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| {{One source|date=March 2019}} | | {{One source|date=March 2019}} |
| ==काम पुरुषार्थ<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>== | | ==काम पुरुषार्थ<ref>भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप (भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला १), प्रकाशक: पुनरुत्थान प्रकाशन सेवा ट्रस्ट, लेखन एवं संपादन: श्रीमती इंदुमती काटदरे</ref>== |
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| + | कामपुरुषार्थ |
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| + | आत्मतत्त्व के मन में संकल्प जगा “एकोइहम् |
| + | wee और इस सृष्टि का सृजन हुआ । सृष्टि का सृजन |
| + | परमात्मा की इच्छाशक्ति का परिणाम है । यह इच्छाशक्ति |
| + | मनुष्य के अन्तःकरण में काम बनकर निवास कर रही है । |
| + | अर्थात् काम मनुष्य के जीवन का केन्द्रवर्ती तत्त्व है। |
| + | उसकी उपेक्षा करना असम्भव है । |
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| + | काम का अर्थ है इच्छा । मनुष्य का मन इच्छाओं |
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| + | BC |
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| + | का आगर है । इच्छापूर्ति करना मनुष्य के मन का लक्ष्य |
| + | है । इच्छापूर्ति करने के लिये मन अथक और अखण्ड |
| + | प्रयास करता है । |
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| + | मन इंद्रियों का स्वामी है । इसलिये वह इंट्रियों को |
| + | भी अपनी इच्छापूर्ति के काम में लगाता है । इंद्रियाँ अपने |
| + | विषयों की ओर आकर्षित होती हैं । वे अपने स्वामी के |
| + | लिये सदैव कार्यरत होती हैं । फूलों तथा अन्य पदार्थों की |
| + | मधुर गन्ध को नासिका मन तक पहुँचाती हैं । कान मधुर |
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| + | पर्व १ : उपोद्धात |
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| + | ध्वनियों को मन तक पहुँचाकर उसे सुख देते हैं । रसना |
| + | विविध पदार्थों का स्वाद लेकर मन को सुख पहुँचाती है । |
| + | त्वचा अनेक प्रकार के मुलायम स्पर्श के अनुभव से मन |
| + | को सुख पहुँचाती है । आँखें अनेक सुन्दर दृश्यों को ग्रहण |
| + | कर मन को सुख पहुँचाती हैं । मनुष्य के बाहर का जो |
| + | विश्व है उसके सारे सुखद अनुभव इंट्रियों के माध्यम से मन |
| + | को प्राप्त होते हैं और मन उनका उपभोग करने में निरन्तर |
| + | लगा रहता है । |
| + | |
| + | परन्तु मन का यह सुख एकांगी नहीं है । सुन्दर |
| + | अनुभवों के साथ असुन्दर अनुभव भी जुड़े हुए हैं । गन्ध |
| + | यदि सुगन्ध है तो दुर्गन्ध भी है । स्वाद यदि मधुर है तो |
| + | कट भी है । दृश्य यदि सुन्दर है तो कुरूप भी है । ध्वनि |
| + | यदि मधुर है तो कर्कश भी है । स्पर्श यदि मुलायम है तो |
| + | कठोर भी है । इसके अनुभव मन तक पहुँचते हैं तो वे |
| + | सुख के स्थान पर दुःख देते हैं । मन इनसे विमुख होने का |
| + | अथवा इन्हें दूर रखने का भी प्रयास करता है । वह सदैव |
| + | सुख चाहता है और दुःख से दूर रहना चाहता है । परन्तु |
| + | ऐसा होता नहीं है । सुख है तो दुःख भी है ही । इसलिये |
| + | मन का सुख प्राप्त करने की और दुःख से दूर रहने की |
| + | छटपटाहट निरन्तर चलती रहती है । |
| + | |
| + | इंद्रियों से प्राप्त होने वाले इन सुखों के अनुभवों से |
| + | भी मन का कामसंसार बहुत विशाल है। काम मन में |
| + | लोभ, मोह, मद, मत्सर, क्रोध, आदि का रूप धारण कर |
| + | के रहता है। ( यहाँ काम का अर्थ जातीय सुख है । ) |
| + | लोभ से प्रेरित होकर वह परिग्रह करता है। वह |
| + | आवश्यकता से अधिक वस्तुओं का संग्रह करने में लगा |
| + | रहता है । मोह से प्रेरित होकर वह पदार्थों में, व्यक्तियों में, |
