित्व करता है ।, |
| + | |
| + | ८, ९ इन दो अंकों का स्तर od स्वरूप का कार्य है । |
| + | |
| + | १० इस अंक का चौथा स्तर का अर्थ है कार्य पूर्ण होने पर अट्वैत स्वरूप में पुनः विलीन होना । |
| + | |
| + | इस प्रकार इस यन्त्र में शक्ति का प्रवाह ऊपर से अर्थात् निर्गुण स्तर से गतिमान होकर एक ही दिशा में कार्य करते अद्रैत |
| + | |
| + | शक्ति की प्राप्ति में सहायक होता है । |
| + | |
| + | यन्त्र के ऊपर की पंक्ति में जो देवनागरी लिपि में एक (१) अंक लिखा दिखाई देता है वह आवश्यकतानुसार वैश्विक स्तर |
| + | |
| + | पर शक्ति के ग्रहण और उत्सर्जन का परिचायक है । |
| + | |
| + | यन्त्र में स्थित ज्ञानशक्ति, क्रियाशक्ति एवं इच्छाशक्ति का परस्पर संबंध - इस अंक यन्त्र द्वारा श्री सरस्वती देवी का |
| + | |
| + | त्रिस्तरीय कार्य का यथार्थ बोध होता है । |
| + | |
| + | इस अंक यन्त्र में ज्ञानशक्ति सांख्यब्रह्म है । बीच के स्तर में वलयांकित रेखाओं से जुड़े हुए अंक क्रियाशक्ति के हलचल |
| + | |
| + | की दिशा स्पष्ट करते हैं । चक्राकार एवं वलयांकित रेखाएँ शक्ति के केंद्रीकरण की सूचक हैं, जो समग्रता का संकेत होकर |
| + | |
| + | प्रत्यक्ष इच्छाशक्ति से संबंधित हैं । |
| + | |
| + | अंजलि गाडगील, अंतर्जाल पर उपलब्ध |
| + | |
| + | ............. page-13 ............. |
| + | |
| + | अनुक्रमणिका |
| + | |
| + | ०... मंगलाचरण |
| + | |
| + | ०... अर्पण पत्रिका |
| + | |
| + | © सम्पादकीय |
| + | |
| + | & |
| + | |
| + | e = श्री ज्ञानसरस्वती मंदिर क्षेत्र बासर का क्षेत्रमहात्म्य 28 |
| + | |
| + | ° मुखपृष्ठ परिचय |
| + | |
| + | खण्ड १ : तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | प्रस्तावना 3 |
| + | |
| + | समग्रता का अर्थ |
| + | |
| + | सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है, अंगांगी सम्बन्ध, समग्रता की |
| + | |
| + | आवश्यकता, सृष्टि का समग्र स्वरूप, चिज्जडग्रन्थि, मनुष्य का |
| + | |
| + | दायित्व, अनुप्रश्न |
| + | |
| + | विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83 |
| + | |
| + | विकास से तात्पर्य, विकास और विज्ञान, विकास का आर्थिक |
| + | |
| + | पक्ष, विकास का धार्मिक पक्ष, धर्म विषयक स्पष्टताएँ, विकास |
| + | |
| + | और स्पर्धा, विकास और यास्त्रकीकरण |
| + | |
| + | 'विकास की भारतीय संकल्पना एवं स्वरूप ३१ |
| + | |
| + | समन्वित विकास |
| + | |
| + | व्यक्तित्व मीमांसा WS |
| + | |
| + | व्यक्तित्व की अवधारणा, अन्नरसमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, |
| + | |
| + | प्राण, अपान, व्यान, उदान, समान, धनंजय, देवदत्त, नाग, |
| + | |
| + | कृकल, कूर्म, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय |
| + | |
| + | आत्मा, आनन्दमय आत्मा बुद्धि से परे है |
| + | |
| + | पंचात्मा विवरण पद |
| + | |
| + | अन्नमय आत्मा, प्राणमय आत्मा, मनोमय आत्मा, मन को ठीक |
| + | |
| + | करने के उपाय, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा |
| + | |
| + | व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व ७० |
| + | |
| + | आहार, भाषा, दिनचर्या, श्रम, काम और परिश्रम, सेवा आर |
| + | |
| + | परिचर्या, जानकारी और शाख्त्ज्ञान, अन्नमय आत्मा, प्राणमय |
| + | |
| + | आत्मा, मनोमय आत्मा, विज्ञानमय आत्मा, आनन्दमय आत्मा |
| + | |
| + | अध्यास और बोध ८१ |
| + | |
| + | देहाध्यास, प्राणाध्यास, मनो5ध्यास, बुट्ध्यध्यास, आनन्दाध्यास, |
| + | |
| + | बोध |
| + | |
| + | TRAST sik cape og |
| + | |
| + | मनुष्य और सृष्टि, १. प्रेम, २. कृतज्ञता, रे. दोहन, ४. रक्षण, |
| + | |
| + | मनुष्य और समष्टि, व्यक्ति और कुटुम्ब, व्यक्ति और समुदाय, |
| + | |
| + | आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु पुरुषार्थ, समुदाय को ज्ञानवान बनाने |
| + | |
| + | 20, |
| + | |
| + | 88. |
| + | |
| + | 82. |
| + | |
| + | 83. |
| + | |
| + | ge. |
| + | |
| + | Ru. |
| + | |
| + | श्र |
| + | |
| + | हेतु शिक्षा की व्यवस्था, व्यवस्था बनाये रखने हेतु न्याय, दण्ड, |
| + | |
| + | शासन और प्रशासन की व्यवस्था, व्यक्ति और राष्ट्र, व्यक्ति और |
| + | |
| + | faa, wat |
| + | |
| + | खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, |
| + | |
| + | पर्व १ : समग्र विकास हेतु शिक्षायोजना |
| + | |
| + | प्रस्तावना श्ण्प् |
| + | |
| + | शिक्षा के उद्देश्य, सम्पूर्ण चराचर सृष्टि में सामंजस्य, सम्पूर्ण विश्व |
| + | |
| + | संकटमुक्त हो |
| + | |
| + | उद्देश्य के अनुरूप शिक्षायोजना oR |
| + | |
| + | शिशु शिक्षा से उच्च शिक्षा का एक साथ विचार होगर्भावसथा से |
| + | |
| + | युवावस्था तक की, शिक्षा का आन्तर्सम्बन्ध |
| + | |
| + | युवावस्था से गर्भावस्था की शिक्षा श्श्२ |
| + | |
| + | पाठ्यक्रमों की रचना करना, लोकज्ञान को परिष्कृत करना, |
| + | |
| + | ज्ञानरक्षा का दायित्व, सम्पूर्ण शिक्षाव्यवस्था का केन्द्र विद्यापीठ, |
| + | |
| + | किशोर अवस्था की शिक्षा, बाल अवस्था की शिक्षा, शिशु |
| + | |
| + | अवस्था की शिक्षा, गर्भावस्था की शिक्षा |
| + | |
| + | शिक्षायोजना : अनुप्रश्न RRC |
| + | |
| + | पुररचना का प्रारम्भ कहाँ से करना, विपरीत परिस्थिति में निराश |
| + | |
| + | न होना, विद्यालय व घर दोनों शिक्षा केन्द्र हैं, बालिका शिक्षा की |
| + | |
| + | अवधि क्या हो ?, अध्ययन-अनुसंधान आवश्यक, समाज |
| + | |
| + | संस्कृति का मूर्त स्वरूप है, समाज के बिगड़े सन्तुलन को ठीक |
| + | |
| + | करना है, हमारी रोच व्यापक हो |
| + | |
| + | गृहस्थाश्रम और शिक्षा 23% |
| + | |
| + | समावर्तन उपदेश, जीवन का अधिष्ठान सत्य और धर्म, गृहस्थ के |
| + | |
| + | कार्य अथर्जिन एवं सन्तानोत्पत्ति, अध्ययन प्रयोग से परिपक्क होता |
| + | |
| + | है, व्यवहार जीवन के अवरोध, संस्कार देने के कौशल, अपने |
| + | |
| + | व्यवसाय में नये-नये प्रयोग करना, गृहस्थ मार्गदर्शक बने |
| + | |
| + | प्रौढ़ावस्था की शिक्षा 2¥o |
| + | |
| + | प्रस्तावना, जीवन की प्रत्येक अवस्था में शिक्षा का विचार, पुनः |
| + | |
| + | विद्याध्ययन की आयु, पुत्रात् शिष्यात् इच्छेतू पराजयम्, |
| + | |
| + | ............. page-14 ............. |
| + | |
| + | 8a. |
| + | |
| + | go. |
| + | |
| + | Re. |
| + | |
| + | 88. |
| + | |
| + | २०, |
| + | |
| + | २१. |
| + | |
| + | 22. |
| + | |
| + | १, निवृत्ति, २. वानप्रस्थ में करणीय अकरणीय का विवेक, |
| + | |
| + | ३. ज्ञानसाधना एवं उपासना, ४. निरपेक्ष रूप से समाजसेवा |
| + | |
| + | वृद्धावस्था की शिक्षा wee |
| + | |
| + | वृद्धावस्था को रमणीय बनाना, वानप्रस्थिओं के दायित्व, |
| + | |
| + | युवावस्था का असंयम : वृद्धावस्था के रोग, विरक्ति का क्या |
| + | |
| + | अर्थ है ?, अनुप्रश्न |
| + | |
| + | खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, |
| + | |
| + | पर्व २ : गर्भावस्था एवं शिशुअवस्था की शिक्षा |
| + | |
| + | प्रस्तावना Sut, |
| + | |
| + | भारत परम्परा का देश, लेना कम देना अधिक, क्रण से उक्रण |
| + | |
| + | होना, हमारी संस्कृति चिरंजीवी है |
| + | |
| + | गर्भावस्था की शिक्षा gui9 |
| + | |
| + | पूर्व तैयारी, गर्भावस्था, प्रसूति और जन्म, जन्म के बाद |
| + | |
| + | सन्तान मातापिता का चयन करती है श्घ्२ |
| + | |
| + | जन्मजन्मांतर और पुनर्जन्म, कर्मफल और पुनर्जन्म, मृत्यु के बाद |
| + | |
| + | दूसरा जन्म कैसे होता है, जन्म, पुनर्जन्म और कर्म का संबंध, |
| + | |
| + | सूक्ष्म शरीर अपने योग्य स्थूल शरीर ढूँढता है, मातापिता के हाथ |
| + | |
| + | में क्या है |
| + | |
| + | भारत में शिशुशिक्षा श्द9 |
| + | |
| + | १, शिक्षा की प्राचीन परम्परा, २. शिशुशिक्षा की व्यवस्था, |
| + | |
| + | ३. पाश्चात्य देशों में शिशुशिक्षा की व्यवस्था, ४. वर्तमान भारत |
| + | |
| + | में शिशुशिक्षा की स्थिति, ५. भारतीय वातावरण में शिशुशिक्षा |
| + | |
| + | का स्वरूप, शिशु शिक्षा का पाठ्यक्रम, आत्मतत्त्व की अनुभूति |
| + | |
| + | हो, शिशुशिक्षा का विचार, शिशुशिक्षा का स्वरूप बदलना |
| + | |
| + | शिशु की कुछ स्वाभाविक विशेषतायें ox |
| + | |
| + | (१) विकास की इच्छा, (२) अन्तःप्रेरणा, (३) अनुकरण, |
| + | |
| + | (४) संस्कार, (५) जिज्ञासा, (६) पुनरावर्तन, (७) आनन्द, |
| + | |
| + | (८) निरुद्देश्य या निष्काम, (९) सक्रियता, (१०) सीखने के |
| + | |
| + | साधनों की क्रमिक सक्रियता |
| + | |
| + | शिशुशिक्षा पाठ्यक्रम एवं क्रियाकलाप Rok |
| + | |
| + | उद्देश्य, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव, २. संस्कार एवं |
| + | |
| + | चरित्रनिर्माण, 3. क्षमताओं का विकास, समग्र विकास के |
| + | |
| + | आयामों के उल्लेखनीय बिन्दु, १. जीवन का घनिष्ठतम अनुभव, |
| + | |
| + | १. पंचमहाभूतों से परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध, २. इस सृष्टि के |
| + | |
| + | साथ सम्बन्ध, रे. कला का आस्वाद, ४. वृक्ष, वनस्पति, कीट, |
| + | |
| + | पतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि के साथ परिचय एवं सम्बन्ध ।, |
| + | |
| + | ५. मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, २. संस्कार एवं चरित्र |
| + | |
| + | निर्माण, १. पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, २. संस्कृति |
| + | |
| + | परिचय एवं उससे प्रेरणा, ३. सद्गुण एवं सदाचार, ४. देशभक्ति, |
| + | |
| + | 22. |
| + | |
| + | Qe. |
| + | |
| + | Qu. |
| + | |
| + | रे. क्षमताओं का विकास, उद्देश्य की पूर्ति, वातावरण, |
| + | |
| + | क्रियाकलाप, उद्देश्य एवं क्रियाकलाप का. समन्वय, |
| + | |
| + | १, पंचमहाभूतों से सम्बन्ध एवं परिचय, २. पदार्थों के गुणधर्मों |
| + | |
| + | का परिचय, ३. संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य, साहित्य का |
| + | |
| + | रसास्वाद, ४. सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय सम्बन्ध, |
| + | |
| + | ५. मानवसृष्टि का परिचय, १. दैनन्दिन जीवन व्यवहार, २. मानव |
| + | |
| + | स्वभाव एवं सम्बन्ध, शारीरिक क्षमताओं का विकास, १. हाथ, |
| + | |
| + | २. पैर, ३. वाणी, ४. एकाग्रता, ५. सन्तुलन, ६. भावना, |
| + | |
| + | ७. स्मृति, तर्क, अनुमान आदि, ८. भाषा, ९. सृजनशीलता, |
| + | |
| + | १०, सौन्दर्यबोध, १, विज्ञान प्रयोसशाला, २. चित्र पुस्तकालय, |
| + | |
| + | 3. वस्तु संग्रहालय, शिशुवाटिका के क्रियाकलाप जीवन का |
| + | |
| + | घनिष्ठतम अनुभव, मिट्टी, पानी, वायु, सूर्यप्रकाश, आकाश, |
| + | |
| + | पदार्थों के गुणधर्मों का परिचय, संगीत, चित्र, शिल्प, स्थापत्य, |
| + | |
| + | साहित्य आदि ललिल कलाओं का रसास्वादन, वृक्षवनस्पति, |
| + | |
| + | कीटपतंग, पशुपक्षी आदि सजीव सृष्टि का परिचय एवं आत्मीय |
| + | |
| + | सम्बन्ध, मानवसृष्टि का परिचय एवं अनुभव, संस्कार एवं चरित्र |
| + | |
| + | निर्माण, पूर्वजों की पहचान एवं उनसे प्रेरणा, संस्कृति परिचय एवं |
| + | |
| + | उससे प्रेरणा, सद्गुण एवं सदाचार, देशभक्ति, क्षमताओं का |
| + | |
| + | विकास, दौड़ना, Hel, SAT लगाना, चढ़ना-उतरना, |
| + | |
| + | सन्तुलन, पकड़ना, फैंकना, खींचना, धकेलना, दबाना, झेलना, |
| + | |
| + | उठाना, बोलना, मानसिक क्षमताएं, एकाग्रता, मानसिक |
| + | |
| + | सन्तुलन, भावना, बौद्धिक क्षमताएँ, स्मृति, धारणा, प्रेम, सौंदर्य, |
| + | |
| + | आनंद, सृजनशीलता |
| + | |
| + | शिशु के लिये समय निकालकर इतना करें १८६ |
| + | |
| + | खण्ड २ व्यवहारचिन्तन, |
| + | |
| + | पर्व ३ : बाल एवं किशोर अवस्था की शिक्षा |
| + | |
| + | 'प्रस्तावना 883 |
| + | |
| + | बालशिक्षा के प्रमुख आयाम 883 |
| + | |
| + | १, जल्दी नहीं करना, २. बस्ते का महासंकट, रे. क्रिया आधारित |
| + | |
| + | शिक्षा, ४. अनुभव आधारित शिक्षा, ५. भाव आधारित शिक्षा, |
| + | |
| + | ६. सद्गुण और सदाचार की शिक्षा, ७. कोई भी काम भाव से |
| + | |
| + | aa, बाल. अवस्था. की... क्रमिकता समझना, |
| + | |
| + | ९. बालशिक्षा की पाठन पद्धति के प्रमुख आयाम, |
| + | |
| + | १. कंठस्थीकरण, २. अभ्यास, रे. कौशलों का विकास, |
| + | |
| + | ४, स्वतंत्रता, कल्पनाशीलता, सृजनशीलता, १०. बालशिक्षा में |
| + | |
| + | नित्य नियमित क्या क्या होना चाहिये, १. खेल, २. उद्योग, |
| + | |
| + | रे. पुस्तकालय, ४. कथा-कथन, ११. बालकों को किससे बचाना |
| + | |
| + | चाहिये, १. टीवी, २. बस्ते का बोझ, ३. बहुत ज्यादा लिखना |
| + | |
| + | पढ़ना, ४. स्पर्धा, ५. परीक्षा, १२. बालशिक्षा की पाठ्यविषयवस्तु |
| + | |
| + | ............. page-15 ............. |
| + | |
| + | २६. |
| + | |
| + | के सन्दर्भ, १. व्यक्तित्व विकास, शारीरिक विकास, प्राणिक |
| + | |
| + | विकास, मानसिक विकास, बुद्धि विकास, चैतसिक विकास, |
| + | |
| + | २. परमेष्टीगत विकास, परिवारगत विकास, समाजगत विकास, |
| + | |
| + | देशगत विकास, विश्वगत विकास, सृष्टिगत विकास, परमेष्टीगत |
| + | |
| + | विकास, १३. विद्यालय और घर, समापन, अनुप्रश्न |
| + | |
| + | समग्र विकास पाठ्यक्रम : प्रारम्भ के दो वर्ष 208 |
| + | |
| + | आचार्य अभिभावक निर्देशिका, संदर्भ, पाठ्यक्रम, १. श्वसन, |
| + | |
| + | २. शुद्धिक्रिया, ३. आचार (पूजा), ४. जप करना, ५. कीर्तन |
| + | |
| + | करना, ६. सेवा, ७. मंत्रपाठ, ८. स्तोत्र या स्तुति, ९. आसन, |
| + | |
| + | Qo, UMM एवं सदाचार, ११. ध्यान, १२, & Ai, |
| + | |
| + | १, श्वसन, २. शुद्धिक्रिया :, ३. आचार, ध्यान में रखने योग्य |
| + | |
| + | बातें, २. फूल चढ़ाना, ३े. चंदन घिसना, ४. यज्ञ में आहूति देना, |
| + | |
| + | ५. नैवेद्य चढ़ाना, ६. कीर्तन करना, रेखा खींचना (कौशल) , |
| + | |
| + | काटना (कौशल), तह करना (कौशल), चिपकाना (कौशल) , |
| + | |
| + | ईंट तैयार करना, क्रियाकलाप, पिरोना, सिलाई करना, कढ़ाई |
| + | |
| + | करना, गूँथना (कौशल), बिनौला छिलना, कपास निकालना, |
| + | |
| + | रूई धुनना, बुनाई करना, चित्र, छीलना, मसलना, बीनना, |
| + | |
| + | गूँधना, चुनना, चूरना, बुनना, मथना, हिलाना, निचोड़ना, |
| + | |
| + | थापना, घीसना, कूटना, रगड़ना (कौशल), कृषि, प्रत्यक्ष |
| + | |
| + | सिखाते समय, काटना, तह करना, चिपकाना, इँटें पकाना, |
| + | |
| + | पिरोना, कढ़ाई करना, गूँथना, कपास के बिनौले छीलना, बीज |
| + | |
| + | निकालना, रूई धुनना, बत्ती बनाना, चित्र बनाना एवं रंग भरना, |
| + | |
| + | रसोई के कार्य, कृषि, उद्देश्य, संदर्भ, भाषा सीखना क्या है, |
| + | |
| + | ३. पाठ्यक्रम, विवरण, १. भाषण, २. वाचन, हे. लेखन, |
| + | |
| + | ४. शब्द रचना एवं शब्द संयोजन, उद्देश्य, संदर्भ, पाठ्यक्रम, |
| + | |
| + | क्रियाकलाप, छात्रों को किस प्रकार संगीत सुनाया जाए।, |
| + | |
| + | १. गायन, २. स्वर साधना, ३. अलंकारों का अभ्यास, ४. मंत्र, |
| + | |
| + | सूत्र एवं श्लोकपाठ, ५. ताली बजाना, ६. सामान्य ताल एवं |
| + | |
| + | बोल, ७. विविध एवं चित्रविचित्र उच्चारणों के साथ स्वर एवं |
| + | |
| + | ताल का अभ्यास।, ८. वाद्यों का वादन, ९. घोषवादन, |
| + | |
| + | १०, नर्तन अथवा नृत्य, ११, शास्त्रीय नृत्य, १२. योगचाप |
| + | |
| + | (लेजिम) एवं मितकाल, १३. संगीत समारोह, प्रस्तावना, |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, विवरण, १. पूर्वजों का परिचय, २. अपने देशका |
