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→‎शिक्षा आजीवन चलती है: लेख सम्पादित किया
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वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
 
वर्तमान व्यवस्था की तरह शिक्षा को केवल विद्यालय के साथ और केवल जीवन के प्रारंभिक वर्षों के साथ नहीं जोड़ा गया । शिक्षा का जीवन के साथ वैसा संबंध जोड़ा भी नहीं जा सकता है । कारण यह है की व्यक्ति का इस जन्म का जीवन शुरू होता है तब से शिक्षा उसके साथ जुड़ जाती है । सीखना शब्द संपूर्ण जीवन के साथ हर पहलू में जुड़ा है । गर्भाधान से ही व्यक्ति सीखना शुरू करता है । पुराणों में हम इसके अनेक उदाहरण देखते हैं । अभिमन्यु, अष्टावक्र आदि ने गर्भावस्था में ही अनेक बातें सीख ली थीं । केवल पुराणों के ही नहीं तो अर्वाचीन काल के, और केवल भारत में ही नहीं तो विश्व के अन्य देशों में भी ऐसे उदाहरण प्राप्त होते हैं । व्यक्ति अपनी मातृभाषा गर्भावस्था में ही सीखना प्रारम्भ कर देता है । पूर्व जन्म के और आनुवांशिक संस्कारों के रूप में व्यक्ति इस जन्म में जो साथ लेकर आता है उसमें गर्भावस्‍था से ही वह जोड़ना शुरू कर देता है । जन्म के बाद पहले ही दिन से उसकी शिक्षा प्रारम्भ हो जाती है । वह रोना, लेटना, दूध पीना सीखता ही है । वह रेंगना, घुटने चलना, खड़ा होना, हँसना, रोना, खाना, चलना, बोलना सीखता ही है। लोगों को पहचानना, उनका अनुकरण करना, सुनी हुई भाषा बोलना सीखता है । असंख्य बातें ऐसी हैं जो वह घर में, मातापिता के और अन्य जनों के साथ रहते रहते सीखता है । सीखते सीखते ही वह बड़ा होता है । जैसे जैसे बड़ा होता है वह अनेक प्रकार के काम करना सीखता है। अनेक वस्तुओं का उपयोग करना सीखता है । लोगों के साथ व्यवहार करना सीखता है, विचार करना, अपने अभिप्राय बनाना, अपने विचार व्यक्त करना,कल्पनायें करना सीखता है । अनेक खेल, अनेक हुनर, अनेक खूबियाँ, अनेक युक्तियाँ सीखता है । बड़ा होता है तो जीवन को समझता जाता है । प्रेरणा ग्रहण करता है और विवेक सीखता है । कर्तव्य समझता है, कर्तव्य निभाता भी है। बड़ा होता है तो पैसा कमाना सीखता है । अपने परिवार को चलाना सीखता है । अपने जीवन का अर्थ क्या है इसका विचार करता है । अपने मातापिता से, संबंधियों से, मित्रों से, साधुसंतों से वह अनेक बातें सीखता है । अपने अन्तःकारण से भी सीखता है । जप करके, ध्यान करके, दर्शन करके, तीर्थयात्रा करके वह अनेक बातें सीखता है। अनुभव से सिखता है । संक्षेप में एक दिन भी बिना सीखे खाली नहीं जाता । जीवन उसे सिखाता है, जगत उसे सिखाता है, अंतरात्मा उसे सिखाती है ।
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''तत्व के बारे में जानने की इच्छा होती है । मनुष्य ही काव्य''
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अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सीखता ही है । मृत्यु के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है। इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती है । जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त करना अनिवार्य नहीं है। यह भी आवश्यक नहीं की उसे लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्व कभी नहीं दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं। अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान के हुए हैं । अर्थार्जन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं। ऐसी शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक बनाया है।
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''अपने जीवन के अंतिम दिन तक वह सिखता ही है मृत्यु. की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर''
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== शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है ==
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मनुष्य इस सृष्टि के असंख्य पदार्थों में एक है । सृष्टि के असंख्य जीवधारियों में एक है । यह सत्य होने पर भी मनुष्य अपने जैसा एक ही है । सृष्टि के अन्य सभी असंख्य प्राणी, वनस्पति, पंचमहाभूत एक ओर तथा मनुष्य दूसरी ओर ऐसी सृष्टि की रचना है। इसका कारण यह है कि केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त का बना हुआ अंत:करण सक्रिय है। अन्य कोई भी मनुष्य की तरह विचार, कल्पना, रागद्वेष, ईर्ष्या, मद, अहंकार, उपकार, दया आदि नहीं कर सकता मनुष्य के अलावा अन्य कोई भी कार्यकारण भाव समझ नहीं सकता। मनुष्य की तरह अन्य कोई भी भक्ति, पूजा, प्रार्थना, उपासना आदि नहीं कर सकता । मनुष्य को ही स्वयं के बारे में, जगत के बारे में और स्वयं और जगत जिसमें से बने और जिसने बनाए उस तत्व के बारे में जानने की इच्छा होती है। मनुष्य ही काव्य की रचना कर सकता है, मनुष्य ही नये नये आविष्कार कर सकता है। ये सब ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न स्वरूप हैं । ज्ञान प्राप्त करने की उसकी सहज इच्छा होती है । ज्ञान प्राप्त करने की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं। इस सृष्टि में एक मात्र मनुष्य को ही जिज्ञासा प्राप्त हुई है।
