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{{One source|date=October 2019}}
 
{{One source|date=October 2019}}
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उद्देश्य<ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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== उद्देश्य ==
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# योग से शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं चित्त ऐसे पाँचों स्तर का विकास होता है<ref>प्रारम्भिक पाठ्यक्रम एवं आचार्य अभिभावक निर्देशिका, प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखिका: श्रीमती इंदुमती काटदरे
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</ref>। अर्थात् शरीर सुदृढ एवं स्वस्थ बनता है। चेतातंत्र शुद्ध होता है, प्राण संतुलित बनता है, मन एकाग्र होता है, बुद्धि विवेकशील होती है एवं चित्त शुद्ध होता है।
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# वर्तमान समय में सारा संसार योग के महत्व का स्वीकार कर रहा है। योग मूलभूत रूप से भारत की ही विद्या है। इसलिए योग का विद्यालय के शिक्षणक्रम का एक महत्वपूर्ण भाग बनना स्वाभाविक है।
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# योग शारीरिक शिक्षण का भाग नहीं है। उसका संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य या भौतिक विज्ञान के साथ ही नहीं है अपितु सभी विषयों के साथ है। योग एक संपूर्ण विज्ञान, एवं संपूर्ण शास्त्र है। इस दृष्टिकोण से भी विद्यालयों में योग का शिक्षण दिया जाना चाहिए।
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# योग से एक जीवनदृष्टि प्राप्त होती है। यह जीवनदृष्टि आदिकाल से भारत में स्वीकृत है। यही जीवनदृष्टि एवं इससे रचित जीवन व्यवहार के कारण ही भारत का अस्तित्व युगों से समान रूप से टिका हुआ है। यह जीवनदृष्टि हमारे छात्रों को प्राप्त हो एवं उनकी जीवनरचना भी उस तरह की बने इस उद्देश्य से भी योग शिक्षण की व्यवस्था जरूरी है।
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१. योग से शरीर, प्राण, मन, बुद्धि एवं चित्त ऐसे पाँचों स्तर का विकास होता है। अर्थात् शरीर सुदृढ एवं स्वस्थ बनता है। चेतातंत्र शुद्ध होता है, प्राण संतुलित बनता है, मन एकाग्र होता है, बुद्धि विवेकशील होती है एवं चित्त शुद्ध होता है।  
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== आलंबन ==
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# योग प्रदर्शन, सूचना या मूल्यांकन का विषय नहीं है। वह तो व्यवस्था, वातावरण, व्यवहार एवं भावना इत्यादि से संबंधित है।
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# योग अभ्यास का विषय है। इसलिए अधिक सीखने के स्थान पर अधिक अभ्यास के स्वरूप में होना चाहिए।
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# योग अनेक नामों से पहचाना जाता है। जैसे भक्तियोग, कर्मयोग, प्रेमयोग, ज्ञानयोग इत्यादि। जिसे हम योग कहते हैं वह है - राजयोग या पातंजलयोग। इसलिए पातंजल योगसूत्र इसका मुख्य आधार है।
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# योग के आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान एवं समाधि। इनमें यम, नियम आगे आनेवाले अभ्यास की आधारभूमि व संदर्भ बिन्दु निश्चित करते हैं। ये जीवनदृष्टि के विकास के मूल आधार हैं। इसलिए इन दोनों का सर्वाधिक महत्व है। शेष अंगों का गंभीर अभ्यास कम से कम बारह वर्ष की आयु के बाद ही हो सकता है। इसलिए यहाँ इन सभी अंगों की योग्य पूर्वतैयारी को ही महत्व दिया गया है।
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# पातंजल योग को आधार बनाकर योग के अन्य प्रकारों को भी जोड़ने का प्रयास किया गया है; क्योंकि जीवनव्यवहार में उनका भी महत्वपूर्ण स्थान है।
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# इस समन्वित दृष्टि से सोचकर योग का कक्षा १, २ के लिए इस प्रकार से पाठ्यक्रम तैयार किया गया है।  
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२. वर्तमान समय में सारा संसार योग के महत्त्व का स्वीकार कर रहा है। योग मूलभूत रूप से भारत की ही विद्या है। इसलिए योग का विद्यालय के शिक्षणक्रम का एक महत्त्वपूर्ण भाग बनना स्वाभाविक है।
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== पाठ्यक्रम ==
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३. योग शारीरिक शिक्षण का भाग नहीं है। उसका संबंध केवल शारीरिक स्वास्थ्य या भौतिक विज्ञान के साथ ही नहीं है अपितु सभी विषयों के साथ है। योग एक संपूर्ण विज्ञान, एवं संपूर्ण शास्त्र है। इस दृष्टिकोण से भी विद्यालयों में योग का शिक्षण दिया जाना चाहिए।
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=== श्वसन ===
 
