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== विश्व ==
 
== विश्व ==
विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय । हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है इसलिए अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए । राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं । परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं । हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं ।
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विश्व से तात्पर्य है दुनिया के सभी राष्ट्रों का मानव समुदाय। हमारा सामंजस्य विश्व के सभी मानव समुदायों के साथ होना अपेक्षित है । यह सामंजस्य हम कैसे स्थापित कर सकते हैं ? आज कहा जाता है कि संचार माध्यमों के प्रभाव से विश्व बहुत छोटा हो गया है इसलिए अब एक देश की नागरिकता के स्थान पर विश्वनागरिकता का ही विचार करना चाहिए। राष्ट्रवाद संकुचित कल्पना है, अब विश्ववाद को स्वीकार करना चाहिए। परन्तु ऐसा हो नहीं सकता । एक तो यह समुचित तर्क नहीं है । हम समुदाय के सदस्य होने पर भी परिवार के सदस्य होते ही हैं। परिवार के सदस्य होते हुए भी व्यक्ति होते ही हैं। उसी प्रकार हम विश्व के अंग होने पर भी राष्ट्रीय हो ही सकते हैं। हम अच्छे राष्ट्रीय होने पर ही विश्वनागरिक बन सकते हैं।
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सामंजस्य बिठाने का सही तरीका तो यह है कि हम स्वीकार करें कि विश्व के हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव होता है । विश्व के हर राष्ट्र को विश्वजीवन में विश्वव्यवस्था में अपनी अपनी भूमिका निभानी होती है । भारत की भूमिका धर्मचक्र की गति को अबाधित रखना है । भारत भारत होकर ही यह भूमिका निभा सकता है। सर्वेषामविरोधेन जीवनव्यवस्था कैसे की जाती है इसका उदाहरण भारत को प्रस्तुत करना है ताकि विश्व के अन्य राष्ट्र स्वयं का भी सही सन्दर्भ समझ सकें । भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों पर सामरिक अथवा राजकीय विजय प्राप्त कर उन्हें अपना दास बनाने के लिए नहीं है, वह धर्म और संस्कृति के प्रसार और शिक्षा के माध्यम से सबको सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कार प्राप्त करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त करने में सहायता करने के लिए है। इसलिए आवश्यक है कि हम विश्व में गरिमा लिए संचार करें। आज हम भारतीय होने के लिए हीनताबोध से ग्रस्त हैं और स्वत्व को भुला रहे हैं । दूसरों की नकल करने में ही गौरव का अनुभव कर रहे हैं । शिक्षा सर्वप्रथम इस हीनताबोध को दूर करने के लिए प्रयास करे यह पहली आवश्यकता है । आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिम के देश, मुख्य रूप से अमेरिका, छा जाने का प्रयास कर रहे हैं । उनकी जीवनदृष्टि भौतिकवादी है इसलिए उनका व्यवहार एवं व्यवस्थायें अर्थनिष्ठ है। भारत धर्मनिष्ठ है। स्पष्ट है कि टिकाऊ तो भारत ही है क्योंकि धर्म के अधीन अर्थ की व्यवस्था समृद्धि का साधन है जबकि धर्मविहीन अर्थ विनाश के मार्ग पर ले जाने वाला है । भारत को अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना है।  
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सामंजस्य बिठाने का सही तरीका तो यह है कि हम स्वीकार करें कि विश्व के हर राष्ट्र का अपना अपना स्वभाव होता है । विश्व के हर राष्ट्र को विश्वजीवन में विश्वव्यवस्था में अपनी अपनी भूमिका निभानी होती है। भारत की भूमिका धर्मचक्र की गति को अबाधित रखना है। भारत भारत होकर ही यह भूमिका निभा सकता है। सर्वेषामविरोधेन जीवनव्यवस्था कैसे की जाती है इसका उदाहरण भारत को प्रस्तुत करना है ताकि विश्व के अन्य राष्ट्र स्वयं का भी सही सन्दर्भ समझ सकें । भारत विश्व के अन्य राष्ट्रों पर सामरिक अथवा राजकीय विजय प्राप्त कर उन्हें अपना दास बनाने के लिए नहीं है, वह धर्म और संस्कृति के प्रसार और शिक्षा के माध्यम से सबको सुख, स्वास्थ्य, समृद्धि और संस्कार प्राप्त करने हेतु सामर्थ्य प्राप्त करने में सहायता करने के लिए है। इसलिए आवश्यक है कि हम विश्व में गरिमा लिए संचार करें। आज हम भारतीय होने के लिए हीनताबोध से ग्रस्त हैं और स्वत्व को भुला रहे