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− | स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम॥ | + | स एवमुक्त उपाध्यायेनेष्टं देशं जगाम॥ |
| + | अथापरः शिष्यस्तस्यैव अयोदस्य धौम्यस्योपमन्युः नाम॥ 1-3-33 |
| + | तं चोपाध्यायः प्रेषयामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति॥ 1-3-34 |
| + | स उपाध्यायवचनादरक्षद्गाः; स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-35 |
| + | तमुवाच चैनं[तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं] वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि पीवानसि दृढमिति॥ 1-3-36 |
| + | स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्येण वृत्तिं कल्पयामीति॥ 1-3-37 |
| + | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति॥ |
| + | स तथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत्॥ 1-3-38 |
| + | स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्णात्॥ स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद्गाः॥ |
| + | अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-39 |
| + | तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यं गृह्णामि केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥ 1-3-40 |
| + | स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति॥ 1-3-41 |
| + | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति ॥ 1-3-42 |
| + | स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत्॥ |
| + | रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-43 |
| + | तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्वं भैक्ष्यं गृह्णामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्तिं कल्पयसीति॥ 1-3-44 |
| + | स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति॥ |
| + | तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं मया नाभ्यनुज्ञातमिति॥ 1-3-45 |
| + | स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-46 |
| + | तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥ 1-3-47 |
| + | स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातॄणां स्तनात्पिबन्त उद्गिरन्ति॥ 1-3-48 |
| + | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच--एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति॥ |
| + | तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः॥ |
| + | फेनमपि भवान्न पातुमर्हतीति॥ |
| + | स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद्गाः॥ 1-3-49 |
| + | तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेनं नोपयुङ्क्ते॥ |
| + | स कदाचिदरण्ये क्षुधार्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत्॥ 1-3-50 |
| + | स तैरर्कपत्रैर्भक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूक्षैस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुष्युपहतोऽन्धो बभूव॥ |
| + | ततः सोऽन्धोऽपि चङ्क्रम्यमाणः कूपे पपात॥ 1-3-51 |
| + | अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्--नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति॥ 1-3-52 |
| + | तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति॥ |
| + | 1-3-53 |
| + | स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन्कूपे पतितोऽहमिति तमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन्कूपे पतित इति॥ 1-3-54 |
| + | स उपाध्यायं प्रत्युवाच--अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतित इति॥ 1-3-55 |
| + | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच--अश्विनौ स्तुहि॥ तौ देवभिषजौ त्वां चक्षुष्मन्तं कर्ताराविति॥ |
| + | स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युः स्तोतुमुपचक्रमे देवावश्विनौ वाग्भिरृग्भिः॥ 1-3-56 |
| + | प्रपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानू गिरा वाऽऽशंसामि तपसा ह्यनन्तौ। |
| + | दिव्यौ सुपर्णौ विरजौ विमानावधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा॥ 1-3-57 |
| + | हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ नासत्यदस्रौ सुनसौ वै जयन्तौ। |
| + | शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमावधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः॥ 1-3-58 |
| + | ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिकाममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय। |
| + | तावत्सुवृत्तावनमन्त मायया वसत्तमा गा अरुणा उदावहन्॥ 1-3-59 |
| + | षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनव एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति। |
| + | नानागोष्ठा विहिता एकदोहनास्तावश्विनौ दुहतो धर्ममुक्थ्यम्॥ 1-3-60 |
| + | एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः। |
| + | अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी॥ 1-3-61 |
| + | एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम्। |
| + | यस्मिन्देवा अधि विश्वे विषक्तास्तावश्विनौ मुञ्चतं मा विषीदतम्॥ 1-3-62 |
| + | अश्विनाविन्दुममृतं वृत्तभूयौ तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी। |
| + | हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ तद्वृष्टिमह्ना प्रस्थितौ बलस्य॥ 1-3-63 |
| + | युवां दिशो जनयथो दशाग्रे समानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति। |
| + | तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति॥ 1-3-64 |
| + | युवां वर्णान्विकुरुथोनिश्वरूपास्तेऽधिक्षिपन्ते भुवनानि विश्वा। |
| + | ते मानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति॥ 1-3-65 |
| + | तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहं स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य। |
| + | तौ नासत्यावमृतावृतावृधावृते देवास्तत्प्रपदे न सूते॥ 1-3-66 |
| + | मुखेन गर्भं लभेतां युवानौ गतासुरेतत्प्रपदेन सूते। |
| + | सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भस्तावश्विनौ मुञ्चथो जीवसे गाः॥ 1-3-67 |
| + | स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौ चक्षुर्विहीनः पथि सम्प्रमोहः। |
| + | दुर्गेऽहमस्मिन्पतितोऽस्मि कूपेयुवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये॥ 1-3-68 |
| + | इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति॥ 1-3-69 |
| + | स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेऽनिवेद्येति॥ 1-3-70 |
| + | ततस्तमश्विनावूचतुः-- आवाभ्यां पुरस्ताद्भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति॥ 1-3-71 |
| + | स एवमुक्तः प्रत्युवाच-एतत्प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोक्तुमिति॥ 1-3-72 |
| + | तमश्विनावाहतुः प्रीतौ स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ता भवतोऽपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीति श्रेयश्चावाप्स्यसीति॥ 1-3-73 |
| + | स एवमुक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत्॥ 1-3-74 |
| + | आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान्बभूव॥ 1-3-75 |
| + | आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि॥ 1-3-76 |
| + | सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति॥ एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः॥ 1-3-77 |
| + | [[:Category:Upamanyu|''Upamanyu'']] [[:Category:Gurubhakti|''Gurubhakti'']] |
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− | अथापरः शिष्यस्तस्यैव अयोदस्य धौम्यस्योपमन्युः नाम॥ 1-3-33
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− | तं चोपाध्यायः प्रेषयामास वत्सोपमन्यो गा रक्षस्वेति॥ 1-3-34
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− | स उपाध्यायवचनादरक्षद्गाः; स चाहनि गा रक्षित्वा दिवसक्षये गुरुगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-35
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− | तमुवाच चैनं[तमुपाध्यायः पीवानमपश्यदुवाच चैनं] वत्सोपमन्यो केन वृत्तिं कल्पयसि पीवानसि दृढमिति॥ 1-3-36
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− | स उपाध्यायं प्रत्युवाच भो भैक्ष्येण वृत्तिं कल्पयामीति॥ 1-3-37
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− | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच मय्यनिवेद्य भैक्ष्यं नोपयोक्तव्यमिति॥
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− | स तथेत्युक्त्वा भैक्ष्यं चरित्वोपाध्यायाय न्यवेदयत्॥ 1-3-38
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− | स तस्मादुपाध्यायः सर्वमेव भैक्ष्यमगृह्णात्॥ स तथेत्युक्त्वा पुनररक्षद्गाः॥
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− | अहनि रक्षित्वा निशामुखे गुरुकुलमागम्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-39
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− | तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो सर्वमशेषतस्ते भैक्ष्यं गृह्णामि केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥ 1-3-40
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− | स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भगवते निवेद्य पूर्वमपरं चरामि तेन वृत्तिं कल्पयामीति॥ 1-3-41
