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→‎समुदाय: लेख सम्पादित किया
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== समुदाय ==
 
== समुदाय ==
सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में Hera UH इकाई होता
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सम्पूर्ण समाज व्यवस्था में कुटुम्ब एक इकाई होता है। ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है । समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान आचार, समान सम्प्रदाय, अर्थार्जन हेतु समान व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार पर समुदाय बनाते हैं । उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे, सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध होते थे। समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे। उदाहरण के लिए शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों का दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे उपसमुदाय बनेंगे। पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह और व्यवसाय के नियम और कानून जितने आग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का अन्तर थोड़ी बहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योग क्षेत्र का या शिक्षा क्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है।
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है ऐसे अनेक कुटुम्ब मिलकर समुदाय बनाता है
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समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था ठीक करनी होती है। भारतीय समुदाय व्यवस्था के प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था। इससे अथर्जिन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे साथ ही राज्य को अथर्जिन की शिक्षा देने हेतु आज की तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था
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समुदाय राष्ट्रजीवन का महत्त्वपूर्ण अंग है। मुख्य रूप
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव, आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्त्वों की रक्षा समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज कुटुम्ब को नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष व्यवस्था हमें करनी होगी।
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से समुदाय समाज की आर्थिक इकाई है, समान
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं। एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति। अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की शिक्षा भी चाहिए। इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अथर्जिन के लिए ही नहीं होता। व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है। अत: उपभोक्ता का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है। जब उपभोक्ता का विचार करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है। एक ही बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में आएगा। किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा करता है। ऐसा करने का एकमात्र कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है। ऐसा करने की आवश्यकता क्यों होती है? केवल इसलिए कि हमने उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता है क्योंकि उत्पादन केवल अथर्जिन हेतु ही किया जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की आवश्यकता होती है। समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के लिए यह आवश्यक है।
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आचार, समान सम्प्रदाय, Aub हेतु समान
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समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी विचारपूर्वक करनी होती है। उदाहरण के लिए जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाति का नाश होता है। वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं। इसके परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट आई है और एक बुद्धिमान जाति के अस्तित्व पर संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसी को गोत्र मालूम नहीं होता है। यदि मालूम भी होता है तो उसकी चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं लगती। ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो एक है । ऐसे तो विवाह विषयक कई सिद्धांत हैं। हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्र की रचना हुई है। आज उसके विषय में घोर अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज पर सांस्कृतिक संकट छाया है। यह विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय है। कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग है।
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व्यवसाय, समान शिक्षा आदि समानताओं के आधार
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समुदायगत जीवन में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक सम्मान की ओर ध्यान देना चाहिए । इस दृष्टि से परिवार में ही व्यक्तिगत रूप से शिक्षा होनी चाहिए । उदाहरण के लिए पराई स्त्री की ओर माता कि दृष्टि से ही देखना चाहिए तथा स्त्री की रक्षा हेतु सदैव तत्पर रहना चाहिए यह घर में सिखाया जाना चाहिए । समुदाय में कोई भूखा न रहे इस दृष्टि से कुटुम्ब में दानशीलता बढ़नी चाहिए। श्रम प्रतिष्ठा ऐसा ही सामाजिक मूल्य है। सद्गुण और सदाचार सामाजिक सुरक्षा और सम्मान के लिए ही होता है । सार्वजनिक कामों और व्यवस्थाओं की सुरक्षा भी शिक्षा का ही विषय है । समुदाय में एकता, सौहार्द, सहयोग, शान्ति बनी रहे इस दृष्टि से व्यवसाय, कानून, विवाह, शिक्षा आदि की व्यवस्था होना अपेक्षित है।
