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| == परिवर्तन की योजना == | | == परिवर्तन की योजना == |
| १. परिवर्तन का स्वरूप : वर्तमान स्वार्थपर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थानपर आत्मीयता याने कौटुम्बिक भावनापर आधारित जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना | | १. परिवर्तन का स्वरूप : वर्तमान स्वार्थपर आधारित जीवन के प्रतिमान के स्थानपर आत्मीयता याने कौटुम्बिक भावनापर आधारित जीवन के प्रतिमान की प्रतिष्ठापना |
− | १.१ सर्वे भवन्तु सुखिन:, देशानुकूल और कालानुकूल आदि के संदर्भ में दोनों प्रतिमानों को समझना
| + | १.१ सर्वे भवन्तु सुखिन:, देशानुकूल और कालानुकूल आदि के संदर्भ में दोनों प्रतिमानों को समझना |
− | १.२ प्रतिमान का परिवर्तन
| + | १.२ प्रतिमान का परिवर्तन |
− | १.२.१ सामाजिक व्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण
| + | .२.१ सामाजिक व्यवस्थाओं का पुनर्निर्माण |
− | १.२.२ समाज के संगठनों का परिष्कार/पुनरूत्थान या नवनिर्माण
| + | १.२.२ समाज के संगठनों का परिष्कार/पुनरूत्थान या नवनिर्माण |
| १.२.३ तन्त्रज्ञान का समायोजन / तन्त्रज्ञान नीति / जीवन की इष्ट गति : वर्तमान में तन्त्रज्ञान की विकास की गति से जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य घसीटा जा रहा है। पर्यावरण सन्तुलन और सामाजिकता दाँवपर लग गए हैं। ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र व्यक्ति को ही मिलनी चाहिये। बंदर के हाथ में पलिता नहीं दिया जाता। इस लिये किसी भी तन्त्रज्ञान के सार्वत्रिकीकरण से पहले उसके पर्यावरण, समाजजीवन और व्यक्ति जीवनपर होनेवाले परिणाम जानना आवश्यक है। हानिकारक तंत्रज्ञान का तो विकास भी नहीं करना चाहिये। किया तो वह केवल सुपात्र को ही अंतरित हो यह सुनिश्चित करना चाहिये। | | १.२.३ तन्त्रज्ञान का समायोजन / तन्त्रज्ञान नीति / जीवन की इष्ट गति : वर्तमान में तन्त्रज्ञान की विकास की गति से जीवन को जो गति प्राप्त हुई है उस के कारण सामान्य मनुष्य घसीटा जा रहा है। पर्यावरण सन्तुलन और सामाजिकता दाँवपर लग गए हैं। ज्ञान, विज्ञान और तन्त्रज्ञान ये तीनों बातें पात्र व्यक्ति को ही मिलनी चाहिये। बंदर के हाथ में पलिता नहीं दिया जाता। इस लिये किसी भी तन्त्रज्ञान के सार्वत्रिकीकरण से पहले उसके पर्यावरण, समाजजीवन और व्यक्ति जीवनपर होनेवाले परिणाम जानना आवश्यक है। हानिकारक तंत्रज्ञान का तो विकास भी नहीं करना चाहिये। किया तो वह केवल सुपात्र को ही अंतरित हो यह सुनिश्चित करना चाहिये। |
− | ऐसी स्थिति में जीवन की इष्ट गति की ओर बढानेवाली तन्त्रज्ञान नीति का स्वीकार करना होगा। इष्ट गति के निकषों के लिये अध्याय ३९ में बताई कसौटि लगानी होगी।
| + | ऐसी स्थिति में जीवन की इष्ट गति की ओर बढानेवाली तन्त्रज्ञान नीति का स्वीकार करना होगा। इष्ट गति के निकषों के लिये अध्याय ३९ में बताई कसौटि लगानी होगी। |