| + | अनुभवों में आसक्त होता है। आसक्ति के कारण वह |
| + | हमेशा उनके संग में ही रहना चाहता है । संग से सुख |
| + | मिलता है और दूर जाना हुआ तो दुःखी होता है । मद से |
| + | प्रेरित होकर वह सौजन्य भूल जाता है और दूसरों से |
| + | पारुश्यपूर्ण अर्थात् कठोर व्यवहार करता है। लोगों को |
| + | दुःख पहुँचाता है । मत्सर से प्रेरित होकर वह सुख पहुँचाने |
| + | वाली वस्तुयें केवल अपने ही पास हो ऐसा चाहता है। |
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| + | ¥8 |
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| + | अपने पास नहीं है और दूसरे के पास |
| + | है तो उसे दुःख होता है। अपने पास है और दूसरे के |
| + | पास है तो भी उसे दुःख होता है। अपने पास है और |
| + | दूसरे के पास नहीं है तो उसे सुख मिलता है । मन में |
| + | कामसुख की इच्छा भी सदैव रहती है और वह विविध |
| + | रूप धारण करती है । मन को सुख देने वाली बात यदि न |
| + | हो तो वह दुःखी होता है और दुःख क्रोध में परिवर्तित |
| + | होता है । काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर मनुष्य के |
| + | षडरिपु कहलाते हैं । वे सब मन में वास करते हैं और |
| + | मनुष्य को अनेक प्रकार के क्रियाकलाप करने के लिये |
| + | प्रेरित करते हैं । मन जिस सुख की इच्छा करता है उसके |
| + | चलते मनुष्य को मान, यश, गौरव, कीर्ति आदि की |
| + | अपेक्षा निरन्तर बनी रहती है । इन्हें प्राप्त करने हेतु भी वह |
| + | निरन्तर प्रयास करता रहता है । |
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| + | मनुष्यों के ऐसे प्रयासों से संघर्ष होता है । संघर्ष |
| + | हिंसा का रूप धारण करता है । हिंसा विनाश का कारण |
| + | बनती है । हमारे आसपास के विश्व में हम संघर्ष, हिंसा |
| + | और विनाश देख ही रहे हैं । इन सबका मूल काम ही है । |
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| + | काम का एक अत्यंत मोहक और आकर्षक रूप भी |
| + | है। ज्ञानेन्द्रियों को अनुभव में आने वाले शब्द, स्पर्श, |
| + | रूप, रस, गन्ध के जगत में मन अपना एक सुन्दर और |
| + | मधुर संसार निर्माण करता है । निर्मिति के इस काम में वह |
| + | कर्मन्ट्रि यों और बुद्धि को भी लगाता है। अपनी |
| + | आवश्यकताओं को वह सुख देने वाले अनेक रूपों में प्राप्त |
| + | करना चाहता है। इस वैविध्य के लिये उसके पास |
| + | कल्पनाशक्ति है। अन्न उसके शरीर के पोषण के लिये |
| + | आवश्यक है परन्तु काम उस अन्न को विभिन्न स्वाद से |
| + | युक्त असंख्य खाद्य पदार्थों के रूप में प्राप्त करता है । वस्त्र |
| + | उसके शरीर की रक्षा हेतु आवश्यक है परन्तु काम अनेक |
| + | रंगों और आकृतियों से तथा अनेक प्रकार के आकारों |
| + | और प्रकारों से सुशोभित करता है । आवास उसकी सुरक्षा |
| + | के लिये आवश्यक है परन्तु काम उस आवास को अनेक |
| + | प्रकार के आकार और प्रकार प्रदान कर अनेक प्रकार के |
| + | विलासों और सुविधाओं के अनुकूल बनाता है । काम की |
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| + | इस प्रवृत्ति से ही अनेक प्रकार की |
| + | कलाओं और कारीगरियों का विकास हुआ है । कला और |
| + | कारीगरी के क्षेत्र में मनुष्य ने उत्कृष्टता प्राप्त की है. और |
| + | कालजयी कलाकृतियों का सृजन किया है। संगीत, |
| + | चित्रकला, काव्य, शिल्प, स्थापत्य आदि के अद्भुत |
| + | आविष्कार इस विश्व की शोभा बढ़ाते हैं । मनुष्य के देह |
| + | को अनेक प्रकार के सौन्दर्य प्रसाधन और अनेक प्रकार के |
| + | वख्रालंकार सुशोभित करते हैं । |
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| + | इसीमें से अनेक प्रकार के शास्त्रों की रचना हुई है। |
| + | अनेक प्रकार के उद्योगों का विकास हुआ है। अनेक |
| + | प्रकार की शैलियों का विधान बना है । अनेक उत्सवों के |