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− | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच नैषा न्याय्या गुरुवृत्तिरन्येषामपि भैक्ष्योपजीविनां वृत्त्युपरोधं करोषि इत्येवं वर्तमानो लुब्धोऽसीति ॥ 1-3-42
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− | स तथेत्युक्त्वा गा अरक्षत्॥
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− | रक्षित्वा च पुनरुपाध्यायगृहमागम्योपाध्यायस्याग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-43
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− | तमुपाध्यायस्तथापि पीवानमेव दृष्ट्वा पुनरुवाच वत्सोपमन्यो अहं ते सर्वं भैक्ष्यं गृह्णामि न चान्यच्चरसि पीवानसि भृशं केन वृत्तिं कल्पयसीति॥ 1-3-44
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− | स एवमुक्तस्तमुपाध्यायं प्रत्युवाच भो एतासां गवां पयसा वृत्तिं कल्पयामीति॥
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− | तमुवाचोपाध्यायो नैतन्न्याय्यं पय उपयोक्तुं मया नाभ्यनुज्ञातमिति॥ 1-3-45
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− | स तथेति प्रतिज्ञाय गा रक्षित्वा पुनरुपाध्यायगृहमेत्य गुरोरग्रतः स्थित्वा नमश्चक्रे॥ 1-3-46
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− | तमुपाध्यायः पीवानमेव दृष्ट्वोवाच वत्सोपमन्यो भैक्ष्यं नाश्नासि न चान्यच्चरसि पयो न पिबसि पीवानसि भृशं केनेदानीं वृत्तिं कल्पयसीति॥ 1-3-47
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− | स एवमुक्त उपाध्यायं प्रत्युवाच भोः फेनं पिबामि यमिमे वत्सा मातॄणां स्तनात्पिबन्त उद्गिरन्ति॥ 1-3-48
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− | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच--एते त्वदनुकम्पया गुणवन्तो वत्साः प्रभूततरं फेनमुद्गिरन्ति॥
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− | तदेषामपि वत्सानां वृत्त्युपरोधं करोष्येवं वर्तमानः॥
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− | फेनमपि भवान्न पातुमर्हतीति॥
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− | स तथेति प्रतिश्रुत्य पुनररक्षद्गाः॥ 1-3-49
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− | तथा प्रतिषिद्धो भैक्ष्यं नाश्नाति न चान्यच्चरति पयो न पिबति फेनं नोपयुङ्क्ते॥
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− | स कदाचिदरण्ये क्षुधार्तोऽर्कपत्राण्यभक्षयत्॥ 1-3-50
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− | स तैरर्कपत्रैर्भक्षितैः क्षारतिक्तकटुरूक्षैस्तीक्ष्णविपाकैश्चक्षुष्युपहतोऽन्धो बभूव॥
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− | ततः सोऽन्धोऽपि चङ्क्रम्यमाणः कूपे पपात॥ 1-3-51
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− | अथ तस्मिन्ननागच्छति सूर्ये चास्ताचलावलम्बिनि उपाध्यायः शिष्यानवोचत्--नायात्युपमन्युस्त ऊचुर्वनं गतो गा रक्षितुमिति॥ 1-3-52
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− | तानाह उपाध्यायो मयोपमन्युः सर्वतः प्रतिषिद्धः स नियतं कुपितस्ततो नागच्छति चिरं ततोऽन्वेष्य इत्येवमुक्त्वा शिष्यैः सार्धमरण्यं गत्वा तस्याह्वानाय शब्दं चकार भो उपमन्यो क्वासि वत्सैहीति॥ 1-3-53
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− | स उपाध्यायवचनं श्रुत्वा प्रत्युवाचोच्चैरयमस्मिन्कूपे पतितोऽहमिति तमुपाध्यायः प्रत्युवाच कथं त्वमस्मिन्कूपे पतित इति॥ 1-3-54
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− | स उपाध्यायं प्रत्युवाच--अर्कपत्राणि भक्षयित्वान्धीभूतोऽस्म्यतः कूपे पतित इति॥ 1-3-55
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− | तमुपाध्यायः प्रत्युवाच--अश्विनौ स्तुहि॥ तौ देवभिषजौ त्वां चक्षुष्मन्तं कर्ताराविति॥
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− | स एवमुक्त उपाध्यायेनोपमन्युः स्तोतुमुपचक्रमे देवावश्विनौ वाग्भिरृग्भिः॥ 1-3-56
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− | प्रपूर्वगौ पूर्वजौ चित्रभानू गिरा वाऽऽशंसामि तपसा ह्यनन्तौ।
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− | दिव्यौ सुपर्णौ विरजौ विमानावधिक्षिपन्तौ भुवनानि विश्वा॥ 1-3-57
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− | हिरण्मयौ शकुनी साम्परायौ नासत्यदस्रौ सुनसौ वै जयन्तौ।
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− | शुक्लं वयन्तौ तरसा सुवेमावधिव्ययन्तावसितं विवस्वतः॥ 1-3-58
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− | ग्रस्तां सुपर्णस्य बलेन वर्तिकाममुञ्चतामश्विनौ सौभगाय।