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''के साथ इस जन्म का जीवन जब पूर्ण होता है तब अनेक. सकता है । ये सब ज्ञानार्जन के भिन्न भिन्न स्वरूप हैं । ज्ञान''
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अपनी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य जो भी करता है वह सब शिक्षा है। शिक्षा का प्रयोजन ही ज्ञान प्राप्त करना है।
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''बातें वह अगले जन्म के लिए साथ ले जाता है प्राप्त करने की उसकी सहज इच्छा होती है । ज्ञान प्राप्त करने''
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ज्ञान क्या है ? श्रुति अर्थात् हमारे मूल शास्त्रग्रंथ कहते हैं कि परमात्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । परमात्मा क्या है, कौन है, कैसा है इसकी परम अनुभूति ज्ञान है । सृष्टि में परमात्मा अनेक रूप धारण करके रहता है। अत: ज्ञान भी अनेक स्वरूप धारण करके रहता है । कहीं वह जानकारी है, कहीं ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन है, कहीं कर्मेन्द्रियों की क्रिया है, कहीं विचार है, कहीं कल्पना है, कहीं विवेक है, कहीं संस्कार है , कहीं अनुभूति है। इन सभी स्वरूपों में ज्ञान प्राप्त करना मनुष्य की सहज प्रवृत्ति होती है। शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने के लिए है।
   −
''इस प्रकार शिक्षा उसके साथ आजीवन जुड़ी हुई रहती. की इच्छा को जिज्ञासा कहते हैं । इस सृष्टि में एक मात्र''
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शिक्षा, जैसे पूर्व में बताया है, ज्ञान प्राप्त करने हेतु की गई व्यवस्था है, प्रयास है, प्रक्रिया है। वर्तमान में हम शिक्षा का प्रयोजन अर्थार्जन ही मान लेते हैं । यह सर्वथा अनुचित तो नहीं है परन्तु शिक्षा का यह सीमित प्रयोजन है । व्यवहार में शिक्षा यश और प्रतिष्ठा के लिए भी है, विजय प्राप्त करने के लिए भी है, सुख प्राप्त करने के लिए भी है, अर्थ प्राप्त करने के लिए भी है । परन्तु शिक्षा का परम प्रयोजन ज्ञान प्राप्त करना है ।
   −
''है । जो सीखता है और बढ़ता है वही मनुष्य है । इस शिक्षा... मनुष्य को ही जिज्ञासा प्राप्त हुई है ।''
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इस अर्थ में ही विष्णु पुराण में प्रह्लाद कहते हैं<ref>तत्कर्म यन्न बन्धाय सा विद्या या विमुक्तये।
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''के लिए उसे विद्यालय जाना, गृहकार्य करना, प्रमाणपत्र प्राप्त अपनी जिज्ञासा को सन्तुष्ट करने के लिए मनुष्य जो''
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आयासायापरं कर्म विद्यऽन्या शिल्पनैपुणम्॥१-१९-४१॥
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''करना अनिवार्य नहीं है । यह भी आवश्यक नहीं की उसे... भी करता है वह सब शिक्षा है । शिक्षा का प्रयोजन ही ज्ञान''
+
श्रीविष्णुपुराणे प्रथमस्कन्धे एकोनविंशोऽध्यायः
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</ref>:
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''लिखना और पढ़ना आता ही हो । भारत में अक्षर लेखन. प्राप्त करना है ।''
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सा विद्या या विमुक्तये ॥१-१९-४१॥
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''और पुस्तक पठन को आज के जितना महत्त्व कभी नहीं ज्ञान कया है ? श्रुति अर्थात्‌ हमारे मूल शाख्रग्रंथ कहते''
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अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति के लिए है
   −
''दिया गया । अनेक यशस्वी उद्योगपति बिना अक्षरज्ञान के. हैं कि परमात्मा स्वयं ज्ञानस्वरूप है । परमात्मा कया है, कौन''
+
तात्पर्य यह है कि परम प्रयोजन में शेष सब समाविष्ट हो जाते हैं।
   −
''हुए हैं। अनेक उत्कृष्ट कारीगर और कलाकार बिना... है, कैसा है इसकी परम अनुभूति ज्ञान है । सृष्टि में परमात्मा''
+
== शिक्षा पदार्थ नहीं है ==
 