| + | |
| + | परिचय प्राप्त करना, हे. पर्यावरण की सुरक्षा करना, ४. प्रकृति |
| + | |
| + | का परिचय प्राप्त करना, ५. सामाजिक उत्सवों एवं पर्वों के बारे |
| + | |
| + | में जानना, ७. दान एवं सेवा के लिए तत्पर रहना, ८. परिवार की |
| + | |
| + | सेवा, क्रियाकलाप, कार्यक्रम एवं Weed, १. क्रियाकलाप, |
| + | |
| + | २. कार्यक्रम, रे. प्रकल्प, ४. व्यवस्थाएँ, उद्देश्य, संदर्भ, |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, विवरण, १. पदार्थ विज्ञान, २. भूगोल, ३. खगोल, |
| + | |
| + | ४. रसायन शास्त्र, ५. वनस्पति विज्ञान, ६. प्राणी विज्ञान, उद्देश्य, |
| + | |
| + | श७. |
| + | |
| + | २८. |
| + | |
| + | 8. |
| + | |
| + | ७. वैज्ञानिकों का परिचय, ८. विज्ञान कथाएँ, संदर्भ, पाठ्यक्रम, |
| + | |
| + | विस्तार, १. याद करना, २. गणना करना (गिनती करना) , |
| + | |
| + | रे. संकल्पना समझना, उद्देश्य, पाठ्यक्रम, ३. शरीर का संतुलन |
| + | |
| + | व संचालनन, ४. शरीर परिचय, ५. आहार विहार, विहार, |
| + | |
| + | विवरण, १. शरीरकी भिन्न भिन्न स्थितियाँ, २. खड़े रहना, |
| + | |
| + | ३. चलना, ४. उठना, ४. सोना, २ (क) ज्ञानिन्द्रियाँ, १. आँख, |
| + | |
| + | २. कान, ३. नाक, ४. जिद्दा, ५. त्वचा, २ (ख) कर्मेन्ट्रियाँ, |
| + | |
| + | हाथ, १, फैंकना, ३. शारीरिक संतुलन व संचालन, ४. शरीर |
| + | |
| + | परिचय, ५. आहार-विहार, १. आहार, २. दिनचर्या, ३. कपड़े |
| + | |
| + | व जूते, ४. शुद्धिक्रिया, निर्देशिका अनुप्रश्न |
| + | |
| + | किशोर अवस्था की शिक्षा Ek |
| + | |
| + | खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, |
| + | |
| + | पर्व ४ : पाठ्यक्रमों की रूपरेखा एवं पठन सामग्री |
| + | |
| + | प्रस्तावना Ro |
| + | |
| + | १, अध्यात्मशास्त्र २६९ |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, विभाग १ : बुद्धि का क्षेत्र, विश्वविद्यालयीन स्तर पर, |
| + | |
| + | किशोर अवस्था अर्थात् माध्यमिक विद्यालयीन स्तर, बाल |
| + | |
| + | अवस्था में पठनीय बातें, शिशु अवस्था में, गर्भावस्था में, विभाग |
| + | |
| + | २ अनुभूति का क्षेत्र |
| + | |
| + | पठनसामग्री, १. सबमें भगवान, २. बीज और पेड़ की कविता, |
| + | |
| + | पक्षी कहता है..., मछली कहती है... गुरुजी कहते हैं... रे. |
| + | |
| + | स्वतंत्रता, गुरुजी कहते हैं... गुरुजी कहते हैं..., गुरुजी कहते |
| + | |
| + | हैं..., चक्र को समझें और चक्र को बनायें रखें, ४. पूरी दुनिया |
| + | |
| + | गोल, दूध है सर्वोत्तम, आखिर हैं सोने के गहने, ५. दिखता भिन्न |
| + | |
| + | होता एक, सबमें पानी निर्मल, आखिर तो है जगन्माता, कपास |
| + | |
| + | की महिमा, मैं ही तो हूँ, मैं अर्थात् मैं, अकेले अच्छा नहीं |
| + | |
| + | लगता, ६. मैं... अनन्त, मेरी तपस्या, चिति, चिति और मैं, |
| + | |
| + | fafa और प्रकृति, महत्, चिति, प्रकृति और महत्, अहंकार, |
| + | |
| + | चिति और अहंकार, मैं और अहंकार, मन, मनके तूफान, |
| + | |
| + | पंचमहाभूत, पंचमहाभूत, चिति और मैं, आप और मैं, |
| + | |
| + | किशोरावस्था, भगवान ही सबकुछ, तीन गुण, ७. अष्टधा |
| + | |
| + | प्रकृति, मन, बुद्धि, अहंकार, बालअवस्था, भगवान कौन है, |
| + | |
| + | जादू का चश्मा, ८. जहाँ देखो वहाँ 3, छोटा बडा सब 3३%, |
| + | |
| + | अच्छा बुरा सब 3, सब कुछ 3», सभी देव एक, काम करते |
| + | |
| + | समय क्या होता है, हमारा काम क्या है, काम करते समय क्या |
| + | |
| + | विचार करना, ९. गीता, काम क्यों नहीं करना, काम करते |
| + | |
| + | समय क्या ध्यान में रखना, अपना काम करना ही है, काम नहीं |
| + | |
| + | करने के बहाने मत बनाओ |
| + | |
| + | ............. page-16 ............. |
| + | |
| + | 30, |
| + | |
| + | 38. |
| + | |
| + | aR. |
| + | |
| + | EED |
| + | |
| + | 3%. |
| + | |
| + | Rh. |
| + | |
| + | Re. |
| + | |
| + | 30. |
| + | |
| + | 3¢. |
| + | |
| + | २. धर्मशास्त्र २९० |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, अध्ययन और अनुसंधान हेतु विद्वत क्षेत्र, |
| + | |
| + | महाविद्यालयीन शिक्षा, किशोरवयीन शिक्षा, बालवयीन शिक्षा, |
| + | |
| + | शिशु अवस्था, गर्भावस्था में शिक्षा, १. टी.वी. की पराजय, यज्ञ |
| + | |
| + | का अर्थ क्या है ?, अलग अलग यज्ञ, २. यज्ञ, ३. बात तो खरी |
| + | |
| + | है, ४. असली क्या नकली क्या, ५. सिर दियाँ रूख बचे तो भी |
| + | |
| + | सस्तो जाण !, ६. धर्मदृष्टि, ७. प्रदक्षिणा, ८. धर्मशास्त्र स्मृतियाँ |
| + | |
| + | एवं पुराण, ९. हिन्दूधर्म की आन्तरिक शक्ति, पाठ्यक्रम |
| + | |
| + | ३. समाजशास्त्र 308 |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर, किशोरावस्था अर्थात |
| + | |
| + | माध्यमिक शिक्षा हेतु, बाल अवस्था अर्थात प्राथमिक स्तर हेतु, |
| + | |
| + | शिशु अवस्था के लिये, गर्भावस्था के लिये, १, पादत्राण की |
| + | |
| + | खोज, २. पैरों चलने की महिमा, ३. करोड़पति साइकिलवाला, |
| + | |
| + | सामाजिक अभियान का मूल-कॉपेनहेगन १९९७, समाज में |
| + | |
| + | परिवर्तन, उपदेश-सलाह-कृति, सामाजिक कीमत, ४. अंग्रेजों ने |
| + | |
| + | लिखा भारत का विकृत इतिहास, ५. विचारणीय एवं करणीय |
| + | |
| + | कुछ बातें |
| + | |
| + | ४. शिक्षाशास्त्र ३१० |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम |
| + | |
| + | ५. गृहशास्त् ३१२ |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, सन्दर्भ, पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर, विद्यालयीन |
| + | |
| + | स्तर अर्थात किशोरवयीन छात्रों हेतु, बाल अवस्था हेतु, शिशु |
| + | |
| + | अवस्था हेतु, गर्भावस्था हेतु |
| + | |
| + | ६. वरवधूचयन और विवाहसंस्कार Bey |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, विवाहविषयक पाश्चात्य एवं भारतीय दृष्टिकोण, |
| + | |
| + | पाश्चात्य दृष्टिकोण, भारतीय दृष्टिकोण, गृहस्थाश्रम : पति पत्नी |
| + | |
| + | का सम्बन्ध |
| + | |
| + | ७. अधिजननशास्त्र ३१५ |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, १. लवकुश की लोरी, २. माता मदालसा की छोरी, |
| + | |
| + | रे. शुद्ध भोजन, पाठ्यक्रम |
| + | |
| + | ८. परिवारशिक्षा : शिशु शिक्षा की दृष्टि से ३१९ |
| + | |
| + | १, चलो आज हम नियम बनाएँ, २. भारतमाता तुझे प्रणाम |
| + | |
| + | ९. राजशास्त्र 323 |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, विशेष |
| + | |
| + | १०, अर्थशास्त्र aw |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, महाविद्यालयीन स्तर तथा विद्वतक्षेत्र, अनुसंधान हेतु |
| + | |
| + | विषयों की सूची, महाविद्यालयीन स्तर पर पाठ्यक्रम, १. |
| + | |
| + | तत्त्वचिंतन, २. व्यापक आकलन, ३. व्यवहार चिन्तन, ४. |
| + | |
| + | प्रायोगिक कार्य, विद्यालयीन शिक्षा, खरीदी करने का कौशल, |
| + | |
| + | दृष्टिकोण विकसित करना, प्राथमिक विद्यालय में पाठ्यक्रम, |
| + | |
| + | आदतें बनाने हेतु नियामवली, मातापिता की शिक्षा के आयाम, |
| + | |
| + | १, कुशल हाथ, हाथ, कुशल कारीगर, शरीर की स्वच्छता, घर |
| + | |
| + | के काम, सबके लिये उपयोगी, कुशल हाथ, Get, Wa sk |
| + | |
| + | यंत्र, वाहन चलाना, कारीगरी के काम, वाद्यवादन, सेवा शुश्रूषा, |
| + | |
| + | संकटों से रक्षा, भावनाओं का आविष्कार, २. यह कैसी गणना, |
| + | |
| + | ३. साध्य साधन विवेक, ४. प्रचंड गार्बज का देश, अमेरिका, ५. |
| + | |
| + | विकसित देश, पाठ्यक्रम, १. गोविषयक संस्कार, २. जन्म से ३ |
| + | |
| + | वर्ष तक, रे. रे से ५ वर्ष, ४. आयु ६ एवं ७ वर्ष |
| + | |
| + | ३९. ११. गोविज्ञान ३३८ |
| + | |
| + | आयु ८ से १० वर्ष, आयु ११ से १३ वर्ष, आयु १४ से १७ वर्ष, |
| + | |
| + | महाविद्यालयीन शिक्षा, अध्ययन के विषयनवकृति, अनुसन्धान, |
| + | |
| + | १, हम है भारतीय गायें, २. देशी और विदेशी गाय का अन्तर, |
| + | |
| + | अद्भुत गाय, गाय की Asya A, 3. अद्भुत गाय |
| + | |
| + | ४०... ११. विज्ञान डेप |
| + | |
| + | पाठ्यक्रम, ब्रह्माण्ड, पंचकोश, पंचमहाभूत, १. पंचतत्त्व, |
| + | |
| + | पंचकर्मेन्ट्रिय, पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, पंचउपप्राण, पंच तन््मात्रा, |
| + | |
| + | किशोरअवस्था, २. ६४ कलाएँ, रे. सर्वे भवन्तु सुखिनः और |
| + | |
| + | यंत्र का उपयोग, दे. अध्यात्महीन विज्ञान के दुष्परिणाम, |
| + | |
| + | उच्चशिक्षा |
| + | |
| + | ४१... विभिन्न विषयों हेतु शोधविषयों की सूची 343 |
| + | |
| + | ४२... पाठ्यक्रम समीक्षा Bug |
| + | |
| + | खण्ड २ : व्यवहारचिन्तन, पर्व ५ : कार्ययोजना |
| + | |
| + | ४३... करणीय प्रयास 3&3 |
| + | |
| + | समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | vx. स्वप्नसिद्धि ३७१ |
| + | |
| + | प्रथम तप नैमिषारण्य, द्वितीय तप लोकमतपरिष्कार, तृतीय |
| + | |
| + | तप परिवारसुद्रढीकरण, परिवार शिक्षा : पाठ्यक्रम, चतुर्थ |
| + | |
| + | तप शिक्षकनिर्माण, पंचम तप विद्यालयों का प्रारम्भ |
| + | |
| + | ४५... समापन ३९० |
| + | |
| + | परिशिष्ट |
| + | |
| + | १... सन्दर्भ ग्रन्थ सूची ३९३ |
| + | |
| + | २... लेखकों, सम्पादकों व संकलन कर्ताओं की सूची. ३९४ |
| + | |
| + | ३. .... पाठ्यक्रमों की रूपरेखा निर्माणकर्ताओं की सूची... ३९६ |
| + | |
| + | ४... ग्रन्थ अनुक्रमणिका ३९७ |
| + | |
| + | ५. .... पुनरुत्थान विद्यापीठ ¥ok |
| + | |
| + | ६. ... प्रकाशनसूची ¥o¥ |
| + | |
| + | ............. page-17 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | खण्ड १ |
| + | |
| + | तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | भारतीय ज्ञानधारा का आधार लेकर शिक्षा के समग्र विकास प्रतिमान की |
| + | |
| + | प्रस्तुति यहाँ की गई है । भारतीय ज्ञानधारा का प्रवाह क्षीण रूप में अभी |
| + | |
| + | अस्तित्व में तो है परन्तु शिक्षा तथा अन्य व्यवस्थाओं में वह अनुस्यूत नहीं |
| + | |
| + | होने के कारण से पुष्ट नहीं हो रहा है । ज्ञानधारा पुष्ट नहीं होने के कारण |
| + | |
| + | भारतीय जीवन को भी स्वाभाविक पोषण नहीं मिलता है । इसका परिणाम यह |
| + | |
| + | होता है कि भारत का जनजीवन अभारतीय ज्ञानधारा से आप्लावित होता है । |
| + | |
| + | इससे बचना चाहिये । बचने का उपाय शिक्षा में ही प्राप्त हो सकता है । कारण |
| + | |
| + | स्पष्ट है। शिक्षा ही ज्ञान की वाहक है । शिक्षा ही परम्परा बनाने का और |
| + | |
| + | बनाये रखने का साधन है । ऐसा विचार कर यह समग्र विकास प्रतिमान यहाँ |
| + | |
| + | प्रस्तुत किया गया है । |
| + | |
| + | इस निरूपण के दो खण्ड हैं । एक है तत्त्वचिन्तन का और दूसरा है |
| + | |
| + | व्यवहारचिन्तन का । |
| + | |
| + | तत्त्वचिन्तन के इस खण्ड में समग्र विकास प्रतिमान की शब्दावली की |
| + | |
| + | व्याख्या की गई है । जहाँ आवश्यक है वहाँ अभारतीय अर्थ भी बताया गया |
| + | |
| + | है । परन्तु अभारतीय व्याख्याओं का विवेचन करना यह मुख्य लक्ष्य नहीं है । |
| + | |
| + | यथासम्भव निरूपण को सरल बनाने का प्रयास भी किया गया है । |
| + | |
| + | कदाचित यह निरूपण संक्षिप्त भी लग सकता है । संक्षिप्त इसलिए है |
| + | |
| + | क्योंकि व्यवहारपक्ष अधिक विस्तार से आना आवश्यक है । |
| + | |
| + | ............. page-18 ............. |
| + | |
| + | KAAKAX शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | ८ LANZA |
| + | |
| + | SOOO |
| + | |
| + | अनुक्रमणिका |
| + | |
| + | १... प्रस्तावना 3 |
| + | |
| + | २. .... समग्रता का अर्थ ¥ |
| + | |
| + | ३. ... विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप 83 |
| + | |
| + | ४... विकास की भारतीय संकल्पना एवं स्वरूप ३१ |
| + | |
| + | ५. .... व्यक्तित्व मीमांसा ¥¥ |
| + | |
| + | &. पंचात्मा विवरण KE |
| + | |
| + | ७... व्यक्तित्व विकास : स्वरूप एवं विकास के कारक तत्त्व go |
| + | |
| + | ८...... अध्यास और बोध C8 |
| + | |
| + | ९ परमेष्ठी और व्यष्टि ८७ |
| + | |
| + | ............. page-19 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | अध्याय १ |
| + | |
| + | न्नस्तावना |
| + | |
| + | कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के दिन ... |
| + | |
| + | शिक्षा के विषय में आज जो सार्वत्रिक भ्रान्तियाँ फैली |
| + | |
| + | हुई हैं उन्हें दूर करने हेतु, विद्याक्षेत्र को परिष्कृत करने हेतु, |
| + | |
| + | भारतीय ज्ञानधारा के अवरुद्ध प्रवाह को पुन: प्रवाहित करने |
| + | |
| + | हेतु, शिक्षा के विषय में जो भी जिज्ञासु, अभ्यासु और |
| + | |
| + | कार्यच्छु हैं उनकी सहायता और सेवा करने हेतु तथा |
| + | |
| + | भारतीय ज्ञानधारा की प्रतिष्ठा कर विश्वकल्याण का मार्ग |
| + | |
| + | प्रशस्त करने हेतु “शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान के |
| + | |
| + | लेखन का प्रारम्भ कर रहे हैं । |
| + | |
| + | नैमिषारण्य का गुरुकुल । पाँच सहस्र से भी अधिक |
| + | |
| + | वर्षों की उसकी ज्ञानपर््परा । सर्व शास्त्रों के ज्ञाता, |
| + | |
| + | जगत्कल्याणकारी ज्ञान के उपासक और ज्ञानपरम्परा को |
| + | |
| + | अक्षुण्ण रखने हेतु समर्थ शिष्यों का अध्यापन करने वाले |
| + | |
| + | आचार्य शौनक उस गुरुकुल के समर्थ कुलपति । उसी |
| + | |
| + | परम्परा में शिक्षित और दीक्षित वर्तमान आचार्य ज्ञाननिधि । |
| + | |
| + | इस कालजयी गुरुकुल के एकसौ से भी अधिक ज्ञानोपासक |
| + | |
| + | आचार्य । कलियुगाब्द ५११७ की वसन्तपंचमी के आज के |
| + | |
| + | पावन दिवस पर शिक्षाज्ञानयज्ञ का प्रारम्भ करने जा रहे हैं । |
| + | |
| + | सबके अन्त:करण श्रद्धा, विश्वास और आनन्द से परिपूर्ण |
| + | |
| + | हैं। विश्व के मंगल की कामना से व्याप्त हैं । ज्ञानसाधना |
| + | |
| + | करने के लिये वे उत्सुक हैं । लोक के लिये. ज्ञानसरिता |
| + | |
| + | प्रवाहित कर ऋषिक्रण से किंचित मुक्त होने की अभिलाषा |
| + | |
| + | वे रखते हैं । |
| + | |
| + | प्रात:दकाल की शुभ बेला में और सुखदायी वातावरण |
| + | |
| + | में ज्ञानचर्चा प्रारम्भ हुई । सबने भगवती सरस्वती और |
| + | |
| + | भगवान वेद्व्यास की स्तुति की । शान्तिपाठ किया और |
| + | |
| + | आचार्य शुभंकर ने चर्चा का सूत्रपात किया । |
| + | |
| + | आचार्य शुभंकर ने कहा ... |
| + | |
| + | सभा में उपस्थित माननीय कुलपतिजी तथा सर्व |
| + | |
| + | श्रोताओं को मेरा प्रणाम । आज से हम एक महत्त्वपूर्ण |
| + | |
| + | विषय पर चर्चा प्रारम्भ कर रहे हैं । शिक्षा के माध्यम से हम |
| + | |
| + | ज्ञान की और राष्ट्र की सेवा करने के लिए उद्यत हैं । आज |
| + | |
| + | हमारे देश को शिक्षा के एक ऐसे प्रतिमान की आवश्यकता |
| + | |
| + | है जो शत प्रतिशत भारतीय हो । शिक्षा का भारतीयकारण |
| + | |
| + | करने के देशभर में अनेक प्रकार से प्रयास चल रहे हैं । उन |
| + | |
| + | सब प्रयासों में हमारा भी योगदान हो इस दृष्टि से हमारा यह |
| + | |
| + | प्रयास है । |
| + | |
| + | वर्तमान में शिक्षा के उद्देश्य को लेकर विकास की |
| + | |
| + | संकल्पना का बहुत प्रचलन है । वह होना भी चाहिए । |
| + | |
| + | शिक्षा का उद्देश्य व्यक्ति का सर्वांगीण विकास है ऐसा भी |
| + | |
| + | कहा जाता है । परन्तु हम अनुभव कर रहे हैं कि इस विषय |
| + | |
| + | में अनेक प्रकार से स्पष्टता की आवश्यकता है । स्पष्टता के |