| + | आयोजन की परम्परा बनी है । दिनचर्या में, ऋतुचर्या में, |
| + | जीवनचर्या में मनुष्य ने असंख्य प्रकार के आनन्द प्रमोद के |
| + | आयोजनों को जोड़ दिया है उन सबका भी मूल प्रेरक |
| + | तत्त्व काम ही है । मनुष्य इस आनन्दुप्रमोद के संसार में |
| + | इतना आकण्ठ डूब जाता है कि इसे ही अपना जीवनलक्ष्य |
| + | मान लेता है । इन्हें प्राप्त करने का प्रयास करना ही उसे |
| + | परम पुरुषार्थ लगता है । इसे प्राप्त कर लिया तो उसे जीवन |
| + | सार्थक हो गया ऐसा लगता है । |
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| + | यह सारा संसार काम का ही आविष्कार है। |
| + | भगवान शंकराचार्य इसे मनोराज्य कहते हैं और उसे मिथ्या |
| + | मानते हैं । इसमें जितना भी सुख है वह सुख का आभास |
| + | है, अपने परिणाम में तो वह दुःख ही है । हमारे सामाजिक |
| + | सम्बन्ध, हमारी विभिन्न व्यवस्थायें, हमारे सारे शास्त्र इस |
| + | संसार के ही अन्तर्गत अपना व्यवहार करते हैं । |
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| + | काम मन का रूप धारण कर हमारे अस्तित्व का |
| + | अंग बना है । वह अत्यन्त बलवान है, जिद्दी है, आग्रही |
| + | है, प्रभावी है । उसके ऊपर विजय पाना अत्यन्त कठिन |
| + | है । उसके ऊपर विजय पाना है ऐसा विचार भी हमारे मन |
| + | में नहीं आता है । काम अपनी संतुष्टि के लिये इंट्रियाँ, |
| + | शरीर, बुद्धि आदि किसी की भी परवा नहीं करता । स्वाद |
| + | की संतुष्टि के लिये वह ऐसी कोई भी वस्तु खाने से परहेज |
| + | नहीं करता जिससे स्वास्थ्य खराब हो । इंद्रियाँ उसके लिये |
| + | उपभोग के माध्यम हैं तो भी वह उनकी सुरक्षा की परवा |
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| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
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| + | किए बिना विषयों का सुख लेता रहता है । इस काम की |
| + | संतुष्टि के लिये बुद्धि अपनी सारी शक्ति खर्च करती है । |
| + | बुद्धि, werk sk sat की कुशलता का |
| + | आविष्कार इतना चमत्कारिक होता है कि विश्व चकित हो |
| + | जाता है । |
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| + | मनुष्य इस विश्व से अलग होना नहीं चाहता । |
| + | जन्मजन्मांतर में भी वह यही सुख चाहता है । वास्तव में |
| + | काम से प्रेरित होकर जो भी क्रियाकलाप हम करते हैं |
| + | उसीसे हमारा भाग्य बनता है, उसीसे संस्कार बनते हैं । वे |
| + | क्रियाकलाप हमारे कर्म होते हैं । उन कर्मों के फल होते |
| + | हैं । उन कर्मफलों का भोग करने के लिये पुनर्जन्म होता |
| + | है । कर्म, कर्मफल, फलों का भोग, उन्हें भोगते समय |
| + | किए जाने वाले नए कर्म, इस प्रकार जन्मजन्मांतर की |
| + | यात्रा चलती रहती है । सामान्य लोग जन्मजन्मांतर की |
| + | यात्रा से मुक्त होना नहीं चाहते हैं । वे भोगों के लिये पुन: |
| + | पुन: आना चाहते हैं । वे इसे बन्धन नहीं मानते । परन्तु |
| + | अनुभवी और जानकार लोग इस संसार को, कामनामय |
| + | और दुःखमय ही मानते हैं और उससे मुक्ति चाहते हैं । |
| + | |
| + | क्या काम का यह संसार इतना हेय है ? क्या |
| + | उसका तिरस्कार कर उसे छोड़ देना चाहिये ? क्या उसमें |
| + | दुःख ही दुःख है ? यदि वह इतना तिरस्कार करने योग्य है |
| + | तो उसे परमात्मा ने बनाया ही क्यों ? |
| + | |
| + | इस सम्बन्ध में दो रास्ते हैं । एक है, काम का पूर्ण |
| + | त्याग करना । मुझे कुछ नहीं चाहिये ऐसा संकल्प कर |
| + | अपनी आवश्यकताओं को कम करते जाना और धीरे धीरे |
| + | निःशेष करते जाना । ऐसा त्याग करने वाला भारत में |
| + | संन्यासी कहलाता है। एक संन्यासी की. न्यूनतम |
| + | आवश्यकता केवल हाथ की अंजली में समाने वाली भिक्षा |
| + | और वृक्ष के नीचे आश्रय “*करतल भिक्षा तरुतल वास' |