| २. परिवर्तन की प्रक्रिया : सामाजिक परिवर्तन भौतिक वस्तुओं के परिवर्तन जैसे सरल नहीं होते। भौतिक पदार्थों का एक निश्चित स्वभाव होता है। धर्म होता है। इसे ध्यान में रखकर भौतिक पदार्थों को ढाला जाता है। हर मानव का स्वभाव भिन्न होता है। भिन्न समयपर भी उसमें बदलाव आ सकता है। इसलिये सामाजिक परिवर्तन क्रांति से नहीं उत्क्रांति से ही किये जा सकते हैं। उत्क्रांति की गति धीमी होती है। होनेवाले परिवर्तनों से किसी की हानी नहीं हो या होनेवाली हानी न्यूनतम हो, परिवर्तन स्थाई हों, परिवर्तन से सबको लाभ मिले यह सब देखकर ही प्रक्रिया चलाई जाती है। सामाजिक परिवर्तनों के लिये नई पीढी से प्रारंभ करना यह सबसे अच्छा रास्ता है। लेकिन नई पीढी में व्यापक रूप से परिवर्तन के पहलुओं को स्थापित करने के लिये आवश्यक इतनी पुरानी पीढी के श्रेष्ठ जनों की संख्या आवश्यक है। ऐसे श्रेष्ठ जनों का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में किया गया है - | | २. परिवर्तन की प्रक्रिया : सामाजिक परिवर्तन भौतिक वस्तुओं के परिवर्तन जैसे सरल नहीं होते। भौतिक पदार्थों का एक निश्चित स्वभाव होता है। धर्म होता है। इसे ध्यान में रखकर भौतिक पदार्थों को ढाला जाता है। हर मानव का स्वभाव भिन्न होता है। भिन्न समयपर भी उसमें बदलाव आ सकता है। इसलिये सामाजिक परिवर्तन क्रांति से नहीं उत्क्रांति से ही किये जा सकते हैं। उत्क्रांति की गति धीमी होती है। होनेवाले परिवर्तनों से किसी की हानी नहीं हो या होनेवाली हानी न्यूनतम हो, परिवर्तन स्थाई हों, परिवर्तन से सबको लाभ मिले यह सब देखकर ही प्रक्रिया चलाई जाती है। सामाजिक परिवर्तनों के लिये नई पीढी से प्रारंभ करना यह सबसे अच्छा रास्ता है। लेकिन नई पीढी में व्यापक रूप से परिवर्तन के पहलुओं को स्थापित करने के लिये आवश्यक इतनी पुरानी पीढी के श्रेष्ठ जनों की संख्या आवश्यक है। ऐसे श्रेष्ठ जनों का वर्णन श्रीमद्भगवद्गीता में किया गया है - |
− | यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: । स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (अध्याय ३ श्लोक २१)
| + | यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जन: । |
| + | स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते॥ (अध्याय ३ श्लोक २१) |
| इसलिये एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक व्यक्तितक ले जाने की आवश्यकता नहीं होती। केवल समाज जीवन की सभी विधाओं के श्रेष्ठ लोगों के निर्माण की प्रक्रिया ही परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक बार ये लोग निर्माण हो गये तो फिर परिवर्तन तेज याने ज्यामितीय गति से होने लगता है। | | इसलिये एक दृष्टि से देखा जाए तो यह प्रक्रिया समाज के प्रत्येक व्यक्तितक ले जाने की आवश्यकता नहीं होती। केवल समाज जीवन की सभी विधाओं के श्रेष्ठ लोगों के निर्माण की प्रक्रिया ही परिवर्तन की प्रक्रिया है। एक बार ये लोग निर्माण हो गये तो फिर परिवर्तन तेज याने ज्यामितीय गति से होने लगता है। |
