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| '''सीधी सादी बात कही जाय तो मोक्ष की चिंता न कर शेष तीनों पुरुषार्थ अर्थात् काम, अर्थ और धर्म पुरुषार्थों को समुचित आचरण में लाया जाय तो मोक्ष अपने आप हमारे लिए सुलभ हो जाता है।''' | | '''सीधी सादी बात कही जाय तो मोक्ष की चिंता न कर शेष तीनों पुरुषार्थ अर्थात् काम, अर्थ और धर्म पुरुषार्थों को समुचित आचरण में लाया जाय तो मोक्ष अपने आप हमारे लिए सुलभ हो जाता है।''' |
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− | मोक्ष ही ज्ञान है, मोक्ष ही ब्रह्म है, मोक्ष ही आत्मतत्व है। वह स्वयं हमारा वरण करता है जब हम उसके योग्य बन जाएँ। मोक्ष के लिए प्रयास करने से उसके योग्य नहीं बना जाता। शेष तीनों का सम्यक आचरण करने से ही उसके लिए योग्य बना जाता है । मोक्ष के प्रकाश में ही शेष तीनों पुरुषार्थों का व्यवहार होता है । मोक्ष नहीं तो तीन में से एक की भी स्थिति नहीं बनती। ऐसा मोक्ष, जीवन का परम पुरुषार्थ है । | + | मोक्ष ही ज्ञान है, मोक्ष ही ब्रह्म है, मोक्ष ही आत्मतत्व है। वह स्वयं हमारा वरण करता है जब हम उसके योग्य बन जाएँ। मोक्ष के लिए प्रयास करने से उसके योग्य नहीं बना जाता। शेष तीनों का सम्यक आचरण करने से ही उसके लिए योग्य बना जाता है । मोक्ष के प्रकाश में ही शेष तीनों पुरुषार्थों का व्यवहार होता है । मोक्ष नहीं तो तीन में से एक की भी स्थिति नहीं बनती। ऐसा मोक्ष, जीवन का परम पुरुषार्थ है। |
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| == मोक्ष पुरुषार्थ हेतु शिक्षा == | | == मोक्ष पुरुषार्थ हेतु शिक्षा == |
| यह बड़ा कठिन मामला है। यह बड़ा अजीब मामला है। यह परा विद्या का क्षेत्र है इसलिए अपरा विद्या का एक भी मापदंड इसे लागू नहीं है। मुंडक उपनिषद् भी कहता है{{Citation needed}} | | यह बड़ा कठिन मामला है। यह बड़ा अजीब मामला है। यह परा विद्या का क्षेत्र है इसलिए अपरा विद्या का एक भी मापदंड इसे लागू नहीं है। मुंडक उपनिषद् भी कहता है{{Citation needed}} |
− | :<blockquote>अथ परा यया तद् अक्षरम् अधिगम्यते</blockquote>अर्थात् परा विद्या वह है जिससे उस अक्षर को अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त किया जाता है, कहकर मौन हो जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद कहता | + | :<blockquote>अथ परा यया तद् अक्षरम् अधिगम्यते।।</blockquote> |
− | है कि यह आत्मा (जो स्वयं ज्ञान है, मोक्ष है) अध्ययन, अध्यापन, बुद्धि, अत्यधिक बहुश्नुतता आदि से प्राप्त नहींहोता है । वह जिसका वरण करता है उसे ही प्राप्त होता है। | + | :अर्थात् परा विद्या वह है जिससे उस अक्षर को अर्थात् ब्रह्म को प्राप्त किया जाता है, कहकर मौन हो जाता है । बृहदारण्यक उपनिषद कहता है कि यह आत्मा (जो स्वयं ज्ञान है, मोक्ष है) अध्ययन, अध्यापन, बुद्धि, अत्यधिक बहुश्नुतता आदि से प्राप्त नहीं होता है। वह जिसका वरण करता है उसे ही प्राप्त होता है। लौकिक शिक्षा में भी अनुभूति की झलक कभी कभी मिलती रहती है परन्तु उसकी विधिवत शिक्षा नहीं दी जा सकती। इसलिए यहाँ भी उसका विवरण देना सम्भव नहीं होगा। |
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− | लौकिक शिक्षा में भी अनुभूति कि झलक कभी कभी मिलती रहती है परन्तु उसकी विधिवत शिक्षा नहीं दी जा सकती । इसलिए यहाँ भी उसका विवरण देना सम्भव नहीं | |
− | होगा ।
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| == References == | | == References == |
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