| + | |
| + | अभाव में शब्द तो गढ़े जाते हैं परन्तु वे अपेक्षित प्रयोजन |
| + | |
| + | को पूर्ण कर सर्के ऐसे सार्थक नहीं होते । इसलिए हमने |
| + | |
| + | शब्दावली निश्चित कर उनके अर्थों और सन्दर्भो को स्पष्ट |
| + | |
| + | करने का मानस बनाया है । |
| + | |
| + | हमने दूसरा विचार यह किया है कि शिक्षा के सम्बन्ध |
| + | |
| + | में समग्रता में विचार किया जाय । शिक्षा के केवल शैक्षिक |
| + | |
| + | पक्ष का विचार करने से शिक्षा का भारतीयकरण नहीं |
| + | |
| + | होगा । शिक्षा का व्यवस्था पक्ष और आर्थिक पक्ष भी |
| + | |
| + | सम्पूर्ण तंत्र को बहुत प्रभावित करता है । अत: इन दोनों |
| + | |
| + | पक्षों के भी भारतीयकरण की आवश्यकता है। ऐसी |
| + | |
| + | भारतीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में प्रतिष्ठित हो सके ऐसे |
| + | |
| + | शैक्षिक प्रतिमान का विचार करने का मानस हमने बनाया |
| + | |
| + | है। |
| + | |
| + | इस प्रतिमान को हमने नाम दिया है “शिक्षा का समग्र |
| + | |
| + | विकास प्रतिमान' । |
| + | |
| + | हमारे कुलपतिजी हमारे मुख्य मार्गदर्शक रहेंगे । समय |
| + | |
| + | ............. page-20 ............. |
| + | |
| + | समय पर देश के अनेक वरिष्ठ चिन्तक |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | विचार दे सर्के ऐसी परमात्मा के श्रीचरणों में प्रार्थना कर |
| + | |
| + | भी हमारे साथ विचारविमर्श करने के लिये पधारेंगे । आने. अब मैं चर्चा के सूत्र आचार्यजी को सौंप रहा हैँ । |
| + | |
| + | वाले दिनों में हम देश को शिक्षा विषयक एक समर्पक |
| + | |
| + | अध्याय २ |
| + | |
| + | समग्रता का अर्थ |
| + | |
| + | आचार्य ज्ञाननिधि कहने लगे ... |
| + | |
| + | समग्रता का अर्थ जानने के लिये हमें इस सृष्टि का |
| + | |
| + | मूल कहाँ है, इसकी उत्पत्ति कैसे हुई है और यह कैसे |
| + | |
| + | टिकी हुई है यह जानना होगा । तैत्तिरीय उपनिषद में सृष्टि |
| + | |
| + | की उत्पत्ति के सम्बन्ध में निरूपण किया गया है । |
| + | |
| + | आत्मा, परमात्मा, सृष्टि आदि की चर्चा चल रही है |
| + | |
| + | तब आचार्य सृष्टिचना की प्रक्रिया का वर्णन करते हुए |
| + | |
| + | कहते हैं, |
| + | |
| + | asad | ag wai wade girl a |
| + | |
| + | तपो$तप्यत । स तपस्तप्त्वा इदंसर्वमसृजत यदिदं कि |
| + | |
| + | च । तत्सृष्टवा तदेवानुप्राविशत् । तदनुप्रविश्य सच्च |
| + | |
| + | त्यच्चाभवत् । निरुक्त॑ चानिरुक्त॑ च । निलयनं चानिलयनं |
| + | |
| + | च विज्ञान चाविज्ञानं च । सत्यं चानृतं च सत्यमभवत । |
| + | |
| + | afed fe च । तत्सत्यमित्याचक्षते । (ब्रह्मानन्द वल्ली- |
| + | |
| + | षष्ठ अनुवाक) |
| + | |
| + | अर्थात् सृष्टि के आदि में परमात्मा ने इच्छा की कि मैं |
| + | |
| + | एक हूँ, बहुत होकर प्रकट हो जाऊँ । अतः: उसने तप |
| + | |
| + | किया । तप कर उसने इस सारी सृष्टि का सृजन किया । |
| + | |
| + | सृजन कर वह उसीमें प्रविष्ट हो गया । अर्थात् सारी सृष्टि में |
| + | |
| + | उसने वास किया । जो आश्रयरूप है या नहीं है, जिसका |
| + | |
| + | वर्णन किया जाता है या नहीं किया जाता है, जो जड़ है या |
| + | |
| + | चेतन है, जो सत्य है या अनृत अर्थात् असत्य है । ये सारे |
| + | |
| + | परमात्मा के ही रूप हैं और चूँकि परमात्मा सत्यस्वरूप है |
| + | |
| + | ये भी सारे सत्य ही हैं । |
| + | |
| + | सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है |
| + | |
| + | भारतीय विचारविश्व का यह सर्वस्वीकृत, आधारभूत |
| + | |
| + | और प्रिय सिद्धान्त है । यह सारी सृष्टि परमात्मा ने बनाई |
| + | |
| + | यह तो ठीक है । विश्व की अन्यान्य विचारधारायें यह तो |
| + | |
| + | मानती ही हैं । परन्तु भारतीय विचार विशेष रूप से यह |
| + | |
| + | कहता है कि परमात्मा ने अपने में से ही यह सृष्टि बनाई |
| + | |
| + | और वह स्वयं उसमें प्रवेश कर सृष्टिरुप बन गया । |
| + | |
| + | परमात्मा और उसकी सृष्टि दो नहीं हैं, एक ही हैं । यह |
| + | |
| + | अट्रैत सिद्धान्त सारे विचार में आधारभूत सिद्धान्त के रूप में |
| + | |
| + | प्रतिष्ठित है । यह सिद्धान्त इतना व्यापक रूप में प्रतिष्ठित है |
| + | |
| + | कि अनपढ़, गरीब, सामान्य लोग भी मानते हैं और कहते हैं |
| + | |
| + | कि सचराचर में परमात्मा का वास है । सार्वत्रिक मान्यता है |
| + | |
| + | कि भगवान सर्वत्र है, वह सब देखता है, सब जानता है, |
| + | |
| + | सर्वशक्तिमान है । |
| + | |
| + | प्रस्थापित सिद्धान्त है कि यह सृष्टि परमात्मा का |
| + | |
| + | विश्वरूप है । |
| + | |
| + | इसीसे यह सिद्धान्त स्वाभाविक निकलता है कि जिस |
| + | |
| + | प्रकार परमात्मा और उसकी सृष्टि एक है उसी प्रकार यह |
| + | |
| + | सृष्टि भी मूलतः: एक है । परमात्मा अपने परमात्म स्वरूप में |
| + | |
| + | अदृश्य, अनाकलनीय, अवर्णनीय, निर्गुण, निराकार है परन्तु |
| + | |
| + | जैसे ही विश्वरूप धारण करता है वह दृश्यमान, वर्णन करने |
| + | |
| + | योग्य, कल्पना करने योग्य बन जाता है । वह सगुण और |
| + | |
| + | साकार बन जाता है । वह इन्ट्रियग्राह्म, मनोग्राह्म, बुद्धिग्राह्म |
| + | |
| + | बन जाता है । परमात्मा का यह विश्वरूप अर्थात् सृष्टि |
| + | |
| + | वैविध्यपूर्ण है । सृष्टि की विविधता का कोई अन्त नहीं । |
| + | |
| + | किंबहुना विविधता ही सृष्टि का स्वभाव है । यह विविधता |
| + | |
| + | ऐसी है कि एक वृक्ष के असंख्य पत्तों में एक भी पत्ता दूसरे |
| + | |
| + | पत्ते जैसा नहीं होता । एकरूपता सृष्टि में कहीं नहीं है। |
| + | |
| + | यदि एक के समान दूसरा कोई हो तो उसका अपना कोई |
| + | |
| + | ............. page-21 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | प्रयोजन ही नहीं रहेगा । अत: सृष्टि की छोटी से छोटी |
| + | |
| + | इकाई की भी अपनी स्वतन्त्र निजी सत्ता है । |
| + | |
| + | परन्तु यह अनन्त वैविध्ययुक्त सृष्टि मूल में एक है । |
| + | |
| + | दिखने वाली भिन्नता में न दिखने वाला एकत्व जानना ही |
| + | |
| + | सृष्टि के सही स्वरूप को जानना है । इस मूल एकत्व को |
| + | |
| + | एकात्मता कहते हैं । इसका सीधा सा अर्थ है कि सर्वत्र |
| + | |
| + | आत्त्मतत्त्व व्याप्त है । |
| + | |
| + | भारत के सारे विचारों, व्यवहारों, व्यवस्थाओं और |
| + | |
| + | रचनाओं में यह एकात्मता अनुस्यूत रहती है । इसे ही समग्र |
| + | |
| + | कहते हैं । एकात्मता ही समग्रता है । एकात्मता से अनुस्यूत |
| + | |
| + | विचार समग्र विचार है, एकात्मता से अनुस्यूत व्यवहार |
| + | |
| + | समग्रतापूर्ण व्यवहार है । एकात्मता से अनुस्यूत व्यवस्थायें |
| + | |
| + | समग्रतायुक्त व्यवस्थायें हैं । एकात्मता से अनुस्यूत TA |
| + | |
| + | समग्रता से ओतप्रोत रचनायें हैं । एकात्मता ही समग्रता है, |
| + | |
| + | यही सूत्र है । |
| + | |
| + | यह समग्रता पिण्ड से लेकर ब्रह्माण्ड तक सर्वत्र है । |
| + | |
| + | पिण्ड का अर्थ है छोटी इकाई । ब्रह्माण्ड से तात्पर्य है बड़ी |
| + | |
| + | से बड़ी इकाई । अर्थात एक रजकण भी समग्रता युक्त है, |
| + | |
| + | एक मनुष्य भी समग्रतायुक्त है, बड़े से बड़ा नक्षत्र भी |
| + | |
| + | समग्रतायुक्त है और सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड भी समग्रतायुक्त है । जरा |
| + | |
| + | भी कम नहीं, जरा भी अधिक नहीं । |
| + | |
| + | अंगांगी सम्बन्ध |
| + | |
| + | पुरुषसूक्त में परमात्मा के सृष्टिरूप का वर्णन मनुष्य के |
| + | |
| + | शरीर के रूप में किया गया है । पुरुषसूक्त बहुत प्रसिद्ध |
| + | |
| + | स्चना है इसलिये मैं यहाँ उसका वर्णन नहीं करता हूँ। आप |
| + | |
| + | सब वह जानते ही हैं । जिस प्रकार शरीर के छोटे बड़े सभी |
| + | |
| + | अंग एकदूसरे के साथ और पूरे शरीर के साथ जुड़े हुए हैं |
| + | |
| + | उसी प्रकार यह सृष्टि भी अड्भांगी सम्बन्ध से जुड़ी हुई है । |
| + | |
| + | शरीर के सभी अंग और उपांगों के अपने अपने नाम हैं, |
| + | |
| + | काम हैं, आकार हैं, आवश्यकतायें हैं और स्वभाव हैं उसी |
| + | |
| + | प्रकार सृष्टि की सारी इकाइयों के अपने अपने नाम, काम, |
| + | |
| + | आकार, आवश्यकतायें और स्वभाव हैं । यह स्वभाव |
| + | |
| + | उसका आत्मतत्त्व है । जिस प्रकार शरीर के सभी अंगों का |
| + | |
| + | स्वत्व अलग अलग होने पर भी शरीर के बिना उनका कोई |
| + | |
| + | प्रयोजन नहीं होता है उसी प्रकार सृष्टि |
| + | |
| + | की किसी भी इकाई का सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समरस होकर, |
| + | |
| + | सम्बन्धित होकर ही प्रयोजन होता है । शरीर का कोई अंग |
| + | |
| + | अपने आपको अलग मानकर, और उस अलगता को ही |
| + | |
| + | स्वतन्त्रता समझकर अपनी ही पद्धति से व्यवहार करने |
| + | |
| + | लगता है तो उसको स्वयं को, दूसरे अंगों को और पूरे शरीर |
| + | |
| + | को कष्ट होता है, हानि होती है । उसी प्रकार सृष्टि का कोई |
| + | |
| + | भी अंग अपने आपको अलग और स्वतन्त्र मानकर व्यवहार |
| + | |
| + | करने लगता है तब उसकी स्वयं की, अन्यों की और पूरी |
| + | |
| + | सृष्टि की हानि होती है । |
| + | |
| + | महत्त्वपूर्ण बात यह है कि मनुष्य को छोड़कर सृष्टि |
| + | |
| + | का एक भी पदार्थ अपनी मनमानी नहीं करता है । वह |
| + | |
| + | सबके साथ सामंजस्य बनाकर ही रहता है। किंबहुना |
| + | |
| + | उसकी ऐसी शक्ति ही नहीं होती है । वह पूर्ण रूप से प्रकृति |
| + | |
| + | के नियन्त्रण में रहता है । इसलिये वह किसीके कष्ट, दुःख, |
| + | |
| + | हानि आदि का कारण नहीं बनता है । कष्ट, दुःख, हानि |
| + | |
| + | आदि शब्द भी मनुष्य की दुनिया के हैं, मनुष्येतर दुनिया के |
| + | |
| + | नहीं । इसलिये समग्रता की संकल्पना समझना और उसका |
| + | |
| + | अनुसरण करना मनुष्य का ही दायित्व बनता है । |
| + | |
| + | समग्रता की आवश्यकता |
| + | |
| + | भारत के दीर्घ इतिहास में सर्वत्र समग्रता का यह |
| + | |
| + | विचार दिखाई देता है । चाहे वस्त्र पहनना हो, चाहे घर |
| + | |
| + | बनाना हो, चाहे भोजन करना हो, चाहे उत्सव मनाना हो, |
| + | |
| + | चाहे उत्पादन करना हो, चाहे कला की उपासना करना हो, |
| + | |
| + | चाहे राज्य चलाना हो, चाहे घर चलाना हो,चाहे खेलना |
| + | |
| + | हो चाहे युद्ध करना हो, सर्वत्र समग्रता का विचार किया |
| + | |
| + | हुआ दिखाई देता है । |
| + | |
| + | जब समग्रता का विचार किया जाता है तब क्या होता |
| + | |
| + | है और नहीं किया जाता है तब क्या होता है इसके कुछ |
| + | |
| + | उदाहरण देखें । |
| + | |
| + | घरों में भोजन के बाद जूठे बर्तन साफ करते हैं तब |
| + | |
| + | पहले सारी जूठन धोकर एक पात्र में इकट्टी करते हैं । वह |
| + | |
| + | पानी कुत्ते को या बकरी को पिलाया जाता है । बर्तन मिट्टी |
| + | |
| + | से या राख़ से साफ किये जाते हैं । बर्तन धोया हुआ पानी |
| + | |
| + | ............. page-22 ............. |
| + | |
| + | रेत में, मिट्टी में या खुली नाली में |
| + | |
| + | बहाया जाता है । बर्तन सूती कपड़े से पोंछे जाते हैं । |
| + | |
| + | भोजन बनाते समय सब्जी आदि के जो छिलके निकलते हैं |
| + | |
| + | वे या तो गायबकरी को खिलाये जाते हैं अथवा सुखाकर |
| + | |
| + | जलाने के काम में लिये जाते हैं । बर्तन धोने का जो पानी |
| + | |
| + | रेत में गिरता है वह हवा से और धूप से सूख जाता है । |
| + | |
| + | कुछ पानी जमीन में भी उतरता है । |
| + | |
| + | यह बात लोकव्यवहार में इतनी ओतप्रोत थी कि |
| + | |
| + | उसके पीछे क्या दृष्टि रही होगी इसका विश्लेषण या |
| + | |
| + | विवेचन कभी किया नहीं जाता था । करने की आवश्यकता |
| + | |
| + | नहीं लगती थी । आज जब यह पद्धति बदली है तब इसकी |
| + | |
| + | विशेषतायें ध्यान में आती हैं । आज बर्तन साफ किये जाते |
| + | |
| + | हैं तब जूठन को नाली में बहाया जाता है । यह भूमिगत |
| + | |
| + | नाली गंदा पानी बहाकर ले जाने वाली होती है । बर्तन |
| + | |
| + | साफ करने के डिटर्जट पाउडर से उन्हें साफ किया जाता है । |
| + | |
| + | ये दो बातें ही कितना विपरीत परिणाम करती हैं यह भी |
| + | |
| + | देखें । जूठन नाली में बहाने का अर्थ है हम अन्न को देवता |
| + | |
| + | न मानकर उसे अपवित्र करते हैं । बन्द नाली में बहाने से |
| + | |
| + | वह अपने आप सूखता नहीं है बल्कि सड़ता है। बन्द |
| + | |
| + | नाली व्यवस्था से गंदा पानी बहाकर ले जाने का खर्च तो |
| + | |
| + | होता ही है, व्यवस्था बनाने में समय और परिश्रम भी होता |
| + | |
| + | है, पर्यावरण का प्रदूषण भी होता है । गंदा पानी रसायनों से |
| + | |
| + | साफ किया जाता है । पानी शुद्धीकरण की बहुत जटिल |
| + | |
| + | व्यवस्था बनानी पड़ती है । उस प्रक्रिया से शुद्ध हुआ पानी |
| + | |
| + | भी कृत्रिम रूप से ही शुद्ध होता है । जमीन पर पानी नहीं |
| + | |
| + | गिरने से भूमि की आर्द्रता कम होती है । पानी भूमि में नीचे |
| + | |
| + | ही नीचे जाता है । खुदाई करने पर वह बहुत नीचे ही |
| + | |
| + | मिलता है । वातावरण का तापमान बढ़ता है । डिटर्जेंट |
| + | |
| + | पाउडर से बर्तन साफ करने के लिये अधिक पानी खर्च |
| + | |
| + | करना पड़ता है । उसके बाद भी वह बर्तन को चिपका ही |
| + | |
| + | रहता है । भोजन करते समय भोजन पदार्थों के साथ मिलकर |
| + | |
| + | वह पेट में जाता है और स्वास्थ्य पर विपरीत परिणाम |
| + | |
| + | करता है । राख़ या मिट्टी कभी गलती से भी पेट में गई तो |
| + | |
| + | ऐसा विपरीत परिणाम नहीं करते हैं । इस प्रकार स्वास्थ्य, |
| + | |
| + | सुविधा, पर्यावरण, सुलभता और सुकरता आदि सभी बातों |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | को ध्यान में रखकर बर्तन साफ करने जैसी छोटी और |
| + | |
| + | सामान्य क्रिया की योजना होती थी । यदि कोई यह कहे कि |
| + | |
| + | यह विचारपूर्वक नहीं किया गया होगा, अपने आप ही ऐसा |
| + | |
| + | होता था तो वह ठीक नहीं है । कोई भी बात अपने आप |
| + | |
| + | नहीं होने लगती है, उसकी योजना करनी होती है । किसी |
| + | |
| + | भी प्रकार से शुरू हो भी गई हो तो भी समय के साथ |
| + | |
| + | अनुभव और बुद्धिपूर्वक विचार से वह परिष्कृत होती है |
| + | |
| + | और लोकन्यवहार में रूढ होती है । दृष्टि यदि समग्रता की |
| + | |
| + | रही तो सर्व प्रकार का लाभ होता है, खण्डखण्डात्मक रही |
| + | |
| + | तो श्रम, समय, धन आदि खर्च होने के बाद भी लाभ के |
| + | |
| + | स्थान पर हानि ही होती है । |
| + | |
| + | इस प्रकार की समग्रता मकान बनाने में, कृषि जैसा |
| + | |
| + | उद्योग करने में, वटपूर्णिमा या दीपावली जैसे उत्सव मनाने |
| + | |
| + | में दिखाई देती है । मेरा आपसे अनुरोध है कि आप हमारे |
| + | |
| + | दैनंदिन व्यवहारों और व्यवस्थाओं का इस दृष्टि से पुन: एक |
| + | |
| + | बार विश्लेषण और मूल्यांकन करें । |
| + | |
| + | सृष्टि का समग्र स्वरूप |
| + | |
| + | इस सृष्टि का स्वरूप कैसा है यह जानने से समग्रता |
| + | |
| + | का अर्थ क्या है यह ध्यान में आयेगा । प्रारम्भ में ही |
| + | |
| + | परमात्मा ने एक से अनेक होने की इच्छा से सृष्टिरूप धारण |
| + | |
| + | किया ऐसा उल्लेख आया है । यह प्रक्रिया कैसे हुई ? |
| + | |
| + | सर्व प्रथम परमात्मा दो हिस्सों में विभाजित हुआ । |
| + | |