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यह प्राणायाम की पूर्व तैयारी है। श्वसन मानव के पूर्ण जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए श्वसन योग्य रूप से ठीक तरह से हो इस तरह श्वासोच्छ्वास की आदत डालनी चाहिए। इस दृष्टि से निम्न बातें सीखना आवश्यक है:
४. योग से एक जीवनदृष्टि प्राप्त होती है। यह जीवनदृष्टि आदिकाल से भारत में स्वीकृत है। यही जीवनदृष्टि एवं इससे रचित जीवन व्यवहार के कारण ही भारत का अस्तित्व युगों से समान रूप से टिका हुआ है। यह जीवनदृष्टि हमारे छात्रों को प्राप्त हो एवं उनकी जीवनरचना भी उस तरह की बने इस उद्देश्य से भी योग शिक्षण की व्यवस्था जरूरी है।
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आलंबन
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१. योग प्रदर्शन, सूचना या मूल्यांकन का विषय नहीं है। वह तो व्यवस्था, वातावरण, व्यवहार एवं भावना इत्यादि से संबंधित है।
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२. योग अभ्यास का विषय है। इसलिए अधिक सीखने के स्थान पर अधिक अभ्यास के स्वरूप में होना चाहिए।
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३. योग अनेक नामों से पहचाना जाता है। जैसे भक्तियोग, कर्मयोग, प्रेमयोग, ज्ञानयोग इत्यादि। जिसे हम योग कहते हैं वह है - राजयोग या पातंजलयोग। इसलिए पातंजल योगसूत्र इसका मुख्य आधार है।
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४. योग के आठ अंग हैं - यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा,
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ध्यान एवं समाधि। इनमें यम, नियम आगे आनेवाले अभ्यास की आधारभूमि व संदर्भ बिन्दु निश्चित करते हैं। ये जीवनदृष्टि के विकास के मूल आधार हैं। इसलिए इन दोनों का सर्वाधिक महत्त्व है। शेष अंगों का गंभीर अभ्यास कम से कम बारह वर्ष की आयु के बाद ही हो सकता है। इसलिए यहाँ इन सभी अंगों की योग्य पूर्वतैयारी को ही महत्त्व दिया गया है।
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५. पातंजल योग को आधार बनाकर योग के अन्य प्रकारों को भी जोड़ने का प्रयास किया गया है; क्योंकि जीवनव्यवहार में उनका भी महत्त्वपूर्ण स्थान है।
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इस समन्वित दृष्टि से सोचकर योग का कक्षा १, २ के लिए इस प्रकार से पाठ्यक्रम तैयार किया गया है।
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पाठ्यक्रम
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१. श्वसन
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यह प्राणायाम की पूर्व तैयारी है। श्वसन मानव के पूर्ण जीवन के साथ जुड़ा हुआ है। इसलिए श्वसन योग्य रूप से ठीक तरह से हो इस तरह श्वासोच्छ्वास की आदत डालनी चाहिए। इस दृष्टि से निम्न बातें सीखना आवश्यक है।
      
१. दीर्घश्वसन, २. श्वास बाहर निकालना, ३. श्वास भरना, ४. किस नासिका से श्वास अंदर जा रहा है यह देखना, ५. स्थिर बैठकर श्वासोच्छ्वास करना, ६. श्वसन से संबंधित अच्छी आदतें बनाना, ७. समश्वसन, ८. भ्रामरी प्राणायाम।  
 
१. दीर्घश्वसन, २. श्वास बाहर निकालना, ३. श्वास भरना, ४. किस नासिका से श्वास अंदर जा रहा है यह देखना, ५. स्थिर बैठकर श्वासोच्छ्वास करना, ६. श्वसन से संबंधित अच्छी आदतें बनाना, ७. समश्वसन, ८. भ्रामरी प्राणायाम।  
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२. शुद्धिक्रिया
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=== शुद्धिक्रिया ===
 