− | २.१ धीमी लेकिन अविश्रांत : हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें सामाजिक परिवर्तन करना है। समाज एक जीवंत ईकाई होता है। जीवंत ईकाई में परिवर्तन हमेशा धीमी गति से, समग्रता से और अविरत करते रहने से होते हैं। कोई भी शीघ्रता या टुकडों में होनेवाले परिवर्तन हानिकारक होते हैं।
| + | २.१ धीमी लेकिन अविश्रांत : हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि हमें सामाजिक परिवर्तन करना है। समाज एक जीवंत ईकाई होता है। जीवंत ईकाई में परिवर्तन हमेशा धीमी गति से, समग्रता से और अविरत करते रहने से होते हैं। कोई भी शीघ्रता या टुकडों में होनेवाले परिवर्तन हानिकारक होते हैं। |
− | २.२ सभी क्षेत्रों में एकसाथ : समाज एक जीवंत ईकाई होने के कारण इसके सभी अंग किसी भी बात से एकसाथ प्रभावित होते हैं। प्रभाव का परिमाण कम अधिक होगा लेकिन प्रभाव सभीपर होता ही है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया टुकडों में अलग अलग या एक के बाद एक ऐसी नहीं होगी। परिवर्तन की प्रक्रिया धर्म, शिक्षा, शासन, अर्थ, न्याय, समाज संगठन आदि सभी क्षेत्रों में एकसाथ चलेगी। ऐसी प्रक्रिया का प्रारंभ होना बहुत कठिन होता है। लेकिन एकबार सभी क्षेत्रों में प्रारंभ हो जाता है तो फिर यह तेजी से गति प्राप्त कर लेती है।
| + | २.२ सभी क्षेत्रों में एकसाथ : समाज एक जीवंत ईकाई होने के कारण इसके सभी अंग किसी भी बात से एकसाथ प्रभावित होते हैं। प्रभाव का परिमाण कम अधिक होगा लेकिन प्रभाव सभीपर होता ही है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया टुकडों में अलग अलग या एक के बाद एक ऐसी नहीं होगी। परिवर्तन की प्रक्रिया धर्म, शिक्षा, शासन, अर्थ, न्याय, समाज संगठन आदि सभी क्षेत्रों में एकसाथ चलेगी। ऐसी प्रक्रिया का प्रारंभ होना बहुत कठिन होता है। लेकिन एकबार सभी क्षेत्रों में प्रारंभ हो जाता है तो फिर यह तेजी से गति प्राप्त कर लेती है। |
| ३. परिवर्तन के कारक तत्त्व | | ३. परिवर्तन के कारक तत्त्व |
− | ३.१ शिक्षा : शिक्षा का दायरा बहुत व्यापक है। शिक्षा जन्म जन्मांतर चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इस जन्म में शिक्षा गर्भधारणा से मृत्यूपर्यंत चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा का स्वरूप बदलता है।
| + | ३.१ शिक्षा : शिक्षा का दायरा बहुत व्यापक है। शिक्षा जन्म जन्मांतर चलनेवाली प्रक्रिया होती है। इस जन्म में शिक्षा गर्भधारणा से मृत्यूपर्यंत चलती है। आयु की अवस्था के अनुसार शिक्षा का स्वरूप बदलता है। |
− | ३.१.२ कुटुम्ब में शिक्षा : कुटुम्ब में शिक्षा का प्रारंभ गर्भधारणा से होता है। मनुष्य की ६०-७० प्रतिशत घडन तो कुटुम्ब में ही होती है। कुटुम्ब में रहकर वह कई बातें सीखता है। कौटुम्बिक भावना, कर्तव्य, सदाचार आदि की शिक्षा कुटुम्ब की ही जिम्मेदारी होती है। व्यवस्थाओं के साथ समायोजन, व्यवस्थाओं के स्वरूप आदि भी वह कुटुम्ब में ही अपने ज्येष्ठों से सीखता है। इंद्रियों के विकास की शिक्षा, व्यावसायिक कौशल भी वह कुटुम्ब में ही सीखता है। कुटुम्ब सामाजिकता की पाठशाला ही होता है। बडों का आदर, स्त्री का आदर आदि भी कुटुम्ब ही सिखाता है।
