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− | जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्॥ 1-1-147 | + | जयत्सु पाण्डुपुत्रेषु श्रुत्वा सुमहदप्रियम्॥ 1-1-147 |
| + | दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा। |
| + | धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-148 |
| + | शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि। |
| + | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः॥ 1-1-149 |
| + | न विग्रहे मम मति न च प्रीये कुलक्षये। |
| + | न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा॥ 1-1-150 |
| + | वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः। |
| + | अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्॥ 1-1-151 |
| + | मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्। |
| + | राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः॥ 1-1-152 |
| + | तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने। |
| + | अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे॥ 1-1-153 |
| + | निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपिसन्। |
| + | गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्॥ 1-1-154 |
| + | तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु। |
| + | श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः। |
| + | ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत॥ 1-1-155 |
| + | यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्। |
| + | कृष्णां हृतां प्रेक्षतां सर्वराज्ञां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-156 |
| + | यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन। |
| + | इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-157 |
| + | यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन। |
| + | अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-158 |
| + | यदाश्रौषं पुनरामन्त्र्य द्यूते महात्मनां प्रस्थितानां वनाय। |
| + | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ |
| + | यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान्पार्थान्पञ्च कुन्त्या समेतान्। |
| + | युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-159 |
| + | यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन। |
| + | शूरान्पञ्चालान्पाण्डवेयांश्च युक्तांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-160 |
| + | यदाश्रौषं मागधानां वरिष्ठं जरासन्धं क्षत्रमध्ये ज्वलन्तम्। |
| + | दोर्भ्यां हतं भीमसेनेन गत्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-161 |
| + | यदाश्रौषं दिग्जये पाण्डुपुत्रैर्वशीकृतान्भूमिपालान्प्रसह्य। |
| + | महाक्रतुं राजसूयं कृतं च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-162 |
| + | यदाश्रौषं द्रौपदीमश्रुकण्ठीं सभां नीतां दुःखितामेकवस्त्राम्। |
| + | रजस्वलां नाथवतीमनाथवत्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-163 |
| + | यदाश्रौषं वाससां तत्र राशिं समाक्षिपत्कितवो मन्दबुद्धिः। |
| + | दुःशासनो गतवान्नैव चान्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-164 |
| + | यदाश्रौषं हृतराज्यं युधिष्ठिरं पराजितं सौबलेनाक्षवत्याम्। |
| + | अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-165 |
| + | यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय। |
| + | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-166 |
| + | यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रैरन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्। |
| + | भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-167 |
| + | यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे। |
| + | अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-168 |
| + | (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान्महर्षिभिः पुगणैः। |
| + | उपास्यमानान्सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) |
| + | यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात्साक्षाद्दिव्यमस्त्रं यथावत्। |
| + | अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-169 |
| + | यदाश्रौषं तीर्थयात्रानिवृत्तं पाण्डोस्सुतं सहितं रोमशेन। |
| + | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ |
| + | यदाश्रौषं कालकेयाः ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः। |
| + | देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-170 |
| + | यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्। |
| + | कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-171 |
| + | (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन। |
| + | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) |
| + | यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान्। |
| + | तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-172 |
| + | यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन। |
| + | स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-173 |
| + | यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं समागतं धर्मराजेन सूत। |
| + | प्रश्नान्कांश्चिद्विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-174 |
| + | यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्प्रच्छन्नरूपान्वसतः पाण्डवेयान्। |
| + | विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-175 |
| + | यदाश्रौषं तान्यथाऽज्ञातवासेऽज्ञायमानान्मामकानां सकाशे। |
| + | दक्षान्पार्थान्चरितश्चाग्निकल्पां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ |
| + | (यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्। |
| + | द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥) |
| + | यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान्। |
| + | विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-176 |
| + | यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय। |
| + | तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-177 |
| + | यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य। |
| + | अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-178 |
| + | यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्। |
| + | यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-179 |
| + | यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य। |
| + | अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-180 |
| + | यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्। |