हैं। दूसरों की नकल करने में ही गौरव का अनुभव कर रहे हैं। शिक्षा सर्वप्रथम इस हीनताबोध को दूर करने के लिए प्रयास करे यह पहली आवश्यकता है। आज संपूर्ण विश्व पर पश्चिम के देश, मुख्य रूप से अमेरिका, छा जाने का प्रयास कर रहे हैं। उनकी जीवनदृष्टि भौतिकवादी है इसलिए उनका व्यवहार एवं व्यवस्थायें अर्थनिष्ठ है। भारत धर्मनिष्ठ है। स्पष्ट है कि टिकाऊ तो भारत ही है क्योंकि धर्म के अधीन अर्थ की व्यवस्था समृद्धि का साधन हैजबकि धर्मविहीन अर्थ विनाश के मार्ग पर ले जाने वाला है। भारत को अपनी व्यवस्थाओं में परिवर्तन कर विश्व के समक्ष उदाहरण प्रस्तुत करना है।  
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पश्चिम के बाजार के आक्रमण से हमें बचना है । इस दृष्टि से हमारी अर्थव्यवस्था तो ठीक होनी ही चाहिए, साथ ही अर्थ विषयक हमारी दृष्टि भी बदलनी चाहिए । बाजार का आक्रमण पश्चिम की ही पद्धति से उत्पादन बढ़ाने का और विश्वव्यापार बढ़ाने की होड में उतरने से हम परावृत नहीं कर सकते है, अपनी पद्धति अपनाने से ही वह संभव है । उसी प्रकार से हमारी समाजव्यवस्था पर, परिवारजीवन पर भी पश्चिम की मान्यतायें हावी हो रही हैं । हमारे हीनताबोध के कारण हम उन्हें आधुनिक कहकर अपना रहे हैं। उससे असंस्कार का साम्राज्य फैल रहा है । हमें परिवारजीवन पुन: सुदृढ़ बनाकर विश्व के अन्य देशों को सामाजिक सुरक्षा का रास्ता बताना है ।
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पश्चिम के बाजार के आक्रमण से हमें बचना है। इस दृष्टि से हमारी अर्थव्यवस्था तो ठीक होनी ही चाहिए, साथ ही अर्थ विषयक हमारी दृष्टि भी बदलनी चाहिए । बाजार का आक्रमण पश्चिम की ही पद्धति से उत्पादन बढ़ाने का और विश्वव्यापार बढ़ाने की होड में उतरने से हम परावृत नहीं कर सकते है, अपनी पद्धति अपनाने से ही वह संभव है । उसी प्रकार से हमारी समाजव्यवस्था पर, परिवारजीवन पर भी पश्चिम की मान्यतायें हावी हो रही हैं। हमारे हीनताबोध के कारण हम उन्हें आधुनिक कहकर अपना रहे हैं। उससे असंस्कार का साम्राज्य फैल रहा है। हमें परिवारजीवन पुन: सुदृढ़ बनाकर विश्व के अन्य देशों को सामाजिक सुरक्षा का रास्ता बताना है।
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अपने दीर्घ इतिहास में भारत ने विश्वविजय का सांस्कृतिक स्वरूप बताया है । इतिहास प्रमाण है कि हम विश्व के लगभग सभी देशों में ज्ञान, कौशल, संस्कार लेकर गए हैं और उन्हें हमारी ही तरह श्रेष्ठ जीवन जीने का मार्ग बताया है । आज भी वैसा करने की आवश्यकता है क्योंकि विश्व आज विपरीत दिशा का अवलंबन कर अनेक प्रकार के संकटों से घिर गया है । हमारा उद्घोष रहा है, “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्"। ऐसा कर सकने के लिए भी भारत को भारत बनने की महती आवश्यकता है । विश्व को जीतने का अर्थ उसे पराजित करना नहीं है, उसे अपना कर अपना बनाना है और जीवन के शाश्वत मूल्यों में सबकी श्रद्धा और विश  है । भारत इसके लिए ही बना है।
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अपने दीर्घ इतिहास में भारत ने विश्वविजय का सांस्कृतिक स्वरूप बताया है। इतिहास प्रमाण है कि हम विश्व के लगभग सभी देशों में ज्ञान, कौशल, संस्कार लेकर गए हैं और उन्हें हमारी ही तरह श्रेष्ठ जीवन जीने का मार्ग बताया है। आज भी वैसा करने की आवश्यकता है क्योंकि विश्व आज विपरीत दिशा का अवलंबन कर अनेक प्रकार के संकटों से घिर गया है। हमारा उद्घोष रहा है, “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्"। ऐसा कर सकने के लिए भी भारत को भारत बनने की महती आवश्यकता है । विश्व को जीतने का अर्थ उसे पराजित करना नहीं है, उसे अपना कर अपना बनाना है और जीवन के शाश्वत मूल्यों में सबकी श्रद्धा और विश  है। भारत इसके लिए ही बना है।
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इस प्रकार परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व के स्तरों
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इस प्रकार परिवार, समुदाय, राष्ट्र और विश्व के स्तरों पर मनुष्य को समायोजन साधने की आवश्यकता है । जो शिक्षा उसे इस योग्य बनाती है वही सही शिक्षा है । केवल व्यक्तिगत क्षमतायें बढ़ाने से कुछ सिद्ध नहीं होता है ।
 