| + | इतनी ही बताई जाती है । तपश्चर्या और संयम कर वह |
| + | अपनी आवश्यकतायें कम करता है । वह अपने कुट्म्ब को |
| + | छोड़ता है । वह अपने नाम और अन्य सारी पहचानों को |
| + | छोड़ता है । परन्तु इस प्रकार सारे पदार्थों का त्याग करना |
| + | सरल नहीं है । वह अत्यन्त कठिन है । साथ ही उसमें एक |
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| + | पर्व १ : उपोद्धात |
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| + | खतरा भी है । सारे पदार्थों का त्याग कर संन्यासी बन |
| + | जाने के बाद भी कब काम हावी हो जाएगा यह कोई |
| + | निश्चित नहीं कह सकता है । काम बड़ा बलवान होता है |
| + | और बहुत चतुराई पूर्वक व्यक्ति को बांध लेता है। |
| + | इसलिये संन्यास का मार्ग बहुत कठिन है । |
| + | |
| + | दूसरा मार्ग है काम के संग का त्याग करना । इसे |
| + | गीता कर्मफल का त्याग कहती है । आसक्ति कम करना, |
| + | मोह कम करना, अपेक्षायें नहीं करना और निष्काम भाव |
| + | से कर्म करना काम से मुक्ति का मार्ग है । इसमें काम का |
| + | नहीं अपितु उसके बंधनों का त्याग करना है । काम से |
| + | प्रेरित होकर जो कर्म किए जाते हैं उनका त्याग करना तो |
| + | सम्भव नहीं है । एक संन्यासी को भी खाना, पीना, सोना |
| + | तो होता ही है। संसार में हर व्यक्ति की अपनी एक |
| + | भूमिका होती है । उस भूमिका ने अनेक कर्तव्यों का |
| + | विधान बनाया है । इस कर्तव्य का पालन नहीं करने से |
| + | बड़ी अव्यवस्था हो जाएगी । इसलिये कर्मों का त्याग |
| + | करना ठीक नहीं है । कर्म करना ही चाहिये परन्तु उसके |
| + | फल की अपेक्षा के बिना करना चाहिये । उदाहरण के |
| + | लिये भोजन तो करना ही चाहिये परन्तु वह मन को स्वाद |
| + | का सुख मिले इस हेतु से नहीं अपितु शरीर को पोषण दे |
| + | और मन की भावनाओं को संस्कारित करें तथा सत्त्वशुद्धि |
| + | प्राप्त करवाए ऐसा होना चाहिये । भोजन बनाना चाहिये |
| + | परन्तु वह किसी स्वार्थ या भय या विवशता से प्रेरित |
| + | होकर नहीं अपितु भोजन करने वाला साक्षात् भगवान है |
| + | और उसके लिये भोजन बनाना उसकी और उसके माध्यम |
| + | से परमात्मा की सेवा है इस भाव से बनाना चाहिये । |
| + | कर्तव्य कर्म को कभी भी नहीं छोड़ना, कर्त्तव्य कर्म करते |
| + | समय दुःखी नहीं होना, कर्तव्य कर्म अकुशलतापूर्वक |
| + | अथवा लापरवाही से नहीं करना ही निष्कामता की ओर ले |
| + | जाता है। अनेक बार ऐसा होता है कि इन सारी |
| + | सावधानियों के बाद भी कर्म अच्छा होता है परन्तु फल |
| + | कि अपेक्षा अवश्य रहती है। फल नहीं मिला तो कर्म |
| + | करना भले ही न छोड़ें तो भी दुःख या शिकायत अवश्य |
| + | निर्माण होती है । ऐसा होने से काम से मुक्ति नहीं मिलती |
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| + | और कामजनित दुःखों से भी मुक्ति |
| + | नहीं मिलती । |
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| + | निष्कामता साधने के लिये एक मार्ग विशेष |
| + | उल्लेखनीय है और वह संसार के सभी क्रियाकलापों के |
| + | लिये है। वह है काम का उन्नयन करना । उपभोग को |
| + | पूजा में रूपांतरित करना उपभोग का उन्नयन है । भोजन |
| + | को जठरागि में दी जाने वाली आहुति मानकर यज्ञ करना |
| + | भोजन का उन्नयन है । मैथुन के सुख रूपी काम को प्रेम में |
| + | रूपांतरित करना मैथुन का उन्नयन है । गर्भाधान को प्रार्थना |
| + | में रूपांतरित करना गर्भाधान का उन्नयन है । सारी कलाओं |
| + | को सौन्दर्यबोध के स्तर पर ले जाना और विलासिता से |
| + | मुक्त करना कलासाधना का उन्नयन है । जीवन का लक्ष्य |
| + | सुखोपभोग नहीं अपितु मोक्ष मानना जीवन का उन्नयन है । |
| + | आसक्ति को समर्पण में रूपांतरित करना आसक्ति का |
| + | उन्नयन है । अथर्जिन को समाज कि सेवा में प्रयुक्त करना |
| + | अथर्जिन का उन्नयन है । हर क्रियाकलाप को अत्यन्त |