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पर समुदाय बनाते हैं उदाहरण के लिए वर्णव्यवस्था
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ये सब तो, क्या सिखाना चाहिए, उसके बिंदु हैं। परन्तु शिक्षा और पौरोहित्य ये दो ऐसे विषय हैं जिनकी विशेष रूप से चिन्ता करनी चाहिए । हर समुदाय ने अपने सदस्यों की शिक्षा का प्रबन्ध अपनी ज़िम्मेदारी से करना चाहये। राज्य के ऊपर इसका बोझ नहीं डालना चाहिए। जिस प्रकार कुटुम्ब के लोग अपनी ज़िम्मेदारी पर कुटुम्ब चलाते हैं उसी प्रकार समाज ने अपनी शिक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी चाहिए । उसी प्रकार समुदाय को धर्मविषयक मार्गदर्शन करने वाले पुरोहित की भी विशेष व्यवस्था समुदाय ने करनी चाहिए। आज ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं, और होनी चाहिए ऐसा लगता भी नहीं है, तब तो इस पर विशेष विचार करना चाहिए समाज के नीतिमूल्यों की रक्षा हेतु, सांस्कृतिक दृष्टि से करणीय अकरणीय बातें बताने के लिए और सिखाने के लिए हमारे समाज में पुरोहित की व्यवस्था होती थी । विगत कई पीढ़ियों से हमने उसे छोड़ दी है। इस पर पुन: विचार करना चाहिए।
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जब अपने श्रेष्ठ स्वरूप में भारत में प्रतिष्ठित थी तब
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इस प्रकार व्यक्ति के कुटुम्ब में और कुटुम्ब के समुदाय में समायोजन का हमने विचार किया। आगे व्यक्ति की राष्ट्रीता होती है। इसका विचार अब करेंगे।
 
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ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि वर्णों के समाज बनते थे,
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सुथार, कृषक, धोबी, वैद्य आदि व्यवसायों के
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समुदाय बनते थे । इन समुदायों में विवाह सम्बन्ध
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होते थे । समुदाय के बाहर कोई विवाह सम्बन्ध नहीं
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जोड़ता था । आज वर्णव्यवस्था छिन्नविच्छिन्न हो गई
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है, जाति व्यवस्था की उससे भी अधिक दुर्गति हुई है
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तब भी समुदाय तो बनेंगे ही । उदाहरण के लिए
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चिकित्सकों का एक समुदाय, उद्योजकों का एक
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समुदाय, संप्रदायों का एक समुदाय आदि । इन
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समुदायों में भी उपसमुदाय बनेंगे । उदाहरण के लिए
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शिक्षकों का एक समुदाय जिसमें विश्वविद्यालयीन
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शिक्षकों का एक, माध्यमिक विद्यालय के शिक्षकों
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का. दूसरा, प्राथमिक शिक्षकों का तीसरा ऐसे
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उपसमुदाय बनेंगे । पूर्व में वर्ण और जाति के विवाह
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और व्यवसाय के नियम और कानून जितने
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अग्रहपूर्वक पालन किये जाते थे उतने इन व्यवसायों
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के नहीं हैं यह ठीक है परंतु समुदाय बनते अवश्य
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हैं। इन समुदायों में विचारपद्धति, व्यावसायिक
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कौशल, व्यवसाय के अनुरूप वेषभूषा आदि का
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अन्तर थोड़ीबहुत मात्रा में आज भी देखने को मिलता
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है, जैसे कि राजकीय क्षेत्र का, उद्योगक्षेत्र का या
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शिक्षाक्षेत्र का व्यक्ति उसकी बोलचाल से और कभी
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कभी तो अंगविन्यास से भी पहचाना जाता है ।
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समुदाय की व्यवस्था उत्तम होने के लिए अर्थव्यवस्था
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ठीक करनी होती है । भारतीय समुदाय व्यवस्था के
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प्रमुख लक्षणों में एक महत्त्वपूर्ण बात यह थी कि
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व्यवसाय भी सम्पूर्ण परिवार मिलकर करता था ।
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इससे अथर्जिन हेतु शिक्षा का केन्द्र घर ही होता था
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और शिक्षा हेतु पैसे खर्च नहीं करने पड़ते थे । साथ
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ही राज्य को अथर्जिन की शिक्षा देने हेतु आज की
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तरह बड़ा जंजाल नहीं खड़ा करना पड़ता था ।
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आर्थिक स्वतन्त्रता, व्यवसाय में स्वामित्वभाव,
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आर्थिक सुरक्षा जैसे अति मूल्यवान तत्त्वों की रक्षा
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समुदायगत समाज व्यवस्था करने में होती है । आज