| + | शमं दुर्वार[कुर्वाण]मकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-181 |
| + | यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य। |
| + | तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-182 |
| + | यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्। |
| + | आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-183 |
| + | यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्। |
| + | भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-184 |
| + | यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति। |
| + | हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-185 |
| + | यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्। |
| + | त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-186 |
| + | यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै। |
| + | कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-187 |
| + | यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्। |
| + | नैषां कश्चिद्विद्यते[बध्यते] ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-188 |
| + | यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण। |
| + | तञ्चा[च्चा]कार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-189 |
| + | यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं विहत्य[हतं] पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। |
| + | शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-190 |
| + | यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः। |
| + | भीष्मं कृत्वा सोमक अनल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-191 |
| + | यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन। |
| + | भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-192 |
| + | यदा वायुश्शक्र[श्चन्द्र]सूर्यौ च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय। |
| + | नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे बिजयाय संजय॥ 1-1-193 |
| + | यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्निदर्शयन्समरे चित्रयोधी। |
| + | न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-194 |
| + | यदाश्रौषं चास्मदीयान्महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय। |
| + | संशप्तक अन्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-195 |
| + | यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्। |
| + | भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-196 |
| + | यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः। |
| + | महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-197 |
| + | यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान्। |
| + | क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-198 |
| + | यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन। |
| + | सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-199 |
| + | यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वाहयान्पाययित्वोपवृत्तान्। |
| + | पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-200 |
| + | यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन। |
| + | सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-201 |
| + | यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य। |
| + | यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-202 |
| + | यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः। |
| + | धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-203 |
| + | यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः। |
| + | अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-204 |
| + | यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन। |
| + | घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-205 |
| + | यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्। |
| + | यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-206 |
| + | यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम्। |
| + | रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-207 |
| + | यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये। |
| + | समं युद्धे मण्डलश[लेभ्य]श्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-208 |
| + | यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्। |
| + | नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-209 |
| + | यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य। |
| + | निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-210 |
| + | यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्। |
| + | तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-211 |
| + | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्। |
| + | युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-212 |
| + | यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत। |
| + | सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-213 |
| + | यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन। |
| + | हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-214 |
| + | यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः। |
| + | दुर्योधनं विरतं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-215 |
| + | यदाश्रोषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम्। |
| + | अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-216 |
| + | यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्। |
| + | मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्ध्या तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-217 |
| + | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तैहृतान्पञ्चालान्द्रौपदेयांश्चसुप्तान्। |
| + | कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-218 |
| + | यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्। |
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− | दुर्योधनमतं ज्ञात्वा कर्णस्य शकुनेस्तथा।
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− | धृतराष्ट्रश्चिरं ध्यात्वा संजयं वाक्यमब्रवीत्॥ 1-1-148
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− | शृणु संजय सर्वं मे न चासूयितुमर्हसि।
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− | श्रुतवानसि मेधावी बुद्धिमान्प्राज्ञसम्मतः॥ 1-1-149
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− | न विग्रहे मम मति न च प्रीये कुलक्षये।