| + | उत्कृष्टतापूर्वक करना यह प्रथम चरण है और इस प्रकार |
| + | किए हुए क्रियाकलाप को उपासना, साधना, सेवा या पूजा |
| + | में रूपांतरित करना हर क्रियाकलाप का उन्नयन है । काम |
| + | जब प्रेम में रूपांतरित होता है तो शुद्ध होता है और व्यक्ति |
| + | के विकास का साधन बनकर उसे मोक्ष की ओर ले जाता |
| + | है। |
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| + | काम का तिरस्कार करने कि आवश्यकता नहीं । वह |
| + | परमात्मा के व्यक्त होने के संकल्प का ही विश्वरूप है। |
| + | वह अत्यन्त सामर्थ्यवान है। वह सांसारिक जीवन को |
| + | समृद्ध और सुखद बनाता है । केवल इसका परिष्कार, |
| + | इसका नियमन, इसका प्रेम में रूपान्तरण करना आवश्यक |
| + | है। |
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| + | काम का नियमन कौन कर सकता है ? एक ही |
| + | वाक्य में कहा जाय तो काम का नियमन धर्म करता है । |
| + | श्री भगवान स्वयं. कहते हैं कि. “धर्माविरुद्धो |
| + | भूतेषुकामोइस्मि भरतर्षभ' अर्थात् धर्म के अविरोधी काम |
| + | भगवान कि ही विभूति है। इसलिये काम का महत्त्व |
| + | समझकर उसका उचित सम्मान करना चाहिये और उसके |
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| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
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| + | सामर्थ्य को समझ कर उसे नियमन में. से ही स्वस्थ हो यह पर्याप्त नहीं है, वह जन्म से ही |
| + | रखने के लिये प्रवृत्त होना चाहिये । अच्छा चरित्र लेकर आये ऐसी व्यवस्था की जाती रही है । |
| + | आज इस विषय में घोर अनवस्था दिखाई देती है । |
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| + | शिक्षा की भूमिका विकासोन्मुख और विकसित समाज का यह महत्त्वपूर्ण |
| + | काम पुरुषार्थ अभ्युद्य का स्रोत है । सर्व प्रकार की... लक्षण है कि वह अपनी नई पीढ़ी को उचित समय पर ही |
| + | भौतिक समृद्धि का क्षेत्र है। इसे व्यवस्थित करने हेतु काम पुरुषार्थ की शिक्षा दे । यह उचित समय frees |
| + | शिक्षा का नियोजन होना चाहिये । काम पुरुषार्थ की शिक्षा... गर्भावस्था और शिशुअवस्था ही है । शिशु अवस्था में घर |
| + | के आयाम इस प्रकार हैं ... का वातावरण और व्यवहार शिशु के मन को ठीक करने |
| + | (१) जीवन में अनेक प्रकार से हम प्रवृत्त होते हैं। के लिये सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण होता है । मानसिक शान्ति, |
| + | |
| + | मन और शरीर हमेशा क्रियाशील रहते हैं । इन क्रियाओं के. तृप्ति, सन्तोष, उदारता, सख्यभाव आदि वातावरण और |
| + | प्रति स्वस्थ दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता होती है ।.. व्यवहार से ही ग्रहण किये जाते हैं। वे उपदेश से या |
| + | स्वस्थ दृष्टिकोण का विकास करना शिक्षा का मुख्य काम... अनुशासन से नहीं सिखाये जाते । शिशु संगोपन इस विषय |
| + | है। स्वस्थ दृष्टिकोण के विकास हेतु मन की शिक्षा. में बड़ा विषय है जिसका विचार स्वतन्त्र रूप से करना |
| + | आवश्यक है । मन हमेशा उत्तेजना की अवस्था में रहता... चाहिये । बालक जब विद्यालय में जाता है तब वहाँ |
| + | है, अशान्त रहता है । अशान्त मन को बातें सही ढंग से. विषयों की रचना, गतिविधियों का आयोजन मानसिक |
| + | समज में नहीं आती हैं । अशान्त मन चिंताग्रस्त होता है। . स्वास्थ्य को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिये । |
| + | वह न तो किसी अनुभव का ठीक से आस्वाद ले सकता... उदाहरण के लिये आजकल सभी विद्यालयों में हर |
| + | है, न ठीक से विचार कर पाता है । इसलिये मन को शांत. गतिविधि के साथ स्पर्धा जुड़ गई है। हर उपलब्धि के |
| + | बनाने की शिक्षा देना अत्यन्त आवश्यक है। मन को. साथ स्पर्धा के आधार पर चयन की प्रक्रिया जुड़ी हुई है । |
