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| === विभिन्न ईकाईयों के स्तर पर === | | === विभिन्न ईकाईयों के स्तर पर === |
− | १.१ कुटुम्ब : समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरोंपर उचित भूमिका निभानेवाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना। कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना।
| + | # कुटुम्ब : समाज की सभी इकाइयों के विभिन्न स्तरोंपर उचित भूमिका निभानेवाले श्रेष्ठ मानव का निर्माण करना। कौटुम्बिक व्यवसाय के माध्यम से समाज की किसी आवश्यकता की पूर्ति करना। |
− | १.२ ग्राम : ग्राम की भूमिका छोटे विश्व और बड़े कुटुम्ब की तरह ही होती है। जिस तरह कुटुम्ब के सदस्यों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता उसी तरह अच्छे ग्राम में कुटुम्बों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता। प्रत्येक की सम्मान और स्वतन्त्रता के साथ अन्न, वस्त्र, भवन, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है।
| + | # ग्राम : ग्राम की भूमिका छोटे विश्व और बड़े कुटुम्ब की तरह ही होती है। जिस तरह कुटुम्ब के सदस्यों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता उसी तरह अच्छे ग्राम में कुटुम्बों में आपस में पैसे का लेनदेन नहीं होता। प्रत्येक की सम्मान और स्वतन्त्रता के साथ अन्न, वस्त्र, भवन, शिक्षा, आजीविका, सुरक्षा आदि सभी आवश्यकताओं की पूर्ति होती है। |
− | १.३ कौशल विधा : समाज जीवन की आवश्यकताओं की हर विधा के अनुसार व्यवसाय विधा समूह बनते हैं। इन समूहों के भी सामान्य व्यक्ति से लेकर विश्व के स्तरतक के लिए करणीय और अकरणीय कार्य होते हैं। कर्तव्य होते हैं। इन्हें व्यवसाय विधा धर्म कहेंगे। इनमें पदार्थ के उत्पादन के रूप में आर्थिक स्वतन्त्रता के किसी एक पहलू की रक्षा में योगदान करना होता है। शिक्षा/संस्कार, वस्तुएं, भावनाएं, विचार, कला आदि में से समाज जीवन की आवश्यकता में से किसी एक विधा के पदार्थ की निरंतर आपूर्ति करना। पदार्थ का अर्थ केवल वस्तु नहीं है। जिस पद याने शब्द का अर्थ होता है वह पदार्थ कहलाता है। व्यावसायिक समूह का काम कौशल का विकास करना, कौशल का पीढ़ी दर पीढ़ी अंतरण करना और अन्य व्यवसायिक समूहों से समन्वय रखना आदि है।
| + | # कौशल विधा : समाज जीवन की आवश्यकताओं की हर विधा के अनुसार व्यवसाय विधा समूह बनते हैं। इन समूहों के भी सामान्य व्यक्ति से लेकर विश्व के स्तर तक के लिए करणीय और अकरणीय कार्य होते हैं। कर्तव्य होते हैं। इन्हें व्यवसाय विधा धर्म कहेंगे। इनमें पदार्थ के उत्पादन के रूप में आर्थिक स्वतन्त्रता के किसी एक पहलू की रक्षा में योगदान करना होता है। शिक्षा / संस्कार, वस्तुएं, भावनाएं, विचार, कला आदि में से समाज जीवन की आवश्यकता में से किसी एक विधा के पदार्थ की निरंतर आपूर्ति करना। पदार्थ का अर्थ केवल वस्तु नहीं है। जिस पद याने शब्द का अर्थ होता है वह पदार्थ कहलाता है। व्यावसायिक समूह का काम कौशल का विकास करना, कौशल का पीढ़ी दर पीढ़ी अंतरण करना और अन्य व्यवसायिक समूहों से समन्वय रखना आदि है। |
− | १.४ भाषिक समूह : भाषा का मुख्य उपयोग परस्पर संवाद है। संवाद विचारों की सटीक अभिव्यक्ति करनेवाला हो इस हेतु से भाषाएँ बनतीं हैं। संवाद में सहजता, सरलता, सुगमता से आत्मीयता बढ़ती है। इसी हेतु से भाषिक समूह बनते हैं।
| + | # भाषिक समूह : भाषा का मुख्य उपयोग परस्पर संवाद है। संवाद विचारों की सटीक अभिव्यक्ति करने वाला हो इस हेतु से भाषाएँ बनतीं हैं। संवाद में सहजता, सरलता, सुगमता से आत्मीयता बढ़ती है। इसी हेतु से भाषिक समूह बनते हैं। |
− | १.५ प्रादेशिक समूह:शासनिक और व्यवस्थात्मक सुविधा की दृष्टि से प्रादेशिक स्तरका महत्त्व होता है।
| + | # प्रादेशिक समूह : शासनिक और व्यवस्थात्मक सुविधा की दृष्टि से प्रादेशिक स्तर का मह्त्व होता है। |
− | १.६ राष्ट्र:राष्ट्र अपने समाज के लिये विविध प्रकारके संगठनों का और व्यवस्थाओं का निर्माण करता है।
| + | # राष्ट्र : राष्ट्र अपने समाज के लिये विविध प्रकार के संगठनों का और व्यवस्थाओं का निर्माण करता है। |
− | १.७ विश्व:पूर्व में बताई हुई १.१ से लेकर १.६ तक की सभी इकाइयां वैश्विक हित की अविरोधी रहें।
| + | # विश्व : पूर्व में बताई हुई 1 से लेकर 6 तक की सभी इकाइयां वैश्विक हित की अविरोधी रहें। |
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| === प्रकृति सुसंगतता === | | === प्रकृति सुसंगतता === |
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| ३.२ कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं। | | ३.२ कौटुम्बिक भावना का विकास : समाज के सभी परस्पर संबंधों में कौटुम्बिक भावना से व्यवहार का आधार धर्मसंज्ञान ही तो होता है। मन को बुद्धि के नियंत्रण में रखना ही मन की शिक्षा होती है। दुर्योधन के निम्न कथन से सब परिचित हैं। |
| जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।। | | जानामी धर्मं न च में प्रवृत्ति: । जानाम्यधर्मं न च में निवृत्ति: ।। |
− | ३.३ धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना महत्त्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। जब किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है तब वह आदत बन जाती है। और जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बन जातीं हैं। | + | ३.३ धर्माचरण की आदतें: दुर्योधन के उपर्युक्त कथन को ध्यान में रखकर ही गर्भधारणा से ही बच्चे को धर्माचरण की आदतों की शिक्षा देना मह्त्वपूर्ण बन जाता है। आदत का अर्थ है जिस बात के करने में कठिनाई का अनुभव नहीं होता। जब किसी बात के बारबार करने से आचरण में यह सहजता आती है तब वह आदत बन जाती है। और जब उसे बुद्धिका अधिष्ठान मिल जाता है तब वह आदतें मनुष्य का स्वभाव ही बन जातीं हैं। |
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| === धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन === | | === धर्म के अनुपालन के स्तर और साधन === |