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aes a नहीं अपितु व्यक्ति को इकाई मानने के
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कारण मनुष्य के लिए आर्थिक क्षेत्र का व्यावहारिक
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तथा मानसिक संकट निर्माण हो गया है । समुदायगत
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व्यवस्था ठीक से बैठाने हेतु शिक्षा की विशेष
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व्यवस्था हमें करनी होगी ।
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श्रेष्ठ समाज अथवा समुदाय के दो लक्षण होते हैं ।
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एक होता है समृद्धि और दूसरा होता है संस्कृति ।
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अर्थात्‌ जिस प्रकार समृद्धि हेतु अर्थकरी शिक्षा की
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उत्तम व्यवस्था चाहिए तथा उसकी उत्तम शिक्षा
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चाहिए उसी प्रकार व्यक्तियों को सुसंस्कृत बनाने की
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शिक्षा भी चाहिए । इस दृष्टि से व्यवसाय का दृष्टिकोण
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बदलना चाहिए । व्यवसाय केवल अआथर्जिन के लिए
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ही नहीं होता । व्यवसाय के परिणामस्वरूप उपभोक्ता
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को आवश्यक वस्तु प्राप्त होती है । अत: उपभोक्ता
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का विचार करना, उसकी सेवा हेतु व्यवसाय करना
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यह भी महत्त्वपूर्ण पक्ष है । जब उपभोक्ता का विचार
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करके व्यवसाय किया जाता है तब उपभोक्ता की
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आवश्यकता, उसके लाभ और हानि, उत्पादन की
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गुणवत्ता आदि का भी ध्यान रखा जाता है । एक ही
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बात का विचार करने से दृष्टिकोण का मुद्दा समझ में
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आएगा । किसी भी उत्पादन का विज्ञापन किया जाता
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है तब उत्पादक अपने उत्पादन की भरपूर प्रशंसा
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करता है । ऐसा करने का एकमात्र
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कारण उपभोक्ता को उत्पादन की ओर आकर्षित कर
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उसे खरीदने के लिए बाध्य करना है । ऐसा करने की
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आवश्यकता क्यों होती है ? केवल इसलिए कि हमने
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उत्पादित किया वह पदार्थ बिकना चाहिए । इस उद्देश्य
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से प्रेरित होकर जो नहीं हैं ऐसे गुण बढ़ाचढ़ाकर बताए
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जाते हैं और उपभोक्ता को चाहिए या नहीं इसका
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ध्यान कम रखा जाता है, अपना माल बिकना चाहिए
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इसका अधिक विचार किया जाता है । यह नीतिमत्ता
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नहीं है । तो भी यह आज भारी मात्रा में किया जाता
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है क्योंकि उत्पादन केवल अथर्जिन हेतु ही किया
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जाता है, उपभोक्ता की सेवा के लिए नहीं । विकसित
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और शिक्षित समाज में यह दृष्टिकोण बदलने की
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आवश्यकता होती है । समुदाय को सुसंस्कृत बनाने के
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लिए यह आवश्यक है ।
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समुदायगत व्यवस्था में विवाह की व्यवस्था भी
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विचारपूर्वक करनी होती है । उदाहरण के लिए
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जननशास्त्र का एक सिद्धांत कहता है कि सगोत्र विवाह
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करने से कुछ ही पीढ़ियों में सम्पूर्ण जाती का नाश
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होता है । वर्तमान पारसियों का उदाहरण इस दृष्टि से
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विचारणीय है । वे सगोत्र विवाह करते हैं । इसके
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परिणामस्वरूप आज उनकी जनसंख्या में भारी गिरावट
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आई है और एक बुद्धिमान जाती के अस्तित्व पर
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संकट उतर आया है । सगोत्र विवाह नहीं करना यह
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वैज्ञानिक नियम है । परन्तु आज किसीको गोत्र मालूम
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नहीं होता है । यदि मालूम भी होता है तो उसकी
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चिन्ता नहीं है क्योंकि सिद्धांत का ज्ञान भी नहीं है
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और उसका पालन करने की आवश्यकता भी नहीं
