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  अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।
 
  अष्टादश समाजग्मुरक्षौहिण्यो युयुत्सया।
 
  तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375
 
  तन्महादारुणं युद्धमहान्यष्टादशाभवत्॥ 1-2-375
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  यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।
 
  यो विद्याच्चतुरो वेदान्साङ्गोपनिषदो द्विजः।
 
  न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376
 
  न चाख्यानमिदं विद्यान्नैव स स्याद्विचक्षणः॥ 1-2-376
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  अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।
 
  अस्य काव्यस्य कवयो न समर्था विशेषणे।
 
  साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384
 
  साधोरिव गृहस्थस्य शेषास्त्रय इवाश्रमाः॥ 1-2-384
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  धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
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अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385
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द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
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  यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386
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  यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।
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  महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387
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  यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।
 
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  महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388
धर्मे मतिर्भवतु वः सततोत्थितानां स ह्येक एव परलोकगतस्य बन्धुः।
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अर्थाः स्त्रियश्च निपुणैरपि सेव्यमाना नैवाप्तभावमुपयान्ति न च स्थिरत्वम्॥ 1-2-385
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द्वैपायनौष्ठपुटनिःसृतमप्रमेयं पुण्यं पवित्रमथ पापहरं शिवं च।
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यो भारतं समधिगच्छति वाच्यमानं किं तस्य पुष्करजलैरभिषेचनेन॥ 1-2-386
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यदह्ना कुरुते पापं ब्राह्मणस्त्विन्द्रियैश्चरन्।
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महाभारतमाख्याय संध्यां मुच्यति पश्चिमाम्॥ 1-2-387
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यद्रात्रौ कुरुते पापं कर्मणा मनसा गिरा।
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महाभारतमाख्याय पूर्वां संध्यां प्रमुच्यते॥ 1-2-388
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यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय।
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पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389
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आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण।
     −
श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390
     −
इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥
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यो गोशतं कनकशृङ्गमयं ददाति विप्राय वेदविदुषे च बहुश्रुताय।
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पुण्यां च भारतकथां शृणुयाच्च नित्यं तुल्यं फलं भवति तस्य च तस्य चैव॥ 1-2-389
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आख्यानं तदिदमनुत्तमं महार्थं विज्ञेयं महदिह पर्वसंग्रहेण।
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श्रुत्वादौ भवति नृणां सुखावगाहं विस्तीर्णं लवणजलं यथा प्लवेन॥ 1-2-390
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इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि पर्वसङ्ग्रहपर्वणि द्वितीयोऽध्यायः॥ 2 ॥
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