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| भारतीय सोच के अनुसार व्यक्तित्व विकास के चार आयाम है । वे है व्यक्तिगत् विकास, समष्टिगत् विकास, सृष्टिगत् विकास और परमेष्ठीगत् विकास। पहले तीन के विकास से चौथे का विकास अपने आप हो जाता है। | | भारतीय सोच के अनुसार व्यक्तित्व विकास के चार आयाम है । वे है व्यक्तिगत् विकास, समष्टिगत् विकास, सृष्टिगत् विकास और परमेष्ठीगत् विकास। पहले तीन के विकास से चौथे का विकास अपने आप हो जाता है। |
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− | '''व्यक्तिगत् विकास''' से अर्थ है, शरीर, प्राण, मन, बुध्दि, चित्त इन पाँच घटकों का विकास । ये पाँच घटक हर व्यक्ति के भिन्न होते है । इन्ही पाँच बातों को पंचकोश विकास भी कहा जाता है । शरीर अर्थात् अन्नमय कोश, प्राण अर्थात् प्राणमय कोष, मन अर्थात् मनोमय कोश, बुद्धि याने विज्ञानमय कोश और चित्त अर्थात् आनंदमय कोश का विकास । शरीर एक यंत्र जैसा है । पंच कर्मेन्द्रिय और पंच ज्ञानेन्द्रिय तथा शरीर मे काम करनेवाली चेतातंत्र, रक्ताभिसरण, पाचनतंत्र आदि विभिन्न प्रणालियाँ प्राण शक्ति के कारण चलती है । प्राण इस शरीर रूपी यंत्र को चलानेवाला इंधन है । प्राण शरीर और इंन्द्रियों से अधिक सूक्ष्म है । इसलिये अधिक बलवान है । तीसरा घटक है मन । मनोमय का संबंध मन से होता है । मन के विकास का अर्थ है चंचलता मुक्त, स्थिर, एकाग्र, अलिप्त, निर्द्वंद्व, और विकार रहित मन । इंन्द्रियोंपर नियंत्रण करने वाले और बुध्दि के नियंत्रण में रहने वाला मन । ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, स्मृति, निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अन्मान, विश्लेषण, संश्लेषण और कल्पनाशक्ति का विकास ही बुध्दि का विकास होता है । | + | '''व्यक्तिगत् विकास''' से अर्थ है, शरीर, प्राण, मन, बुद्धि, चित्त इन पाँच घटकों का विकास । ये पाँच घटक हर व्यक्ति के भिन्न होते है । इन्ही पाँच बातों को पंचकोश विकास भी कहा जाता है । शरीर अर्थात् अन्नमय कोश, प्राण अर्थात् प्राणमय कोष, मन अर्थात् मनोमय कोश, बुद्धि याने विज्ञानमय कोश और चित्त अर्थात् आनंदमय कोश का विकास । शरीर एक यंत्र जैसा है । पंच कर्मेन्द्रिय और पंच ज्ञानेन्द्रिय तथा शरीर मे काम करनेवाली चेतातंत्र, रक्ताभिसरण, पाचनतंत्र आदि विभिन्न प्रणालियाँ प्राण शक्ति के कारण चलती है । प्राण इस शरीर रूपी यंत्र को चलानेवाला इंधन है । प्राण शरीर और इंन्द्रियों से अधिक सूक्ष्म है । इसलिये अधिक बलवान है । तीसरा घटक है मन । मनोमय का संबंध मन से होता है । मन के विकास का अर्थ है चंचलता मुक्त, स्थिर, एकाग्र, अलिप्त, निर्द्वंद्व, और विकार रहित मन । इंन्द्रियोंपर नियंत्रण करने वाले और बुद्धि के नियंत्रण में रहने वाला मन । ग्रहणशक्ति, धारणाशक्ति, स्मृति, निरीक्षण, परीक्षण, तर्क, अन्मान, विश्लेषण, संश्लेषण और कल्पनाशक्ति का विकास ही बुद्धि का विकास होता है । |
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| आनंदमय कोश के विकास का अर्थ है, चित्त का विकास । अपने शरीर में स्थित उस परमात्वतत्व को जैसा वह है वैसा ही जानने की क्षमता, सहजता, स्वतंत्रता, सौंदर्यबोध यह चित्त के विकास के लक्षण है । | | आनंदमय कोश के विकास का अर्थ है, चित्त का विकास । अपने शरीर में स्थित उस परमात्वतत्व को जैसा वह है वैसा ही जानने की क्षमता, सहजता, स्वतंत्रता, सौंदर्यबोध यह चित्त के विकास के लक्षण है । |
