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− | सौतिरुवाच
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− | स चापि च्यवनो ब्रह्मन्भार्गवोऽजनयत्सुतम्।
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− | सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम्॥ 1-8-1
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− | प्रमतिः तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत्।
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− | रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत्॥ 1-8-2 | + | सौतिरुवाच |
− | | + | स चापि च्यवनो ब्रह्मन्भार्गवोऽजनयत्सुतम्। |
− | (शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान्। | + | सुकन्यायां महात्मानं प्रमतिं दीप्ततेजसम्॥ 1-8-1 |
− | | + | प्रमतिः तु रुरुं नाम घृताच्यां समजीजनत्। |
− | शुनकस्तु महासत्त्वः सर्वभार्गवनन्दनः। | + | रुरुः प्रमद्वरायां तु शुनकं समजीजनत्॥ 1-8-2 |
− | | + | (शौनकस्तु महाभाग शुनकस्य सुतो भवान्। |
− | जातस्तपसि तीव्रे च स्थितः स्थिरयशास्ततः॥) | + | शुनकस्तु महासत्त्वः सर्वभार्गवनन्दनः। |
− | | + | जातस्तपसि तीव्रे च स्थितः स्थिरयशास्ततः॥) |
− | तस्य ब्रह्मन्रुरोः सर्वं चरितं भूरितेजसः। | + | तस्य ब्रह्मन्रुरोः सर्वं चरितं भूरितेजसः। |
− | | + | विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः॥ 1-8-3 |
− | विस्तरेण प्रवक्ष्यामि तच्छृणु त्वमशेषतः॥ 1-8-3 | + | ऋषिरासीन्महान्पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः। |
− | | + | स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः॥ 1-8-4 |
− | ऋषिरासीन्महान्पूर्वं तपोविद्यासमन्वितः। | + | एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान्। |
− | | + | गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुः इति स्मृतः॥ 1-8-5 |
− | स्थूलकेश इति ख्यातः सर्वभूतहिते रतः॥ 1-8-4 | + | अप्सरा मेनका तस्य तं गर्भं भृगुनन्दन। |
− | | + | उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति॥ 1-8-6 |
− | एतस्मिन्नेव काले तु मेनकायां प्रजज्ञिवान्। | + | उत्सृज्य चैव तं गर्भं नद्यास्तीरे जगाम सा। |
− | | + | अप्सरा मेनका ब्रह्मन्निर्दया निरपत्रपा॥ 1-8-7 |
− | गन्धर्वराजो विप्रर्षे विश्वावसुः इति स्मृतः॥ 1-8-5 | + | कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया। |
− | | + | तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः॥ 1-8-8 |
− | अप्सरा मेनका तस्य तं गर्भं भृगुनन्दन। | + | स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम्। |
− | | + | स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विजः॥ 1-8-9 |
− | उत्ससर्ज यथाकालं स्थूलकेशाश्रमं प्रति॥ 1-8-6 | + | जग्राह च मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च। |
− | | + | ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे॥ 1-8-10 |
− | उत्सृज्य चैव तं गर्भं नद्यास्तीरे जगाम सा। | + | जातकाद्याः क्रियाश्चास्या विधिपूर्वं यथाक्रमम्। |
− | | + | स्थूलकेशो महाभागश्चकार सुमहानृषिः॥ 1-8-11 |
− | अप्सरा मेनका ब्रह्मन्निर्दया निरपत्रपा॥ 1-8-7 | + | प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता। |
− | | + | ततः प्रमद्वरा इत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः॥ 1-8-12 |
− | कन्याममरगर्भाभां ज्वलन्तीमिव च श्रिया। | + | तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम्। |
− | | + | बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा॥ 1-8-13 |
− | तां ददर्श समुत्सृष्टां नदीतीरे महानृषिः॥ 1-8-8 | + | पितरं सखिभिः सोऽथ श्रावयामास भार्गवम्। |
− | | + | प्रमतिश्चाभ्ययाचत्तां स्थूलकेशं यशस्विनम्॥ 1-8-14 |
− | स्थूलकेशः स तेजस्वी विजने बन्धुवर्जिताम्। | + | ततः प्रादात्पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्वराम्। |
− | | + | विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते॥ 1-8-15 |
− | स तां दृष्ट्वा तदा कन्यां स्थूलकेशो महाद्विजः॥ 1-8-9 | + | ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते। |
− | | + | सखीभिः क्रीडती सार्धं सा कन्या वरवर्णिनी॥ 1-8-16 |
− | जग्राह च मुनिश्रेष्ठः कृपाविष्टः पुपोष च। | + | नापश्यत्सम्प्रसुप्तं वै भुजङ्गं तिर्यगायतम्। |
− | | + | पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्षुः कालचोदिता॥ 1-8-17 |
− | ववृधे सा वरारोहा तस्याश्रमपदे शुभे॥ 1-8-10 | + | स तस्याः सम्प्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा। |
− | | + | विषोपलिप्तान्दशनान्भृशमङ्गे न्यपातयत्॥ 1-8-18 |
− | जातकाद्याः क्रियाश्चास्या विधिपूर्वं यथाक्रमम्। | + | सा दष्टा तेन सर्पेण पपात सहसा भुवि। |
− | | + | विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना॥ 1-8-19 |
− | स्थूलकेशो महाभागश्चकार सुमहानृषिः॥ 1-8-11 | + | निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्धजा। |