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− | न मे विशेषः पुत्रेषु स्वेषु पाण्डुसुतेषु वा॥ 1-1-150
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− | वृद्धं मामभ्यसूयन्ति पुत्रा मन्युपरायणाः।
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− | अहं त्वचक्षुः कार्पण्यात्पुत्रप्रीत्या सहामि तत्॥ 1-1-151
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− | मुह्यन्तं चानुमुह्यामि दुर्योधनमचेतनम्।
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− | राजसूये श्रियं दृष्ट्वा पाण्डवस्य महौजसः॥ 1-1-152
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− | तच्चावहसनं प्राप्य सभारोहणदर्शने।
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− | अमर्षणः स्वयं जेतुमशक्तः पाण्डवान्रणे॥ 1-1-153
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− | निरुत्साहश्च सम्प्राप्तुं सुश्रियं क्षत्रियोऽपिसन्।
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− | गान्धारराजसहितश्छद्मद्यूतममन्त्रयत्॥ 1-1-154
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− | तत्र यद्यद्यथा ज्ञातं मया संजय तच्छृणु।
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− | श्रुत्वा तु मम वाक्यानि बुद्धियुक्तानि तत्त्वतः।
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− | ततो ज्ञास्यसि मां सौते प्रज्ञाचक्षुषमित्युत॥ 1-1-155
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− | यदाश्रौषं धनुरायम्य चित्रं विद्धं लक्ष्यं पातितं वै पृथिव्याम्।
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− | यदाश्रौषं द्वारकायां सुभद्रां प्रसह्योढां माधवीमर्जुनेन।
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− | इन्द्रप्रस्थं वृष्णिवीरौ च यातौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-157
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− | यदाश्रौषं देवराजं प्रविष्टं शरैर्दिव्यैर्वारितं चार्जुनेन।
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− | अग्निं तथा तर्पितं खाण्डवे च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-158
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− | यदाश्रौषं पुनरामन्त्र्य द्यूते महात्मनां प्रस्थितानां वनाय।
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− | यदाश्रौषं जातुषाद्वेश्मनस्तान्मुक्तान्पार्थान्पञ्च कुन्त्या समेतान्।
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− | युक्तं चैषां विदुरं स्वार्थसिद्धौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-159
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− | यदाश्रौषं द्रौपदीं रङ्गमध्ये लक्ष्यं भित्त्वा निर्जितामर्जुनेन।
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− | अन्वागतं भ्रातृभिरप्रमेयैस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-165
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− | यदाश्रौषं विविधास्तत्र चेष्टा धर्मात्मनां प्रस्थितानां वनाय।
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− | ज्येष्ठप्रीत्या क्लिश्यतां पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-166
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− | यदाश्रौषं स्नातकानां सहस्रैरन्वागतं धर्मराजं वनस्थम्।
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− | भिक्षाभुजां ब्राह्मणानां महात्मनां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-167
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− | यदाश्रौषमर्जुनं देवदेवं किरातरूपं त्र्यम्बकं तोष्य युद्धे।
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− | अवाप्तवन्तं पाशुपतं महास्त्रं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-168
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− | (यदाश्रौषं वनवासे तु पार्थान्समागतान्महर्षिभिः पुगणैः।
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− | उपास्यमानान्सगणैर्जातसख्यान्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥)
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− | यदाश्रौषं त्रिदिवस्थं धनञ्जयं शक्रात्साक्षाद्दिव्यमस्त्रं यथावत्।
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− | अधीयानं शंसितं सत्यसन्धं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-169
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− | यदाश्रौषं तीर्थयात्रानिवृत्तं पाण्डोस्सुतं सहितं रोमशेन।
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− | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥
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− | यदाश्रौषं कालकेयाः ततस्ते पौलोमानो वरदानाच्च दृप्ताः।
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− | देवैरजेया निर्जिताश्चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-170
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− | यदाश्रौषमसुराणां वधार्थे किरीटिनं यान्तममित्रकर्शनम्।
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− | कृतार्थं चाप्यागतं शक्रलोकात् तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-171
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− | (यदाश्रौषं तीर्थयात्राप्रवृत्तं पाण्डोः सुतं सहितं लोमशेन।
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− | तस्मादश्रौषीदर्जुनस्यार्थलाभं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥)
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− | यदाश्रौषं वैश्रवणेन सार्धं समागतं भीममन्यांश्च पार्थान्।
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− | तस्मिन्देशे मानुषाणामगम्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-172
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− | यदाश्रौषं घोषयात्रागतानां बन्धं गन्धर्वैर्मोक्षणं चार्जुनेन।
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− | स्वेषां सुतानां कर्णबुद्धौ रतानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-173
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− | यदाश्रौषं यक्षरूपेण धर्मं समागतं धर्मराजेन सूत।
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− | प्रश्नान्कांश्चिद्विब्रुवाणं च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-174
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− | यदाश्रौषं न विदुर्मामकास्तान्प्रच्छन्नरूपान्वसतः पाण्डवेयान्।
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− | विराटराष्ट्रे सह कृष्णया च तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-175
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− | यदाश्रौषं तान्यथाऽज्ञातवासेऽज्ञायमानान्मामकानां सकाशे।