| + | ३.१.२ कुटुम्ब में शिक्षा : कुटुम्ब में शिक्षा का प्रारंभ गर्भधारणा से होता है। मनुष्य की ६०-७० प्रतिशत घडन तो कुटुम्ब में ही होती है। कुटुम्ब में रहकर वह कई बातें सीखता है। कौटुम्बिक भावना, कर्तव्य, सदाचार आदि की शिक्षा कुटुम्ब की ही जिम्मेदारी होती है। व्यवस्थाओं के साथ समायोजन, व्यवस्थाओं के स्वरूप आदि भी वह कुटुम्ब में ही अपने ज्येष्ठों से सीखता है। इंद्रियों के विकास की शिक्षा, व्यावसायिक कौशल भी वह कुटुम्ब में ही सीखता है। कुटुम्ब सामाजिकता की पाठशाला ही होता है। बडों का आदर, स्त्री का आदर आदि भी कुटुम्ब ही सिखाता है। |
| ३.१.२ कुटुम्ब की शिक्षा : उसी प्रकार से कुटुम्ब के बारे में भी वह कई बातें सीखता है। उसकी व्यक्तिगत, कौटुम्बिक और सामाजिक आदतें बचपन में ही आकार लेतीं हैं। कुटुम्ब का महत्व, समाज में कौटुम्बिक भावना का महत्व, कौटुम्बिक व्यवस्थाओं का महत्व वह कुटुम्ब में सीखता है। भिन्न भिन्न स्वभावों के लोग एक छत के नीचे आत्मीयता से कैसे रहते हैं यह वह कुटुम्ब से ही सीखता है। लगभग सभी प्रकार से कुटुंब यह समाज का लघुरूप ही होता है। कुटुंब यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। | | ३.१.२ कुटुम्ब की शिक्षा : उसी प्रकार से कुटुम्ब के बारे में भी वह कई बातें सीखता है। उसकी व्यक्तिगत, कौटुम्बिक और सामाजिक आदतें बचपन में ही आकार लेतीं हैं। कुटुम्ब का महत्व, समाज में कौटुम्बिक भावना का महत्व, कौटुम्बिक व्यवस्थाओं का महत्व वह कुटुम्ब में सीखता है। भिन्न भिन्न स्वभावों के लोग एक छत के नीचे आत्मीयता से कैसे रहते हैं यह वह कुटुम्ब से ही सीखता है। लगभग सभी प्रकार से कुटुंब यह समाज का लघुरूप ही होता है। कुटुंब यह सामाजिकता की पाठशाला होती है। |
| ३.१.३ विद्याकेन्द्र शिक्षा : विद्याकेन्द्र की शिक्षा शास्त्रीय शिक्षा होती है। कुटुम्ब में सीखे हुए सदाचार के शास्त्रीय पक्ष को समझाने के लिये होती है। कुटुंब में सीखे हुए व्यावसायिक कौशलों को पैना बनाने के लिये होती है। कुटुंब में आत्मसात की हुई श्रेष्ठ परम्पराओं को अधिक उज्वल बनाने के तरीके सीखने के लिए होती है। अध्ययन का और कौशल का शास्त्रीय तरीका सिखने के लिये, अध्ययन को तेजस्वी बनाने के लिये होती है। | | ३.१.३ विद्याकेन्द्र शिक्षा : विद्याकेन्द्र की शिक्षा शास्त्रीय शिक्षा होती है। कुटुम्ब में सीखे हुए सदाचार के शास्त्रीय पक्ष को समझाने के लिये होती है। कुटुंब में सीखे हुए व्यावसायिक कौशलों को पैना बनाने के लिये होती है। कुटुंब में आत्मसात की हुई श्रेष्ठ परम्पराओं को अधिक उज्वल बनाने के तरीके सीखने के लिए होती है। अध्ययन का और कौशल का शास्त्रीय तरीका सिखने के लिये, अध्ययन को तेजस्वी बनाने के लिये होती है। |