| + | शान्त बनाने के लिये बहुत छोटी आयु से प्रयास करने. स्पर्धा से संघर्ष और संघर्ष से हिंसा जन्म लेने वाली ही |
| + | होते हैं । बालक जब माता की कोख में होता है तबसे . है । इससे काम ही भड़कने वाला है । दुर्दैव से स्पर्धा हमारे |
| + | मधुर संगीत, शुभ विचार, प्रेमपूर्ण मनोभाव के संस्कार होने. समग्र जीवन, फिर चाहे व्यक्तिगत जीवन हो या सामाजिक, |
| + | चाहिये । अच्छे भावों से युक्त लोरियाँ और कहानियाँ मन... का हिस्सा बन गई है । हमारी विचारप्रक्रिया का वह अंग |
| + | को शान्त एवं उदार बनाने में बहुत सहयोग करती हैं ।. बन गई है । हमारे विकास के लिये वह उत्प्रसरेक का काम |
| + | बालक जब कोख में होता है तब माता ने जो विचार किये करती है ऐसा हमें लगता है । इस विचार को बदलना |
| + | हैं, जो आहार लिया है, बालक के विषय में जो कल्पनायें .. चाहिये । प्रारंभ विद्यालय से हो सकता है । विद्यालय से |
| + | की हैं, बालक से जो अपेक्षायें की हैं;जिन लोगों का संग. स्पर्धा का तत्त्व पूर्ण रूप से निकाल देना चाहिये । छोटे |
| + | किया है, उसका बालक के चरित्र पर गहरा प्रभाव होता... बच्चों में एकदूसरे को सहायता करने की प्रवृत्ति सहज रूप |
| + | है । इसलिये हमारी परम्परा में गर्भवती की परिचर्या को. .. से होती है। बड़े होते होते हमारी व्यवस्थाओं के चलते |
| + | बहुत महत्त्व दिया गया है । घर में अच्छे बालक का जन्म... वह नष्ट होती है और स्वार्थ, इंष्या, लोभ आदि बढ़ने |
| + | हो इस दृष्टि से होने वाले माता पिता को सम्यक् मार्गदर्शन. लगते हैं। पाठ्यपुस्तकों के पाठों की विषयवस्तु के |
| + | दिया जाता रहा है, माता की शिक्षा का भी ध्यान रखा... माध्यम से तथा वार्तालाप के माध्यम से इन्हें पनपने से |
| + | जाता रहा है और गर्भवती महिला की बहुत संभाल रखी... रोकना चाहिये । आजकल यह बात सर्वथा विस्मृत हो गई |
| + | जाती रही है । जन्म लेने वाला शिशु केवल शारीरिक दृष्टि है परन्तु यह विस्मरण बहुत भारी पड़ने वाला है क्योंकि |
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| + | पर्व १ : उपोद्धात |
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| + | यह विस्मरण हमें पशुता ही नहीं अपितु आसुरी वृत्ति की |
| + | ओर ले जा रहा है । साथ ही संगीत मन को शान्त और |
| + | सात्त्विक बनाने में बहुत उपयोगी होता है । आजकल जिस |
| + | प्रकार का संगीत सुनाई देता है वैसा संगीत किसी काम का |
| + | नहीं है। वह तो भड़काऊ संगीत है । भारतीय शास्त्रीय |
| + | संगीत और भारतीय वाद्य मन को शान्त बनाने में बहुत |
| + | सहायक होते हैं । इनका प्रयोग करना चाहिये । |
| + | |
| + | (२) मन को शान्त और सदगुणी बनाने में योग |
| + | अत्यन्त उपयोगी है । विशेष रूप से यम, नियम, प्रत्याहार |
| + | और ध्यान का विशेष महत्त्व है। आजकल योग विषय |
| + | का भी विपर्यास हो गया है। योग को आसनों और |
| + | शारीरिक व्यायाम का रूप दिया गया है, इसे एक |
| + | चिकित्सा पद्धति बना दिया गया है और स्पर्धा का तथा |
| + | प्रदर्शन का विषय बना दिया गया है । इस व्यवस्था को |
| + | पूर्ण रूप से बदलना होगा । वातावरण में, व्यवस्था में और |
| + | व्यवहार में सादगी, सुन्दरता, सात्विकता लाना आवश्यक |
| + | है। यह मुद्दा गणवेश, se, बैठक व्यवस्था, |
| + | भवनव्यवस्था आदि सभी आयामों को लागू है । साथ ही |
| + | खानपान में सात्त्विकता अत्यन्त आवश्यक है । आजकल |
| + | afta vive बिना स्वाद का होता है, केवल बीमार |
| + | लोग उसे खाते हैं ऐसा माना जाता है । बच्चों की खाने |
| + | पीने की आदतों की ओर जरा भी ध्यान नहीं दिया जाता |
| + | है। बच्चे तो क्या बड़े भी आरोग्य और संस्कार दोनों के |
| + | लिये अत्यन्त हानिकारक ऐसा आहार पसन्द करते हैं । |
| + | केवल आहार ही नहीं तो दिनचर्या भी अस्तव्यस्त हो गई |
| + | है। जिस समय जो काम करना चाहिये, जो काम जिस |