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− | तावत्सुवृत्तावनमन्त मायया वसत्तमा गा अरुणा उदावहन्॥ 1-3-59
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− | षष्टिश्च गावस्त्रिशताश्च धेनव एकं वत्सं सुवते तं दुहन्ति।
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− | नानागोष्ठा विहिता एकदोहनास्तावश्विनौ दुहतो धर्ममुक्थ्यम्॥ 1-3-60
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− | एकां नाभिं सप्तशता अराः श्रिताः प्रधिष्वन्या विंशतिरर्पिता अराः।
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− | अनेमि चक्रं परिवर्ततेऽजरं मायाश्विनौ समनक्ति चर्षणी॥ 1-3-61
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− | एकं चक्रं वर्तते द्वादशारं षण्णाभिमेकाक्षमृतस्य धारणम्।
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− | यस्मिन्देवा अधि विश्वे विषक्तास्तावश्विनौ मुञ्चतं मा विषीदतम्॥ 1-3-62
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− | अश्विनाविन्दुममृतं वृत्तभूयौ तिरोधत्तामश्विनौ दासपत्नी।
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− | हित्वा गिरिमश्विनौ गा मुदा चरन्तौ तद्वृष्टिमह्ना प्रस्थितौ बलस्य॥ 1-3-63
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− | युवां दिशो जनयथो दशाग्रे समानं मूर्ध्नि रथयानं वियन्ति।
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− | तासां यातमृषयोऽनुप्रयान्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति॥ 1-3-64
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− | युवां वर्णान्विकुरुथोनिश्वरूपास्तेऽधिक्षिपन्ते भुवनानि विश्वा।
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− | ते मानवोऽप्यनुसृताश्चरन्ति देवा मनुष्याः क्षितिमाचरन्ति॥ 1-3-65
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− | तौ नासत्यावश्विनौ वां महेऽहं स्रजं च यां बिभृथः पुष्करस्य।
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− | तौ नासत्यावमृतावृतावृधावृते देवास्तत्प्रपदे न सूते॥ 1-3-66
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− | मुखेन गर्भं लभेतां युवानौ गतासुरेतत्प्रपदेन सूते।
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− | सद्यो जातो मातरमत्ति गर्भस्तावश्विनौ मुञ्चथो जीवसे गाः॥ 1-3-67
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− | स्तोतुं न शक्नोमि गुणैर्भवन्तौ चक्षुर्विहीनः पथि सम्प्रमोहः।
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− | दुर्गेऽहमस्मिन्पतितोऽस्मि कूपेयुवां शरण्यौ शरणं प्रपद्ये॥ 1-3-68
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− | इत्येवं तेनाभिष्टुतावश्विनावाजग्मतुराहतुश्चैनं प्रीतौ स्व एष तेऽपूपोऽशानैनमिति॥ 1-3-69
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− | स एवमुक्तः प्रत्युवाच नानृतमूचतुर्भगवन्तौ न त्वहमेतमपूपमुपयोक्तुमुत्सहे गुरवेऽनिवेद्येति॥ 1-3-70
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− | ततस्तमश्विनावूचतुः-- आवाभ्यां पुरस्ताद्भवत उपाध्यायेनैवमेवाभिष्टुताभ्यामपूपो दत्त उपयुक्तः स तेनानिवेद्य गुरवे त्वमपि तथैव कुरुष्व यथा कृतमुपाध्यायेनेति॥ 1-3-71
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− | स एवमुक्तः प्रत्युवाच-एतत्प्रत्यनुनये भवन्तावश्विनौ नोत्सहेऽहमनिवेद्य गुरवेऽपूपमुपयोक्तुमिति॥ 1-3-72
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− | तमश्विनावाहतुः प्रीतौ स्वस्तवानया गुरुभक्त्या उपाध्यायस्य ते कार्ष्णायसा दन्ता भवतोऽपि हिरण्मया भविष्यन्ति चक्षुष्मांश्च भविष्यसीति श्रेयश्चावाप्स्यसीति॥ 1-3-73
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− | स एवमुक्तोऽश्विभ्यां लब्धचक्षुरुपाध्यायसकाशमागम्याभ्यवादयत्॥ 1-3-74
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− | आचचक्षे च स चास्य प्रीतिमान्बभूव॥ 1-3-75
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− | आह चैनं यथाश्विनावाहतुस्तथा त्वं श्रेयोऽवाप्स्यसि॥ 1-3-76
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− | सर्वे च ते वेदाः प्रतिभास्यन्ति सर्वाणि च धर्मशास्त्राणीति॥ एषा तस्यापि परीक्षोपमन्योः॥ 1-3-77
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| अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित्कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति॥ 1-3-78 | | अथापरः शिष्यस्तस्यैवायोदस्य धौम्यस्य वेदो नाम तमुपाध्यायः समादिदेश वत्स वेद इहास्यतां तावन्मम गृहे कंचित्कालं शुश्रूषुणा च भवितव्यं श्रेयस्ते भविष्यतीति॥ 1-3-78 |