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१. हाथपैर धोना एवं पोंछना, २. दांत साफ करना एवं कुल्ला करना, ३. स्नान करना, ४. नासिका स्वच्छ करना, ५. आँखें स्वच्छ करना। (इन सभी कार्यों का समावेश शारीरिक शिक्षण के पाठ्यक्रम में किया गया है। इनके विषय में विस्तृत विचार भी वहीं किया गया है।)  
१. हाथपैर धोना एवं पोंछना, २. दांत साफ करना एवं कुल्ला करना, ३. स्नान करना, ४. नासिका स्वच्छ करना, ५. आँखें स्वच्छ करना।  
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(इन सभी कार्यों का समावेश शारीरिक शिक्षण के पाठ्यक्रम में किया गया है। इनके विषय में विस्तृत विचार भी वहीं किया गया है।)
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३. आचार (पूजा)
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=== आचार (पूजा) ===
 
हम पूजा भक्ति एवं आदर दर्शाने के लिए करते हैं। पूजा के साथ हमारे हृदय के भाव एवं साथ ही आचार भी होते हैं। भाव बनाना एवं आचार सीखना पड़ता है। इस दृष्टि से निम्न बातों का समावेश किया गया है।
 
हम पूजा भक्ति एवं आदर दर्शाने के लिए करते हैं। पूजा के साथ हमारे हृदय के भाव एवं साथ ही आचार भी होते हैं। भाव बनाना एवं आचार सीखना पड़ता है। इस दृष्टि से निम्न बातों का समावेश किया गया है।
    
१. नमस्कार या प्रणाम करना : हाथ जोड़कर, हाथ जोड़कर एवं शीश झुकाकर, झुककर, चरमस्पर्श कर एवं साष्टांग प्रणाम, २. फूल चढ़ाना, ३. चंदन घिसकर लेप तैयार करना, ४. यज्ञ में आहुति देना, ५. नैवेद्य चढ़ाना।  
 
१. नमस्कार या प्रणाम करना : हाथ जोड़कर, हाथ जोड़कर एवं शीश झुकाकर, झुककर, चरमस्पर्श कर एवं साष्टांग प्रणाम, २. फूल चढ़ाना, ३. चंदन घिसकर लेप तैयार करना, ४. यज्ञ में आहुति देना, ५. नैवेद्य चढ़ाना।  
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४. जप करना  
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=== जप करना ===
 
   
जप एकाग्रता के लिए अच्छा उपाय है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि'। सभी यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ। अर्थात् जप सबसे बड़ा यज्ञ है। लोकभाषा में इसे माला जपना भी कहते हैं।  
 
जप एकाग्रता के लिए अच्छा उपाय है। श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्रीकृष्ण कहते हैं, 'यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि'। सभी यज्ञों में जपयज्ञ मैं हूँ। अर्थात् जप सबसे बड़ा यज्ञ है। लोकभाषा में इसे माला जपना भी कहते हैं।  
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५. कीर्तन करना  
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=== कीर्तन करना ===
 
   
कीर्तन अर्थात् प्रार्थना या भजन नहीं परंतु भगवान के गुणों का स्मरण। कीर्तन भगवान के संगीतमय नामस्मरण को कहते हैं।
 
कीर्तन अर्थात् प्रार्थना या भजन नहीं परंतु भगवान के गुणों का स्मरण। कीर्तन भगवान के संगीतमय नामस्मरण को कहते हैं।
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६. सेवा
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=== सेवा ===
 
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सेवा, भाव एवं कृति दोनों का समन्वय है। किसी भी प्रकार के प्रतिफल की अपेक्षारहित, निःस्वार्थभाव से किसी अन्य के लिए किया गया कार्य सेवा है। छात्र निम्न प्रकार से सेवा कर सकते हैं:
सेवा, भाव एवं कृति दोनों का समन्वय है। किसी भी प्रकार के प्रतिफल की अपेक्षारहित, निःस्वार्थभाव से किसी अन्य के लिए किया गया कार्य सेवा है। छात्र निम्न प्रकार से सेवा कर सकते हैं।
      
१. वृक्षसेवा, २. छात्रसेवा, ३. गुरुसेवा, ४. अतिथिसेवा, ५. वृद्धसेवा, ६. मातापिता की सेवा, ७. बडों की सेवा, ८. देवसेवा, ९. प्राणीसेवा, १०. विद्यालयसेवा, ११. पुस्तक/बस्तासेवा, १२. समाजसेवा  
 
१. वृक्षसेवा, २. छात्रसेवा, ३. गुरुसेवा, ४. अतिथिसेवा, ५. वृद्धसेवा, ६. मातापिता की सेवा, ७. बडों की सेवा, ८. देवसेवा, ९. प्राणीसेवा, १०. विद्यालयसेवा, ११. पुस्तक/बस्तासेवा, १२. समाजसेवा  
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७. मंत्रपाठ
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=== मंत्रपाठ ===
 