− | | + | व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाभवत्॥ 1-8-20 |
− | प्रमदाभ्यो वरा सा तु सत्त्वरूपगुणान्विता। | + | प्रसुप्ते वाभवच्चापि भुवि सर्वविषार्दिता। |
− | | + | भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा॥ 1-8-21 |
− | ततः प्रमद्वरा इत्यस्या नाम चक्रे महानृषिः॥ 1-8-12 | + | ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विनः। |
− | | + | विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम्॥ 1-8-22 |
− | तामाश्रमपदे तस्य रुरुर्दृष्ट्वा प्रमद्वराम्। | + | ततः सर्वे द्विजवराः समाजग्मुः कृपान्विताः। |
− | | + | स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः॥ 1-8-23 |
− | बभूव किल धर्मात्मा मदनोपहतस्तदा॥ 1-8-13 | + | उद्दालकः कठश्चैव श्वेतश्चैव महायशाः। |
− | | + | भरद्वाजः कौणकुत्स्य आर्ष्टिषेणोऽथ गौतमः॥ 1-8-24 |
− | पितरं सखिभिः सोऽथ श्रावयामास भार्गवम्। | + | प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः। |
− | | + | तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजङ्गस्य विषार्दिताम्। |
− | प्रमतिश्चाभ्ययाचत्तां स्थूलकेशं यशस्विनम्॥ 1-8-14 | + | रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वार्तो बहिर्ययौ॥ 1-8-25 |
− | | + | (ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा।) |
− | ततः प्रादात्पिता कन्यां रुरवे तां प्रमद्वराम्। | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वरासर्पदंशेऽष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥ |
− | | + | [[:Category:Birth|''Birth'']] [[:Category:Birth of Pramdvara|''Birth of Pramdvara'']] [[:Category:Pramdvara|''Pramdvara'']] |
− | विवाहं स्थापयित्वाग्रे नक्षत्रे भगदैवते॥ 1-8-15 | + | [[:Category:snakebite|''snakebite'']] [[:Category:death|''death'']] [[:Category:death by snakebite|''death by snakebite'']] |
− | | + | [[:Category:प्रमद्वरा|''प्रमद्वरा'']] [[:Category:प्रमद्वराकी विवाहपुर्व मृत्यु|''प्रमद्वराकी विवाहपुर्व मृत्यु'']] |
− | ततः कतिपयाहस्य विवाहे समुपस्थिते। | + | [[:Category:सांप काटनेसे मृत्यु|''सांप काटनेसे मृत्यु'']] |
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− | सखीभिः क्रीडती सार्धं सा कन्या वरवर्णिनी॥ 1-8-16 | |
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− | नापश्यत्सम्प्रसुप्तं वै भुजङ्गं तिर्यगायतम्। | |
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− | पदा चैनं समाक्रामन्मुमूर्षुः कालचोदिता॥ 1-8-17 | |
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− | स तस्याः सम्प्रमत्तायाश्चोदितः कालधर्मणा। | |
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− | विषोपलिप्तान्दशनान्भृशमङ्गे न्यपातयत्॥ 1-8-18 | |
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− | सा दष्टा तेन सर्पेण पपात सहसा भुवि। | |
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− | विवर्णा विगतश्रीका भ्रष्टाभरणचेतना॥ 1-8-19 | |
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− | निरानन्दकरी तेषां बन्धूनां मुक्तमूर्धजा। | |
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− | व्यसुरप्रेक्षणीया सा प्रेक्षणीयतमाभवत्॥ 1-8-20 | |
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− | प्रसुप्ते वाभवच्चापि भुवि सर्वविषार्दिता। | |
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− | भूयो मनोहरतरा बभूव तनुमध्यमा॥ 1-8-21 | |
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− | ददर्श तां पिता चैव ये चैवान्ये तपस्विनः। | |
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− | विचेष्टमानां पतितां भूतले पद्मवर्चसम्॥ 1-8-22 | |
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− | ततः सर्वे द्विजवराः समाजग्मुः कृपान्विताः। | |
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− | स्वस्त्यात्रेयो महाजानुः कुशिकः शङ्खमेखलः॥ 1-8-23 | |
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− | उद्दालकः कठश्चैव श्वेतश्चैव महायशाः। | |
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− | भरद्वाजः कौणकुत्स्य आर्ष्टिषेणोऽथ गौतमः॥ 1-8-24 | |
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− | प्रमतिः सह पुत्रेण तथान्ये वनवासिनः। | |
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− | तां ते कन्यां व्यसुं दृष्ट्वा भुजङ्गस्य विषार्दिताम्। | |
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− | रुरुदुः कृपयाविष्टा रुरुस्त्वार्तो बहिर्ययौ॥ 1-8-25 | |
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− | (ते च सर्वे द्विजश्रेष्ठास्तत्रैवोपाविशंस्तदा।) | |
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पौलोमपर्वणि प्रमद्वरासर्पदंशेऽष्टमोऽध्यायः॥ 8 ॥ | |