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पर मनुष्य को समायोजन साधने की आवश्यकता है । जो
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शिक्षा उसे इस योग्य बनाती है वही सही शिक्षा है । केवल
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व्यक्तिगत क्षमतायें बढ़ाने से कुछ सिद्ध नहीं होता है ।
      
== सृष्टि के साथ समायोजन ==
 
== सृष्टि के साथ समायोजन ==
परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य के साथ साथ और भी
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परमात्मा की सृष्टि में मनुष्य के साथ साथ और भी बहुत कुछ है । जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसके साथ साथ असंख्य ग्रह नक्षत्र हैं । पृथ्वी पर अरण्य, पहाड़, महासागर आदि हैं । पृथ्वी पर असंख्य जातियों के कीट पतंग, जीव, जंतु, पशु, पक्षी, प्राणी आदि विचरण करते हैं । वायु बहती है। सूर्य गर्मी और प्रकाश देता है । चंद्र शीतलता प्रदान करता है । मनुष्येतर यह सृष्टि पंचमहाभूत, वनस्पति और प्राणियों की बनी है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश पाँचमहाभूत हैं । वनस्पति और प्राणिजगत का तो हमें परिचय है ही । इन सबके साथ समायोजन करने के बिंदु इस प्रकार हैं:
 
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* मनुष्य के समान ही ये सब भी परमात्मा के ही अंश हैं। उनकी भी अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है । उन सबका कोई न कोई प्रयोजन है । हमें ज्ञात हो अथवा न हो बिना प्रयोजन का कोई भी पदार्थ सृष्टि में हो ही नहीं सकता । इन सबकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार करना और सम्मान करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है । अत: सर्वप्रथम सबके साथ आत्मीयता और प्रेम होना अपेक्षित है । ये सब मनुष्य के उपयोग के लिए नहीं बने हैं, मनुष्य के ही समान परमात्मा का प्रयोजन पूर्ण करने के लिए बने हैं । मनुष्य के उपभोग के लिए किसीका भी नाश करना अथवा अपव्यय करना उचित नहीं है ।
बहुत कुछ है । जिस पृथ्वी पर हम रहते हैं उसके साथ साथ
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* मनुष्य का जीवन सृष्टि के इन पदार्थों के बिना चल नहीं सकता। सृष्टि को मनुष्य के बिना चल सकता है। मनुष्य के बिना वायु बह सकती है, पृथ्वी टिक सकती है, जल बह सकता है, सूर्य प्रकाशित हो सकता है। इन सबके बिना मनुष्य का जीवन एक क्षण के लिए भी संभव नहीं है। मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ बनाकर उसका जीवन शेष सब पर आधारित बनाने में अद्भुत सन्तुलन दिखाई देता है। ऐसा होने के कारण मनुष्य को सृष्टि के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए। मनुष्य का सृष्टि पर अधिकार नहीं है, सृष्टि का मनुष्य पर उपकार है। उपकार का सदैव स्मरण रखने से समायोजन ठीक बैठता है। आज हम कृतज्ञ नहीं हो रहे हैं अपितु अपना अधिकार जमाकर उसे अपमानित कर रहे हैं। इस व्यवहार को बदलने की आवश्यकता है।
 