| ३.१.४ लोकशिक्षा : लोकशिक्षा भी समाज जीवन का एक आवश्यक पहलू है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा के उपरान्त भी मनुष्य का मन कई बार भ्रमित हो जाता हाय, बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। ऐसी स्थिति में लोकशिक्षा की व्यवस्था इस संभ्रम को, इस कुण्ठा को दूर करती है। | | ३.१.४ लोकशिक्षा : लोकशिक्षा भी समाज जीवन का एक आवश्यक पहलू है। विद्याकेन्द्र की शिक्षा के उपरान्त भी मनुष्य का मन कई बार भ्रमित हो जाता हाय, बुद्धि कुण्ठित हो जाती है। ऐसी स्थिति में लोकशिक्षा की व्यवस्था इस संभ्रम को, इस कुण्ठा को दूर करती है। |
| ३.१.५ परंपरा निर्माण : अपने से अधिक श्रेष्ठ विरासत निर्माण करने की निरंतरता को श्रेष्ठ परंपरा कहते हैं। श्रेष्ठ परंपराओं के निर्माण की तीव्र इच्छा और पैने प्रयास समाज को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाते हैं। | | ३.१.५ परंपरा निर्माण : अपने से अधिक श्रेष्ठ विरासत निर्माण करने की निरंतरता को श्रेष्ठ परंपरा कहते हैं। श्रेष्ठ परंपराओं के निर्माण की तीव्र इच्छा और पैने प्रयास समाज को श्रेष्ठ और चिरंजीवी बनाते हैं। |
− | ३.२ शासन
| + | ३.२ शासन |
| ३.२.१ धर्मनिष्ठता : शासक धर्मशास्त्र के जानकार हों। धर्मशास्त्र के पालनकर्ता हों। धर्मशास्त्र के नियमों का प्रजा से अनुपालन करवाने में कुशल हों। | | ३.२.१ धर्मनिष्ठता : शासक धर्मशास्त्र के जानकार हों। धर्मशास्त्र के पालनकर्ता हों। धर्मशास्त्र के नियमों का प्रजा से अनुपालन करवाने में कुशल हों। |
| ३.२.२ धर्म व्यवस्था के साथ समायोजन : सदैव धर्म के जानकारों से अपना मूल्यांकन करवाएँ। धर्म के जानकारों की सूचनाओं का अनुपालन करें। अधर्म होने से प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप के लिये उद्यत रहें। | | ३.२.२ धर्म व्यवस्था के साथ समायोजन : सदैव धर्म के जानकारों से अपना मूल्यांकन करवाएँ। धर्म के जानकारों की सूचनाओं का अनुपालन करें। अधर्म होने से प्रायश्चित्त और पश्चात्ताप के लिये उद्यत रहें। |
− | ३.३ धर्म नेतृत्व
| + | ३.३ धर्म नेतृत्व |
| ३.३.१ धर्म के मार्गदर्शक : किसी का केवल धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है। नि:स्वार्थ भाव, निर्भयता भी श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शकों के लक्षण हैं। | | ३.३.१ धर्म के मार्गदर्शक : किसी का केवल धर्मशास्त्र का विशेषज्ञ होना पर्याप्त नहीं है। नि:स्वार्थ भाव, निर्भयता भी श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शकों के लक्षण हैं। |
| ३.३.२ धर्माचरणी : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोग अपने व्यवहार में भी धर्मयुक्त होना चाहिये। | | ३.३.२ धर्माचरणी : धर्म का मार्गदर्शन करनेवाले लोग अपने व्यवहार में भी धर्मयुक्त होना चाहिये। |
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| () आपद्धर्म : १. प्राकृतिक आपदा २. मानव निर्मित आपदा (लगभग उपर्युक्त सभी विषयों में) | | () आपद्धर्म : १. प्राकृतिक आपदा २. मानव निर्मित आपदा (लगभग उपर्युक्त सभी विषयों में) |