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− | मनुष्य और समाज - इन का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के बिना मनुष्य जी नही सकता । इस समाज के संबंध में आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही समष्टिगत् विकास कहलाता है । समाज के हर घटक के दुख में दुख की अनुभूति होना इसका लक्षण है । इसी तरह मनुष्य और समाज सृष्टि के बिना जीवित नही रह सकते। इस चराचर सृष्टि के साथ आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही सृष्टिगत् विकास है । उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है । <blockquote>अहं ब्रह्मास्मि<ref>बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद</ref></blockquote><blockquote>तत् त्वं असि<ref>छान्दोग्य उपनिषद 6.8.7</ref> </blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्मं<ref>छान्दोग्य उपनिषद 3.14.1- सामवेद</ref></blockquote>अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही नर का नारायण बनाना है। यही अहंकार विजय है। यही मानव जीवन का लक्ष्य है । | + | मनुष्य और समाज - इन का परस्पर संबंध अन्योन्याश्रित है । समाज के बिना मनुष्य जी नही सकता । इस समाज के संबंध में आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही समष्टिगत् विकास कहलाता है । समाज के हर घटक के दुख में दुख की अनुभूति होना इसका लक्षण है । इसी तरह मनुष्य और समाज सृष्टि के बिना जीवित नही रह सकते। इस चराचर सृष्टि के साथ आत्मीयता की, एकात्मता की भावना का विकास ही सृष्टिगत् विकास है । उपर्युक्त तीनों प्रकार से विकास होने से परमेष्ठिगत् विकास अपने आप हो जाता है । <blockquote>अहं ब्रह्मास्मि<ref>बृहदारण्यक उपनिषद १/४/१० - यजुर्वेद</ref></blockquote><blockquote>तत् त्वं असि<ref>छान्दोग्य उपनिषद 6.8.7</ref> </blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्मं<ref>छान्दोग्य उपनिषद 3.14.1- सामवेद</ref></blockquote>अर्थात् मैं ही वह परमात्मतत्व हूं, तुम भी वह परमात्वत्व ही हो और चराचर में वह परमात्मतत्व ही व्याप्त है इस की अनुभूति होना ही परमेष्ठिगत् विकास है । यही पूर्णत्व है । यही मोक्ष है । यही अहंकार विजय है। यही मानव जीवन का लक्ष्य है । |
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| == मानव जीवन का लक्ष्य == | | == मानव जीवन का लक्ष्य == |
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| == मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें == | | == मानव के व्यक्तित्व से संबंधित महत्वपूर्ण बातें == |
− | # मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। किंतु भारतीय मान्यता और इतिहास के अनुसार नर करनी करे तो नारायण तक विकास कर सकता है। | + | # मानव यह परमात्मा की सर्वश्रेष्ठ रचना है। सर्वश्रेष्ठ अभिव्यक्ति है। परमात्मा की सभी शक्तियाँ मनुष्य के पास विद्यमान होतीं हैं। केवल मात्रा का अंतर होता है। मानव की शक्तियाँ मर्यादित हैं। परमात्मा की अमर्याद हैं। |
− | # मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। भारतीय मान्यता है कि जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है। जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तर पर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तर पर जीने लगता है। '''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुध्दि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है। | + | # मानव जीवन का नियमन उसके कर्म ही करते हैं। भारतीय मान्यता है कि जीवों की ८४ लक्ष योनियाँ हैं। इनमें केवल मानव योनि ही कर्मयोनि है। अन्य सभी प्राणियों की योनियाँ भोग योनियाँ हैं। प्राणि उन्हें कहते हैं जो प्राण के यानि आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के स्तरपर जीते हैं। इन अर्थों में मानव एक प्राणि भी है। जन्म से तो मानव भी अन्य प्राणियों जैसा प्राण के स्तर पर जीनेवाला जीव ही होता है। संस्कार और शिक्षा से वह मन के स्तर पर जीने लगता है। '''मन के स्तर पर जीनेवाले को मानव कहते हैं'''। बुद्धि के स्तर पर जीनेवाले को महामानव और चित्त या आत्मिक स्तर पर जीनेवाले को और भी अधिक श्रेष्ठ मानव या नरोत्तम कहा जाता है। |
− | # मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुध्दि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुध्दि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है। | + | # मानवेतर योनियों के प्राणियों को अपने स्वाभाविक प्राणिक आवेगों के अनुसार चलने मात्र की बुद्धि और मन मिला है। इसलिये सामान्यत: ये प्राणि स्वतंत्र कर्म नहीं कर सकते। केवल मानव को विशेष मन, बुद्धि, स्मृति आदि मिले हैं इस कारण वह अन्य प्राणियों से भिन्न, प्राणिक आवेगों से भिन्न और प्राणिक आवेगों के विपरीत भी कर्म करने की स्वतंत्रता ले सकता है। मानव व्यवहार की इस स्वतंत्रता का नियमन उस के कर्मों से होता है। यह नियमन कर्मसिध्दांत के आधार पर होता है। कर्मसिध्दांत की अधिक जानकारी के लिये ‘[[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|जीवनशैली के सूत्र]]‘ अध्याय में देखें। ऋणसिद्धांत का आधार भी कर्मसिद्धांत ही है। |
| # सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी। सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है। | | # सृष्टि में मानव निर्माण तो सब से अंत में हुआ था। उससे पहले सृष्टि थी। सृष्टि के विलय की प्रक्रिया में भी मानव जाति नष्ट होने के उपरांत भी सृष्टि होगी। सृष्टि को मानव की आवश्यकता नहीं है। लेकिन मानव सृष्टि के बगैर जी नहीं सकता। इसलिये मानव के लिये यह अनिवार्य है कि वह सृष्टि के साथ अपने को समायोजित करे। अपने सभी व्यवहार प्रकृति सुसंगत रखे। प्रकृति का संतुलन नहीं बिगाडे। सृष्टि चक्र को अबाधित रखे। वैसे भी सृष्टि या प्रकृति के साथ जब मानव खिलवाड़ करता है, एक सीमा तक तो प्रकृति उसे सहन कर लेती है। इस सीमा को लाँघने के बाद प्रकृति भी उसकी प्रतिक्रया देती है। इस प्रतिक्रया से मानव का ही नुकसान होता है। |
| # श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है। | | # श्रेष्ठता के साथ दायित्व आता है। दायित्व बोध आना चाहिये। मानव को जो श्रेष्ठता परमात्मा से मिली है उस के कारण मानव का यह दायित्व बनता है कि वह विवेक से काम ले। प्रकृति नहीं बिगाडे। जीवश्रृंखला को नहीं तोडे। प्रकृति के साथ खिलवाड नहीं करे। दुर्बलों की सहायता करे। मानव को मिली श्रेष्ठ स्मृति के कारण ‘कृतज्ञता’, उपकार से उतराई होना यह मानव का अनिवार्य लक्षण है। |
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| #* पौरुष | | #* पौरुष |
| #* इन चारों बातों का समष्टीगत होना व्यक्ति के सुख के लिये आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है। | | #* इन चारों बातों का समष्टीगत होना व्यक्ति के सुख के लिये आवश्यक है। जितने प्रमाण में ये समष्टिगत होंगी उतने प्रमाण में ही व्यक्ति को भी सुख मिल सकता है। |