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* समझदार लोग कहते हैं कि परमात्मा ने जब सृष्टि की रचना की तब उसके संचालन के नियम बनाए । साथ ही उसके पालन और पोषण की भी व्यवस्था की । अत: सब यदि ठीक चलता है तो कोई भूखा नहीं रहेगा, कोई भी अनिवार्य आवश्यक बातों से वंचित नहीं रहेगा । इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग करना चाहिए । मनुष्य दो बातों से प्रेरित होकर उपभोग करता है। एक होती हैं आवश्यकतायें और दूसरी होती हैं इच्छायें। आवश्यकतायें सीमित होती हैं जबकि इच्छायें अपरिमित । मनुष्य इच्छापूर्ति के पीछे लगता है तो वह एक असंभव बात को संभव बनाने का प्रयास ही कर रहा होता है। अत: धर्म का आदेश इच्छाओं को संयमित करने का रहता है। आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक संसाधनों का दोहन करना चाहिए,शोषण नहीं। प्रकृति के साथ समायोजन करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण आयाम है।
असंख्य ग्रह नक्षत्र हैं । पृथ्वी पर अरणप्य, पहाड़, महासागर
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* परमात्मा ने बनाई हुई इस सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ सृजन है, भारतीय विचारधारा में श्रेष्ठ का कर्तव्य है कि वह अपने से कनिष्ठ सबका रक्षण और पोषण करे। इस दृष्टि से मनुष्य को सृष्टि का रक्षण करना चाहिए।
 