+
शिक्षा को आज भौतिक पदार्थ की तरह क्रयविक्रय का पदार्थ माना जाता है और उसका बाजारीकरण हुआ है, इसीलिए यह मुद्दा बताने की आवश्यकता होती है । शिक्षा का उपभोग भौतिक पदार्थ की तरह ज्ञानेन्ट्रियों से नहीं किया जाता । वह अन्न की तरह शरीर को पोषण नहीं देती, वह वस्त्र की तरह शरीर का रक्षण नहीं करती और अपने रंगो और आकारों के कारण आँखों और मन को सुख नहीं देती । वह कामनापूर्ति का आनंद भी नहीं देती। वह धन का संग्रह करते हैं उस प्रकार संग्रह में रखने लायक भी नहीं है । वह सुविधाओं के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसीकी प्रशंसा करके प्राप्त नहीं की जाती । वह धनी माता पिता के घर में जन्म लेने के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसी से छीनी नहीं जाती । वह छिपाकर रखी नहीं जाती । उसे तो बुद्धि, मन और हृदय से अर्जित करनी होती है । वह स्वप्रयास से ही प्राप्त होती है । वह साधना का विषय है, वह साधनों से प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि वह अपने अन्दर होती है, अपने साथ होती है, अपने ही प्रयासों से अपने में से ही प्रकट होती है । इसलिए शिक्षा का स्वरूप भौतिक नहीं है । उसका क्रय विक्रय नहीं हो सकता । उसका बाजार नहीं हो सकता | यहाँ शिक्षा ज्ञान के पर्याय के रूप में बताई गई है । इसलिए शिक्षा के तन्त्र में धन, मान, प्रतिष्ठा, सत्ता, सुविधा, भय, दण्ड आदि का कोई स्थान नहीं है । वह स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वपुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है ।
''अक्षरज्ञान के हुए हैं । अनेक सन्त महात्मा बिना अक्षरज्ञान.. अनेक रूप धारण करके रहता है । अत: ज्ञान भी अनेक''
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''के हुए हैं । अधथार्जिन, कला, तत्वज्ञान और साक्षात्कार के... स्वरूप धारण करके रहता है । कहीं वह जानकारी है, कहीं''
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''लिए अक्षरज्ञान कभी भी अनिवार्य नहीं रहा । इतिहास. ज्ञानेन्द्रियों के संवेदन है, कहीं कर्मेन्ट्रियों की क्रिया है, कहीं''
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''प्रमाण है कि शिक्षा के संबंध में इस धारणा के चलते. विचार है, कहीं कल्पना है, कहीं विवेक है, कहीं संस्कार है''
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''भारत अत्यन्त शिक्षित राष्ट्र रहा है क्योंकि ज्ञानविज्ञान के... , कहीं अनुभूति है । इन सभी स्वरूपों में ज्ञान प्राप्त करना''
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''प्रत्येक क्षेत्र में भारत ने अनेक सिद्धियाँ हासिल की हैं । ऐसी... मनुष्य की सहज प्रवृत्ति होती है । शिक्षा ज्ञान प्राप्त करने के''
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''शिक्षा के कारण ही भारत ने जीवन को समृद्ध और सार्थक. लिए है।''
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''बनाया है । शिक्षा, जैसे पूर्व में बताया है, ज्ञान प्राप्त करने हेतु की''
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''गई व्यवस्था है, प्रयास है, प्रक्रिया है ।''
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== ''शिक्षा ज्ञानार्जन के लिए होती है'' ==
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''वर्तमान में हम शिक्षा का प्रयोजन अथर्जिन ही मान''
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''मनुष्य इस सृष्टि के असंख्य पदार्थों में एक है । सृष्टि .. लेते हैं । यह सर्वथा अनुचित तो नहीं है परन्तु शिक्षा का यह''