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− | दक्षान्पार्थान्चरितश्चाग्निकल्पां स्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥
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− | (यदाश्रौषं कीचकानां वरिष्ठं निषूदितं भ्रातृशतेन सार्धम्।
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− | द्रौपद्यर्थं भीमसेनेन संख्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥)
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− | यदाश्रौषं मामकानां वरिष्ठान्धनञ्जयेनैकरथेन भग्नान्।
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− | विराटराष्ट्रे वसता महात्मना तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-176
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− | यदाश्रौषं सत्कृतां मत्स्यराज्ञा सुतां दत्तामुत्तरामर्जुनाय।
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− | तां चार्जुनः प्रत्यगृह्णात्सुतार्थे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-177
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− | यदाश्रौषं निर्जितस्याधनस्य प्रव्राजितस्य स्वजनात्प्रच्युतस्य।
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− | अक्षौहिणीः सप्त युधिष्ठिरस्य तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-178
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− | यदाश्रौषं माधवं वासुदेवं सर्वात्मना पाण्डवार्थे निविष्टम्।
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− | यस्येमां गां विक्रममेकमाहुस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-179
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− | यदाश्रौषं नरनारायणौ तौ कृष्णार्जुनौ वदतो नारदस्य।
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− | अहं द्रष्टा ब्रह्मलोके च सम्यक्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-180
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− | यदाश्रौषं लोकहिताय कृष्णं शमार्थिनमुपयातं कुरूणाम्।
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− | शमं दुर्वार[कुर्वाण]मकृतार्थं च यातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-181
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− | यदाश्रौषं कर्णदुर्योधनाभ्यां बुद्धिं कृतां निग्रहे केशवस्य।
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− | तं चात्मानं बहुधा दर्शयानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-182
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− | यदाश्रौषं वासुदेवे प्रयाते रथस्यैकामग्रतस्तिष्ठमानाम्।
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− | आर्तां पृथां सान्त्वितां केशवेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-183
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− | यदाश्रौषं मन्त्रिणं वासुदेवं तथा भीष्मं शान्तनवं च तेषाम्।
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− | भारद्वाजं चाशिषोऽनुब्रुवाणं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-184
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− | यदाश्रौषं कर्ण उवाच भीष्मं नाहं योत्स्ये युध्यमाने त्वयीति।
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− | हित्वा सेनामपचक्राम चापि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-185
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− | यदाश्रौषं वासुदेवार्जुनौ तौ तथा धनुर्गाण्डीवमप्रमेयम्।
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− | त्रीण्युग्रवीर्याणि समागतानि तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-186
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− | यदाश्रौषं कश्मलेनाभिपन्ने रथोपस्थे सीदमानेऽर्जुने वै।
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− | कृष्णं लोकान्दर्शयानं शरीरे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-187
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− | यदाश्रौषं भीष्मममित्रकर्शनं निघ्नन्तमाजावयुतं रथानाम्।
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− | नैषां कश्चिद्विद्यते[बध्यते] ख्यातरूपस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-188
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− | यदाश्रौषं चापगेयेन संख्ये स्वयं मृत्युं विहितं धार्मिकेण।
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− | तञ्चा[च्चा]कार्षुः पाण्डवेयाः प्रहृष्टास्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-189
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− | यदाश्रौषं भीष्ममत्यन्तशूरं विहत्य[हतं] पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्।
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− | शिखण्डिनं पुरतः स्थापयित्वा तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-190
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− | यदाश्रौषं शरतल्पे शयानं वृद्धं वीरं सादितं चित्रपुङ्खैः।
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− | भीष्मं कृत्वा सोमक अनल्पशेषांस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-191
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− | यदाश्रौषं शान्तनवे शयाने पानीयार्थे चोदितेनार्जुनेन।
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− | भूमिं भित्त्वा तर्पितं तत्र भीष्मं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-192
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− | यदा वायुश्शक्र[श्चन्द्र]सूर्यौ च युक्तौ कौन्तेयानामनुलोमा जयाय।
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− | नित्यं चास्माञ्श्वापदा भीषयन्ति तदा नाशंसे बिजयाय संजय॥ 1-1-193
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− | यदा द्रोणो विविधानस्त्रमार्गान्निदर्शयन्समरे चित्रयोधी।
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− | न पाण्डवाञ्श्रेष्ठतरान्निहन्ति तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-194
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− | यदाश्रौषं चास्मदीयान्महारथान्व्यवस्थितानर्जुनस्यान्तकाय।
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− | संशप्तक अन्निहतानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-195
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− | यदाश्रौषं व्यूहमभेद्यमन्यैर्भारद्वाजेनात्तशस्त्रेण गुप्तम्।
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− | भित्त्वा सौभद्रं वीरमेकं प्रविष्टं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-196
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− | यदाभिमन्युं परिवार्य बालं सर्वे हत्वा हृष्टरूपा बभूवुः।