− | # सुख के भी भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं। '''दैवी, मानवी और पाशवी'''। दैवी सुख आत्मिक सुख को कहते हैं। इस में ममता, सहानुभूति, आत्मीयता, परोपकार, प्रेम आदि के कारण मिले सुखों का समावेश होता है। मानवी सुख मन का सुख होता है। यह मन को प्रसन्न करनेवाला सुख होता है। पाशवी सुख में शरीर और इंद्रियों का सुख आता है। यह स्तर प्राणिक आवेगों में अनुकूल अनुभवों का स्तर है। सुख के भिन्न भिन्न स्तर भी होते हैं। इंद्रिय सुख का स्तर सबसे नीचे होता है। मन का सुख उससे ऊपर, बुध्दि का सुख उससे ऊपर, चित्त का सुख या आनंद उससे ऊपर और परमानंद का या परम कल्याण का सुख (आत्मीय) सब से ऊपर होता है। इस परम सुख का नाम ही मोक्ष है। आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अन्य तीनों के न्यूनतम सुख की प्राप्ति की आवश्यकता होती है। यह मन-बुध्दि में स्थापित करने के लिये ही धर्मशिक्षा की व्यवस्था की जाती है। | + | # सुख के भी भिन्न भिन्न प्रकार होते हैं। '''दैवी, मानवी और पाशवी'''। दैवी सुख आत्मिक सुख को कहते हैं। इस में ममता, सहानुभूति, आत्मीयता, परोपकार, प्रेम आदि के कारण मिले सुखों का समावेश होता है। मानवी सुख मन का सुख होता है। यह मन को प्रसन्न करनेवाला सुख होता है। पाशवी सुख में शरीर और इंद्रियों का सुख आता है। यह स्तर प्राणिक आवेगों में अनुकूल अनुभवों का स्तर है। सुख के भिन्न भिन्न स्तर भी होते हैं। इंद्रिय सुख का स्तर सबसे नीचे होता है। मन का सुख उससे ऊपर, बुद्धि का सुख उससे ऊपर, चित्त का सुख या आनंद उससे ऊपर और परमानंद का या परम कल्याण का सुख (आत्मीय) सब से ऊपर होता है। इस परम सुख का नाम ही मोक्ष है। आत्मिक सुख की प्राप्ति के लिये अन्य तीनों के न्यूनतम सुख की प्राप्ति की आवश्यकता होती है। यह मन-बुद्धि में स्थापित करने के लिये ही धर्मशिक्षा की व्यवस्था की जाती है। |
| # मानवेतर प्राणियों में नवजात बच्चे बहुत शीघ्र स्वावलंबी बन जाते हैं। मानव में व्यक्तित्व विकास यह लंबी चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इसलिये मानव परिवार की रचना और पशूओं के परिवार की रचना में और प्रवर्तन में अंतर होता है। | | # मानवेतर प्राणियों में नवजात बच्चे बहुत शीघ्र स्वावलंबी बन जाते हैं। मानव में व्यक्तित्व विकास यह लंबी चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इसलिये मानव परिवार की रचना और पशूओं के परिवार की रचना में और प्रवर्तन में अंतर होता है। |
− | # मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है। आदि जगदगुरु शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर (इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुध्दि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुध्दि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तर के होते हैं। | + | # मानव का व्यक्तित्व पाँच पहलुओं से बना है। तैत्तिरीय उपनिषद् में इन्हें पञ्चविध पुरूष कहा है। आदि जगदगुरु शंकराचार्य इन पहलुओं को पंचकोश कहते हैं। अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनंदमय - ऐसे उन पञ्चविध पुरूषों के या पाँच कोशों के नाम हैं। सामान्य लोगों की भाषा में इन्हें शरीर (इंद्रियाँ), प्राण, मन, बुद्धि और चित्त कहा जा सकता है। जन्म के समय इन सभी का स्वरूप अविकसित होता है। ये सब बातें वैसे तो हर प्राणि के पास भी होतीं ही हैं। किंतु मानवेतर प्राणियों में मन, बुद्धि और चित्त या तो अक्रिय होते हैं या अत्यंत निम्न स्तर के होते हैं। |
