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| इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न हैं: | | इस चिंतन के आधार पर भारतीय मनीषियों ने मानव जाति को मार्गदर्शन करने के लिये कुछ व्यवहारसूत्रों की प्रस्तुति की है। यह व्यवहार सूत्र निम्न हैं: |
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− | === १. नर करनी करे तो नारायण बन जाये === | + | === १. नर करनी करे तो उतरोत्तर प्रगति संभव है === |
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− | योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है और आगे देवत्व या परमात्मपद भी पा सकता है। यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन की मान्यता है। अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है। फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह परमात्मपद प्राप्त करता है ऐसा भगवद्गीता में कहा है। इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है। | + | योग्य ढंग से प्रयास करने से मनुष्य नरोत्तम बन सकता है। यह मान्यता केवल हिंदू या भारतीय चिंतन की मान्यता है। अन्य समाजों ने तो मानव प्रेषित भी नही बन सकता ऐसा आग्रहपूर्वक कहा है। फल की कामना किये बिना यदि कोई विहित कर्म करता जाए तो वह, आगे बढ़ सकता है। इस के लिये मार्गदर्शन भी किया है। |
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| मनुष्य चार प्रकार के होते है। | | मनुष्य चार प्रकार के होते है। |
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| दुखी लोगों के साथ सहानुभूति के कारण जो लोगों के दर्द दूर करने का प्रयास करता है उसे '''नरोत्तम''' कहते है। ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं इतनी तीव्र होती है की वे उसे स्वस्थ बैठने नही देतीं। ऐसी लोगों की मदद करने की उस की लगन की तीव्रता के अनुसार उस का नरोत्तमता का प्रमाण तय होता है। ऐसे नरोत्तम की परिसीमा ही परमात्मपद प्राप्ति है। | | दुखी लोगों के साथ सहानुभूति के कारण जो लोगों के दर्द दूर करने का प्रयास करता है उसे '''नरोत्तम''' कहते है। ऐसे मनुष्य की सहसंवेदनाएं इतनी तीव्र होती है की वे उसे स्वस्थ बैठने नही देतीं। ऐसी लोगों की मदद करने की उस की लगन की तीव्रता के अनुसार उस का नरोत्तमता का प्रमाण तय होता है। ऐसे नरोत्तम की परिसीमा ही परमात्मपद प्राप्ति है। |
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− | संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता '। इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही। जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये। यही है परमात्मपद प्राप्ति की अवस्था। और ऐसा कहते है कि संत तुकाराम सदेह परमात्म्पद को प्राप्त हुए। | + | संत तुकाराम महाराज कहते है ' उरलो उपकारापुरता '। इस का अर्थ यह है कि अब मेरा जीना मेरे लिये है ही नही। जो कुछ जीना हे बस लोगों के लिये। यही है नरोत्तम होने की अवस्था। |
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− | प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है। जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था। कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें परमात्मपद की चाह नही है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है। अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है। नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है। पानी नीचे की ओर ही बहता है। दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते। शिक्षा नही दी जाती। सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है। इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है। वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है। किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है। ऐसे मनुष्य के स्थान को ही नारायणपद या परमात्मपद कहते है। | + | प्रयास करने से मनुष्य नर से और नरराक्षस से भी नरोत्तम बन सकता है। जैसे वाल्या मछुआरा जो नरराक्षस ही था, महर्षि वाल्मिकी बन गया था। कई बार ऐसा कहा जाता है की हमें नरोत्तम की चाह नहीं है, हम मनुष्य बने रहें इतना ही पर्याप्त है। किन्तु वास्तविकता यह होती है कि जब हम नरोत्तम बनने के प्रयास करते है तब ही हम शायद नर बने रह सकते है। अन्यथा नर से नरपशु और आगे नरराक्षस बनने की प्रक्रिया तो स्वाभाविक ही है। नीचे की ओर जाना यह प्रकृति का नियम है। पानी नीचे की ओर ही बहता है। दुष्ट निर्माण करने के लिये विद्यालय नही खोले जाते। शिक्षा नही दी जाती। सज्जन बनाने के लिये इन सब प्रयासों की आवश्यकता होती है। इसलिये निरंतर नरोत्तम बनने के प्रयास करते रहना अनिवार्य है। वैसे तो हर मनुष्य में नरराक्षस से लेकर नरोत्तम तक के सभी विकल्प विद्यमान होते है। किंतु जो अभ्यासपूर्वक नरोत्तम की परिसीमा तक जाता है उस में सदैव नरोत्तम के ही दर्शन होते है। |