| + | प्रकार से करना चाहिये उस समय पर और उस प्रकार से |
| + | करने का कोई आग्रह नहीं होता । इस बात का घोर |
| + | अआज्ञान है । केवल आज्ञान ही नहीं तो विपरीत ज्ञान है। |
| + | इसे ठीक करना चाहिये । |
| + | |
| + | (३) मनोरंजन का क्षेत्र भीषण संकट निर्माण करने |
| + | वाला बन गया है । फिल्म, धारावाहिक, नाच गाने के |
| + | कार्यक्रम और विज्ञापन एक साथ मन के निम्नतर भावों |
| + | को भड़काने वाले और वासनाओं को बढ़ाने वाले ही होते |
| + | |
| + | 43 |
| + | |
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| + | हैं । संयम को आवश्यक माना ही नहीं |
| + | जाता है इसलिये उसकी शिक्षा भी किसी माध्यम से होती |
| + | नहीं है। इस क्षेत्र पर आज साधु संतों, संन्यासियों, |
| + | धर्माचार्यों, शिक्षकों या किसी भी समझदार लोगों का |
| + | नियंत्रण या निर्देशन नहीं है । यह क्षेत्र केवल बाजार से |
| + | निर्देशित होता है और कामोपभोग के लिये लोगों को |
| + | भड़काकर पैसे बनाने का ही विचार करता है । इसका |
| + | उपाय करने की आवश्यकता है । |
| + | |
| + | (४) कामजीवन के स्वास्थ्य हेतु केवल त्याग और |
| + | संयम ही नहीं है । आनंद प्रमोद के सारे क्रियाकलाप हैं । |
| + | शिशुअवस्था से शुरू कर बड़ी आयु तक रसिकता, |
| + | सौन्दर्यबोध, उच्च और संस्कारपूर्ण रुचि और आभिजात्य |
| + | का विकास करना चाहिये । आज देखा जाता है कि नृत्य, |
| + | गीत, खेल आदि का रस केवल अक्रिय श्रोता या दर्शक |
| + | बनकर लिया जाता है । लोग गायन सुनते हैं, गाते नहीं |
| + | हैं । नाटक या खेल देखते हैं, स्वयं खेलते नहीं हैं । नृत्य |
| + | देखते हैं, करते नहीं । स्वादिष्ट आहार खाते हैं, बनाते नहीं |
| + | हैं। ये जब भी वे गाते या नाचते हैं तब वह अत्यन्त |
| + | कुरूप और भोंडा होता है । मनोरंजन के इन क्रियाकलापों |
| + | में सक्रिय होने से ही सच्ची रसिकता का विकास होता 2 | |
| + | कल्पनाशीलता और सृजनशीलता का भी विकास होता |
| + | है । मन स्वच्छ और स्वस्थ होता है और काम का उन्नयन |
| + | होता है । आहार, वस्त्र, अलंकार, संगीत, नृत्य, नाटक, |
| + | पर्यटन आदि में संस्कारिता होनी चाहिये । इसकी शिक्षा |
| + | सम्पूर्ण शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । यह शिक्षा घर में |
| + | भी देनी चाहिये और विद्यालय में भी । वास्तव में इसका |
| + | मुख्य केन्द्र घर है परन्तु आज घर इस शिक्षा के लिये |
| + | सक्षम नहीं होने के कारण विद्यालय को घर का भी |
| + | मार्गदर्शन करने का दायित्व निभाने की आवश्यकता है । |
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| + | (५) कला और कारीगरी का रक्षण और संवर्धन |
| + | करने की महती आवश्यकता है । इस दृष्टि से छात्रों को |
| + | हाथ से काम करना सिखाना और हर काम को उत्तम पद्धति |
| + | से कर उत्कृष्टता के स्तर तक ले जाना सिखाना चाहिये । |
| + | शिक्षा केवल पढने लिखने की और लिखित परीक्षा की नहीं |
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| + | ............. page-70 ............. |
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| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
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| + | होती । वह हर स्तर पर प्रायोगिक होनी... चाहिये । इसके अनुकूल व्यवस्थाएँ कैसी होंगी, यह भी |
| + | चाहिये । हर व्यक्ति के हाथ कुशल कारीगर होने चाहिये । शिक्षा का विषय है । महाविद्यालयीन शिक्षा का यह |
| + | हर व्यक्ति का मन सेवाभाव से युक्त होना चाहिये ।.... महत्त्वपूर्ण विषय बनना चाहिये । |
| + | चित्तशुद्धि के लिये सेवाभाव अत्यन्त आवश्यक है। (७) यौनशिक्षा भी तरुणों की शिक्षा का महत्त्वपूर्ण |
| + | सृजनशीलता का विकास, उत्कृष्ट निर्माणशीलता, सेवाभाव, fee है । परन्तु यह सामूहिक शिक्षा का विषय नहीं है । |