| ४. परिवर्तन के पुरोधा : उपर्युक्त बिन्दु २ में बताए गए श्रेष्ठ जन ही परिवर्तन के पुरोधा होंगे। इनका प्रमाण समाज में मुष्किल से ५-७ प्रतिशत ही पर्याप्त होता है। ऐसे श्रेष्ठ जनों में निम्न वर्ग के लोग आते हैं। | | ४. परिवर्तन के पुरोधा : उपर्युक्त बिन्दु २ में बताए गए श्रेष्ठ जन ही परिवर्तन के पुरोधा होंगे। इनका प्रमाण समाज में मुष्किल से ५-७ प्रतिशत ही पर्याप्त होता है। ऐसे श्रेष्ठ जनों में निम्न वर्ग के लोग आते हैं। |
− | ४.१ शिक्षक : शिक्षक ज्ञानी, त्यागी, कुशल, समाज हित के लिए समर्पित, धर्म का जानकार, समाज को घडने की सामर्थ्य रखनेवाला होता है। नई पीढी जो परिवर्तन का अधिक सहजता से स्वीकार कर सकती है उसको घडना शिक्षक का काम होता है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया का मुख्य पुरोधा शिक्षक ही होता है।
| + | ४.१ शिक्षक : शिक्षक ज्ञानी, त्यागी, कुशल, समाज हित के लिए समर्पित, धर्म का जानकार, समाज को घडने की सामर्थ्य रखनेवाला होता है। नई पीढी जो परिवर्तन का अधिक सहजता से स्वीकार कर सकती है उसको घडना शिक्षक का काम होता है। इसलिये परिवर्तन की प्रक्रिया का मुख्य पुरोधा शिक्षक ही होता है। |
− | ४.२ श्रेष्ठ जन :यहाँ श्रेष्ठ जनों से मतलब भिन्न भिन्न सामाजिक गतिविधियों में जो अग्रणी लोग हैं उनसे है।
| + | ४.२ श्रेष्ठ जन :यहाँ श्रेष्ठ जनों से मतलब भिन्न भिन्न सामाजिक गतिविधियों में जो अग्रणी लोग हैं उनसे है। |
− | ४.३ सांप्रदायिक संगठनों के प्रमुख : आजकल समाज का एक बहुत बडा वर्ग जिसमें शिक्षित वर्ग भी है, भिन्न भिन्न संप्रदायों से जुडा है। उन संप्रदायों के प्रमुख भी इस परिवर्तन की प्रक्रिया का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनने की शक्ति रखते हैं।
| + | ४.३ सांप्रदायिक संगठनों के प्रमुख : आजकल समाज का एक बहुत बडा वर्ग जिसमें शिक्षित वर्ग भी है, भिन्न भिन्न संप्रदायों से जुडा है। उन संप्रदायों के प्रमुख भी इस परिवर्तन की प्रक्रिया का एक अत्यंत महत्त्वपूर्ण हिस्सा बनने की शक्ति रखते हैं। |
− | ४.४ लोकशिक्षा के माध्यम : कीर्तनकार, कथाकार, प्रवचनकार, नाटक मंडलि, पुरोहित या उपाध्याय, साधू, बैरागी, सिंहस्थ या कुंभ जैसे मेले, यात्राएँ आदि लोकशिक्षा के माध्यम हुआ करते थे। वर्तमान में ये सब कमजोर और दिशाहीन हो गए हैं। एक ओर इनमें से जिनको पुनर्जीवित कर सकते हैं उन्हें करना। नए आयाम भी जोडे जा सकते हैं। जैसे अभी लगभग देढ दशक पूर्व महाराष्ट्र में प्रारंभ हुई नव-वर्ष स्वागत यात्राएँ आदि।
| + | ४.४ लोकशिक्षा के माध्यम : कीर्तनकार, कथाकार, प्रवचनकार, नाटक मंडलि, पुरोहित या उपाध्याय, साधू, बैरागी, सिंहस्थ या कुंभ जैसे मेले, यात्राएँ आदि लोकशिक्षा के माध्यम हुआ करते थे। वर्तमान में ये सब कमजोर और दिशाहीन हो गए हैं। एक ओर इनमें से जिनको पुनर्जीवित कर सकते हैं उन्हें करना। नए आयाम भी जोडे जा सकते हैं। जैसे अभी लगभग देढ दशक पूर्व महाराष्ट्र में प्रारंभ हुई नव-वर्ष स्वागत यात्राएँ आदि। |
