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− | वैशम्पायन उवाच
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− | ततो धनञ्जयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत।
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− | त्वयेदानीं प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम्॥ 1-132-1 | + | वैशम्पायन उवाच |
− | | + | ततो धनञ्जयं द्रोणः स्मयमानोऽभ्यभाषत। |
− | मद्वाक्यसमकालं ते मोक्तव्योऽत्र भवेच्छि[च्छ]रः। | + | त्वयेदानीं प्रहर्तव्यमेतल्लक्ष्यं विलोक्यताम्॥ 1-132-1 |
− | | + | मद्वाक्यसमकालं ते मोक्तव्योऽत्र भवेच्छि[च्छ]रः। |
− | वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्॥ 1-132-2 | + | वितत्य कार्मुकं पुत्र तिष्ठ तावन्मुहूर्तकम्॥ 1-132-2 |
− | | + | एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः। |
− | एवमुक्तः सव्यसाची मण्डलीकृतकार्मुकः। | + | तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः॥ 1-132-3 |
− | | + | मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत। |
− | तस्थौ भासं समुद्दिश्य गुरुवाक्यप्रचोदितः॥ 1-132-3 | + | पश्यस्येनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि चार्जुन॥ 1-132-4 |
− | | + | पश्याम्येकं भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत। |
− | मुहूर्तादिव तं द्रोणस्तथैव समभाषत। | + | न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत॥ 1-132-5 |
− | | + | ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः। |
− | पश्यस्येनं स्थितं भासं द्रुमं मामपि चार्जुन॥ 1-132-4 | + | प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां महारथम्॥ 1-132-6 |
− | | + | भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः। |
− | पश्याम्येकं भासमिति द्रोणं पार्थोऽभ्यभाषत। | + | शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत्॥ 1-132-7 |
− | | + | अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः। |
− | न तु वृक्षं भवन्तं वा पश्यामीति च भारत॥ 1-132-5 | + | मुञ्चस्वेत्यब्रवीत्पार्थं स मुमोचाविचारयन्॥ 1-132-8 |
− | | + | ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन च। |
− | ततः प्रीतमना द्रोणो मुहूर्तादिव तं पुनः। | + | शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डवः॥ 1-132-9 |
− | | + | तस्मिन्कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत पाण्डवम्। |
− | प्रत्यभाषत दुर्धर्षः पाण्डवानां महारथम्॥ 1-132-6 | + | मेने च द्रुपदं सङ्ख्ये सानुबन्धं पराजितम्॥ 1-132-10 |
− | | + | कस्यचित्त्वथ कालस्य सशिष्योऽङ्गिरसां वरः। |
− | भासं पश्यसि यद्येनं तथा ब्रूहि पुनर्वचः। | + | जगाम गङ्गामभितो मज्जितुं भरतर्षभ॥ 1-132-11 |
− | | + | अवगाढमथो द्रोणं सलिले सलिलेचरः। |
− | शिरः पश्यामि भासस्य न गात्रमिति सोऽब्रवीत्॥ 1-132-7 | + | ग्राहो जग्राह बलवाञ्जङ्घान्ते कालचोदितः॥ 1-132-12 |
− | | + | स समर्थोऽपि मोक्षाय शिष्यान्सर्वानचोदयत्। |
− | अर्जुनेनैवमुक्तस्तु द्रोणो हृष्टतनूरुहः। | + | ग्राहं हत्वा मोक्षयध्वं मामिति त्वरयन्निव॥ 1-132-13 |
− | | + | तद्वाक्यसमकालं तु बीभत्सुर्निशितैः शरैः। |
− | मुञ्चस्वेत्यब्रवीत्पार्थं स मुमोचाविचारयन्॥ 1-132-8 | + | अवार्यैः पञ्चभिर्ग्राहं मग्नमम्भस्यताडयत्॥ 1-132-14 |
− | | + | इतरे त्वथ सम्मूढास्तत्र तत्र प्रपेदिरे। |
− | ततस्तस्य नगस्थस्य क्षुरेण निशितेन च। | + | तं तु दृष्ट्वा क्रियोपेतं द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम्॥ 1-132-15 |
− | | + | विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत्तदा। |
− | शिर उत्कृत्य तरसा पातयामास पाण्डवः॥ 1-132-9 | + | स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डशः परिकल्पितः॥ 1-132-16 |