   
विभिन्न प्रकार के मंत्रों का पाठ करना, मन की एकाग्रता एवं वाणी की शुद्धि के लिए आवश्यक है। इसके संगीतमय पक्ष का समावेश संगीत के पाठ्यक्रम में किया गया है। पाठ करने योग्य मंत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है।  
 
विभिन्न प्रकार के मंत्रों का पाठ करना, मन की एकाग्रता एवं वाणी की शुद्धि के लिए आवश्यक है। इसके संगीतमय पक्ष का समावेश संगीत के पाठ्यक्रम में किया गया है। पाठ करने योग्य मंत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है।  
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८. स्तोत्र या स्तुति  
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=== स्तोत्र या स्तुति ===
 
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प्रार्थना, कीर्तन, भावना इत्यादि को स्तोत्र के रूप में गाया जा सकता है । ऐसे अनेक स्तोत्र भारत की सभी भाषाओं में सर्वत्र प्रचलित हैं। जनसमाज में उनका विशिष्ट स्थान है। इसलिए छात्रों को इनका परिचय भी होना चाहिए। सीखने योग्य स्तोत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है।  
प्रार्थना, कीर्तन, भावना इत्यादि को स्तोत्र के रूप में गाया जा सकता है । ऐसे अनेक स्तोत्र भारत की सभी भाषाओं में सर्वत्र प्रचलित हैं। जनसमाज में उनका विशिष्ट स्थान है। इसलिए छात्रों को इनका परिचय भी होना चाहिए।  
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सीखने योग्य स्तोत्रों की सूची स्वतंत्र पुस्तिका में दी गई है।
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९. आसन
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=== आसन ===
 
आसन, प्राणायाम आदि बारह वर्ष की आयु के बाद किए जाते हैं। यहाँ केवल निर्दोष एवं सभी के लिए करने योग्य आसनों की सूची दी गई है।
 
आसन, प्राणायाम आदि बारह वर्ष की आयु के बाद किए जाते हैं। यहाँ केवल निर्दोष एवं सभी के लिए करने योग्य आसनों की सूची दी गई है।
    
१. वज्रासन, २. पद्मासन, ३. ताड़ासन, ४. शशांकासन, ५. ध्रुवासन  
 
१. वज्रासन, २. पद्मासन, ३. ताड़ासन, ४. शशांकासन, ५. ध्रुवासन  
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१०. सद्गुण एवं सदाचार  
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=== सद्गुण एवं सदाचार ===
 
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सदगुण
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==== सदगुण ====
 
१. सत्य बोलना, २. सहनशीलता बनाए रखना, ३. एकबार निश्चित किया गया कार्य पूर्ण करना, ४. संयम बनाए रखना। (अपनी बारी आने तक प्रतीक्षा करना, बनी हुई हर वस्तु खाना, अन्य किसी की कोई वस्तु नहीं लेना।)
 
१. सत्य बोलना, २. सहनशीलता बनाए रखना, ३. एकबार निश्चित किया गया कार्य पूर्ण करना, ४. संयम बनाए रखना। (अपनी बारी आने तक प्रतीक्षा करना, बनी हुई हर वस्तु खाना, अन्य किसी की कोई वस्तु नहीं लेना।)
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सदाचार
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==== सदाचार ====
 
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# पंक्ति बनाए रखना।  
१. पंक्ति बनाए रखना।  
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# दाहिने हाथ से भोजन करना। थाली में जितना भोजन लिया हो सब खा लेना एवं चारों तरफ भोजन नहीं गिराना। प्याले में लिया हुआ जल पी लेना; गिराना नहीं।  
 
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# एल्युमिनियम या प्लास्टिक के बर्तन में भोजन नहीं करना।  
२. दाहिने हाथ से भोजन करना। थाली में जितना भोजन लिया हो सब खा लेना एवं चारों तरफ भोजन नहीं गिराना। प्याले में लिया हुआ जल पी लेना; गिराना नहीं।  
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# कापी के पन्ने नहीं फाडना।  
 
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# कपड़े धोये हुए, स्वच्छ एवं सुघड़ ही पहनना।  
३. एल्युमिनियम या प्लास्टिक के बर्तन में भोजन नहीं करना।  
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# किसी की निंदा नहीं करना।  
 
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# बस्ते मे अनावश्यक वस्तुएँ भरकर नहीं लाना।  
४. कापी के पन्ने नहीं फाडना।  
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# समयपालन करना।  
 