| + | विभिन्न दर्शनों में इन्हें भिन्न-भिन्न नाम दिये गये हैं । श्रीमद् |
| + | |
| + | भगवद गीता ने इसे सरल बनाया है । गीता तीन इकाइयों |
| + | |
| + | का वर्णन करती है । तीनों को गीता ने 'पुरुष' संज्ञा दी है । |
| + | |
| + | द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्राक्षर एव च । |
| + | |
| + | क्षर: सर्वाणि भूतानि कूटस्थोक्षर उच्यते ।। |
| + | |
| + | उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्युदाहहत: | |
| + | |
| + | यो लोकत्रयमाविष्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।। (१५/ १६-१७) |
| + | |
| + | ये तीन पुरुष हैं उत्तम पुरुष, अक्षर पुरुष और क्षर |
| + | |
| + | पुरुष । उत्तम पुरुष परमात्मा है, अक्षर पुरुष आत्मा या पुरुष |
| + | |
| + | है और क्षर पुरुष प्रकृति है । इस प्रकार परमात्मा, पुरुष |
| + | |
| + | और प्रकृति ऐसी तीन इकाइयाँ हुईं । पुरुष चेतन तत्त्व है, |
| + | |
| + | प्रकृति जड़ तत्त्व है और परमात्मा जड़ और चेतन दोनों से |
| + | |
| + | ............. page-23 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | परे है । वह जड़ भी है, चेतन भी है । अथवा जड़ भी नहीं |
| + | |
| + | है, चेतन भी नहीं है। “नहीं है' कहने से 'है' कहना |
| + | |
| + | अधिक युक्तिसंगत है क्योंकि जो नहीं है उसमें से 'है' कैसे |
| + | |
| + | उत्पन्न होगा ? इसलिये परमात्मा जड़ भी है और चेतन भी |
| + | |
| + | है। |
| + | |
| + | चिज्डग्रन्थि |
| + | |
| + | अपने मूल रूप में परमात्मा अक्रिय है । पुरुष और |
| + | |
| + | प्रकृति सक्रिय हैं । दोनों मिलकर सृष्टि के रूप में विकसित |
| + | |
| + | होते हैं । दोनों के मिलन को चिज्जडग्रन्थि अर्थात् चेतन |
| + | |
| + | और जड़ की गाँठ कहते हैं । यह गाँठ ऐसी है कि अब |
| + | |
| + | दोनों को एकदूसरे से अलग पहचाना नहीं जाता है । जहाँ |
| + | |
| + | भी हो दोनों साथ में रहते हैं । यह चेतन और जड़ का आदि |
| + | |
| + | ग्रन्थन है जहाँ से सृष्टि रचना प्रारम्भ होती है । |
| + | |
| + | श्रीमद् भगवद गीता ने इसका वर्णन इस प्रकार किया |
| + | |
| + | है, |
| + | |
| + | मम योनिर्महद्ब्रह्म तस्मिन्गर्भ दधाम्यहम् । |
| + | |
| + | सम्भव: सर्वभूतानां ततो भवति भारत ।। |
| + | |
| + | श्री.भ.गी. अ. १४/३ |
| + | |
| + | प्रकृति पुरुष चैव विद्धयनादी उभावपि | |
| + | |
| + | विकारांश्र गुणांश्वैव विद्धि प्रकृतिसम्बवान् ।। |
| + | |
| + | oft. rai. at. 23/28 |
| + | |
| + | चेतन और जड़ के संयोग से अब प्रकृति में परिवर्तन |
| + | |
| + | प्रारम्भ होता है । इस अनन्त वैविध्यपूर्ण सृष्टि के मूल रूप |
| + | |
| + | में आठ तत्त्व हैं जो प्रकृति के ही रूप हैं । चेतन निराकार |
| + | |
| + | ही रहता है, अपरिवर्तनीय रहता है । ये आठ तत्त्व गीता में |
| + | |
| + | इस प्रकार कहे गये हैं । |
| + | |
| + | भूमिरापो$नलो वायु: खं मनो बुद्धिरिव च । |
| + | |
| + | अहंकार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा ।। (७/ ४) |
| + | |
| + | इस प्रकार सारी सृष्टि पंचमहाभूत, मन, बुद्धि, अहंकार |
| + | |
| + | ऐसे प्रकृति के आठ तत्त्व और सर्वत्र अनुस्यूत चेतन से बनी |
| + | |
| + | है । सारी विविधाताओं में ये सारे तत्त्व होते ही हैं । |
| + | |
| + | ये सारे तत्त्व आपस में समरस होकर ही रहते हैं । |
| + | |
| + | मानवसृजित किसी भी प्रकार के व्यवहार में या आयोजन में |
| + | |
| + | इन तत्त्वों की समरसता का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है । |
| + | |
| + | कुछ और भी उदाहरण देखें । |
| + | |
| + | मनुष्य के विषय में समग्र दृष्टि से विचार करना है तो |
| + | |
| + | इस प्रकार किया जायेगा । सम्पूर्ण सृष्टि में मनुष्य का सृजन |
| + | |
| + | परमात्मा की सूजन प्रक्रिया में श्रेष्ठततम है । ऐसी कथा है कि |
| + | |
| + | परमात्मा ने सृष्टि रचना का प्रारम्भ किया तब पंचमहाभूत |
| + | |
| + | बनाये, वृक्षवनस्पति बनाये, प्राणीसृष्टि निर्माण की, परन्तु |
| + | |
| + | उसका मन नहीं भरा । उसे अभी और उत्कृष्ट रचना की |
| + | |
| + | अभिलाषा थी । अन्त में उसने मनुष्य का सृजन किया । |
| + | |
| + | मनुष्य को बनाकर परमात्मा स्वयं अपने ऊपर और मनुष्य |
| + | |
| + | पर बहुत प्रसन्न हुआ । उसने मनुष्य को अपने ही प्रतिरूप |
| + | |
| + | में बनाया । तात्पर्य यह है कि मनुष्य इस सृष्टि में परमात्मा |
| + | |
| + | के स्वरूप की श्रेष्ठतम अभिव्यक्ति है । |
| + | |
| + | ऐसा श्रेष्ठ मनुष्य. पंचमहाभूत, पंचकर्मेन्ट्रिय, |
| + | |
| + | पंचज्ञानेन्द्रिय, पंचप्राण, मन, बुद्धि, अहंकार और चित्त तथा |
| + | |
| + | चेतन तत्त्व आदि तत्त्वों का बना हुआ है । इनसभी तत्त्वों |
| + | |
| + | का आपसी समरस सम्बन्ध है । समरस सम्बन्ध से तात्पर्य |
| + | |
| + | यह है कि ये एक अभिन्न व्यक्तित्व के अंग बनकर एकदूसरे |
| + | |
| + | को प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं । |
| + | |
| + | मनुष्य शरीर का आश्रय लेकर ये सारे तत्त्व रहते हैं और एक |
| + | |
| + | होकर व्यवहार करते हैं । मनुष्य इन सबका एक संघात है । |
| + | |
| + | ये सारे उसके व्यक्तित्व के अंगउपांग हैं । मनुष्य का शरीर |
| + | |
| + | मन को प्रभावित करता है और मन शरीर को । मन बुद्धि |
| + | |
| + | को प्रभावित करता है और बुद्धि मन को । इन सभी अंगों |
| + | |
| + | के अपनेअपने काम हैं । हाथ वस्तुओं के निर्माण का कार्य |
| + | |
| + | करते हैं, पैर गति करते हैं और शरीर का भार उठाते हैं । |
| + | |
| + | वाणी बोलती है । मन विचार करता है, इच्छा करता है, |
| + | |
| + | भावनाओं का अनुभव करता है । बुद्धि जानती है, समझती |
| + | |
| + | है और विवेक करती है । शरीर यन्त्र की तरह अनेक काम |
| + | |
| + | करता है, प्राण उस यन्त्र को ऊर्जा प्रदान करता है, बुद्धि |
| + | |
| + | शरीर, प्राण, मन आदि को निर्देश देती है और नियमन में |
| + | |
| + | रखती है, अहंकार कर्तृत्व, भोक्तृत्व और ज्ञातृत्व के भाव |
| + | |
| + | के साथ रहता है, चित्त इन सबको संस्कारों के रूप में ग्रहण |
| + | |
| + | कर सारे अनुभवों को स्थायी बनाता है । मनुष्य के सारे |
| + | |
| + | व्यवहार सत्त्व, रज और तम ऐसे तीन गुणों से ओतप्रोत |
| + | |
| + | रहते हैं । इन सभी में समरसता रहती है । एकदूसरे का साथ |
| + | |
| + | ............. page-24 ............. |
| + | |
| + | लिये बिना ये अंगउपांग संघात के रूप |
| + | |
| + | में काम ही नहीं कर सकते हैं । इस समरसता को बनाये |
| + | |
| + | रखते हुए व्यवहार करने की दृष्टि समग्रता की दृष्टि है । |
| + | |
| + | उदाहरण के लिये हम आहार ग्रहण करते हैं तब |
| + | |
| + | उसकी आवश्यकता शरीर और प्राण के लिये होती है । |
| + | |
| + | इसलिये हम पोषकता का ध्यान रखते हैं । रसनेन्ट्रिय उसका |
| + | |
| + | स्वाद ग्रहण करती है । मन का उसमें रुचिअरुचि का भाव |
| + | |
| + | होता है । इसलिये हम स्वादिष्टता का ध्यान रखते हैं । |
| + | |
| + | स्वाद और पौष्टिकता को बनाये रखने के लिये हाथ को |
| + | |
| + | कुशलता से काम करना होता है । बुद्धि बनाने की और |
| + | |
| + | खाने की प्रक्रिया में उचितअनुचित का निर्देश देती है । |
| + | |
| + | अहंकार भोजन कर तृप्ति का अनुभव करता है और चित्त |
| + | |
| + | आहार से संस्कार ग्रहण करता है । हृदय स्वाद में रस भरता |
| + | |
| + | है और सौन्दर्यबोध का अनुभव करवाता है । इनमें एक भी |
| + | |
| + | यदि अपना काम दूसरे का ध्यान रखे बिना करता है तो |
| + | |
| + | गड़बड़ होती है । हाथ यदि कुशल नहीं हैं तो स्वाद और |
| + | |
| + | पोषण दोनों बिगड़ते हैं । केवल शरीर के पोषण का ही |
| + | |
| + | ध्यान रखना है तो सारे भोजन पदार्थ एकसाथ मिलाकर |
| + | |
| + | सानी बनाकर भी खाये जा सकते हैं । परन्तु मनुष्य का मन |
| + | |
| + | और हृदय ऐसा नहीं करने देते हैं । या तो पशु इस प्रकार |
| + | |
| + | खाता है या संन्यासी या योगी इस प्रकार खाता है । एक |
| + | |
| + | को ( पशु को ) स्वाद का भान ही नहीं है और दूसरे ने ( |
| + | |
| + | संन्यासी अथवा योगी ने ) स्वाद को जीत लिया है । |
| + | |
| + | सुभाषितेन गीतेन युवतिनाम च लीलया |
| + | |
| + | मनोनभिद्यते यस्य स योगी अथवा पशु: ।। |
| + | |
| + | मन यदि स्वाद का ही ध्यान रखता है और |
| + | |
| + | पोषणक्षमता का नहीं तो स्वास्थ्य खराब होता है । बुद्धि |
| + | |
| + | यदि सारी क्रियाओं का नियमन नहीं करती तो स्वाद और |
| + | |
| + | पोषण दोनों का कोई भरोसा नहीं रहता है । हृदय में यदि |
| + | |
| + | रस नहीं है तो स्वादिष्ट और पोषक आहार भी पशु की |
| + | |
| + | सानी जैसा ही होता है । इस प्रकार भोजन बनाने और करने |
| + | |
| + | में स्वाद, सौन्दर्यानुभव, पोषण, संस्कारक्षमता आदि सभी |
| + | |
| + | बातों का ध्यान रखना समग्र दृष्टि है। किसी एक या दो |
| + | |
| + | बातों का ही ध्यान रखना समग्र दृष्टि नहीं है । |
| + | |
| + | इस प्रकार कर्मेन्ट्रियों की क्रियाओं, ज्ञानेन्द्रियों के |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | अनुभवों अथवा संबेदनों, मन की इच्छाओं, बुद्धि का |
| + | |
| + | नियमन, चित्त के संस्कार, हृदय का सौन्दर्यानुभव आदि में |
| + | |
| + | समरसतापूर्ण सामंजस्य रखना व्यक्तिगत जीवन में |
| + | |
| + | समग्रतायुक्त व्यवहार होता है । |
| + | |
| + | सोने में और जागने में, खाने में और पीने में, वस्त्रों में |
| + | |
| + | और अलंकारों में, अध्ययन में और अधथर्जिन में,सेवा में |
| + | |
| + | और परिचर्या में, चिन्तन में और मनोरंजन में, काम करने में |
| + | |
| + | और खेलने में संक्षेप में सभी व्यवहारों में यह समग्रता की |
| + | |
| + | दृष्टि अपेक्षित है । |
| + | |
| + | व्यक्तिगत व्यवहारों की तरह सार्वजनिक व्यवहारों में |
| + | |
| + | भी समग्रता की दृष्टि अपेक्षित होती है । सृष्टि में सर्वश्रेष्ठ |
| + | |
| + | मनुष्य है । परन्तु उसके अलावा भी अगणित प्राणी और |
| + | |
| + | पदार्थ हैं । हमारी परम्परा में चौरासी लाख योनियों का |
| + | |
| + | उल्लेख आता है । यह सृष्टि का वैविध्य दर्शाता है । संख्या |
| + | |
| + | के बारे में अधिक ऊहापोह न भी करें तो भी बहुत अधिक |
| + | |
| + | वैविध्य है इतना कहना पर्याप्त है । इस वैविध्य को दो |
| + | |
| + | भागों में विभाजित किया जा सकता है। एक है मनुष्य सृष्टि, |
| + | |
| + | अर्थात् ब्रह्माण्ड में जितने भी मनुष्य हैं वे एक वर्ग बनाते |
| + | |
| + | हैं। मनुष्यों में भी बहुत विविधता होती है परन्तु सारे |
| + | |
| + | मिलकर एक वर्ग बनाते हैं । दूसरा विभाग है मनुष्येतर |
| + | |
| + | सृष्टि । इनमें पंचमहाभूत, वनस्पति तथा प्राणी सृष्टि का |
| + | |
| + | समावेश होता है । पंचमहाभूत हैं आकाश, वायु, अग्ि, |
| + | |
| + | जल और पृथ्वी । प्राणियों में स्वेदज, अण्डज, उद्धिज और |
| + | |
| + | जरायुज ऐसी श्रेणियों का समावेश होता है । वनस्पतियों में |
| + | |
| + | वृक्ष, लता, घास और पौधों का समावेश होता है । इन |
| + | |
| + | सबका आपसी सम्बन्ध है । सृष्टि में सर्वत्र पाँचों महाभूत |
| + | |
| + | एकसाथ ही रहते हैं । अर्थात् किसी भी पदार्थ में कोई एक |
| + | |
| + | महाभूत की प्रधानता भले ही हो, रहते पाँचों हैं । महाभूतों |
| + | |
| + | का वनस्पति सृष्टि के साथ गहरा सम्बन्ध है क्योंकि |
| + | |
| + | वनस्पतियों की देह पंचमहाभूतों की ही बनी होती है। |
| + | |
| + | इसके साथ-साथ सृष्टि में मन, बुद्धि और अहंकार भी होते |
| + | |
| + | हैं । इसीसे सम्बन्धित सत्त्व, रज, तम ये तीन गुण भी होते |
| + | |
| + | हैं । ये सारी इकाइयाँ एकदूसरे को प्रभावित करती हैं और |
| + | |
| + | एकदूसरे से प्रभावित होती हैं । इन सबमें समरसता युक्त |
| + | |
| + | सामंजस्य बनाये रखने को ही समग्र दृष्टि कहते हैं । |
| + | |
| + | ............. page-25 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | मनुष्य का दायित्व |
| + | |
| + | ऐसा सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है । |
| + | |
| + | कारण स्पष्ट है । एक, केवल मनुष्य को ही सक्रिय मन प्राप्त |
| + | |
| + | हुआ है । मन बनाने वाला भी होता है और बिगाड़ने वाला |
| + | |
| + | भी होता है । मनुष्य को ही सक्रिय बुद्धि और अहंकार मिले |
| + | |
| + | al इसलिये उसका दायित्व बनता है । दूसरा, मनुष्य |
| + | |
| + | परमात्मा की सारी अभिव्यक्तियों में सबसे बड़ा है । भारत में |
| + | |
| + | बड़ों को कर्तव्य दिया गया है । कष्ट सहने में, दूसरों का |
| + | |
| + | विचार करने में, रक्षण और पोषण करने में बड़ों का क्रम |
| + | |
| + | पहला है, जबकि उपभोग में अन्तिम है । इस कारण से |
| + | |
| + | सामंजस्य बनाये रखने का दायित्व मनुष्य का है । तीसरा |
| + | |
| + | कारण यह है कि मनुष्य के अलावा शेष सारी सृष्टि तो प्रकृति |
| + | |
| + | के नियन्त्रण और नियमन में ही रहती है । वह न तो बना |
| + | |
| + | सकती है न बिगाड़ सकती है । बनाने या बिगाड़ने वाला तो |
| + | |
| + | मनुष्य ही होता है । इसलिये भी मनुष्य का दायित्व है । |
| + | |
| + | मनुष्येतर सृष्टि में प्राणियों की और वनस्पति की |
| + | |
| + | आवश्यकतायें प्राकृतिक रूप से ही पूर्ण हो जाती हैं । परन्तु |
| + | |
| + | मनुष्य का ऐसा नहीं है । उसकी इच्छायें और आवश्यकतायें |
| + | |
| + | बहुत अधिक होती हैं । मनुष्य ने अपने मन और बुद्धि के |
| + | |
| + | कारण अपनी आवश्यकतायें बहुत अधिक बढ़ा ली हैं । इन |
| + | |
| + | आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये उसे श्रम करना पड़ता है । |
| + | |
| + | साथ ही वह सृजनशील और जिज्ञासु प्राणी है । इसलिये |
| + | |
| + | वह अनेक प्रकार की वस्तुर्यें बनाता है । मनुष्य को अन्य |
| + | |
| + | मनुष्यों के साथ रहना है । साथ रहने के लिये उसे अनेक |
| + | |
| + | प्रकार की व्यवस्थायें बनानी पड़ती हैं । उदाहरण के लिये |
| + | |
| + | परिवारव्यवस्था, अर्थव्यवस्था, राज्यव्यवस्था आदि अनेक |
| + | |
| + | प्रकार की व्यवस्थायें वह बनाता है । उसे अनेक नियम |
| + | |
| + | बनाने पढ़ते हैं । नियम बनाने की प्रक्रिया जब वैश्विक |
| + | |
| + | नियमों के अविरोधी होती है तब वह सबका भला करती है |
| + | |
| + | और सामंजस्य को निभा सकती है । |
| + | |
| + | उदाहरण के लिये समग्रता की दृष्टि से जब |
| + | |
| + | राज्यव्यवस्था बनती है तब राजा प्रजापालक होता है, |
| + | |
| + | अपने आपको प्रजा का सेवक मानता है । समग्रता की दृष्टि |
| + | |
| + | से परिवारव्यवस्था बनती है तब पतिपत्नी का एकात्म |
| + | |
| + | सम्बन्ध उसका केन्द्रबिन्दु बनता है और उस केन्द्र से जो |
| + | |
| + | वृत्त बनता है वह विस्तृत होतेहोते |
| + | |
| + | वसुधैव कुट्म्बकम् तक पहुँचता है । समग्रता की दृष्टि से |
| + | |
| + | जब अर्थव्यवस्था बनती है तब वह समाज की समृद्धि का |
| + | |
| + | लक्ष्य रखती है और बाजार को धर्म के नियन्त्रण में रखती |
| + | |
| + | है । समग्रता की दृष्टि से जब समाजव्यवस्था बनती है तब |
| + | |
| + | परिवारभावना उसका आधार होती है और संस्कृति तथा |
| + | |
| + | समृद्धि का रक्षण और संवर्धन उसका लक्ष्य रहता है। |
| + | |
| + | समग्रता की दृष्टि से जब व्यक्ति अथर्जिन करता है तब वह |
| + | |
| + | समाज के लिये उपयोगी वस्तुओं के उत्पादन को माध्यम |
| + | |