− | | + | ग्राहः पञ्चत्वमापेदे जङ्घां त्यक्त्वा महात्मनः। |
− | तस्मिन्कर्मणि संसिद्धे पर्यष्वजत पाण्डवम्। | + | अथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम्॥ 1-132-17 |
− | | + | गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम्। |
− | मेने च द्रुपदं सङ्ख्ये सानुबन्धं पराजितम्॥ 1-132-10 | + | अस्त्र ब्रह्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम्॥ 1-132-18 |
− | | + | न च ते मानुषेष्वेतत्प्रयोक्तव्यं कथञ्चन। |
− | कस्यचित्त्वथ कालस्य सशिष्योऽङ्गिरसां वरः। | + | जगद्विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम्॥ 1-132-19 |
− | | + | असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते। |
− | जगाम गङ्गामभितो मज्जितुं भरतर्षभ॥ 1-132-11 | + | तद्धारयेथाः प्रयतः शृणु चेदं वचो मम॥ 1-132-20 |
− | | + | बाधेतामानुषः शत्रर्यदि त्वां वीर कश्चन। |
− | अवगाढमथो द्रोणं सलिले सलिलेचरः। | + | तद्वधाय प्रयुञ्जीथास्तदस्त्रमिदमाहवे॥ 1-132-21 |
− | | + | तथेति सम्प्रतिश्रुत्य बीभत्सुः स कृताञ्जलिः। |
− | ग्राहो जग्राह बलवाञ्जङ्घान्ते कालचोदितः॥ 1-132-12 | + | जग्राह परमास्त्रं तदाह चैनं पुनर्गुरुः। |
− | | + | भविता त्वत्समो नान्यः पुमाँल्लोके धनुर्धरः॥ 1-132-22 |
− | स समर्थोऽपि मोक्षाय शिष्यान्सर्वानचोदयत्। | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि द्रोणग्राहमोक्षणे द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 132॥ |
− | | + | [[:Category:Arjuna|''Arjuna'']] [[:Category:hit target|''hit target'']] [[:Category:target|''target'']] |
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− | तं तु दृष्ट्वा क्रियोपेतं द्रोणोऽमन्यत पाण्डवम्॥ 1-132-15 | |
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− | विशिष्टं सर्वशिष्येभ्यः प्रीतिमांश्चाभवत्तदा। | |
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− | स पार्थबाणैर्बहुधा खण्डशः परिकल्पितः॥ 1-132-16 | |
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− | ग्राहः पञ्चत्वमापेदे जङ्घां त्यक्त्वा महात्मनः। | |
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− | अथाब्रवीन्महात्मानं भारद्वाजो महारथम्॥ 1-132-17 | |
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− | गृहाणेदं महाबाहो विशिष्टमतिदुर्धरम्। | |
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− | अस्त्र ब्रह्मशिरो नाम सप्रयोगनिवर्तनम्॥ 1-132-18 | |
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− | न च ते मानुषेष्वेतत्प्रयोक्तव्यं कथञ्चन। | |
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− | जगद्विनिर्दहेदेतदल्पतेजसि पातितम्॥ 1-132-19 | |
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− | असामान्यमिदं तात लोकेष्वस्त्रं निगद्यते। | |
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− | तद्धारयेथाः प्रयतः शृणु चेदं वचो मम॥ 1-132-20 | |
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− | बाधेतामानुषः शत्रुर्यदि त्वां वीर कश्चन। | |
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− | तद्वधाय प्रयुञ्जीथास्तदस्त्रमिदमाहवे॥ 1-132-21 | |
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− | तथेति सम्प्रतिश्रुत्य बीभत्सुः स कृताञ्जलिः। | |
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− | जग्राह परमास्त्रं तदाह चैनं पुनर्गुरुः। | |
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− | भविता त्वत्समो नान्यः पुमाँल्लोके धनुर्धरः॥ 1-132-22 | |
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि सम्भवपर्वणि द्रोणग्राहमोक्षणे द्वात्रिंशदधिकशततमोऽध्यायः॥ 132॥ | |