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* इस प्रकार प्रेम, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण का व्यवहार करने से मनुष्य सृष्टि के साथ समायोजन कर सकता है। स्पष्ट है कि आज ऐसा होता नहीं है । शिक्षा को यह विषय गंभीरता से लेना चाहिए। यहाँ मनुष्य के विकास के दो आयामों की हमने चर्चा की। एक आयाम है मनुष्य की सर्व अंतर्निहित क्षमताओं का विकास और दूसरा है सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समायोजन। एक है सर्वागीण विकास और दूसरा है परमेष्टिगत विकास। दोनों मिलकर होता है समग्र विकास।
आदि हैं । पृथ्वी पर असंख्य जातियों के कीट पतंग, जीव
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जंतु, पशु, पक्षी, प्राणी आदि विचरण करते हैं । वायु बहती
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है। सूर्य गर्मी और प्रकाश देता है । चंद्र शीतलता प्रदान
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करता है । मनुष्येतर यह सृष्टि पंचमहाभूत, वनस्पति और
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प्राणियों की बनी है । पृथ्वी, जल, तेज, वायु और आकाश
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पाँचमहाभूत हैं । वनस्पति और प्राणिजगत का तो हमें
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परिचय है ही । इन सबके साथ समायोजन करने के बिंदु इस
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प्रकार हैं ...
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०. मनुष्य के समान ही ये सब भी परमात्मा के ही अंश
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हैं। उनकी भी अपनी अपनी स्वतंत्र सत्ता है । उन
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सबका कोई न कोई प्रयोजन है । हमें ज्ञात हो अथवा
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न हो बिना प्रयोजन का कोई भी पदार्थ सृष्टि में हो ही
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नहीं सकता । इन सबकी स्वतंत्र सत्ता को स्वीकार
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करना और सम्मान करना मनुष्य का प्रथम कर्तव्य है ।
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अत: सर्वप्रथम सबके साथ आत्मीयता और प्रेम होना
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अपेक्षित है । ये सब मनुष्य के उपयोग के लिए नहीं
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बने हैं, मनुष्य के ही समान परमात्मा का प्रयोजन पूर्ण
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करने के लिए बने हैं । मनुष्य के उपभोग के लिए
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किसीका भी नाश करना अथवा अपव्यय करना उचित
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नहीं है ।
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०. मनुष्य का जीवन सृष्टि के इन पदार्थों के बिना चल
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नहीं सकता । सृष्टि को मनुष्य के बिना चल सकता
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है । मनुष्य के बिना वायु बह सकती है, पृथ्वी टिक
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सकती है, जल बह सकता है, सूर्य प्रकाशित हो
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सकता है । इन सबके बिना मनुष्य का जीवन एक
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क्षण के लिए भी संभव नहीं है । मनुष्य को सर्वश्रेष्ठ
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बनाकर उसका जीवन शेष सब पर आधारित बनाने में
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अद्भुत सन्तुलन दिखाई देता है । ऐसा होने के कारण
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मनुष्य को सृष्टि के प्रति कृतज्ञ रहना चाहिए । मनुष्य
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का सृष्टि पर अधिकार नहीं है, सृष्टि का मनुष्य पर
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उपकार है। उपकार का सदैव स्मरण रखने से
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समायोजन ठीक बैठता है । आज हम कृतज्ञ नहीं हो
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रहे हैं अपितु अपना अधिकार जमाकर उसे अपमानित
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कर रहे हैं। इस व्यवहार को
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बदलने की आवश्यकता है।
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०... समझदार लोग कहते हैं कि परमात्मा ने जब सृष्टि की
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रचना की तब उसके संचालन के नियम बनाए । साथ
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ही उसके पालन और पोषण की भी व्यवस्था की ।
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अत: सब यदि ठीक चलता है तो कोई भूखा नहीं
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रहेगा, कोई भी अनिवार्य आवश्यक बातों से वंचित
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नहीं रहेगा । इस तथ्य को ध्यान में रखकर हमें
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प्राकृतिक संसाधनों का विवेकपूर्वक उपयोग करना
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चाहिए । मनुष्य दो बातों से प्रेरित होकर उपभोग
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करता है । एक होती हैं आवश्यकतायें और दूसरी
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होती हैं इच्छायें । आवश्यकतायें सीमित होती हैं
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जबकि इच्छायें अपरिमित । मनुष्य इच्छापूर्ति के पीछे
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लगता है तो वह एक असंभव बात को संभव बनाने
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का प्रयास ही कर रहा होता है । अत: धर्म का आदेश
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इच्छाओं को संयमित करने का रहता है।
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आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए प्राकृतिक
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संसाधनों का दोहन करना चाहिए,शोषण नहीं । प्रकृति
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के साथ समायोजन करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण
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आयाम है ।
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०. परमात्मा ने बनाई हुई इस सृष्टि में मनुष्य सर्वश्रेष्ठ
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सृजन है , भारतीय विचारधारा में श्रेष्ठ का कर्तव्य है
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कि वह अपने से कनिष्ठ सबका रक्षण और पोषण
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करे । इस दृष्टि से मनुष्य को सृष्टि का रक्षण करना
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चाहिए ।
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इस प्रकार प्रेम, कृतज्ञता, दोहन और रक्षण का
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व्यवहार करने से मनुष्य सृष्टि के साथ समायोजन कर सकता
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है । स्पष्ट है कि आज ऐसा होता नहीं है । शिक्षा को यह
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विषय गंभीरता से लेना चाहिए ।
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यहाँ मनुष्य के विकास के दो आयामों की हमने चर्चा
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की । एक आयाम है मनुष्य की सर्व अंतर्निहित क्षमताओं
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का विकास और दूसरा है सम्पूर्ण सृष्टि के साथ समायोजन ।
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एक है सर्वागीण विकास और दूसरा है परमेष्टिगत विकास |
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दोनों मिलकर होता है समग्र विकास ।
      
==References==
 
==References==

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