| + | बनाता है, पर्यावरण की हानि न हो इसका ध्यान रखता है, |
| + | |
| + | किसीकी रोजगारी और स्वतन्त्रता का हरण न हो इसकी |
| + | |
| + | चिन्ता करता है, दान को अथर्जिन का अंग बनाता है। |
| + | |
| + | समग्रता की दृष्टि से जब वह पंचमहाभूतों की ओर देखता है |
| + | |
| + | तब वह भूमि को माता मानता है, पंचमहाभूतों को देवता |
| + | |
| + | मानता है, वनस्पति और प्राणी को अपने स्नेह के पात्र |
| + | |
| + | मानता है और उनके प्रति कृतज्ञ रहता है । समग्रता की दृष्टि |
| + | |
| + | से जब जीवन की ओर देखता है तो प्रेम, सेवा, त्याग |
| + | |
| + | उसके व्यवहार के आधार होते हैं । समग्रता की दृष्टि से जब |
| + | |
| + | विश्व की ओर देखता है तब सर्वे भवन्तु सुखिन: ही उसकी |
| + | |
| + | कामना होती है । |
| + | |
| + | समग्रता की दृष्टि से जब अपने आपको देखता है तब |
| + | |
| + | वह मानता है कि मैं शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, अहंकार, |
| + | |
| + | चित्त आदि के रूप में अभिव्यक्त हुआ ऐसा आत्मा हैँ । |
| + | |
| + | अहं ब्रह्वास्मि । समग्रता की दृष्टि से जब वह सृष्टि को |
| + | |
| + | देखता है तब वह सृष्टि परमात्मा का विश्वरूप है ऐसा |
| + | |
| + | मानता है । सर्व खलु इदं ब्रह्म । |
| + | |
| + | इस प्रकार समग्रता एकात्मता है, समग्रता सन्तुलन |
| + | |
| + | है,समग्रता सम्पूर्णता है । अपने आपकी और सबकी । |
| + | |
| + | आचार्य का प्रवचन समाप्त हुआ । आचार्य शुभंकर |
| + | |
| + | खड़े हुए और कहने लगे कि हम सबने समग्रता के विषय |
| + | |
| + | को समझा है । आप सबके प्रसन्न मुखमण्डल देखकर सहज |
| + | |
| + | ही अनुमान होता है कि सबको समाधान भी हुआ है । फिर |
| + | |
| + | भी आप में से कुछ के मन में और अधिक जानने की |
| + | |
| + | जिज्ञासाएँ होंगी । वे सभी आगामी सत्रमें प्रश्न पूछ सकेंगे । |
| + | |
| + | सबने शान्तिमंत्र बोला और सत्र विधिवत सम्पन्न हुआ | |
| + | |
| + | ............. page-26 ............. |
| + | |
| + | समग्रता की चर्चा हुए पाँच दिन बीत गये थे । भारत |
| + | |
| + | के सामान्य लोगों के सामान्य व्यवहार में भी समग्रता की |
| + | |
| + | दृष्टि किस प्रकार अनुस्यूत रहती है यह जानकर सब हैरान |
| + | |
| + | थे । बर्तन साफ करने जैसे अनेक उदाहरणों की चर्चा चली |
| + | |
| + | थी । एकएक बात में मूल दृष्टि का किस प्रकार अन्तर्भाव |
| + | |
| + | होता है यह जानना अत्यधिक आवश्यक है ऐसा उनका |
| + | |
| + | अभिप्राय बनने लगा था । परन्तु यह सब कैसे हुआ होगा |
| + | |
| + | और किसने यह सब किया होगा इस बात का उन्हें आश्चर्य |
| + | |
| + | लग रहा था । इसलिये उन्होंने आचार्य ज्ञाननिधि से ही |
| + | |
| + | पूछने का निश्चय किया । आज के अध्ययन का प्रारम्भ इस |
| + | |
| + | प्रश्न से ही हुआ । |
| + | |
| + | आचार्य बुद्धदेव ने सबकी ओर से प्रश्न पूछा... |
| + | |
| + | आचार्यजी, गत पंचमी के आपके प्रवचन के बाद |
| + | |
| + | हमने आपस में चर्चा की थी । एक दो दिन तो हमने नगर |
| + | |
| + | में सर्वसामान्य लोगों से सम्पर्क भी किया । हमने देखा कि |
| + | |
| + | शिक्षित, सम्पन्न और अपने आपको आधुनिक और शिक्षित |
| + | |
| + | मानने वाले लोग अपने घरेलू कामों में प्लास्टिक का बहुत |
| + | |
| + | प्रयोग करते हैं, कुछ भी खातेपीते हैं और अस्तव्यस्त |
| + | |
| + | दिनचर्या से रहते हैं । उनके साथ जब दैनंदिन जीवन में |
| + | |
| + | कैसी वस्तुओं का प्रयोग करना चाहिये इस विषय पर चर्चा |
| + | |
| + | की तब वे प्रदूषण, स्वास्थ्य, समग्रता आदि बातों के |
| + | |
| + | सम्बन्ध में अत्यधिक उदासीन पाये गये । वास्तव में हमें वे |
| + | |
| + | न केवल उदासीन अपितु अज्ञानी ही लगे । हमें उनका |
| + | |
| + | व्यवहार देखकर बहुत दुःख हुआ । परन्तु हम कुछ कम |
| + | |
| + | शिक्षित, कम आय वाले, सामान्य काम कर अधथर्जिन करने |
| + | |
| + | वाले, अपने आपको आधुनिक न कहने वाले लोगों को |
| + | |
| + | मिले तब इन विषयों में उनकी आस्था दिखाई दी । वे भी |
| + | |
| + | प्लास्टिक का प्रयोग तो करते थे परन्तु नारियल के छिलके, |
| + | |
| + | जूठन का योग्य विनियोग आदि बातों में वे बहुत भावुक |
| + | |
| + | और समझदार थे । अब वे इन बातों का अनुसरण नहीं |
| + | |
| + | करते हैं क्योंकि ऐसा करने से पढ़ेलिखे लोग उन्हें पिछड़े |
| + | |
| + | कहेंगे इसका उन्हें भय है। साथ ही अब व्यवस्थायें |
| + | |
| + | अनुकूल रही नहीं हैं । उदाहरण के लिये मिट्टी या राख अब |
| + | |
| + | ATTA |
| + | |
| + | श्० |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | मिलती नहीं है । पानी गिराने के लिये खुली जमीन नहीं |
| + | |
| + | है । जूठन या छिलके खिलाने के लिये गाय या बकरी ही |
| + | |
| + | नहीं है । इन बातों का तत्त्व तो पूरी तरह से वे नहीं जानते |
| + | |
| + | थे परन्तु अनुकूलता होने पर अनुसरण करने में उनकी |
| + | |
| + | आस्था देखने को मिली । य सब क्या है आचार्यजी ? ऐसा |
| + | |
| + | अज्ञान और अनास्था क्यों दिखाई देते हैं ? यह शिक्षित |
| + | |
| + | लोगों की समस्या है या उन्होंने समस्या निर्माण की है ? |
| + | |
| + | हमारी व्यवस्थायें इतनी विपरीत कैसे हो गईं ? यह सब |
| + | |
| + | स्पष्ट करने की कृपा करें । |
| + | |
| + | आचार्य ज्ञाननिधि इस प्रकार के प्रश्नों की अपेक्षा कर |
| + | |
| + | ही रहे थे । उन्होंने अपना निरूपण शुरू किया... |
| + | |
| + | आपके प्रश्न में ही कदाचित उत्तर भी है । समस्या |
| + | |
| + | शिक्षित लोगों की है और शिक्षित लोगों द्वारा निर्मित भी है । |
| + | |
| + | कारण यह है कि परम्परा से लोगों को जो दृष्टि प्राप्त होती है |
| + | |
| + | उसका स्रोत विद्याकेन्द्र होते हैं । विद्याकेन्द्रों में जीवन से |
| + | |
| + | सम्बन्धित सभी विषयों की शास्त्रीय चर्चा होती है और |
| + | |
| + | व्यवहार में उसे लागू करने के उपायों पर भी विचार होता है । |
| + | |
| + | शास्त्रीय चर्चा के बाद आचार्य और छात्र जनसमाज में उसे |
| + | |
| + | प्रचारित और प्रसारित करते हैं । सामान्य लोग शिक्षितों के |
| + | |
| + | प्रति जो श्रद्धा होती है उससे प्रेरित होकर तत्त्व समझें या न |
| + | |
| + | समझें अनुसरण करने लगते हैं । अनुसरण करते करते ही वे |
| + | |
| + | अपनी पद्धति से तत्त्व भी समझने लगते हैं । इस प्रकार |
| + | |
| + | आस्था से युक्त व्यवहार की परम्परा बनती है । |
| + | |
| + | आपने पूछा कि यह सारी व्यवस्था किसने बनाई |
| + | |
| + | होगी ? |
| + | |
| + | एक कथा सुनाता हूँ। आपने यह कथा पहले भी |
| + | |
| + | सुनी है । उसे एक नवीन सन्दर्भ में सुनें । |
| + | |
| + | महाभारत का युद्ध समाप्त हुआ । पाण्डव विजयी हुए |
| + | |
| + | और महाराज युधिष्ठिर का राज्याभिषेक हुआ । परन्तु दोनों |
| + | |
| + | सेनाओं का मिलकर भीषण संहार हुआ था । सर्वत्र अराजक |
| + | |
| + | छाया हुआ था | छत्तीस वर्ष पश्चात परीक्षित को राज्य |
| + | |
| + | सौंपकर पाण्डब हिमालय चले गये । उसी समय कलियुग |
| + | |
| + | का प्राम्भ हुआ । कलियुग के प्रभाव से लोगों की |
| + | |
| + | ............. page-27 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | शारीरिक, मानसिक, बौद्धि शक्तियों का और भी oa |
| + | |
| + | हुआ । इस स्थिति में समाज को पुनः व्यवस्थित करने के |
| + | |
| + | उपाय करने की आवश्यकता थी । यह कार्य कौन करेगा ? |
| + | |
| + | कौन कर सकता था ? उस समय नैमिषारण्य में आचार्य |
| + | |
| + | शौनक का गुरुकुल था । आचार्य शौनक वहाँ कुलपति थे । |
| + | |
| + | उन्होंने सम्पूर्ण भारत वर्ष से आचार्यों को निमंत्रित किया । |
| + | |
| + | अठासी हजार ऋषि, जो विभिन्न गुरुकुलों में पढ़ाते थे, वहाँ |
| + | |
| + | एकत्रित हुए और उसका ज्ञानसत्र चला । यह ज्ञानसत्र बारह |
| + | |
| + | वर्षों तक चला । इस ज्ञानसत्र का विषय ही समाज की |
| + | |
| + | बिगड़ी हुई व्यवस्थाओं को ठीक करने का था । |
| + | |
| + | इस ज्ञानसत्र में समाज की सुस्थिति किसे कहते हैं |
| + | |
| + | इसकी तात्तविक चर्चा हुई । परन्तु केवल तात्तिक चर्चा से |
| + | |
| + | व्यवस्थायें बनती नहीं हैं। उन्हें और दो सन्दर्भां की |
| + | |
| + | आवश्यकता होती है । एक सन्दर्भ है समय का । अब ट्रापर |
| + | |
| + | युग नहीं था । पंचमहाभूतों की गुणवत्ता, लोगों की समझ |
| + | |
| + | और मानस, लोगों की कार्यशक्ति आदि सभी में परिवर्तन |
| + | |
| + | हुआ था । इन कारणों से जो द्वापर युग में स्वाभाविक था |
| + | |
| + | वह कलियुग में स्वीकार्य नहीं हो सकता था । इसलिये |
| + | |
| + | तत्वों और तत्त्वों के आधार पर बनी परम्पराओं का |
| + | |
| + | कलियुग में युगानुकूल स्वरूप कैसा हो सकता था इसका |
| + | |
| + | विचार करना था । दूसरा, जो भी निष्कर्ष निकलेंगे उन्हें |
| + | |
| + | लोगों तक कैसे पहुँचाना इसका भी विचार करना था । यह |
| + | |
| + | कार्य सरल भी नहीं था और शीघ्रता से भी होने वाला नहीं |
| + | |
| + | था। बारह वर्ष की दीर्घ अवधि में उन्होंने यह कार्य |
| + | |
| + | किया । सर्वसामान्य लोगों के दैनंदिन जीवन की छोटी से |
| + | |
| + | छोटी व्यवस्थाओं के लिये निर्देश तैयार किये । हम कल्पना |
| + | |
| + | कर सकते हैं कि उन्होंने क्या किया होगा । श्रीमद भागवत |
| + | |
| + | में तो विस्तार से यह प्रक्रिया नहीं बताई है परन्तु हम |
| + | |
| + | अनुमान कर सकते हैं । |
| + | |
| + | उदाहरण के लिये उन्होंने तय किया होगा कि |
| + | |
| + | ०... शरीर स्वास्थ्य यदि ठीक रखना है तो मनुष्य को |
| + | |
| + | मध्याहन से और सूर्यास्त से पूर्व भोजन कर लेना |
| + | |
| + | चाहिये, रात्रि में भोजन नहीं करना चाहिये और तामस |
| + | |
| + | आहार नहीं लेना चाहिये । इसी प्रकार उन्होंने भोजन |
| + | |
| + | सम्बन्धी सारे नियम बनाये । भोजन में भोजन बनाने |
| + | |
| + | 88 |
| + | |
| + | की, भोजन करवाने की और |
| + | |
| + | भोजन करने की सारी बातों का समावेश कर दिया । |
| + | |
| + | आरोग्यशास्त्र, शरीरविज्ञान, आहारशास्त्र, पाकशास्त्र |
| + | |
| + | आदि सारी बातों का इसमें समावेश किया । भोजन |
| + | |
| + | बनाने और करने में पात्रविवेक, प्रक्रियाविवेक, |
| + | |
| + | इईंधनविवेक, समयविवेक, भावविवेक आदि सभी |
| + | |
| + | बातों का विचार किया । ब्रत, उपवास, स्वादसंयम, |
| + | |
| + | अतिथिसत्कार, अन्नदान, उत्सव, त्योहार आदि |
| + | |
| + | सबको जोड़कर छोटी से छोटी बातें निश्चित कीं । |
| + | |
| + | ०... अध्यात्म, . बुद्धिविकास, cle, oe, |
| + | |
| + | व्यवहारज्ञान को ध्यान में रखकर सामान्य लोगों को |
| + | |
| + | कहीं पर भी सुलभ हों ऐसे खेलों, गीतों, कहानियों |
| + | |
| + | की रचना की । |
| + | |
| + | ०... मनःसंयम, पर्यावरणसुरक्षा और सामाजिकता को एक |
| + | |
| + | साथ लेकर ब्रतों और त्योहारों की स्वना की । |
| + | |
| + | © आचारमूलक मूल्यव्यवस्था बनाई | |
| + | |
| + | ०... षोडशसंस्कारों की स्चना की । |
| + | |
| + | ०... शिशुसंगोपन और शिक्षा की व्यवस्था कर एक पीढ़ी |
| + | |
| + | से दूसरी पीढ़ी को ज्ञान, संस्कार, कौशल आदि के |
| + | |
| + | हस्तान्तरण के माध्यम से परम्परा निर्माण की । |
| + | |
| + | इस प्रकार असंख्य विषयों का बारीक से बारीक |
| + | |
| + | निरूपण किया । ये सारे व्यवहारशास्त्र बने । ऐसा अति |
| + | |
| + | विस्तृत निरूपण करने के बाद वे सम्पूर्ण समाज मैं फैल गये |
| + | |
| + | और अपने ज्ञान, सद्धावना और कौशल के माध्यम से |
| + | |
| + | सबको व्यवहार का सम्यक ज्ञान दिया । समाज के आस्था, |
| + | |
| + | कौशल और सरोकार को बढ़ाया और प्रस्थापित किया | |
| + | |
| + | समाज को समृद्धि, संस्कृति और मुक्ति का मार्ग दिखाया । |
| + | |
| + | यही कलियुग का व्यवहारशाख्त्र है । |
| + | |
| + | यह काम गुरुकुल द्वारा किया गया । |
| + | |
| + | किसी भी युग में, किसी भी समय में, किसी भी |
| + | |
| + | सन्दर्भ में यह काम विद्यासंस्थाओं को ही करना होता है । |
| + | |
| + | यह उनका दायित्व भी है और अधिकार भी | |
| + | |
| + | शिक्षा सर्व प्रकार की परम्पराओं को संजोकर रखने का |
| + | |
| + | माध्यम होती है । जब तक भारत में भारतीय शिक्षा चली ये |
| + | |
| + | सारी बातें परम्परा के रूप में लोगों के व्यवहार में और मानस |
| + | |
| + | ............. page-28 ............. |
| + | |
| + | में प्रतिष्ठित थीं । परन्तु जबसे ब्रिटीशों ने |
| + | |
| + | भारत की शिक्षा अपने नियन्त्रण में ली तबसे परम्परायें टूटने |
| + | |
| + | लगीं । अज्ञान और अनास्था बढ़ते गये और मानसिकता तथा |
| + | |
| + | व्यवस्थायें बदलती गईं । स्वाभाविक है कि शिक्षित लोगों में |
| + | |
| + | इनकी मात्रा अधिक है । कम शिक्षित लोगों की स्थिति |
| + | |
| + | ट्रिधायुक्त है । वे परम्पराओं को आस्थापूर्वक रखना भी चाहते |
| + | |
| + | हैं परन्तु शिक्षित लोगों ने बनाया हुआ सजमाना' ऐसा करने |
| + | |
| + | नहीं देता । इसलिये भारतीय व्यवस्था के अवशेष तो दिखाई |
| + | |
| + | देते हैं परन्तु उनकी दुर्गति भी त्वरित गति से हो रही है | |
| + | |
| + | हमें इसे ठीक पटरी पर लाना है यह तो आप समझ ही |
| + | |
| + | गये होंगे । |
| + | |
| + | नैमिषारण्य की कथा तो पहले सुनी हुई थी परन्तु उसके |
| + | |
| + | निहितार्थ सुनकर आचार्यों को अपने कार्य की महत्ता का बोध |
| + | |
| + | eat | विद्यासंस्थाओं की समाज में क्या भूमिका होती है |
| + | |
| + | उसका भी सम्यक ज्ञान हुआ । वे बहुत प्रसन्न हुए । कुछ पल |
| + | |
| + | मौन में बीते । यह मौन बहुत सार्थक था । सुनी हुई बातों को |
| + | |
| + | आत्मसात करने की प्रक्रिया का निदर्शक था । |
| + | |
| + | कुछ पल के बाद आचार्य मन्दार ने अपनी जिज्ञासा |
| + | |
| + | प्रस्तुत की । उन्होंने कहा... |
| + | |
| + | आचार्यजी, उससमय अठासी हजार ऋषियों ने बारह |
| + | |
| + | वर्ष ज्ञानसाधना कर समाज को व्यवस्थित किया । यह कथा |
| + | |
| + | बड़ी रोमांचक है और कार्य बहुत अदूभुत है । परन्तु आज |
| + | |
| + | क्या स्थिति है ? अठासी हजार तो क्या अठासी सौ |
| + | |
| + | अध्यापक भी नहीं मिलेंगे । अब अध्यापक ऋषि भी तो |
| + | |
| + | नहीं रह गये हैं । वे तो वेतनभोगी कर्मचारी मात्र हैं । उनके |
| + | |
| + | सरोकार ही कुछ और हैं । बारह वर्षों तक ज्ञानसाधना |
| + | |
| + | चलना भी असम्भव लगता है। विद्याकेन्द्र समाज की |
| + | |
| + | आस्था के केन्द्र नहीं रह गये हैं। आप गुरुकुलों का |
| + | |
| + | दायित्व और अधिकार बताते हैं । हमारी आपसे सहमति भी |
| + | |
| + | है । परन्तु परिस्थिति तो सर्वथा विपरीत है । तब यह कार्य |
| + | |
| + | होगा कैसे ? शिक्षा तो भारतीय बनाकर समाज को ठीक |
| + | |
| + | करने की चर्चा तो की जा सकती है परन्तु व्यवहार और |
| + | |
| + | व्यवस्था में यह सब कैसे आयेगा ? किससे आशा की जा |
| + | |
| + | सकती है ? किसकी क्षमता है ? कुछ भी सोच पाना |
| + | |
| + | कठिन हो गया है । आप कठिन लगाने वाली बातों को भी |
| + | |
| + | श्र |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | सहज ढंग से कह देते हैं । इस बात का भी विश्लेषण करने |
| + | |
| + | की कृपा करें । |
| + | |
| + | आचार्य ज्ञाननिधि स्वस्थतापूर्वक कहने लगे... |
| + | |
| + | आचार्य मन्दार, आपकी चिन्ता योग्य ही है । विगत |
| + | |