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− | महारथाः पार्थमशक्नुवन्तस्तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-197
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− | यदाश्रौषमभिमन्युं निहत्य हर्षान्मूढान्क्रोशतो धार्तराष्ट्रान्।
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− | क्रोधादुक्तं सैन्धवे चार्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-198
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− | यदाश्रौषं सैन्धवार्थे प्रतिज्ञां प्रतिज्ञातां तद्वधायार्जुनेन।
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− | सत्यां तीर्णां शत्रुमध्ये च तेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-199
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− | यदाश्रौषं श्रान्तहये धनञ्जये मुक्त्वाहयान्पाययित्वोपवृत्तान्।
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− | पुनर्युक्त्वा वासुदेवं प्रयातं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-200
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− | यदाश्रौषं वाहनेष्वक्षमेषु रथोपस्थे तिष्ठता पाण्डवेन।
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− | सर्वान्योधान्वारितानर्जुनेन तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-201
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− | यदाश्रौषं नागबलैः सुदुःसहं द्रोणानीकं युयुधानं प्रमथ्य।
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− | यातं वार्ष्णेयं यत्र तौ कृष्णपार्थौ तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-202
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− | यदाश्रौषं कर्णमासाद्य मुक्तं वधाद्भीमं कुत्सयित्वा वचोभिः।
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− | धनुष्कोट्याऽऽतुद्य कर्णेन वीरं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-203
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− | यदा द्रोणः कृतवर्मा कृपश्च कर्णो द्रौणिर्मद्रराजश्च शूरः।
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− | अमर्षयन्सैन्धवं वध्यमानं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-204
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− | यदाश्रौषं देवराजेन दत्तां दिव्यां शक्तिं व्यंसितां माधवेन।
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− | घटोत्कचे राक्षसे घोररूपे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-205
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− | यदाश्रौषं कर्णघटोत्कचाभ्यां युद्धे मुक्तां सूतपुत्रेण शक्तिम्।
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− | यया वध्यः समरे सव्यसाची तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-206
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− | यदाश्रौषं द्रोणमाचार्यमेकं धृष्टद्युम्नेनाभ्यतिक्रम्य धर्मम्।
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− | रथोपस्थे प्रायगतं विशस्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-207
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− | यदाश्रौषं द्रौणिना द्वैरथस्थं माद्रीसुतं नकुलं लोकमध्ये।
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− | समं युद्धे मण्डलश[लेभ्य]श्चरन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-208
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− | यदा द्रोणे निहते द्रोणपुत्रो नारायणं दिव्यमस्त्रं विकुर्वन्।
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− | नैषामन्तं गतवान्पाण्डवानां तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-209
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− | यदाश्रौषं भीमसेनेन पीतं रक्तं भ्रातुर्युधि दुःशासनस्य।
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− | निवारितं नान्यतमेन भीमं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-210
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− | यदाश्रौषं कर्णमत्यन्तशूरं हतं पार्थेनाहवेष्वप्रधृष्यम्।
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− | तस्मिन्भ्रातॄणां विग्रहे देवगुह्ये तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-211
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− | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रं च शूरं दुःशासनं कृतवर्माणमुग्रम्।
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− | युधिष्ठिरं धर्मराजं जयन्तं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-212
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− | यदाश्रौषं निहतं मद्रराजं रणे शूरं धर्मराजेन सूत।
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− | सदा संग्रामे स्पर्धते यस्तु कृष्णं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-213
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− | यदाश्रौषं कलहद्यूतमूलं मायाबलं सौबलं पाण्डवेन।
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− | हतं संग्रामे सहदेवेन पापं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-214
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− | यदाश्रौषं श्रान्तमेकं शयानं ह्रदं गत्वा स्तम्भयित्वा तदम्भः।
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− | दुर्योधनं विरतं भग्नशक्तिं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-215
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− | यदाश्रोषं पाण्डवांस्तिष्ठमानान्गत्वा ह्रदे वासुदेवेन सार्धम्।
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− | अमर्षणं धर्षयतः सुतं मे तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-216
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− | यदाश्रौषं विविधांश्चित्रमार्गान्गदायुद्धे मण्डलशश्चरन्तम्।
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− | मिथ्याहतं वासुदेवस्य बुद्ध्या तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-217
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− | यदाश्रौषं द्रोणपुत्रादिभिस्तैहृतान्पञ्चालान्द्रौपदेयांश्चसुप्तान्।
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− | कृतं बीभत्समयशस्यं च कर्म तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-218
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− | यदाश्रौषं भीमसेनानुयातेनाश्वत्थाम्ना परमास्त्रं प्रयुक्तम्।
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| क्रुद्धेनैषीकमवधीद्येन गर्भं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-219 | | क्रुद्धेनैषीकमवधीद्येन गर्भं तदा नाशंसे विजयाय संजय॥ 1-1-219 |