| #* हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्म तत्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है। | | #* हर मानव के पंचकोशीय स्वरूप में से स्वयं परमात्मा अभिव्यक्त होता है इसीलिये मानव को व्यक्ति कहते हैं। इन कोशों के साथ तादात्म्य हो जाने से उस व्यक्ति में उपस्थित आत्म तत्व अपने को व्यक्ति मानने लग जाता है। जब मानव इन पंचकोशों के परे जाता है तब ही उस का साक्षात्कार परमात्मा से होता है। हर मानव का व्यक्तित्व अन्य मानवों से भिन्न होता है। इसलिये उसके विकास का रास्ता भी अन्यों से भिन्न होता है। |
| # मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है। | | # मानव व्यक्तित्व के पहलुओं का विकास भी एकसाथ नहीं होता। गर्भधारणा के बाद सर्वप्रथम चित्त सक्रिय होता है। इस काल में गर्भ अपनी माँ से भी कहीं अधिक संवेदनशील होता है। अब तक इंद्रियों का विकास नहीं होने से शब्द, स्पर्श, रूप रस और गंध के सूक्ष्म से सूक्ष्म संस्कार वह ग्रहण कर लेता है। जब इंद्रियों का निर्माण शुरू होता है तब फिर संस्कार क्षमता उस इंद्रिय की क्षमता जितनी कम हो जाती है। |
− | #* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुध्दि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है। | + | #* शिशू अवस्था में बालक के इंद्रियों के विकास का काल होता है। पूर्वबाल्यावस्था में मन का या विचार शक्ति का, उत्तर बाल्यावस्था और पूर्व किशोरावस्था में बुद्धि, तर्क आदि का और उत्तर किशोरवस्था में तथा यौवन में अहंकार का यानी 'मै' का यानी कर्ता भाव (मैं करता हूँ), ज्ञाता भाव (मैं जानता हूँ) और भोक्ता भाव (मैं उपभोग करता हूँ) का विकास होता है। इसलिये व्यक्तित्व विकास के लिये संस्कारों का और शिक्षा का स्वरूप आयु की अवस्था के अनुसार बदलता है। |
| # हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है। | | # हर मानव जन्म लेते समय अपने पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार विकास की कुछ संभाव्य सीमाएँ लेकर जन्म लेता है। अच्छा संगोपन मिलने से वह पूरी संभावनाओं तक विकास कर सकता है। कुछ विशेष इच्छाशक्ति रखने वाले बच्चे अपनी संभावनाओं से भी अधिक विकास कर लेते हैं। लेकिन ऐसे बच्चे अल्प संख्या में ही होते हैं। अपवाद स्वरूप ही होते हैं। अपवाद स्वरूप बच्चों के विकास के लिये सामान्य बच्चों के नियम और पद्धतियाँ पर्याप्त नहीं होतीं। सामान्य बच्चों के साथ भी विशेष प्रतिभा रखनेवाले बच्चों जैसा व्यवहार करने से सामान्य बच्चों की हानि होती है। समाज के सभी लोग प्रतिभावान या जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता ‘श्रेष्ठ’ कहती है या जिन्हें ‘महाजनो येन गत: स: पंथ:’ में ‘महाजन’ कहा गया है ऐसे नहीं होते हैं। इनका समाज में प्रमाण ५-१० प्रतिशत से अधिक नहीं होता है। इसीलिये भारतीय समाज के पतन के कालखण्ड छोड दें तो सामान्यत: भारतीय न्याय व्यवस्था में एक ही प्रकार के अपराध के लिये ब्राह्मण को क्षत्रिय से अधिक, क्षत्रिय को वैश्य से अधिक और वैश्य को शूद्र से अधिक दण्ड का विधान था। इस विषय में चीनी प्रवासी द्वारा लिखी विक्रमादित्य की कथा ध्यान देने योग्य है। कुछ स्मृतियों में ब्राह्मण को अवध्य कहा गया है। अवध्यता से तात्पर्य है शारीरिक अवध्यता। ब्राह्मण का अपराधी सिध्द होना उसके सम्मान की समाप्ति होती है। और ब्राह्मण का सम्मान छिन जाना मृत्यू से अधिक बडा दंड माना जाता था। ब्राह्मणों में क्षत्रियों में और वैश्यों में भी महाजन होते हैं। इनका प्रमाण ५-१० % से कम ही होता है। |
| # आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में किया है<ref>श्रीमद्भागवत महापुराण 9।19।14</ref>: | | # आवश्यकता और इच्छा एक नहीं हैं। आवश्यकताएँ शरीर और प्राण के लिये होती हैं। इसलिये वे मर्यादित होतीं हैं। इच्छाएँ मन करता है। मन की शक्ति असीम होती है। इसीलिये इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। इच्छाओं की पूर्ति से मन तृप्त नहीं होता। वह और इच्छा करने लग जाता है। इसी का वर्णन श्रीमद्भागवत महापुराण में किया है<ref>श्रीमद्भागवत महापुराण 9।19।14</ref>: |
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| <li> मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं। | | <li> मानव के लिये कुछ बातें जन्मजात और कुछ समाज से प्राप्त होनेवाली होतीं हैं। |
− | * पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आने वाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुध्दि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि। | + | * पूर्व जन्मों के कर्मों के अनुसार आने वाली बातें - दस इंद्रिय, मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार, श्रेष्ठ जीवात्मा, प्रारब्ध (पूर्व कर्मों का फल) जो जन्म कुंडली में दिखाई देता है, त्रिगुणयुक्त व्यक्तित्व, त्रिदोषयुक्त शरीर, माता पिता आदि। |
| * माता-पिता से जन्म से प्राप्त होने वाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि, शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि | | * माता-पिता से जन्म से प्राप्त होने वाली बातें : पितर और उन की विरासत- सामाजिक प्रतिष्ठा, नाम, भौतिक समृध्दि, शारीरिक स्वास्थ्य, जाति और आनुवांशिकता से आनेवाली बातें जैसे वर्ण, (त्रिदोषात्मक) शारीरिक स्वास्थ्य, व्यावसायिक और अन्य कुशलताएँ, परम्पराएँ आदि |
| * परिवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि। | | * परिवार में और समाज में प्राप्त होनेवाली बातें : नाम, प्यार, आत्मीयता, रक्षण, पोषण, संस्कार, शिक्षण, आदतें, आर्थिक और पारिवारिक विरासत और परंपराएँ, सामाजिकता, सामाजिक प्रतिष्ठा, कुलधर्म, कुलाचार, विविध पारिवारिक यानी रक्तसंबंध के रिश्ते, विविध सामाजिक रिश्ते, सदाचार, धर्म आदि की शिक्षा आदि। |
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| <li>मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है। | | <li>मनुष्य के शरीर की रचना शाकाहारी प्राणि के अनुसार है। |
− | <li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुध्दि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं: | + | <li>हर मनुष्य शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त का स्वामी होता है। ये पाँचों बातें हर मनुष्य की भिन्न होतीं हैं। परमात्व तत्व भी इन पाँच घटकों के माध्यम से ही अभि‘व्यक्त’ होता है। इसीलिये मनुष्य को व्यक्ति कहते हैं। और व्यक्ति के स्वभाव, क्षमताएँ, प्रभाव आदि को व्यक्तित्व कहते हैं। व्यक्तित्व से संबंधित कुछ बातें निम्न हैं: |
| * प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है। | | * प्राणिक आवेग : आहार, निद्रा, भय और मैथुन ये चार प्राणिक आवेग हैं। ये मनुष्य और पशू दोनों में समान हैं। इसलिये मनुष्य भी प्राणि होता ही है। |
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| * आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। | | * आवश्यकताएँ और इच्छाएँ : प्राणिक आवेगों की पूर्ति को आवश्यकता और मन की चाहतों को इच्छा कहते हैं। आवश्यकताएँ मर्यादित और इच्छाएँ अमर्याद होतीं हैं। |