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# पुस्तकें सम्हालकर रखना। उनमें आड़ीटेढ़ी लकीरें बनाकर उसे गंदा नहीं करना।  
५. कपड़े धोये हुए, स्वच्छ एवं सुघड़ ही पहनना।  
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# कूड़ा हमेशा कूड़ेदान में ही डालना।  
 
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# शौच के लिए शौचालय का ही उपयोग करना एवं उपयोग के बाद वहाँ पानी डालकर स्वच्छता बनाए रखना।  
६. किसीकी निंदा नहीं करना।  
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# अवकाश के समय में ही कक्षा से बाहर जाना।  
 
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# पुस्तक, भोजन का डिब्बा, कोई व्यक्ति या प्राणी को पैर से नहीं छूना। यदि गलती से इनमें किसीको भी पैर लग जाए तो क्षमा माँग लेना।  
७. बस्ते मे अनावश्यक वस्तुएँ भरकर नहीं लाना।  
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# बिना कारण के व्यर्थ नहीं दौडना , नहीं चिल्लाना एवं न ही धक्कामुक्की करना।  
 
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८. समयपालन करना।  
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९. पुस्तकें सम्हालकर रखना। उनमें आड़ीटेढ़ी लकीरें बनाकर उसे गंदा नहीं करना।  
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१०. कूड़ा हमेशा कूड़ेदान में ही डालना।  
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११. शौच के लिए शौचालय का ही उपयोग करना एवं उपयोग के बाद वहाँ पानी डालकर स्वच्छता बनाए रखना।  
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१२. अवकाश के समय में ही कक्षा से बाहर जाना।
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१३. पुस्तक, भोजन का डिब्बा, कोई व्यक्ति या प्राणी को पैर से नहीं छूना। यदि गलती से इनमें किसीको भी पैर लग जाए तो क्षमा माँग लेना।  
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१४. बिना कारण के व्यर्थ नहीं दौडना , नहीं चिल्लाना एवं न ही धक्कामुक्की करना।  
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११. ध्यान
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=== ध्यान ===
 
१. स्थिर होकर शांति से आँखें बंद करके बैठना, २. आँखें बंद करके सुनना, ३. आँखें बंद करके स्मरण करना।  
 
१. स्थिर होकर शांति से आँखें बंद करके बैठना, २. आँखें बंद करके सुनना, ३. आँखें बंद करके स्मरण करना।  
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१२. ॐ कार
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=== ॐ कार ===
 
   
हमारे शरीर में जो रक्त परिभ्रमण करता है उसकी शुद्धि श्वास में लिए जानेवाले प्राणवायु से होती है। यदि लंबी एवं गहरी श्वास न लें तो फेफड़े पूर्णरुप से श्वास न भरने के कारण पूर्ण रूप से रक्तशुद्धि नहीं हो पाएगी। इसी तरह यदि पूर्ण रूप से बाहर न निकले तो अशुद्ध हवा शरीर के अंदर ही रहने के कारण स्वास्थ्य खराब होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसीलिए दीर्घश्वसन अर्थात् लंबा एवं गहरा श्वासोच्छवास करना चाहिए।  
 
हमारे शरीर में जो रक्त परिभ्रमण करता है उसकी शुद्धि श्वास में लिए जानेवाले प्राणवायु से होती है। यदि लंबी एवं गहरी श्वास न लें तो फेफड़े पूर्णरुप से श्वास न भरने के कारण पूर्ण रूप से रक्तशुद्धि नहीं हो पाएगी। इसी तरह यदि पूर्ण रूप से बाहर न निकले तो अशुद्ध हवा शरीर के अंदर ही रहने के कारण स्वास्थ्य खराब होने की सम्भावना बढ़ जाती है। इसीलिए दीर्घश्वसन अर्थात् लंबा एवं गहरा श्वासोच्छवास करना चाहिए।  
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कैसे करें।  
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==== कैसे करें। ====
 
   
सर्वप्रथम पालथी लगाकर सीधे एवं स्थिर होकर बैठें। गहरा उच्छ्वास करें। अब गरदन को हिलाए बिना जोर से गहरा श्वास भरें। छाती को फूलने दें। इसी तरह संपूर्ण श्वास बाहर निकाल दें।  
 