| + | दोसौ वर्षों से हमारे ज्ञानक्षेत्र पर जो आक्रमण हो रहा है वह |
| + | |
| + | अभूतपूर्व है । यह आक्रमण यदि केवल राजनैतिक होता, या |
| + | |
| + | केवल पाशवी बल का होता, या केवल अहंकारजनित होता |
| + | |
| + | तो उसे परास्त करना सरल था । इतिहास में हमने अनेक प्रकार |
| + | |
| + | के आक्रमण देखे हैं । रावण, कंस आदि के अत्याचार देखे |
| + | |
| + | हैं । वह अहंकारजनित अत्याचार था । उसे आक्रमण नहीं कह |
| + | |
| + | सकते । केवल आसुरी तत्त्वों की प्रबलता थी । हमने शक, |
| + | |
| + | हृण आदि के आक्रमण सुने हैं । वह केवल विजयाकांक्षा थी |
| + | |
| + | परन्तु उसका स्वरूप भौतिक था । अभी अभी के इतिहास में |
| + | |
| + | सिकंदर का आक्रमण भी सुना है । वह भी विजयाकांक्षा से |
| + | |
| + | प्रेरित था और भौतिक स्वरूप का था । यही नहीं इस्लाम के |
| + | |
| + | उदय के बाद पूरे विश्व ने जेहाद के नाम से इस्लामिक आक्रमण |
| + | |
| + | का अनुभव किया है । आज भी उसका अनुभव विश्व के अनेक |
| + | |
| + | देशों को हो रहा है । यह आक्रमण धर्म के नाम पर हो रहा |
| + | |
| + | है । उसी प्रकार इसाईकरण के उद्देश्य से भी इतिहास में अनेक |
| + | |
| + | आक्रमण हुए हैं । परन्तु इन सभी आक्रमणों का स्वरूप भौतिक |
| + | |
| + | और पाशवी बल के आधार पर किये गये आक्रमण का ही था |
| + | |
| + | और है । ब्रिटीशों के इन दोसौ वर्षों के आक्रमण का स्वरूप |
| + | |
| + | केवल भौतिक नहीं है, केवल जिहादी भी नहीं है । वह |
| + | |
| + | भौतिक और जिहादी उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिये बौद्धिक |
| + | |
| + | और मनोवैज्ञानिक साधनों का शस्त्र के रूप में प्रयोग करने का |
| + | |
| + | है । ब्रिटीशों ने शिक्षा का शस्त्र के रूप में प्रयोग किया । शिक्षा |
| + | |
| + | का उद्देश्य ज्ञानात्मक होता है । ब्रिटीशों ने उसका उपयोग |
| + | |
| + | राजनीतिक और आर्थिक हेतुओं से किया । यह पहले कभी |
| + | |
| + | नहीं हुआ था । यह सर्वथा एक भिन्न जीवनदृष्टि थी । जर्मन |
| + | |
| + | पण्डित मैक्समूलर का कथन है, “भारत एक बार जीता गया |
| + | |
| + | है, परन्तु वह दूसरी बार भी जीता जाना चाहिये । और यह |
| + | |
| + | दूसरी विजय शिक्षा (जो कि ज्ञान का क्षेत्र है) के माध्यम से |
| + | |
| + | होनी चाहिये' । अतः ब्रिटीशों ने शिक्षा के माध्यम से |
| + | |
| + | जीवनदृष्टि को ही बदलने का प्रयास किया और अपनी सत्ता |
| + | |
| + | का इसमें सहयोग लिया । सत्ता और अर्थ के सहयोग से उन्होंने |
| + | |
| + | ............. page-29 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | भारतीयों के मानस और विचार बदले । बदले हुए विचार और |
| + | |
| + | मानस ने व्यवस्थायें भी बदलना शुरू किया । परिवर्तन की यह |
| + | |
| + | प्रक्रिया अभी भी जारी है । अभी पूर्ण परिवर्तन नहीं हुआ है । |
| + | |
| + | परन्तु यह भी महतू आश्चर्य की बात है कि दोसौ वर्ष |
| + | |
| + | के आक्रमण के बाद भी हम अभी भी भारतीय बनकर ही |
| + | |
| + | जी रहे हैं। भारतीय प्रज्ञा का एक हिस्सा ऐसा है जो |
| + | |
| + | ब्रिटीशों और यूरोपीय जीवनदृष्टि से अत्यधिक प्रभावित है । |
| + | |
| + | परन्तु सामान्य जन अभी भी भारतीय मानस के साथ ही जी |
| + | |
| + | रहा है। इसका कारण यह है कि भगवती प्रकृति की |
| + | |
| + | योजना से भारत की चिति के अवपात का समय अभी |
| + | |
| + | आया नहीं है इसलिये भारत को भारत ही बने रहना है । |
| + | |
| + | यह भारत की नियति है । इसलिये भारत का सामान्य जन |
| + | |
| + | अनेक कठिनाइयों के बावजूद, अनेक अवरोधों के बावजूद |
| + | |
| + | अपना स्वभाव छोड़ता नहीं है। हाँ, शिक्षित लोग इस |
| + | |
| + | आक्रमण से अधिक मात्रा में परास्त हुए हैं और देश की |
| + | |
| + | व्यवस्थायें उनके प्रभाव में चलती हैं । इसलिये परेशानी |
| + | |
| + | बढ़ती है । परन्तु अभी भी आशा है । |
| + | |
| + | ऐसा लगता है कि इन अवरोधों को पाटने के लिये |
| + | |
| + | इस सामान्य जन का बहुत सहयोग प्राप्त होगा । फिर भी |
| + | |
| + | शिक्षित लोगों को भी साथ में तो लेना ही होगा । कारण |
| + | |
| + | यह है कि इस कठिन परिस्थिति से उबरने के प्रयास तो |
| + | |
| + | ज्ञानात्मक ही होने चाहिये । ज्ञानात्मक प्रयास के लिये हमें |
| + | |
| + | 2८ ५ |
| + | |
| + | 2 ५. |
| + | |
| + | शिक्षित लोगों के सहयोग की |
| + | |
| + | आवश्यकता रहेगी । हमें अपने शिक्षाक्षेत्र को परिष्कृत |
| + | |
| + | करना होगा । उसे आज ब्रिटीशों के ही प्रभाव के कारण |
| + | |
| + | अर्थ और सत्ता के शख्त्र के रूप में प्रयुक्त किया जाता है |
| + | |
| + | उसके स्थान पर सत्ता और अर्थ को ज्ञान की सेवा में लाना |
| + | |
| + | होगा । यह मानसिक और बौद्धिक क्षेत्र का कार्य |
| + | |
| + | sar, esd एवं सामान्य जन के सम्मिलित प्रयासों |
| + | |
| + | से ही होगा । |
| + | |
| + | यह कार्य कठिन अवश्य है परन्तु असम्भव नहीं है |
| + | |
| + | क्योंकि बौद्धिकों में भी इसे समझने वाले, इस दिशा में |
| + | |
| + | प्रयोग करने वाले, अपनी शक्ति और मति से प्रयास करने |
| + | |
| + | वाले बहुत लोग, बहुत संस्थायें और अनेक संगठन हैं । इन |
| + | |
| + | सबके सम्मिलित प्रयासों से परिष्कृति आने वाली ही है । |
| + | |
| + | ऐसे विश्वास से ही हम भी अपने अध्ययन की योजना बना |
| + | |
| + | रहे हैं यह तो आप जानते ही हैं । |
| + | |
| + | अतः चिन्तन अवश्य करें, चिन्ता न करें । |
| + | |
| + | आचार्य ज्ञाननिधि के मुख से परिस्थिति का विश्लेषण |
| + | |
| + | सुनकर सब आश्वस्त हुए । |
| + | |
| + | अनुप्रश्न तो दो ही हुए । वे इतने महत्त्वपूर्ण थे कि |
| + | |
| + | आगे अभी चर्चा करने की किसी की वृत्ति नहीं रही थी । |
| + | |
| + | समय भी बहुत हुआ था । अतः शान्ति पाठ के बाद उस |
| + | |
| + | दिन की सभा विसर्जित हुई । |
| + | |
| + | अध्याय ३ |
| + | |
| + | विकास की वर्तमान संकल्पना एवं स्वरूप |
| + | |
| + | माघ कृष्ण तृतीया का दिन था । प्रातः:काल का |
| + | |
| + | द्वितीय प्रहर था । गुरुकुल में आज अनेक अतिथि पधारे हुए |
| + | |
| + | थे । वे सब एक सप्ताह तक रहने वाले थे । ये अतिथि |
| + | |
| + | देशविदेश से भी आये थे और भारत के विभिन्न प्रदेशों से भी |
| + | |
| + | आये थे । सब उच्चविद्याविभूषित थे । देश और विदेश के |
| + | |
| + | विश्वविद्यालयों में ये सब अध्यापन और अनुसन्धान कर रहे |
| + | |
| + | थे । उनके अध्ययन के क्षेत्र भी विविध प्रकार के थे । कोई |
| + | |
| + | साहित्य एवं कला में तो कोई भौतिक विज्ञान में, कोई |
| + | |
| + | 83 |
| + | |
| + | खगोल में तो कोई भूगोल में, कोई समाजशास्त्र में तो कोई |
| + | |
| + | अर्थशास्त्र में, कोई योग में तो कोई संगीत में, कोई प्रबन्धन |
| + | |
| + | में तो कोई संगणक विद्या में अध्ययन अध्यापन और |
| + | |
| + | अनुसन्धान के कार्य में रत थे । वे विद्यावान थे और |
| + | |
| + | कीर्तिमान भी थे । लगभग सबने कई ग्रन्थों का लेखन किया |
| + | |
| + | था। कुछ लोगों ने विश्व की अनेक शिक्षासंस्थाओं में |
| + | |
| + | व्याख्यान हेतु प्रवास भी किया था । अनेक लोगों को अपने |
| + | |
| + | देश में और अन्य देशों में पुरस्कार भी प्राप्त हुए थे । कुछ |
| + | |
| + | ............. page-30 ............. |
| + | |
| + | तो विश्वविद्यालयों के कुलपति भी थे । |
| + | |
| + | ऐसे सब विद्रज्जन गुरुकुल के अतिथि हुए थे । |
| + | |
| + | गुरुकुल में पाँच दिन का ज्ञानसाधना सत्र था । तृतीया |
| + | |
| + | से लेकर सप्तमी तक चलने वाला था । आज प्रातः:काल |
| + | |
| + | यज्ञ से उसका प्रारम्भ हुआ था । प्रतिदिन पूर्वाह्न में तीन |
| + | |
| + | घण्टे और अपराह्क में तीन घण्टे ज्ञानसाधना सत्र चलने |
| + | |
| + | वाला था । कुल मिलाकर दस सत्र होने वाले थे । इन दस |
| + | |
| + | सत्रों में केवल एक ही विषय था । वह था “विकास की |
| + | |
| + | संकल्पना एवं स्वरूप' । तत्तविक चर्चा के साथ-साथ |
| + | |
| + | विकास के सम्यक् स्वरूप को प्रतिष्ठित करने के लिये कार्य |
| + | |
| + | योजना बनाने का भी आयोजन था । गुरुकुल इस |
| + | |
| + | ज्ञानसाधना सत्र का आयोजक था और गुरुकुल के आचार्यों |
| + | |
| + | का मानना था कि व्यवहार की चर्चा के बिना केवल |
| + | |
| + | cia चर्चा फलदायी नहीं होती है । अतः क्रियान्वयन |
| + | |
| + | की योजना बननी ही चाहिये | |
| + | |
| + | प्रात:काल ठीक साड़े आठ बजे सभा शुरू हुई । |
| + | |
| + | कुलपति आचार्य ज्ञाननिधि की अध्यक्षता में यह सभा होने |
| + | |
| + | वाली थी । उनका आगमन होने से पूर्व सारे विदट्रज्जन |
| + | |
| + | अपनेअपने स्थान पर बैठ गये थे । सभा में गम्भीर शान्ति |
| + | |
| + | छाई हुई थी । |
| + | |
| + | शंखनाद हुआ और कुलपतिजी का आगमन हुआ | |
| + | |
| + | उन्होंने दीप प्रज्वलन किया और अपना स्थान ग्रहण |
| + | |
| + | किया । गुरुकुल के आचार्य केशव ने संगठन मन्त्र का गान |
| + | |
| + | किया । संगठन मन्त्र इस प्रकार था ... |
| + | |
| + | सं गच्छध्बं सं बदध्वं सं वो मनांसि जानताम् |
| + | |
| + | देवा AMT यथा पूर्व संजानाना उपासते । |
| + | |
| + | समानो मंत्र: समिति: समानी समान॑ मन: सह चित्तमेषाम् । |
| + | |
| + | समानं मंत्रमभि मन्त्रये व समानेन वो हविषा जुहोमि । |
| + | |
| + | समानी व आकूति: समाना हृदयानि वः । |
| + | |
| + | समानमस्तु वो मनो यथा व: सुसहासति |
| + | |
| + | ३3% शान्ति: शान्ति: शान्ति: । |
| + | |
| + | संगठन मन्त्र के गान के बाद आचार्य शुभंकर खड़े |
| + | |
| + | हुए । वे इस ज्ञानसाधना सत्र के संयोजक थे । सबका |
| + | |
| + | स्वागत करते हुए उन्होंने कहा ... |
| + | |
| + | आज गुरुकुल के आवाहन का आदर कर आप सब |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | देशविदेश से पधारे हैं । मैं गुरुकुल की ओर से आप सबका |
| + | |
| + | स्वागत करता हूँ। यहाँ इस सभा में अमेरिका, यूरोप, |
| + | |
| + | जापान, चीन और ऑस्ट्रेलिया के विश्वविद्यालयों से वरिष्ठ |
| + | |
| + | प्राध्यापक आये हैं । भारत के विभिन्न शोधसंस्थानों के भी |
| + | |
| + | प्राध्यापक उपस्थित हैं । अपने अपने क्षेत्र में हमने पर्याप्त |
| + | |
| + | अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया है। इस |
| + | |
| + | ज्ञानसाधना सत्र का विषय है “विकास की संकल्पना एवं |
| + | |
| + | स्वरूप' । विकास संज्ञा आज के समय में केन्द्रवर्ती संज्ञा |
| + | |
| + | बन गई है । सभी देशों की सरकारें विकास को ही अपना |
| + | |
| + | मुख्य मुद्दा बताते हुए अपने कार्यक्रम निर्धारित करती हैं । |
| + | |
| + | राजनैतिक दल विकास के मुद्दे पर अपना चुनाव अभियान |
| + | |
| + | चलाते हैं । विकास के नाम पर देशों की श्रेष्ठता और |
| + | |
| + | कनिष्ठता निश्चित होती है । विकास ही जीवन का लक्ष्य |
| + | |
| + | बना हुआ है। |
| + | |
| + | विकास एक अच्छी बात है ऐसा हम सब मानते हैं । |
| + | |
| + | तभी तो हम उसके पीछे पड़े हैं । परन्तु मानव जाति दिन |
| + | |
| + | प्रतिदिन अधिकाधिक दुःखी हो रही दिखाई देती है । तब हमें |
| + | |
| + | विचार करना पढ़ता है कि ऐसा होने का कारण क्या है । |
| + | |
| + | विकास और सुख का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? विकास |
| + | |
| + | और समृद्धि का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ?विकास और |
| + | |
| + | संस्कृति का कोई सम्बन्ध है अथवा नहीं ? इन प्रश्नों के उत्तर |
| + | |
| + | खोजने में और भी कई प्रश्न निर्माण हो सकते हैं । आप सब |
| + | |
| + | विद्वान हैं । अपने स्वाध्याय और प्रत्यक्ष कार्य के कारण आप |
| + | |
| + | इस प्रश्न पर चर्चा करने हेतु योग्य व्यक्ति हैं । हम चर्चा के |
| + | |
| + | निष्कर्षों के आधार पर क्रियान्वयन की योजना भी बनायेंगे । |
| + | |
| + | मैं अधिक कुछ न कहते हुए आप सबका पुन: एक बार |
| + | |
| + | स्वागत करता हूँ और सभा के सूत्र अध्यक्ष महोदय के हाथ में |
| + | |
| + | देता हूँ और अपनी प्रस्तावना से चर्चा का प्रारम्भ करने हेतु |
| + | |
| + | निवेदन करता हैँ । |
| + | |
| + | विकास से तात्पर्य |
| + | |
| + | आचार्य ज्ञाननिधि ने प्रस्तावना के प्रारम्भ में ही एक |
| + | |
| + | बहुप्रचलित सुभाषित कहा ... |
| + | |
| + | सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वेसन्तु निरामया: । |
| + | |
| + | सर्वे भद्राणिपश्यन्तु मा कश्चिद्दुःख भागभवेत् ।। |
| + | |
| + | ............. page-31 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | आदरणीय विदट्रूज्जनों, आपको मेरा प्रणाम । मैंने अभी |
| + | |
| + | जो श्लोक कहा उसमें जो कामना की गई है वही |
| + | |
| + | सर्वजनहित और सर्वजनसुख हमारे सारे कार्यों का आलम्बन |
| + | |
| + | होता है। विशेष रूप से ज्ञान क्षेत्र का आलम्बन |
| + | |
| + | विश्वकल्याण ही होता है । इस बात को आधाररूप मानकर |
| + | |
| + | हम विकास के प्रश्न की चर्चा करेंगे । आज विश्व में सर्वत्र |
| + | |
| + | विकास की चर्चा हो रही है । परन्तु संकट बढ़ रहे हैं । इन |
| + | |
| + | दो बातों को साथ में रखकर हमें विचार करना है । मैं कुछ |
| + | |
| + | बिन्दु आपके समक्ष रखता हूँ। आप अपने विचार प्रस्तुत |
| + | |
| + | करने की कृपा करें । |
| + | |
| + | “विकास' संज्ञा का अर्थ क्या है ? क्या विकास का |
| + | |
| + | अर्थ वृद्धि है ? क्या विकास का अर्थ विपुलता है ? |
| + | |
| + | क्या विकास का अर्थ समृद्धि है ? क्या विकास का |
| + | |
| + | अर्थ यश और कोीर्ति है ? क्या विकास का अर्थ |
| + | |
| + | प्रतिष्ठा है ? क्या विकास का अर्थ सदुण और संस्कार |
| + | |
| + | है ? क्या विकास का अर्थ मुक्ति है ? क्या विकास |
| + | |
| + | का अर्थ ज्ञान है ? क्या विकास का अर्थ सर्वज्ञता |
| + | |
| + | है ? क्या विकास का अर्थ विजय है ? क्या विकास |
| + | |
| + | का अर्थ इन बातों में से एक या एक से अधिक या |
| + | |
| + | सभी हैं ? हम विश्लेषण पूर्वक चर्चा करें । |
| + | |
| + | क्या विकास व्यक्ति का होता है या समाज का ? देश |
| + | |
| + | का या होता है विश्व का ? क्या विकसित व्यक्तियों |
| + | |
| + | से समाज या देश विकसित होते हैं ? या व्यक्ति का |
| + | |
| + | विकास होने पर भी समाज या देश अविकसित ही रह |
| + | |
| + | जाते हैं ? या इससे उल्टा विकसित देश में |
| + | |
| + | अविकसित लोग रहते हैं ? क्या विश्व के देशों में |
| + | |
| + | विकास की कल्पना भिन्नभिन्न होती है ? क्या |
| + | |
| + | विकसित देश दूसरे विकसित देश का मित्र होता है ? |
| + | |
| + | याशत्रु ? |
| + | |
| + | विकास के कारक तत्त्व कौन से हैं ? विकसित होने |
| + | |
| + | के लिये व्यक्ति को या देशों को क्या करना पड़ता |
| + | |
| + | है ? क्या एक व्यक्ति का विकास दूसरे व्यक्ति के |
| + | |
| + | विकास के साथसाथ होता है ? या एक का विकास |
| + | |
| + | दूसरे के विकास के कारण नहीं हो सकता है ? कया |
| + | |
| + | यही बात देशों की है ? क्या विश्व में कुछ देशों की |
| + | |
| + | ga |
| + | |
| + | 2८ ५ |
| + | |
| + | 2 ५. |
| + | |
| + | नियति विकसित होने की और |
| + | |
| + | बने रहने की है और कुछ देशों की अविकसित बने |
| + | |
| + | रहने की ? |
| + | |
| + | विकसित देशों और व्यक्तियों का, अविकसित देशों |
| + | |