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− | संक्षेप में ऐसा कह सकते हैं{{Citation needed}} : <blockquote>परहित करते करते मानव उन्नत होता जाये। </blockquote><blockquote>परहित करते करते करते नर का नारायण हो जाये ॥</blockquote>
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| === २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} === | | === २. सर्वे भवन्तु सुखिन: सर्वे संतु निरामया:। सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चित् दुख: माप्नुयात्{{Citation needed}} === |
| भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों। | | भावार्थ - सब सुखी हों। किसी को कोई भी भय ना रहे। सब ओर मंगल हो। किसी को अभद्र का दर्शन ही ना हो। अर्थात् कहीं कोई अभद्र बातें ना हों। |
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| दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है। किंतु उस के परिणाम हम देख रहे है। केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है। बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमें व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये। जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘ | | दुनिया भर की लोकतांत्रिक सरकारों ने बहुजनहिताय बहुजनसुखाय का व्यावहारिक लक्ष्य रखा है। किंतु उस के परिणाम हम देख रहे है। केवल मुठ्ठीभर लोग ही सुख बटोरते है। बाकी सब दुखदर्द में पिसते रहते है। इसीलिये स्वामी विवेकानंद कहते थे ‘जो आदर्श है उसे ही हमें व्यवहार बनाने के प्रयास करने चाहिये। जब हम व्यावहारिक को ही आदर्श मानने लग जाते है तो पतन प्रारंभ हो जाता है।‘ |
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− | एकबार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है। उन का उत्तर था की यह संभव नही है। इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता। परिणाम हम सबके सामने है। कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है। इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है। इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही। इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा।
| + | एक बार यूडीसीटी के प्राध्यापक से प्रश्न पूछा गया की क्या आप शून्य प्रदूषण रासायनिक उद्योग का लक्ष्य विद्यार्थियों के समक्ष रखते है। उन का उत्तर था की यह संभव नही है। इसलिये ऐसा लक्ष्य नही रखा जाता। परिणाम हम सबके सामने है। कच्चा माल, विभिन्न रासायनिक पदार्थों की गुणवत्ता, योग्य तापमान, योग्य समय और योग्य प्रक्रिया होने से ही सही रासायनिक उत्पादन तैयार होते है। इन में से किसी एक में भी अंतर आने से उत्पादन बिगड जाता है। इस का अर्थ है उत्पादन नही होता। लेकिन प्रदूषण तो होगा ही। इसलिये रासायनिक उद्योगों में शून्य प्रदूषण उद्योग का लक्ष्य ही सामने रखना होगा। |
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| निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है{{Citation needed}} :<blockquote>मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव।</blockquote><blockquote>शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥</blockquote>किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये। आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है। किंतु पारे में औषधि गुण भी है। आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है। उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है। | | निम्न दोहे में इस तत्व का वर्णन इस प्रकार किया गया है{{Citation needed}} :<blockquote>मानवता हो व्याप्त तभी जब बने सुखी हर जीव।</blockquote><blockquote>शुभ देखे और स्वस्थ रहें, है मानवता की नींव ॥</blockquote>किसी भी कृति के करने से पूर्व उस में किसी के भी अहित की सारी संभावनाओं को दूर करने के बाद में ही करना चाहिये। आयुर्वेद के एक उदाहरण से इसे हम समझ सकेंगे। पारा यह एक विषैली धातू है। किंतु पारे में औषधि गुण भी है। आयुर्वेद में इसे औषधि के रूप में प्रयोग किया जाता है। किन्तु उस से पूर्व इस के विषैलेपन को पारा-मारण प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है। उस के बाद ही वह औषधि बनाने के लिये योग्य बनता है। |