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''के असंख्य जीवधारियों में एक है । यह सत्य होने पर भी... सीमित प्रयोजन है । व्यवहार में शिक्षा यश और प्रतिष्ठा के''
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''मनुष्य अपने जैसा एक ही है । सृष्टि के अन्य सभी असंख्य.. लिए भी है, विजय प्राप्त करने के लिए भी है, सुख प्राप्त''
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''प्राणी, वनस्पति, पंचमहाभूत एक ओर तथा मनुष्य दूसरी. करने के लिए भी है, अर्थ प्राप्त करने के लिए भी है । परन्तु''
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''ओर ऐसी सृष्टि की रचना है । इसका कारण यह है कि... शिक्षा का परम प्रयोजन ज्ञान प्राप्त करना है ।''
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''केवल मनुष्य में ही मन, बुद्धि, अहंकार, चित्त का बना हुआ इस अर्थ में ही विष्णु पुराण में प्रह्वाद कहते हैं, ;सा''
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''अंतः:करण सक्रिय है। अन्य कोई भी मनुष्य की तरह... विद्या या विमुक्तये; अर्थात विद्या वही है जो मुक्ति के लिए''
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''विचार, कल्पना, रागट्रेष, इं्या, मद, अहंकार, उपकार, है” । तात्पर्य यह है कि परम प्रयोजन में शेष सब समाविष्ठ''
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''दया आदि नहीं कर सकता । मनुष्य के अलावा अन्य कोई हो जाते हैं ।''
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''भी कार्यकारण भाव समझ नहीं सकता । मनुष्य की तरह नहीं''
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''अन्य कोई भी भक्ति, पूजा, प्रार्थथा, उपासना आदि नहीं कर''
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== ''शिक्षा पदार्थ नहीं है'' ==
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''सकता । मनुष्य को ही स्वयं के बारे में, जगत के बारे में शिक्षा को आज भौतिक पदार्थ की तरह क्रयविक्रय''
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''और स्वयं और जगत जिसमें से बने और जिसने बनाए उस... का पदार्थ माना जाता है और उसका बाजारीकरण हुआ है''
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इसीलिए यह मुद्दा बताने की आवश्यकता होती है । शिक्षा का उपभोग भौतिक पदार्थ की तरह ज्ञानेन्ट्रियों से नहीं किया जाता । वह अन्न की तरह शरीर को पोषण नहीं देती, वह वस्त्र की तरह शरीर का रक्षण नहीं करती और अपने रंगो और आकारों के कारण आँखों और मन को सुख नहीं देती । वह कामनापूर्ति का आनंद भी नहीं देती। वह धन का संग्रह करते हैं उस प्रकार संग्रह में रखने लायक भी नहीं है । वह सुविधाओं के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसीकी प्रशंसा करके प्राप्त नहीं की जाती । वह धनी माता पिता के घर में जन्म लेने के कारण सुलभ नहीं होती । वह किसी से छीनी नहीं जाती । वह छिपाकर रखी नहीं जाती । उसे तो बुद्धि, मन और हृदय से अर्जित करनी होती है । वह स्वप्रयास से ही प्राप्त होती है । वह साधना का विषय है, वह साधनों से प्राप्त नहीं होती । तात्पर्य यह है कि वह अपने अन्दर होती है, अपने साथ होती है, अपने ही प्रयासों से अपने में से ही प्रकट होती है । इसलिए शिक्षा का स्वरूप भौतिक नहीं है । उसका क्रय विक्रय नहीं हो सकता । उसका बाजार नहीं हो सकता | यहाँ शिक्षा ज्ञान के पर्याय के रूप में बताई गई है । इसलिए शिक्षा के तन्त्र में धन, मान, प्रतिष्ठा, सत्ता, सुविधा, भय, दण्ड आदि का कोई स्थान नहीं है । वह स्वेच्छा, स्वतन्त्रता और स्वपुरुषार्थ से ही प्राप्त होती है ।
      
== मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है ==
 
== मनुष्य को मनुष्य बनाने के लिए शिक्षा होती है ==
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जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज, कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है। उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।
 
जीवन के हर पड़ाव पर वह भिन्न भिन्न रूप से सीखता ही जाता है । कभी उसकी गति मन्द होती है, कभी तेज, कभी वह बहुत अच्छा सीखता है कभी साधारण, कभी वह सीखने लायक बातें सीखता है कभी न सीखने लायक, कभी वह सीखाने के रूप में भी सीखता है कभी केवल सीखता है। उसके सीखने के तरीके बहुत भिन्न भिन्न होते हैं । उसे सिखाने वाले भी तरह तरह के होते हैं ।
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कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है। जीवन शिक्षा का यह समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा इसका एक छोटा अंश है। वह भी महत्त्वपूर्ण अवश्य है परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार, वह भी समग्रता में, करना होगा।
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कैसे भी हो वह सीखता अवश्य है। जीवन शिक्षा का यह समग्र स्वरूप है । विद्यालय की बारह पंद्रह वर्षों की शिक्षा इसका एक छोटा अंश है। वह भी महत्वपूर्ण अवश्य है परन्तु आज केवल विद्यालयीन शिक्षा का विचार करने से काम बनने वाला नहीं है । अत: आजीवन शिक्षा का विचार, वह भी समग्रता में, करना होगा।
    
== व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा ==
 
== व्यक्ति की सर्व क्षमताओं का विकास करने वाली शिक्षा ==
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मनुष्य को जीवित कहा जाता है, प्राण के कारण । प्राण ही आयु है । शरीर यंत्र है तो प्राण ऊर्जा है । सृष्टि की सारी ऊर्जा का स्रोत प्राण है । वह अन्नरसमय पुरुष का आश्रय करके ही रहता है और उसके आकार का ही होता है । शरीर में सर्वत्र प्राण का संचार रहता है । श्वास के माध्यम से वह विश्वप्राण से जुड़ता है । जब तक प्राण शरीर में रहता है तब तक मनुष्य जीवित रहता है, जब प्राण शरीर को छोड़कर चला जाता है तब मनुष्य मृत होता है ।
 
मनुष्य को जीवित कहा जाता है, प्राण के कारण । प्राण ही आयु है । शरीर यंत्र है तो प्राण ऊर्जा है । सृष्टि की सारी ऊर्जा का स्रोत प्राण है । वह अन्नरसमय पुरुष का आश्रय करके ही रहता है और उसके आकार का ही होता है । शरीर में सर्वत्र प्राण का संचार रहता है । श्वास के माध्यम से वह विश्वप्राण से जुड़ता है । जब तक प्राण शरीर में रहता है तब तक मनुष्य जीवित रहता है, जब प्राण शरीर को छोड़कर चला जाता है तब मनुष्य मृत होता है ।
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प्राण का पोषण होने से वह बलवान होता है । शरीर का बल प्राण पर निर्भर करता है । प्राण का आहार से पोषण होता है और उसका बल शरीर में दिखता है । प्राण क्षीण होने से व्यक्ति बीमार होता है, प्राण बलवान होने से शरीर निरामय होता है। प्राण बलवान होने से उत्साह, महत्त्वाकांक्षा, विजिगिषु मनोवृत्ति आदि प्राप्त होते हैं ।
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प्राण का पोषण होने से वह बलवान होता है । शरीर का बल प्राण पर निर्भर करता है । प्राण का आहार से पोषण होता है और उसका बल शरीर में दिखता है । प्राण क्षीण होने से व्यक्ति बीमार होता है, प्राण बलवान होने से शरीर निरामय होता है। प्राण बलवान होने से उत्साह, महत्वाकांक्षा, विजिगिषु मनोवृत्ति आदि प्राप्त होते हैं ।
    
आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राण की वृत्तियाँ हैं। इनमें से आहार और निद्रा शरीर से और भय तथा मैथुन मन से संबंध जोड़ती हैं। शरीर यंत्रशक्ति है तो प्राण कार्यशाक्ति है। उसे जीवनी शक्ति भी कहा जाता है ।
 
आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राण की वृत्तियाँ हैं। इनमें से आहार और निद्रा शरीर से और भय तथा मैथुन मन से संबंध जोड़ती हैं। शरीर यंत्रशक्ति है तो प्राण कार्यशाक्ति है। उसे जीवनी शक्ति भी कहा जाता है ।
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मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है।
 