| + | सृजन से प्राप्त होने वाला आनन्द काम का उन्नयन करते... वह व्यक्तिगत शिक्षा का विषय है । वह शास्त्रीय रूप में |
| + | हैं । इसका असर समाजजीवन पर भी पड़ता है । समाज में... विद्यालय में और व्यावहारिक रूप में परिवार में देने की |
| + | एक प्रकार की शान्ति और सुरक्षा प्रस्थापित होती है । श्रेष्ठ. अनिवार्य व्यवस्था होनी चाहिये । इसके अभाव में ही |
| + | समाज में संस्कारितापूर्ण समृद्धि होती है । काम gerd लोगों का कामजीवन भटक जाता है । |
| + | समाज को निर्धन या दृ्रिद्र नहीं रहने देता । काम पुरुषार्थ (८) विवाह होने तक ब्रह्मचर्य का पालन अनिवार्य |
| + | समाज को आलसी भी नहीं रहने देता । परन्तु नियमन में... बनाना चाहिये । इसे नकारने वाला समाज अत्यन्त |
| + | रखा गया काम, समाज को संस्कारित समृद्धि और उद्यम... असंस्कारी होता है । ब्रह्मचर्य पालन को सहज बनाने वाले |
| + | को विनय से अलंकृत करता है । आहार विहार की चिन्ता करनी चाहिये । इसे आग्रहपूर्वक |
| + | (६) स्त्रीपुरुष सम्बन्ध का क्षेत्र बहुत ध्यान देने योग्य. समाज की तथा छात्रों की मानसिकता में प्रतिष्ठित करना |
| + | है। आज यह विशेष चिन्ता का विषय बन गया है।.. चाहिये । सामाजिक शिष्टाचार का यह एक महत्त्वपूर्ण अंग |
| + | बलात्कार और अनाचार की मात्रा बढ़ गई है । feat .. बनना चाहिये । |
| + | सुरक्षित नहीं हैं और पुरुष लज्जाहीन हो गए हैं । खियाँ भी (९) काम पुरुषार्थ के लिये शिक्षा कैसी हो इसका |
| + | लजा का त्याग कर रही हैं। वसख्त्रालंकार, प्रसाधन, यहाँ अत्यन्त संक्षिप्त विवेचन किया गया है । इसके एक |
| + | अंगविन्यास, वेषभूषा, बोलचाल आदि में मर्यादा नहीं. एक बिन्दु का अधिक विवेचन स्वतन्त्र रूप से करने की |
| + | दिखाई देती है । उन्मुक्तता और स्वैराचार को ही स्वतन्त्रता... आवश्यकता है । शिक्षा में सर्वथा उपेक्षित यह विषय पुन: |
| + | कहा जाता है । इस स्थिति में मर्यादापूर्ण व्यवहार सिखाने. स्थान प्राप्त करे इस दृष्टि से शिक्षाविदों और |
| + | कि आवश्यकता है । ख्रियों के प्रति देखने का पुरुषों का... समाजहितर्चितकों को प्रयास करने चाहिये । धर्माचार्यों को |
| + | दृष्टिकोण और पुरुषों के प्रति देखने का खियों का दृष्टिकोण. इस विषय को अपने उपदेश का विषय बनाना चाहिये । |
| + | स्वस्थ बनाने की आवश्यकता है । समाज को टीवी चैनलों. कला, साहित्य, खेल आदि क्षेत्रों में भी इस विषय की |
| + | के माध्यम से प्रस्तुत की जाने वाली सामग्री को नियंत्रित. चर्चा होनी चाहिये । सबसे मुख्य स्थान घर है। |
| + | करने की आवश्यकता है । बालक बालिकाओं, किशोर. परिवारशिक्षा को एक स्वतन्त्र विषय बनाने से और उसमें |
| + | किशोरियों, युवक युवतियों के परस्पर संपर्क को स्वस्थ इसे महत्त्वपूर्ण स्थान देने से कुछ परिणाम मिल सकता 2 | |
| + | कैसे बनाया जाय इसकी शिक्षा उस उस स्तर के विद्यालयों. उच्चशिक्षा के क्षेत्र में अध्ययन और अनुसन्धान की योजना |
| + | और घरों में आग्रहपूर्वक देनी चाहिये । आज इस विषय में... बनना भी आवश्यक है । लेखकों ने इस विषय को लेकर |
| + | सर्वत्र उदासीनता दिखाई देती है। उसका त्याग करना... युगानुकूल स्वरूप का. साहित्य निर्माण करने की |
| + | चाहिये । उसके स्थान पर विनय, सख्त्रीदाक्षिण्य (खियों के... आवश्यकता है । काम पुरुषार्थ ठीक होने से अर्थ पुरुषार्थ |
| + | प्रति सम्मानजनक व्यवहार) मर्यादा आदि की शिक्षा छात्रों. भी ठीक होता है । काम और अर्थ ठीक होने से समृद्धि |
| + | को प्राप्त होनी चाहिये । पतिपत्नी के सम्बन्धों को. प्राप्त होती है। सुख और आनन्द प्राप्त होते हैं। |
| + | कामुकता से मुक्त कर एकात्मता की ओर विकसित करना. इहलौकिक जीवन अच्छा बनता है । |
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| ==References== | | ==References== |
| <references /> | | <references /> |