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− | * कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुध्दि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें। | + | * कर्म योनि : प्राणिक आवेगों की पूर्ति के लिये और इच्छाओं की पूर्ति के लिये जो बातें की जातीं हैं उन्हें कर्म कहते हैं। उसे प्राप्त मन और बुद्धि की श्रेष्ठता के कारण मनुष्य कर्म करने में स्वतंत्र होता है। यह कर्म ही मनुष्य के जीवन का नियमन करते हैं। इस नियमन को कर्म सिध्दांत के माध्यम से समझा जा सकता है। कर्मसिध्दांत की जानकारी के लिये कृपया ‘ [[Elements of Hindu Jeevan Drishti and Life Style (भारतीय/हिन्दू जीवनदृष्टि और जीवन शैली के सूत्र)|भारतीय जीवन दृष्टि और जीवन शैली]] ‘ अध्याय में देखें। |
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| <li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे। | | <li>समाज में व्यक्ति के दो प्रकार हैं। स्त्री और पुरूष। परमात्मा ने इन्हें जैसे ये आज हैं इसी स्वरूप में निर्माण किया था। समाज धारणा के लिये यानि समाज बना रहने के लिये के लिये स्त्री और पुरूष दोनों की आवश्यकता होती है। एक की अनुपस्थिति में समाज जी नहीं सकता। स्त्री और पुरूष एक दूसरे के पूरक होते हैं। बच्चे को जन्म देने का काम दोनों मिलकर करते हैं। अन्य एक भी ऐसा काम नहीं है जो स्त्री नहीं कर सकती या पुरूष नहीं कर सकता। किंतु इनको एक दूसरे से कई बातों में भिन्न बनाने में परमात्मा का कुछ प्रयोजन अवश्य है। इस प्रयोजन के अनुसार इनमें कार्य विभाजन होने से समाज ठीक चलता है। सुखी, समृध्द और चिरंजीवी बनता है। स्त्री-पुरूष संबंधों के विषय में थोड़ा अधिक गहराई से अब हम विचार करेंगे। |
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| == स्त्री और पुरूष संबंधी भारतीय सोच == | | == स्त्री और पुरूष संबंधी भारतीय सोच == |
− | भारतीय सोच के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों एकसाथ ही निर्माण हुए थे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10</ref>: <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट: ।। 3.10 ।।</blockquote>प्रजा अर्थात् स्त्री और पुरूष साथ ही पैदा हुए थे। स्त्री और पुरूष की भिन्नता का बुध्दियुक्त सोच के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मूल्यांकन किया है। | + | भारतीय सोच के अनुसार स्त्री और पुरूष दोनों एकसाथ ही निर्माण हुए थे। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 3 के श्लोक 10 में कहा है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 3.10</ref>: <blockquote>सहयज्ञा: प्रजा सृष्ट: ।। 3.10 ।।</blockquote>प्रजा अर्थात् स्त्री और पुरूष साथ ही पैदा हुए थे। स्त्री और पुरूष की भिन्नता का बुद्धियुक्त सोच के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मूल्यांकन किया है। |
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| परमात्मा ने सृष्टि को एक संतुलन के साथ बनाया है। स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते है । दोनों की पूर्ण बनने की चाह ही स्त्री और पुरूष में परस्पर आकर्षण निर्माण करती है। | | परमात्मा ने सृष्टि को एक संतुलन के साथ बनाया है। स्त्री और पुरूष दोनों एक दूसरे के बिना अधूरे होते है । दोनों की पूर्ण बनने की चाह ही स्त्री और पुरूष में परस्पर आकर्षण निर्माण करती है। |