Line 9: |
Line 9: |
| प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्। | | प्रज्ञा च ते भार्गवस्येव शुद्धा धर्म च त्वं परमं वेत्थ सूक्ष्मम्। |
| समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2 | | समश्च त्वं सम्मतः कौरवाणां पथ्यं चैषां मम चैव ब्रवीहि॥ 3-4-2 |
− | [[:Category:Vidur|''Vidur'']] | + | [[:Category:Vidura|''Vidura'']] |
| | | |
| एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्। | | एवं गते विदुर यदद्य कार्यं पौराश्च मे कथमस्मान्भजेरन्। |
Line 64: |
Line 64: |
| युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16 | | युधिष्ठिरं त्वं परिसान्त्वयस्व राज्ये चैनं स्थापयस्वाभिपूज्य॥ 3-4-16 |
| त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16 | | त्वया पृष्टः किमहमन्यद्वदेयमेतत्कृत्वा कृतकृत्योऽसि राजन्॥ 3-4-16 |
− | [[:Category:Duryodhan|''Duryodhan'']] | + | [[:Category:Duryodhana|''Duryodhana'']] |
| | | |
| धृतराष्ट्र उवाच | | धृतराष्ट्र उवाच |
Line 76: |
Line 76: |
| स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि। | | स मां जिह्मं विदुर सर्वं ब्रवीषि मानं च तेऽहमधिकं धारयामि। |
| यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20 | | यथेच्छकं गच्छ वा तिष्ठ वा त्वं सुसान्त्व्यमानाप्यसती स्त्री जहाति॥ 3-4-20 |
− | [[:Category:Dhristrashtra's attachment to Duryodhan|''Dhristrashtra's attachment to Duryodhan'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] | + | [[:Category:Dhrtarashtra's attachment to Duryodhana|''Dhrtarashtra's attachment to Duryodhana'']] [[:Category:आसक्ती|''आसक्ती'']] |
| | | |
| वैशम्पायन उवाच | | वैशम्पायन उवाच |
Line 82: |
Line 82: |
| एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्। | | एतावदुक्त्वा धृतराष्ट्रोऽन्वपद्यदन्तर्वेश्म सहसोत्थाय राजन्। |
| नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21 | | नेदमस्तीत्यथ विदुरो भाषमाणः सम्प्राद्रवद्यत्र पार्था बभूवुः॥ 3-4-21 |
− | [[:Category:Dhristrashtra|''Dhristrashtra]] [[:Category:Vidur|''Vidur'']] | + | [[:Category:Dhrtarashtra|''Dhrtarashtra]] [[:Category:Vidura|''Vidura'']] |
| | | |
| इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥ | | इति श्रीमहाभारते वनपर्वणि अरण्यपर्वणि विदुरवाक्यप्रत्याख्याने चतुर्थोऽध्यायः॥ 4 ॥ |