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| अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्। | | अत्रोपनिषदं पुण्यां कृष्णद्वैपायनोऽब्रवीत्। |
| विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः॥ 1-1-258 | | विद्वद्भिः कथ्यते लोके पुराणे कविसत्तमैः॥ 1-1-258 |
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− | भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः।
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− | श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥ 1-1-259 | + | भारताध्ययनं पुण्यमपि पादमधीयतः। |
− | | + | श्रद्दधानस्य पूयन्ते सर्वपापान्यशेषतः॥ 1-1-259 |
− | देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः। | + | देवा देवर्षयो ह्यत्र तथा ब्रह्मर्षयोऽमलाः। |
− | | + | कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः॥ 1-1-260 |
− | कीर्त्यन्ते शुभकर्माणस्तथा यक्षा महोरगाः॥ 1-1-260 | + | भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। |
− | | + | स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥ 1-1-261 |
− | भगवान्वासुदेवश्च कीर्त्यतेऽत्र सनातनः। | + | शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। |
− | | + | यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-262 |
− | स हि सत्यमृतं चैव पवित्रं पुण्यमेव च॥ 1-1-261 | + | असच्च सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते। |
− | | + | संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ 1-1-263 |
− | शाश्वतं ब्रह्म परमं ध्रुवं ज्योतिः सनातनम्। | + | अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम्। |
− | | + | अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते॥ 1-1-264 |
− | यस्य दिव्यानि कर्माणि कथयन्ति मनीषिणः॥ 1-1-262 | + | यत्तद्यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः। |
− | | + | प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्॥ 1-1-265 |
− | असच्च सदसच्चैव यस्माद्विश्वं प्रवर्तते। | + | श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः। |
− | | + | आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते॥ 1-1-266 |
− | संततिश्च प्रवृत्तिश्च जन्ममृत्युपुनर्भवाः॥ 1-1-263 | + | अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः। |
− | | + | आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 1-1-267 |
− | अध्यात्मं श्रूयते यच्च पञ्चभूतगुणात्मकम्। | + | उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्। |
− | | + | अनुक्रमण्या यावत्स्यादह्ना रात्र्या च संचितम्॥ 1-1-268 |
− | अव्यक्तादि परं यच्च स एव परिगीयते॥ 1-1-264 | + | भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च। |
− | | + | नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥ 1-1-269 |
− | यत्तद्यतिवरा मुक्ता ध्यानयोगबलान्विताः। | + | आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा। |
− | | + | ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥ 1-1-270 |
− | प्रतिबिम्बमिवादर्शे पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्॥ 1-1-265 | + | यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते। |
− | | + | यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः॥ 1-1-271 |
− | श्रद्दधानः सदा युक्तः सदा धर्मपरायणः। | + | अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते। |
− | | + | इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥ 1-1-272 |
− | आसेवन्निममध्यायं नरः पापात्प्रमुच्यते॥ 1-1-266 | + | बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रत[ह]रिष्यति। |
− | | + | कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान्श्रावयित्वार्थमश्नुते॥ 1-1-273 |
− | अनुक्रमणिकाध्यायं भारतस्येममादितः। | + | भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्। |
− | | + | य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि॥ 1-1-274 |
− | आस्तिकः सततं शृण्वन्न कृच्छ्रेष्ववसीदति॥ 1-1-267 | + | अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः। |
− | | + | यश्यैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः॥ 1-1-275 |
− | उभे संध्ये जपन्किंचित्सद्यो मुच्येत किल्बिषात्। | + | स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः। |
− | | + | एकतश्चतुरो वेदान्भारतं चैतदेकतः॥ 1-1-276 |
− | अनुक्रमण्या यावत्स्यादह्ना रात्र्या च संचितम्॥ 1-1-268 | + | पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। |
− | | + | चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥ 1-1-277 |
− | भारतस्य वपुर्ह्येतत्सत्यं चामृतमेव च। | + | तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते। |
− | | + | महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥ 1-1-278 |
− | नवनीतं यथा दध्नो द्विपदां ब्राह्मणो यथा॥ 1-1-269 | + | महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। |
− | | + | निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 1-1-279 |
− | आरण्यकं च वेदेभ्य ओषधिभ्योऽमृतं यथा। | + | तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः। |
− | | + | प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः॥ 1-1-280 |
− | ह्रदानामुदधिः श्रेष्ठो गौर्वरिष्ठा चतुष्पदाम्॥ 1-1-270 | + | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ |
− | | + | [[:Category:significance of Mahabharat|''significance of Mahabharat'']] |
− | यथैतानीतिहासानां तथा भारतमुच्यते। | + | [[:Category:importance of Mahabharat|''importance of Mahabharat'']] [[:Category:importance|''importance'']] |
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− | यश्चैनं श्रावयेच्छ्राद्धे ब्राह्मणान्पादमन्ततः॥ 1-1-271 | + | [[:Category:significance of first chapter of Mahabharat|''Category:significance of first chapter of Mahabharat'']] |
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− | अक्षय्यमन्नपानं वै पितॄंस्तस्योपतिष्ठते। | + | [[:Category:first|''first'']] [[:Category:chapter|''chapter'']] [[:Category:anukramanika|''anukramanika'']] |
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− | इतिहासपुराणाभ्यां वेदं समुपबृंहयेत्॥ 1-1-272 | + | [[:Category:महाभारत का महत्व|''महाभारत का महत्व'']] |
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− | बिभेत्यल्पश्रुताद्वेदो मामयं प्रत[ह]रिष्यति। | + | [[:Category:महाभारत|''महाभारत'']] [[:Category:महत्त्व|''महत्त्व'']] |
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− | कार्ष्णं वेदमिमं विद्वान्श्रावयित्वार्थमश्नुते॥ 1-1-273 | + | [[:Category:अध्याय|''अध्याय'']] |
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− | भ्रूणहत्यादिकं चापि पापं जह्यादसंशयम्। | |
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− | य इमं शुचिरध्यायं पठेत्पर्वणि पर्वणि॥ 1-1-274 | |
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− | अधीतं भारतं तेन कृत्स्नं स्यादिति मे मतिः। | |
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− | यश्यैनं शृणुयान्नित्यमार्षं श्रद्धासमन्वितः॥ 1-1-275 | |
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− | स दीर्घमायुः कीर्तिं च स्वर्गतिं चाप्नुयान्नरः। | |
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− | एकतश्चतुरो वेदान्भारतं चैतदेकतः॥ 1-1-276 | |
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− | पुरा किल सुरैः सर्वैः समेत्य तुलया धृतम्। | |
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− | चतुर्भ्यः सरहस्येभ्यो वेदेभ्यो ह्यधिकं यदा॥ 1-1-277 | |
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− | तदा प्रभृति लोकेऽस्मिन्महाभारतमुच्यते। | |
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− | महत्त्वे च गुरुत्वे च ध्रियमाणं यतोऽधिकम्॥ 1-1-278 | |
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− | महत्त्वाद्भारवत्त्वाच्च महाभारतमुच्यते। | |
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− | निरुक्तमस्य यो वेद सर्वपापैः प्रमुच्यते॥ 1-1-279 | |
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− | तपो न कल्कोऽध्ययनं न कल्कः स्वाभाविको वेदविधिर्न कल्कः। | |
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− | प्रसह्य वित्ताहरणं न कल्कस्तान्येव भावोपहतानि कल्कः॥ 1-1-280 | |
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− | इति श्रीमहाभारते आदिपर्वणि अनुक्रमणिकापर्वणि ग्रन्थारम्भे प्रथमोऽध्यायः॥ 1 ॥ | |