| + | और व्यक्तियों से कैसा सम्बन्ध होता है ? कैसा होना |
| + | |
| + | चाहिये ? जैसा होना चाहिये वैसा नहीं होने पर क्या |
| + | |
| + | किया जाना चाहिये ? |
| + | |
| + | क्या विकास का आधार संघर्ष है ? स्पर्धा है ? |
| + | |
| + | परिश्रम है ? सत्ता है ? शिक्षा है ? |
| + | |
| + | यदि विकास के सन्दर्भ में हम विधायक दृष्टि से |
| + | |
| + | विचार करते हैं तो विकास के परिणाम अच्छे आने |
| + | |
| + | चाहिये । परन्तु वर्तमान विश्व की स्थिति कुछ अलग |
| + | |
| + | बात कहती है । विश्व के अनेक देशों में प्राकृतिक |
| + | |
| + | संकट बढ़े हुए और निरन्तर बढ़ते हुए दिखाई देते हैं । |
| + | |
| + | सुनामी, अतिवृष्टि, भूकम्प, अकाल आदि प्राकृतिक |
| + | |
| + | संकट विकसित या अविकसित देशों में समान रूप से |
| + | |
| + | दिखाई देते हैं । विशेषरूप से ध्यान देने योग्य बात |
| + | |
| + | यह है कि अविकसित देशों की तुलना में विकसित |
| + | |
| + | देशों में इनकी मात्रा कुछ अधिक ही है । इसका क्या |
| + | |
| + | कारण हो सकता है ? मानव सृजित संकट, जैसे कि |
| + | |
| + | हिंसा, बलात्कार, छलकपट भी अविकसित देशों की |
| + | |
| + | अपेक्षा विकसित देशों में ही अधिक दिखाई देते हैं । |
| + | |
| + | इसका क्या कारण हो सकता है, इसका विचार हमें |
| + | |
| + | करना है । आतंकवाद बढ़ ही रहा है । सामाजिक |
| + | |
| + | समरसता, जोकि श्रेष्ठ समाज का लक्षण है का हास |
| + | |
| + | हो रहा है। विकास के सन्दर्भ में इन बातों का |
| + | |
| + | विचार करना अनिवार्य है । |
| + | |
| + | मैं बार-बार अविकसित देश ऐसा बोल रहा हैँ । |
| + | |
| + | आपको आश्चर्य लगता होगा । आजकल देशों को या |
| + | |
| + | व्यक्तियों को अविकसित नहीं कहा जाता है । आज |
| + | |
| + | से पचास वर्ष पूर्व देश विकसित और अविकसित |
| + | |
| + | देशों में विभाजित होते थे। तीसेक वर्ष पूर्व |
| + | |
| + | अविकसित के स्थान पर अल्पविकसित देश कहने |
| + | |
| + | का प्रचलन हुआ । आज अविकसित के स्थान पर |
| + | |
| + | विकासशील देश कहना शुरू हुआ है । परन्तु शब्द |
| + | |
| + | ............. page-32 ............. |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | ही बदले हैं, न भाव बदला है, न. तक किसीने नहीं की थी । आज मनुष्य रोबोट बना सकता |
| + | |
| + | स्थिति बदली है, न उनके प्रति देखने का दृष्टिकोण... है जो उसके सारे काम करता है । मनुष्य का श्रम अत्यधिक |
| + | |
| + | या उनके विषय में बोलने की भाषा या उनके साथ... मात्रा में कम कर देने वाले यन्त्रों का मानव जाति पर बड़ा |
| + | |
| + | व्यवहार करने का तरीका बदला है । इस बात की. उपकार है । |
| + | |
| + | और ध्यान आकर्षित करने के लिये ही मैंने रास्तों पर चलने वाले असंख्य वाहन विकास के |
| + | |
| + | अविकसित शब्द का प्रयोग किया है । आप चाहें तो... मानचिद्न हैं । उन वाहनों के लिये आवश्यक ईंधन भूमि से |
| + | |
| + | विकासशील शब्द का प्रयोग कर सकते हैं । निकालने की, उसे शुद्ध करने की, वाहनों के लिये सड़क |
| + | |
| + | इतनी बातें प्रस्तावना के रूप में कहकर आचार्य... बनाने की विद्या विकास की निशानी है । |
| + | |
| + | ज्ञाननिधि ने अपनी बात समाप्त की । सत्र विट्रूज्जनों की बड़ेबड़े भवन, बड़ेबड़े बाँध, भारत जैसे देश में |
| + | |
| + | प्रस्तुति के लिये खुला हुआ । कोनेकोने में बिछी हुई रेल, हवाई जहाज, बुलेट ट्रेन आदि |
| + | |
| + | आचार्य शुभंकर ने प्रथम ही आचार्य अग्निवेश को... विज्ञान के चमत्कार हैं । इनकी सहायता से हम विश्व के |
| + | |
| + | निमंत्रित किया । आचार्य अग्निवेश पश्चिम के देशों में किसी भी कोने से किसी भी कोने में सम्पर्क कर सकते हैं । |
| + | |
| + | अर्थशास्त्र और पर्यावरण के तज्ञ माने जाते थे । उन्होंने कई विश्व के किसी भी कोने में क्या हो रहा है वह देख सकते |
| + | |
| + | बड़ी-बड़ी कम्पनियों में आर्थिक परामर्शक के नाते अपनी. हैं, सुन सकते हैं, किसीसे भी बात कर सकते हैं । चौबीस |
| + | |
| + | सेवायें दी थीं । वे अभ्यासु थे, समृद्ध थे और सुप्रतिष्ठित भी. घण्टे के अन्दर कहीं पर भी आजा सकते हैं, वस्तु भेज |
| + | |
| + | थे । लोग उन्हें विकास के मुूर्तिमन्त पुरुष कहते थे । सकते हैं या मँगवा सकते हैं । विश्व आज एक छोटासा ग्राम |
| + | |
| + | बन गया है । इसका श्रेय विज्ञान को और वैज्ञानिकों को |
| + | |
| + | विकास और विज्ञान है। |
| + | |
| + | उन्होंने अध्यक्ष महोदय और सभा का अभिवादन कर आधुनिक विश्व की यह विकास यात्रा उन्नीसवीं |
| + | |
| + | अपनी बात शुरू की ... शताब्दी में यूरोप में शुरू हुई । टेलीफोन और स्टीम इंजिन |
| + | |
| + | आज कुल मिलाकर विश्व ने बहुत विकास किया है ।.. की खोज से शुरू हुई । यह विकासयात्रा आज तक अविरत |
| + | |
| + | यह विकास ज्ञान के क्षेत्र का है । ज्ञानात्मक विकास का... शुरू है । दिनोंदिन नये कीर्तिमान स्थापित हो रहे हैं । यहाँ |
| + | |
| + | मुख्य पहलू विज्ञान के विकास का है । मनुष्य ने अपनी . तक कि अब स्टीफन होकिन््स ने गॉड पार्टिकल की भी |
| + | |
| + | बुद्धि से चमत्कार कर विज्ञान के क्षेत्र में अद्भुत पराक्रम. खोज की और भगवान को वैज्ञानिक की प्रयोगशाला में |
| + | |
| + | किये हैं । मनुष्य अब अन्तरिक्ष में ग्रहों पर जा सकता है।.. आना पड़ा । |
| + | |
| + | उपग्रह बना सकता है । उपग्रहों के माध्यम से विश्वमर के इसीलिये तो आज के युग को विज्ञान का युग कहते |
| + | |
| + | समाचार चुटकी बजाते ही सर्वत्र पहुँचाये जा सकते हैं। हैं। विज्ञान ने मनुष्य को आधुनिकता, सुविधा और सुख |
| + | |
| + | मोबाइल, टी.वी. और संगणक उसके पराक्रम की पराकाष्ठा .... प्रदान किये हैं । |
| + | |
| + | है । वैज्ञानिकों ने अणुविस्फोट किये और शख्त्रों तथा ऊर्जा विज्ञान की यशोगाथा और उससे हुए विकास के |
| + | |
| + | के क्षेत्र में मानो चमत्कार हो गया । प्लास्टिक बनाया और . विषय में वे विस्तार से बोले । उन्होंने अनेक उदाहरण |
| + | |
| + | दुनिया सुन्दरता, विपुलता और विविधता से भर गई ।.. प्रस्तुत किये, अनेक प्रकार के आँकड़े दिये, अनेक चित्र |
| + | |
| + | सुविधा की सीमा नहीं रही । प्रदर्शित किये, समाचार पत्रों के अनेक वृत्त प्रस्तुत किये, |
| + | |
| + | मनुष्य की बुद्धि का और एक चमत्कार यन्त्रों की. अनेक महापुरुषों ने विज्ञान की जो प्रशंसा की थी उनके |
| + | |
| + | खोज है । यन्त्र भगवान ने नहीं बनाये, मनुष्य ने बनाये ।.. उद्धरण दिये । अपने प्रवचन को उन्होंने अनेक प्रमाणों से |
| + | |
| + | इतनी जटिल, इतनी सूक्ष्म, इतनी सर्व उपयोगी रचना आज . अधिकृत बनाया था । वे बहुत उत्साह से बोल रहे थे । |
| + | |
| + | श्घ् |
| + | |
| + | ............. page-33 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | उन्हें विज्ञान में, वैज्ञानिकों में और पाश्चात्य विश्व में बहुत |
| + | |
| + | श्रद्धा थी । विज्ञान उनके लिये भगवान था । उनके लिये |
| + | |
| + | वैज्ञानिक दृष्टिकोण ही सारी बातों का मापदण्ड था । |
| + | |
| + | उनका प्रवचन पूरा हुआ और प्रथम सत्र का समय |
| + | |
| + | भी। |
| + | |
| + | अध्यक्ष महोदय ने खास कोई टिप्पणी नहीं की । |
| + | |
| + | केवल इतना ही कहा कि आचार्य अग्निवेश ने बहुत दमदार |
| + | |
| + | तरीके से अपनी बातें रखी हैं और विज्ञान को विकास का |
| + | |
| + | कारक बताया है । आप सब इन मुद्दों पर विचार करें । |
| + | |
| + | अभी हम भोजन ग्रहण करेंगे । अपराह्न में चार बजे हम |
| + | |
| + | पुन: मिलेंगे । उस समय आचार्य वैभव नारायण अपनी बात |
| + | |
| + | TEM | aL Se | |
| + | |
| + | HATS HT AA | Sth AAT W MATS SA और |
| + | |
| + | आचार्य ज्ञाननिधि ने अपनी बैठक पर स्थान लिया । |
| + | |
| + | आचार्य वैभव नारायण ने अपनी प्रस्तुति प्रारम्भ की । |
| + | |
| + | आचार्य वैभव नारायण ने वेद्विद्या का अध्ययन किया था । |
| + | |
| + | जर्मनी के विश्वविद्यालय में वे बेद्विद्या विषयक अनुसन्धान |
| + | |
| + | विभाग के अध्यक्ष का दायित्व निभा रहे थे । उनका |
| + | |
| + | अध्ययन व्यापक था और चिन्तन गहरा था । उन्होंने |
| + | |
| + | भारतीय पण्डित का वेश धारण किया हुआ था । वे वास्तव |
| + | |
| + | में ऋषि ही लग रहे थे । उन्होंने वेदमंत्रों के गान से अपनी |
| + | |
| + | प्रस्तुति का प्रारम्भ किया । |
| + | |
| + | विकास का आर्थिक पक्ष |
| + | |
| + | वे कहने लगे... |
| + | |
| + | वेद हमेशा सम्पन्नता का उपदेश देते हैं । हमारे भण्डार |
| + | |
| + | धनधान्य से हमेशा भरेपूरे रहें, यही वेद भगवान का |
| + | |
| + | आशीर्वाद होता है । अत: वेदों के अनुसार आर्थिक विकास |
| + | |
| + | ही सही विकास है । प्राणिमात्र सुख की कामना करता है । |
| + | |
| + | मनुष्य भी हमेशा सुख चाहता है । मनुष्य को सुखी होने के |
| + | |
| + | लिये उसकी हर इच्छा की पूर्ति होना आवश्यक है । अन्न, |
| + | |
| + | वस्त्र, निवास तो उसकी प्राथमिक आवश्यकता है ही । साथ |
| + | |
| + | ही मनुष्य को अच्छी शिक्षा चाहिये । बीमार होने पर |
| + | |
| + | चिकित्सा चाहिये । ये भी उसकी प्राथमिक आवश्यकतायें |
| + | |
| + | हैं। परन्तु उसे मनोरंजन भी चाहिये । शास्त्र कहते हैं और |
| + | |
| + | श७ |
| + | |
| + | हमारा अनुभव भी है कि मनुष्य |
| + | |
| + | इच्छाओं का पुतला है । उसे अनेक वस्तुओं की इच्छा |
| + | |
| + | होती है। उसे वख््र केवल शरीर ढकने के लिये नहीं |
| + | |
| + | चाहिये । उसे सुन्दर भी दिखना होता है । इसलिये उसे |
| + | |
| + | विभिन्न प्रकार के वस्त्र चाहिये । साथ ही अलंकार भी |
| + | |
| + | चाहिये । उसे केवल पेट भरने के लिये अन्न नहीं चाहिये । |
| + | |
| + | उसे स्वाद की भी संतुष्टि चाहिये । चाहिये की सूची इतनी |
| + | |
| + | लम्बी होती है कि उसका अन्त ही नहीं है । इन वस्तुओं |
| + | |
| + | की प्राप्ति में सुख है, अप्राप्ति में दुःख । जो भी वस्तु उसे |
| + | |
| + | चाहिये वह अर्थ से ही प्राप्त होती है । इसलिये आर्थिक |
| + | |
| + | विकास ही सही विकास है । |
| + | |
| + | आर्थिक विकास का मूल आधार है भूमि । इसलिये |
| + | |
| + | भूमि का स्वामित्व होना आज के समय में विकास है । |
| + | |
| + | आर्थिक विकास का माध्यम है व्यवसाय । अच्छा व्यवसाय |
| + | |
| + | होना विकास है । अच्छे व्यवसाय का अर्थ है जिसमें खूब |
| + | |
| + | कमाई हो । मनुष्य की बुद्धि और कौशल भी उसके |
| + | |
| + | अधथर्जिन के आधार हैं । इसलिये बुद्धि और कौशल होना |
| + | |
| + | भी आर्थिक विकास के लिये आवश्यक है । ज्ञान भी |
| + | |
| + | आर्थिक विकास का आधार है । आज के विश्व को नॉलेज |
| + | |
| + | सोसाइटी कहा जाता है । ज्ञान से हम दुनिया जीत सकते हैं |
| + | |
| + | और जो चाहे वस्तु प्राप्त कर सकते हैं । |
| + | |
| + | आज हम जिसे पर्यावरण कहते हैं वे हैं भूमि, जल |
| + | |
| + | और वायु । वेदों ने इनमें अग्नि और आकाश जोड़कर उन्हें |
| + | |
| + | पंचमहाभूत कहा है । ये पंचमहाभूत हमारी आर्थिक समृद्धि |
| + | |
| + | का आधार हैं । इसलिये वेदों में उन्हें देवता कहा गया है |
| + | |
| + | और उनकी स्तुति की गई है । इन देवताओं के लिये यज्ञ |
| + | |
| + | भी किये जाते हैं । आर्थिक समृद्धि के लिये ही अनेक यज्ञ |
| + | |
| + | होते हैं । उदाहरण के लिये पर्जन्य यज्ञ वर्षा के लिये होता |
| + | |
| + | है । वर्षा से ही ae उगता है और हमें अन्न मिलता है । |
| + | |
| + | वर्तमान विश्व में जिन देशों की आर्थिक स्थिति |
| + | |
| + | अच्छी है उन्हें ही विकसित देश कहा जाता है । हम जानते |
| + | |
| + | ही हैं कि आज अमेरिका विश्व में प्रथम क्रमांक का देश है । |
| + | |
| + | इसका कारण उसकी आर्थिक स्थिति ही है । आज कितने |
| + | |
| + | ही देश भुखमरी से ग्रस्त हैं । वे सब विकासशील देश हैं । |
| + | |
| + | हमारा भारत भी विकासशील देश है । |
| + | |
| + | ............. page-34 ............. |
| + | |
| + | कम उत्पादन, रोजगार का |
| + | |
| + | अभाव, शिक्षितों को अथर्जिन के अवसरों का अभाव, |
| + | |
| + | पर्यावरण का प्रदूषण, झुग्गी झोंपड़ियों की संख्या में वृद्धि |
| + | |
| + | विकासशील देशों के लक्षण हैं । |
| + | |
| + | मनुष्य पढ़ता है, अच्छा व्यवसाय करता है, अच्छी |
| + | |
| + | कमाई करता है और समाज में प्रतिष्ठित होता है तब कहते |
| + | |
| + | हैं कि उसने विकास किया । यदि वह पढ़ाई में बहुत अच्छा |
| + | |
| + | है, हमेशा प्रथम क्रमांक पर आता है, बहुत पढ़ाई करता है |
| + | |
| + | परन्तु पढाई पूर्ण होने के बाद उसे नौकरी सामान्य सी |
| + | |
| + | मिलती है और वेतन कम मिलता है या वह खूब कमाई |
| + | |
| + | करने वाला व्यवसाय नहीं करता है तब भी उसे प्रतिष्ठा प्राप्त |
| + | |
| + | नहीं होती क्योंकि उसकी कमाई पर्याप्त नहीं है । इसके |
| + | |
| + | विपरीत यदि वह पढ़ाई कम भी करता है परन्तु कमाई |
| + | |
| + | अच्छी करता है तो वह समाज में प्रतिष्ठित हो जाता है । |
| + | |
| + | इसका अर्थ यह है कि आर्थिक विकास ही सही विकास |
| + | |
| + | a | |
| + | |
| + | लोगों के पास जब धन नहीं होता है तब वे अभावों |
| + | |
| + | में जीते हैं। अभावों में जीने वाला असन्तुष्ट रहता है, |
| + | |
| + | उसका मन कुंठा से ग्रस्त रहता है । समाज में जब कुंठाग्रस्त |
| + | |
| + | लोगों की संख्या अधिक रहती है तब नैतिकता कम होती |
| + | |
| + | है। कहा है न, “बुभुक्षित: कि न करोति पाप॑' - भूखा |
| + | |
| + | व्यक्ति क्या पाप नहीं करता । ऐसे समाज में चोरी, लूट, |
| + | |
| + | कपट बढ़ते हैं । असुरक्षा बढ़ती है । ऐसे में धनवान लोग |
| + | |
| + | भी असुरक्षितता का अनुभव करते हैं । समाज में अशान्ति |
| + | |
| + | फैलती है । ज्ञानविज्ञान की उपासना कम होती है । समाज |
| + | |
| + | असंस्कारी बन जाता है । इसलिये आर्थिक विकास ही |
| + | |
| + | सुख, शान्ति, संस्कार, ज्ञान आदि सभी अच्छी बातों का |
| + | |
| + | मूल है । आर्थिक विकास ही विकास है जो आगे की सारी |
| + | |
| + | सम्भावनाओं को जन्म देता है । |
| + | |
| + | भगवान विष्णु इस सृष्टि के पालनहार माने गये हैं । |
| + | |
| + | हमने चित्रों में देखा है और कथाओं में सुना है कि भगवती |
| + | |
| + | लक्ष्मी उनकी पत्नी हैं । लक्ष्मी का अर्थ है सर्व प्रकार की |
| + | |
| + | सम्पत्ति । लक्ष्मीवान ही अपना और अन्यों का पालन- |
| + | |
| + | पोषण कर सकता है । अत: लक्ष्मी की कृपा से प्राप्त समृद्धि |
| + | |
| + | ही विकास है । |
| + | |
| + | श्ट |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | कविकुलगुरु कालिदास ने अपने “रघुवंश' महाकाव्य |
| + | |
| + | में लिखा है, “एको ही दोषो गुणसच्निपाते निमज्तीन्दो: |
| + | |
| + | किरणेष्विवांक:' । तब उसकी टीका में मछ्िनाथ कहते |
| + | |
| + | “एको ही दोषो गुणसन्निपाते निमजतीन्दो: इति येन |
| + | |
| + | लिखित: । |
| + | |
| + | ज्ञातं न नून॑ कविनापि तेन दारिद्रयदोषो गुणराशिनाशी ।' |
| + | |
| + | अर्थात जो कवि यह कहता है कि गुणों के समुच्चय |
| + | |
| + | में केवल एक ही दोष चन्द्रमा में कलंक के समान दोष के |
| + | |
| + | रूप में दिखाई नहीं देता है,बह कवि वास्तव में जानता नहीं |
| + | |
| + | है कि दाखियि रूपी दोष सारे गुणों का नाश करता है । इस |
| + | |
| + | प्रकार विद्वान, कवि, सामान्य जन जानते हैं कि आर्थिक |
| + | |
| + | सम्पन्नता ही सही विकास है । आचार्य चाणक्य ने भी कहा |