मन ज्ञानेन्द्रियों और कर्मन्द्रियों का स्वामी है। वह अपनी इच्छाओं के अनुसार इनसे क्रियायें करवाता रहता है। मन शरीर और प्राण से अधिक सूक्ष्म है। वह शरीर का आश्रय करके रहता है और शरीर में सर्वत्र व्याप्त होता है। वह अधिक सूक्ष्म है इसलिये अधिक प्रभावी है। अपनी इच्छाओं को पूरा करने के लिये वह शरीर और प्राण की भी परवाह नहीं करता। उदाहरण के लिये शरीर के लिये हानिकारक हो ऐसा पदार्थ भी उसे अच्छा लगता है इसलिये खाता है । वह खाता भी है और पछताता भी है । पछताने के बाद फिर से नहीं खाता ऐसा भी नहीं होता है।
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मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्त्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है।
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मन को ही सुख और दुःख का अनुभव होता है। सुख देने बाले पदार्थों में वह आसक्त हो जाता है । उनसे वियोग होने पर दुःखी होता है । मनुष्य अपने मन के कारण जो चाहे प्राप्त कर सकता है। ऐसे मन को वश में करना, संयम में रखना मनुष्य की शिक्षा का अत्यन्त महत्वपूर्ण आयाम है । वास्तव में सारी शिक्षा में यह सबसे बड़ा हिस्सा होना चाहिए। ऐसे शक्तिशाली मन को एकाग्र, शान्त और अनासक्त बनाना, सदुणी और संस्कारवान बनाना शिक्षा का महत कार्य है।
    
शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा। सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है। जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है। अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है।
 
शरीर यंत्रशक्ति है, प्राण कार्यशाक्ति है तो मन विचारशक्ति, भावनाशक्ति और इच्छाशक्ति है। जीवन में जहाँ जहाँ भी इच्छा है, विचार है या भावना है वहाँ वहाँ मन है । मन की शिक्षा का अर्थ है अच्छे बनने की शिक्षा। सारी नैतिक शिक्षा या मूल्यशिक्षा या धर्मशिक्षा मन की शिक्षा है । मन को एकाग्र बनाने से बुद्धि का काम सरल हो जाता है। जब तक मन एकाग्र नहीं होता, किसी भी प्रकार का अध्ययन नहीं हो सकता । जब तक मन शान्त नहीं होता किसी भी प्रकार का अध्ययन टिक नहीं सकता । जब तक मन अनासक्त नहीं होता निष्पक्ष विचार संभव ही नहीं है। अतः: मन की शिक्षा सारी शिक्षा का केंद्रवर्ती कार्य है।
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''इन संस्कारों की विधि, सामग्री, इस जन्म में प्रवेश करता है तब से उसकी मृत्यु हो जाती है''
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इन संस्कारों की विधि, सामग्री, मंत्र, वय, प्रक्रिया आदि सभी विशेषरुप से निश्चित किया गया है । उसके महत्त्व का आग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया गया है और युगों से उसका पालन और आचरण होने से उसका प्रभाव भी अतिशय बढ़ गया है।
 
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''मंत्र, वय, प्रक्रिया आदि सभी विशेषरुप से निश्चित किया... तब तक का समय संस्कारबद्ध किया गया है अर्थात्‌ मनुष्य''
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''गया है । उसके महत्त्व का आअग्रहपूर्वक प्रतिपादन किया गया... को संस्कारमय बनाया गया है ।''
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''है और युगों से उसका पालन और आचरण होने से उसका इन संस्कारों के परिणाम से मात्र व्यक्ति का ही नहीं,''
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''प्रभाव भी अतिशय बढ़ गया है । समग्र समाज का चरित्र बनता है, विकसित होता है । समाज''
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''संस्कारों की सूचि देखने से ध्यान में आता है कि जीव... सुशिक्षित बनता है ।''
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संस्कारों की सूचि देखने से ध्यान में आता है कि जीव इस जन्म में प्रवेश करता है तब से उसकी मृत्यु हो जाती है तब तक का समय संस्कारबद्ध किया गया है अर्थात् मनुष्य को संस्कारमय बनाया गया है। इन संस्कारों के परिणाम से मात्र व्यक्ति का ही नहीं, समग्र समाज का चरित्र बनता है, विकसित होता है । समाज सुशिक्षित बनता है।
    
==References==
 
==References==

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