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लगती । ऐसे विवाह करने से सम्पूर्ण समाज का
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सामर्थ्य कम होता जाता है। सामर्थ्यहीन समाज
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अपना विकास नहीं कर सकता । गोत्र का सिद्धांत तो
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एक है । ऐसे तो विवाहविषयक कई सिद्धांत हैं ।
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हमारे समाज चिंतकों ने बहुत विचारपूर्वक विवाहशास्त्
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की रचना की हुई है । आज उसके विषय में घोर
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अज्ञान और उपेक्षा का व्यवहार होने के कारण समाज
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पर सांस्कृतिक संकट छाया है । यह
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विषय स्वतंत्र चर्चा का विषय है, यहाँ केवल इतना ही
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बताना प्रासंगिक है कि व्यवसाय की तरह विवाह भी
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सामाजिक संगठन के लिए अत्यंत आवश्यक विषय
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है । कुल मिलाकर शिक्षा का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग
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है।
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समुदायगत जीवन में सामाजिक सुरक्षा और सामाजिक
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सम्मान की ओर ध्यान देना चाहिए । इस दृष्टि से
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परिवार में ही व्यक्तिगत रूप से शिक्षा होनी चाहिए ।
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उदाहरण के लिए पराई स्त्री की ओर माता कि दृष्टि से
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ही देखना चाहिए तथा ख्त्री की रक्षा हेतु सदैव तत्पर
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रहना चाहिए यह घर में सिखाया जाना चाहिए ।
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समुदाय में कोई भूखा न रहे इस दृष्टि से कुटुम्ब में
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दानशीलता बढ़नी चाहिए । श्रम प्रतिष्ठा ऐसा ही
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सामाजिक Aes S| AGT और सदाचार सामाजिक
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सुरक्षा और सम्मान के लिए ही होता है । सार्वजनिक
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कामों और व्यवस्थाओं की सुरक्षा भी शिक्षा का ही
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विषय है । समुदाय में एकता, सौहार्द, सहयोग, शान्ति
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बनी रहे इस दृष्टि से व्यवसाय, कानून, विवाह, शिक्षा
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आदि की व्यवस्था होना अपेक्षित है ।
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ये सब तो क्या सिखाना चाहिए उसके बिंदु हैं । परन्तु
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शिक्षा और पौरोहित्य ये दो ऐसे विषय हैं जिनकी
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विशेष रूप से चिन्ता करनी चाहिए । हर समुदाय ने
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अपने सदस्यों की शिक्षा का प्रबन्ध अपनी ज़िम्मेदारी
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से करना चाहये । राज्य के ऊपर इसका बोझ नहीं
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डालना चाहिए । जिस प्रकार Hers के लोग अपनी
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ज़िम्मेदारी पर कुटुम्ब चलाते हैं उसी प्रकार समाज ने
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अपनी शिक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी चाहिए । उसी
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प्रकार समुदाय को धर्मविषयक मार्गदर्शन करने वाले
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पुरोहित की भी विशेष व्यवस्था समुदाय ने करनी
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चाहिए । आज ऐसी कोई व्यवस्था है ही नहीं, और
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होनी चाहिए ऐसा लगता भी नहीं है, तब तो इस पर
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विशेष विचार करना चाहिए । समाज के नीतिमूल्यों
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की रक्षा हेतु, सांस्कृतिक दृष्टि से करणीय अकरणीय
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बातें बताने के लिए और सिखाने के लिए हमारे
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समाज में पुरोहित की व्यवस्था होती थी । विगत कई
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पीढ़ियों से हमने उसे छोड़ दी है । इस पर पुन: विचार
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करना चाहिए ।
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इस प्रकार व्यक्ति के कुटुम्ब में और कुटुम्ब के
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समुदाय में समायोजन का हमने विचार किया । आगे
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व्यक्ति की राष्ट्रीता होती है । इसका विचार अब
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करेंगे ।
      
== राष्ट्र ==
 
== राष्ट्र ==

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