| + | |
| + | है, 'सुखस्य मूलम् अर्थ:' - सुख का मूल अर्थ है । |
| + | |
| + | इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण ने आर्थिक |
| + | |
| + | सम्पन्नता को ही विकास के रूप में प्रतिपादित किया और |
| + | |
| + | सभा का आभार मानते हुए अपना स्थान ग्रहण किया । |
| + | |
| + | उनके वक्तव्य के बाद जिज्ञासा समाधान और मुक्त |
| + | |
| + | चिन्तन के लिये समय था । |
| + | |
| + | तब लक्ष्मेश नामक एक आचार्य ने कहा ... |
| + | |
| + | मेरे नाम में ही लक्ष्मी का नाम समाया है फिर भी मेरा |
| + | |
| + | मत है कि केवल आर्थिक विकास ही विकास नहीं है । |
| + | |
| + | हमने व्यवहार में भी देखा है कि सम्पन्नता के कारण अनेक |
| + | |
| + | युवा उच्छृंखल बन जाते हैं। सम्पन्नना के साथ यदि |
| + | |
| + | संस्कार नहीं हैं तो समाज में अनीति और भ्रष्टाचार ही फैलते |
| + | |
| + | हैं । सम्पन्नता सारे गुर्णों की नहीं, सारे दोषों की जननी है । |
| + | |
| + | आचार्य श्रीपति ने कहा ... |
| + | |
| + | आचार्य वैभव नारायणजी ने कहा कि आर्थिक |
| + | |
| + | विकास ही सही विकास है । वर्तमान मापदण्डों के अनुसार |
| + | |
| + | उनका कथन सही हो सकता है । परन्तु विचारणीय प्रश्न यह |
| + | |
| + | है कि क्या वर्तमान मापदृण्ड सही है ? यह मापदण्ड |
| + | |
| + | अमेरिका ने विश्व पर लादा है इसलिये क्या वह सही हो |
| + | |
| + | जाता है ? मेरा मत है कि प्रथम तो आर्थिक विकास को ही |
| + | |
| + | विकास मानने वाला यह मापदण्ड ही बदलना चाहिये । मेरे |
| + | |
| + | मतानुसार सांस्कृतिक विकास ही सही विकास है। |
| + | |
| + | ............. page-35 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
| + | |
| + | सांस्कृतिक विकास का आधार धर्म है । धर्म ही मनुष्य |
| + | |
| + | समाज की विशेषतता है । कहा है, |
| + | |
| + | आहारनिद्राभयमैथुन॑ च... सामान्यमेतत्पशुभिर्नराणाम् । |
| + | |
| + | धर्मों ही तेषामधिको विशेष: धर्मेण हीना: पशुभि: समाना: ॥। |
| + | |
| + | अर्थात |
| + | |
| + | आहार, निद्रा, भय और मैथुन की प्रवृत्ति मनुष्य और |
| + | |
| + | पशु दोनों में समान है । मनुष्य की विशेषता धर्म है । बिना |
| + | |
| + | धर्म के मनुष्य भी पशु के समान ही है । |
| + | |
| + | अत: विकास का सही आधार धर्म ही है । धर्म के |
| + | |
| + | आधार पर जो जीवनशैली विकसित होती है उसे ही |
| + | |
| + | संस्कृति कहते हैं । |
| + | |
| + | मुझे यदि अवसर मिला तो मैं मेरा विचार विस्तार से |
| + | |
| + | प्रस्तुत करूँगा । |
| + | |
| + | आचार्य मेधावी ने कहा ... |
| + | |
| + | विकसित समाज शान्ति और सौहार्द से जीता है । |
| + | |
| + | सम्पन्नता हो या न हो जिस समाज में शान्ति और सौहार्द |
| + | |
| + | नहीं होते हैं वह विकसित समाज नहीं कहा जाता । सौहार्द |
| + | |
| + | का आधार प्रेम होता है । अत: विकसित समाज वह है जो |
| + | |
| + | प्रेम से रहना जानता है । प्रेम, भक्ति और उपासना से उत्पन्न |
| + | |
| + | होता है और बढ़ता है । जब व्यक्ति एकदूसरे के साथ प्रेम |
| + | |
| + | से व्यवहार करते हैं तब वे सम्पन्न हों या न हों इससे अन्तर |
| + | |
| + | नहीं पड़ता । प्रेम से व्यवहार करने में नीतिमत्ता के लिये |
| + | |
| + | कानून नहीं बनाने पड़ते हैं । नैतिकता स्वत: ही विकसित |
| + | |
| + | होती है । इसलिये प्रेम से रहने वाला समाज ही विकसित |
| + | |
| + | समाज है । |
| + | |
| + | प्रश्न यह है कि व्यक्ति प्रेम से रहे कैसे ? प्रेम से रहने |
| + | |
| + | के अवरोध क्या हैं ? प्रेम से रहने के बड़े अवरोध हैं स्वार्थ |
| + | |
| + | और लोभ । हम शिक्षा को इस प्रकार मूल्यनिष्ठ बनायें कि |
| + | |
| + | मनुष्यों में स्वार्थ और लोभ कम हों । ऐसी शिक्षा से समाज |
| + | |
| + | विकसित होगा । |
| + | |
| + | इस प्रकार आचार्य वैभव नारायण के आर्थिक विकास |
| + | |
| + | को ही विकास बताने वाले विचार पर अनेक लोगों ने |
| + | |
| + | आपत्ति उठाई । संस्कार पक्ष को आप्रहपूर्वक स्थापित |
| + | |
| + | किया गया । |
| + | |
| + | इस सत्र का समय समाप्त होने को हुआ तब आचार्य |
| + | |
| + | 88 |
| + | |
| + | शुभंकर ने संचालन के सूत्र सम्हालते |
| + | |
| + | हुए कहा... |
| + | |
| + | हमने आज के दिन में विज्ञान के माध्यम से |
| + | |
| + | विकास;जो मुख्य रूप से कामनाओं की पूर्ति की दिशा में ले |
| + | |
| + | जाता है, उसका निरूपण सुना । दूसरे क्रम में आर्थिक |
| + | |
| + | विकास का निरूपण सुना । दोनों एकदूसरे के साथ जुड़े हुए |
| + | |
| + | हैं क्योंकि कामनाओं की पूर्ति मनुष्य की सहज प्रवृत्ति है |
| + | |
| + | और अर्थ उसका साधन है । इसलिये दोनों प्रस्तुतियाँ एक |
| + | |
| + | ही सिक्के के दो पहलू जैसी थीं । प्रतिभावों में हमने धर्म, |
| + | |
| + | संस्कृति, शान्ति, प्रेम, संस्कार जैसे विषयों का भी उल्लेख |
| + | |
| + | सुना । निश्चय ही यह विज्ञान और भौतिक पदार्थों के प्रभूत |
| + | |
| + | उत्पादन के पक्ष को नियंत्रित करने वाला है । कदाचित यह |
| + | |
| + | ade भी बनायेगा । इसलिये उस पर विस्तार से चर्चा |
| + | |
| + | होना आवश्यक है । हम कल इस पक्ष की चर्चा करेंगे । |
| + | |
| + | कल प्रात: ठीक साड़े आठ बजे सत्र प्रारम्भ होगा । आचार्य |
| + | |
| + | श्रीपति कल धर्म, संस्कृति और संस्कार का पक्ष रखेंगे । |
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| + | आप सब्से निवेदन है कि आप भी इस विषय में चिन्तन |
| + | |
| + | करें । |
| + | |
| + | सबने समवेत स्वर में शान्तिपाठ किया और प्रथम |
| + | |
| + | दिन की सभा विसर्जित हुई । |
| + | |
| + | दूसरे दिन सूर्योदय के समय यज्ञ हुआ । ठीक साड़े |
| + | |
| + | आठ बजे सभा शुरू हुई । आचार्य ज्ञाननिधि ने अपना |
| + | |
| + | स्थान ग्रहण किया । कल की तरह ही संगठन मन्त्र का गान |
| + | |
| + | हुआ । आचार्य ज्ञाननिधि ने विषय की प्रस्तावना की । |
| + | |
| + | उन्होंने कहा ... |
| + | |
| + | कल हमने आर्थिक विकास के विषय में और विज्ञान |
| + | |
| + | की महत्ता के बारे में सुना है । आज धर्म और संस्कृति को |
| + | |
| + | लेकर प्रतिपादन होने वाला है । हम शान्तिपाठ करते हैं । |
| + | |
| + | उसमें सबके सुख की, स्वास्थ्य की और कल्याण की |
| + | |
| + | कामना करते हैं । विकास के साथ इसका सीधा सम्बन्ध |
| + | |
| + | है । इस बात को ध्यान में रखकर हम अपने विचार प्रस्तुत |
| + | |
| + | करें, यही आप सबसे निवेदन है । |
| + | |
| + | आचार्य श्रीपति अपनी प्रस्तुति के लिये खड़े हुए । वे |
| + | |
| + | काशी के थे । काशी में उनका गुरुकुल था । उनके गुरुकुल |
| + | |
| + | में विभिन्न शास्त्रों का अध्ययन होता था । उनके छात्र भी |
| + | |
| + | ............. page-36 ............. |
| + | |
| + | शिक्षा का समग्र विकास प्रतिमान |
| + | |
| + | मेधावी छात्रों के रूप में ख्याति प्राप्त _ कि उनकी उत्पत्ति के साथ ही उनकी गति और गतिविधि |
| + | |
| + | थे । वे देशविदेश में पहुँचे थे । त्रेता और द्वापर में जिस... का नियमन करने वाले सिद्धान्त भी उत्पन्न हुए । जिसने |
| + | |
| + | प्रकार के गुरुकुल की उनकी कल्पना थी उस पद्धति से... सृष्टि बनाई उसीने ये नियम भी बनाये और उत्पन्न हुए सभी |
| + | |
| + | गुरुकुल चलाने का उनका प्रयास रहता था । अतः छात्रों... पदार्थ इन नियमों का पालन करेंगे ऐसी स्चना भी की । ये |
| + | |
| + | की संख्या कम थी परन्तु उनकी गुणवत्ता और प्रभाव बहुत. विश्वनियम हैं । इन विश्वनियमों को ही धर्म कहते हैं । आज |
| + | |
| + | था । वेद, दर्शनशाख्र और उपनिषदों में उनकी श्रद्धा थी ।... हमने निहित स्वार्थों और अज्ञान, अल्पज्ञान और विपरीत |
| + | |
| + | उन शास्त्रों को ही वे प्रमाण मानते थे । परम्परा में उनकी... ज्ञान के चलते केवल सम्प्रदायों को धर्म कहकर उसे कलह |
| + | |
| + | इतनी आस्था थी कि वे उसमें जरा भी समझौता करने के... का मुद्दा बनाया है । वह बड़ा आअधर्म है । परन्तु यह मुद्दा |
| + | |
| + | लिये तैयार नहीं होते थे । खानपान और वेशभूषा, दिनचर्या... हम बाद में देखेंगे । अभी हम विश्वनियम की बात कर रहे |
| + | |
| + | और जीवनचर्या के शास्त्रीय fie a पालन. हैं । ये विश्वनियम सृष्टि को धारण करते हैं । इसलिये हमारे |
| + | |
| + | कठोरतापूर्वक और कर्तव्यबुद्धि से करते थे । धाराप्रवाह... स्मृति ग्रन्थ कहते हैं, “धारणाद्धर्ममित्याहु: धर्मों धारयते |
| + | |
| + | संस्कृत बोलते थे और वेद Al wast का सस्वर प्रभावी... प्रजा: ।' अर्थात प्रजाओं को धारण करता है इसीलिये उसे |
| + | |
| + | ढंग से गान करते थे । धर्म कहते हैं । इसका अर्थ यह है कि जिस प्रकार धर्म |
| + | |
| + | विश्वनियम बनकर सृष्टि की धारणा करता है उसी प्रकार वह |
| + | |
| + | शाख्रनियम और लोकनियम बनकर समाज की धारणा करता |
| + | |
| + | नैमिषारण्य के ऋषियों का स्मरण कर उन्होंने अपनी . है। इस धर्म का पालन सबको सर्वत्र, सर्वदा करना ही |
| + | |
| + | प्रस्तुति शुरू की । वे कहने लगे ... होता है । भिन्न भिन्न संदर्भों में धर्म कभी कर्तव्य बन जाता |
| + | |
| + | धर्ममय जीवन जीने वाला व्यक्ति या समाज ही... है तो कभी स्वभाव, कभी नीतिमत्ता बन जाता है तो कभी |
| + | |
| + | विकसित व्यक्ति या समाज कहा जाता है । मैंने कल भी. उपासना । हर संदर्भ में वह प्रजा को धारण करने का कार्य |
| + | |
| + | कहा था कि मनुष्य पशु से विशेष केवल धर्म के कारण ही... ही करता है । |
| + | |
| + | है । धर्म का पालन करना मनुष्य के लिये आवश्यक है । आज हमने धर्म के नियमों का त्याग कर प्रजा की |
| + | |
| + | जब उसे धर्म का पालन करने में कष्ट का अनुभव होता है. धारणा हेतु राज्यव्यवस्था के अन्तर्गत कानून बनाये हैं और |
| + | |
| + | तब तो वह विकासशील कहा जायेगा, परन्तु जब वह धर्म. उसे संविधान का आधार दिया है । उद्देश्य तो संविधान और |
| + | |
| + | का पालन करने में सहजता का अनुभव करने लगेगा तब . कानून का प्रजा की सुरक्षा, सुख और समृद्धि का ही है । |
| + | |
| + | विकसित कहा जायेगा । धर्म के समान ही वह भी अपराधी को दण्ड और निरपराधी |
| + | |
| + | प्रार्भ में ही हमें धर्म संज्ञा को ठीक से समझ लेना... की रक्षा का ही है । परन्तु व्यवहार में वह अपना घोषित |
| + | |
| + | चाहिये । शास्त्र कहते हैं कि प्रजापति ब्रह्मा का पुत्र धर्म. उद्देश्य सिद्ध नहीं कर सकता है क्योंकि वह विश्वनियम का |
| + | |
| + | है । ब्रह्मा ने सृष्टि का सृजन किया । सृष्टि की उत्पत्ति के. अनुसरण नहीं करता है । वह यान्त्रिक है और चेतन सृष्टि |
| + | |
| + | साथ ही धर्म की भी उत्पत्ति हुई । धर्म के उत्पन्न होने का... के साथ समरस नहीं हो सकता है । |
| + | |
| + | प्रयोजन क्या है ? प्रयोजन उसके परिणाम में ही है । हम इस धर्म का पालन किये बिना सुख, समृद्धि, शान्ति, |
| + | |
| + | जानते हैं कि सृष्टि को ब्रह्माण्ड कहते हैं । इस ब्रह्माण्ड में... सौहार्द, ज्ञान कभी सम्भव ही नहीं है जो कि विकसित |
| + | |
| + | असंख्य ग्रह, नक्षत्र हैं । वे सारे गतिशील हैं । वे निरन्तर. समाज के लक्षण हैं । इसलिये मैं कहता हूँ कि धर्म के |
| + | |
| + | गति में रहते हैं । इतनी बड़ी संख्या में गतिशील पदार्थ भी. अनुसार जीवन जीना ही विकास है । |
| + | |
| + | एकदूसरे से टकराते नहीं हैं । न वे किसीका नाश करते हैं, धर्म के अनुसार जीना सीखना होता है । इसे सिखाने |
| + | |
| + | न उनका नाश होता है । यह कैसे हुआ ? यह ऐसे हुआ. का मुख्य साधन शिक्षा है। हमारी शिक्षा इस प्रकार से |
| + | |
| + | विकास का धार्मिक पक्ष |
| + | |
| + | २० |
| + | |
| + | ............. page-37 ............. |
| + | |
| + | we : १ तत्त्वचिन्तन |
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| + | पुनर्व्यवस्थित होना आज की महती आवश्यकता है । मैं तो |
| + | |
| + | यहाँ तक कहूँगा कि आज जो शिक्षाव्यवस्था हमने की है |
| + | |
| + | वह धर्म सिखाने की बात तो दूर की है उल्टे अधर्म सिखाती |
| + | |
| + | है। अत: विकास के लिये हमें धर्मानुसारी शिक्षा की |
| + | |
| + | व्यवस्था करनी होगी । |
| + | |
| + | आचार्य वैभव नारायण और आचार्य अगिवेश के |
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| + | विचारों का भी मैं आदर करता हूँ। विज्ञान सहायक हो |
| + | |
| + | सकता है, सम्पन्नता आवश्यक है परन्तु बिना धर्म के दोनों |
| + | |
| + | विनाशक सिद्ध होते हैं। अतः धर्म ही मुख्य है, विज्ञान |
| + | |
| + | और सम्पन्नता गौण । |
| + | |
| + | आचार्य श्रीपति ने अपने इस मुद्दे को प्रस्थापित करने |
| + | |
| + | के लिये अनेक उदाहरण दिये, अनेक तर्क भी दिये । उनकी |
| + | |
| + | प्रस्तुति भी प्रभावी थी । सभा में उनके विचार सुनकर एक |
| + | |
| + | हलचल मच गई थी । धर्म के सम्बन्ध में आचार्य श्रीपति ने |
| + | |
| + | जो बताया था वह सबके लिये अपरिचित था । वे सब उच्च |
| + | |
| + | विद्याविभूषित अवश्य थे परन्तु भारत में या अन्य देशों में |
| + | |
| + | धर्म के सम्बन्ध में इस प्रकार से कभी चर्चा नहीं होती थी । |
| + | |
| + | इसके विपरीत धर्म को लेकर विवाद भी बहुत अधिक हो |
| + | |
| + | रहे थे । ऐसे विवादों में इनमें से भी कई लोगों ने भाग लिया |
| + | |
| + | था । इसलिये आचार्य श्रीपति का कथन शान्त पानी में |
| + | |
| + | पत्थर फेंकने जैसा सिद्ध हुआ | |
| + | |
| + | आचार्य शुभंकर ने कहा ... |
| + | |
| + | वादेवादे जायते तत्त्वबोध: यह उक्ति हम सब जानते |
| + | |
| + | ही हैं। आज धर्म के सम्बन्ध में जो कहा गया है उस |
| + | |
| + | विषय पर भी हम वाद करें यह अपेक्षित है । अब शेष |
| + | |
| + | समय वाद के लिये ही है । जो भी प्रश्न करना चाहता है या |
| + | |
| + | अपना मुद्दा प्रस्तुत करना चाहता है वह सादर निमंत्रित है। |
| + | |
| + | आचार्य आशुतोष प्रश्न पूछने के लिये खड़े हुए । वे |
| + | |
| + | इन्द्रप्रस्थ विश्वविद्यालय में अर्थशास्त्र के प्राध्यापक थे । विश्व |
| + | |
| + | की अर्थशास्त्रीय परिभाषाओं का उन्होंने अध्ययन किया |
| + | |
| + | हुआ था । आर्थिक विकास के बड़े पक्षधर थे । उन्होंने |
| + | |
| + | पूछा ... |
| + | |
| + | विश्व के समाजशास्त्री आर्थिक विकास को ही श्रेष्ठता |
| + | |
| + | का मापदण्ड मानते हैं । धर्म के बारे में इतने आग्रहपूर्वक |
| + | |
| + | कोई नहीं बोलता है । ऐसे में आप धर्म का पक्ष ले रहे हैं |
| + | |
| + | रे |
| + | |
| + | यह आश्चर्य की बात है। मुझे नहीं |
| + | |
| + | लगता कि आपकी बात किसीको स्वीकार्य होगी । मैंने |
| + | |
| + | विश्व के समाजशाख्ियों के अभिप्रायों का यथासम्भव |
| + | |
| + | अध्ययन किया है | वे तो सब आर्थिक विकास के बहुत |
| + | |
| + | बड़े पक्षधर हैं । परन्तु मैं उनकी बात नहीं करना चाहता । |
| + | |
| + | मैं तो आपके आचार्य चाणक्य की ही बात करूँगा । उन्होंने |
| + | |
| + | भी कहा है, “धर्मस्य मूलम् अर्थ: । अर्थस्य मूलम् राज्यम्' । |
| + | |
| + | धर्म का मूल अर्थ है, अर्थ का मूल राज्य है । इसका |
| + | |
| + | तात्पर्य तो यही हुआ न कि राज्य नहीं है तो अर्थ नहीं |
| + | |
| + | रहेगा और अर्थ नहीं हो तो धर्म नहीं रहेगा । यह तो |
| + | |
| + | सामान्य समझ की बात है कि अर्थ ही प्रधान है, धर्म नहीं । |
| + | |
| + | आचार्य श्रीपति ने उत्तर में कहा ... |
| + | |
| + | मैंने अर्थ आवश्यक नहीं है ऐस) |