सर्वप्रथम पालथी लगाकर सीधे एवं स्थिर होकर बैठें। गहरा उच्छ्वास करें। अब गरदन को हिलाए बिना जोर से गहरा श्वास भरें। छाती को फूलने दें। इसी तरह संपूर्ण श्वास बाहर निकाल दें।  
   Line 130: Line 87:  
दीर्घश्वसन करते समय केवल जमीन पर न बैठें। कुर्सी या बेन्च पर पैर लटकाकर न बैठें। परंतु जमीन पर दरी या आसन बिछाकर ही बैठें। भोजन के तुरंत बाद श्वसन का अभ्यास न करें। श्वसन के अभ्यास से पूर्व दोनों नासिकाओं को स्वच्छ कर लें। श्वसन अभ्यास करते समय आसपास धुंआ या जोर से पंखा चलता हुआ नहीं होना चाहिए। बहुत गर्म या बहुत ठंडी हवा भी नहीं होनी चाहिए। एक मास या दो मास तक ऐसा अभ्यास करने से इसकी आदत बन जाती है। इसके बाद यदि दीर्घश्वसन न करें तो भी लंबा एवं गहरा श्वासोच्छवास ही होता है। प्रतिदिन घर में पाँच या दस मिनट तक दीर्घश्वसन का अभ्यास करना चाहिए। २. शुद्धिक्रिया : इसका निरूपण शारीरिक शिक्षण विभाग में किया गया है।
 
दीर्घश्वसन करते समय केवल जमीन पर न बैठें। कुर्सी या बेन्च पर पैर लटकाकर न बैठें। परंतु जमीन पर दरी या आसन बिछाकर ही बैठें। भोजन के तुरंत बाद श्वसन का अभ्यास न करें। श्वसन के अभ्यास से पूर्व दोनों नासिकाओं को स्वच्छ कर लें। श्वसन अभ्यास करते समय आसपास धुंआ या जोर से पंखा चलता हुआ नहीं होना चाहिए। बहुत गर्म या बहुत ठंडी हवा भी नहीं होनी चाहिए। एक मास या दो मास तक ऐसा अभ्यास करने से इसकी आदत बन जाती है। इसके बाद यदि दीर्घश्वसन न करें तो भी लंबा एवं गहरा श्वासोच्छवास ही होता है। प्रतिदिन घर में पाँच या दस मिनट तक दीर्घश्वसन का अभ्यास करना चाहिए। २. शुद्धिक्रिया : इसका निरूपण शारीरिक शिक्षण विभाग में किया गया है।
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आचार १. नमस्कार १. दोनों हाथ जोड़कर : हथेली के मूल से अंगुलियों के छोर तक पूर्णरूप
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आचार १. नमस्कार १. दोनों हाथ जोड़कर : हथेली के मूल से अंगुलियों के छोर तक पूर्णरूप से दोनों हाथ जोडें। अंगूठा एवं ऊँगलियाँ एकसाथ रखें। जुड़े हुए हाथों को सीने के पास ले जाएँ। अंगूठा सीने के मध्यभाग को स्पर्श करे इस तरह हाथों की मुद्रा बनाए रखें। इसी नमस्कार की मुद्रा के साथ
 
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से दोनों हाथ जोडें। अंगूठा एवं ऊँगलियाँ एकसाथ रखें। जुड़े हुए हाथों को सीने के पास ले जाएँ। अंगूठा सीने के मध्यभाग को स्पर्श करे इस तरह हाथों की मुद्रा बनाए रखें। इसी नमस्कार की मुद्रा के साथ
      
'नमस्कार' भी बोलें। २. दो हाथ जोड़कर शीश झुकाकर : उपरोक्त विधि से दोनों हाथ जोड़े एवं
 
'नमस्कार' भी बोलें। २. दो हाथ जोड़कर शीश झुकाकर : उपरोक्त विधि से दोनों हाथ जोड़े एवं
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है। सेवा से ही घर परिवार एवं समाज टिका रहता है। इसलिए इसका
 
है। सेवा से ही घर परिवार एवं समाज टिका रहता है। इसलिए इसका
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महत्त्व समझकर सेवा करना सिखाएँ। ७. मंत्रपाठ
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महत्व समझकर सेवा करना सिखाएँ। ७. मंत्रपाठ
    
१. मंत्र संगीत पुस्तिका में दिए गए हैं। २. मंत्रगान की पद्धति को स्वरित पद्धति करते हैं। अर्थात् मंद्र सप्तक का
 
१. मंत्र संगीत पुस्तिका में दिए गए हैं। २. मंत्रगान की पद्धति को स्वरित पद्धति करते हैं। अर्थात् मंद्र सप्तक का

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