| ५. अंतर्निहित सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में समाज में हो रहे परिवर्तन और मनुष्य की स्खलनशीलता के कारण बढनेवाला अधर्माचरण ये दो बातें ऐसीं हैं जो किसी भी श्रेष्ठतम समाज को भी नष्ट कर देतीं हैं। इस दृष्टि से जागरूक ऐसे शिक्षक और धर्म के मार्गदर्शक साथ में मिलकर समाज की अंतर्निहित सुधार व्यवस्था बनाते हैं। अपनी संवेदनशीलता और समाज के निरंतर बारीकी से हो रहे अध्ययन के कारण इन्हें संकटों का पूर्वानुमान हो जाता है। अपने निरीक्षणों के आधारपर अपने लोकसंग्रही स्वभाव से ये लोगों को भी संकटों से ऊपर उठने के लिये तैयार करते हैं। | | ५. अंतर्निहित सुधार व्यवस्था : काल के प्रवाह में समाज में हो रहे परिवर्तन और मनुष्य की स्खलनशीलता के कारण बढनेवाला अधर्माचरण ये दो बातें ऐसीं हैं जो किसी भी श्रेष्ठतम समाज को भी नष्ट कर देतीं हैं। इस दृष्टि से जागरूक ऐसे शिक्षक और धर्म के मार्गदर्शक साथ में मिलकर समाज की अंतर्निहित सुधार व्यवस्था बनाते हैं। अपनी संवेदनशीलता और समाज के निरंतर बारीकी से हो रहे अध्ययन के कारण इन्हें संकटों का पूर्वानुमान हो जाता है। अपने निरीक्षणों के आधारपर अपने लोकसंग्रही स्वभाव से ये लोगों को भी संकटों से ऊपर उठने के लिये तैयार करते हैं। |
| ६. परिवर्तन की नीति : प्रारंभ में विरोध को आमंत्रण नहीं देना। संघर्ष में शक्ति का अपव्यय नहीं करना। जो आज कर सकते हैं उसे करते जाना। जो कल करने की आवश्यकता है उस के लिये परिस्थिति निर्माण करना। परिस्थिति के निर्माण होते ही आगे बढना। | | ६. परिवर्तन की नीति : प्रारंभ में विरोध को आमंत्रण नहीं देना। संघर्ष में शक्ति का अपव्यय नहीं करना। जो आज कर सकते हैं उसे करते जाना। जो कल करने की आवश्यकता है उस के लिये परिस्थिति निर्माण करना। परिस्थिति के निर्माण होते ही आगे बढना। |
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| २.४ शिक्षक/धर्मज्ञ और शासक निर्माण : समाज परिवर्तन में शिक्षक की और शासक की ऐसे दोनों की भुमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। संयुक्त परिवारों में जन्म लिये बच्चों में से अब श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शक, शिक्षक और शासक निर्माण करने की स्थिति होगी। ऐसे लोगों को समर्थन और सहायता देनेवाले कुटुम्ब और दूसरे चरण में निर्माण किये समाज के परिष्कृत विचारोंवाले सदस्य अब कुछ मात्रा में उपलब्ध होंगे। | | २.४ शिक्षक/धर्मज्ञ और शासक निर्माण : समाज परिवर्तन में शिक्षक की और शासक की ऐसे दोनों की भुमिका अत्यंत महत्वपूर्ण होती है। संयुक्त परिवारों में जन्म लिये बच्चों में से अब श्रेष्ठ धर्म के मार्गदर्शक, शिक्षक और शासक निर्माण करने की स्थिति होगी। ऐसे लोगों को समर्थन और सहायता देनेवाले कुटुम्ब और दूसरे चरण में निर्माण किये समाज के परिष्कृत विचारोंवाले सदस्य अब कुछ मात्रा में उपलब्ध होंगे। |
| २.५ संगठन और व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना : श्रेष्ठ धर्म के अधिष्ठाता/मार्गदर्शक, सामर्थ्यवान शिक्षक और कुशल शासक अब प्रत्यक्ष संगठन का सशक्तिकरण और व्यवस्थाओं का निर्माण करेंगे। | | २.५ संगठन और व्यवस्थाओं की प्रतिष्ठापना : श्रेष्ठ धर्म के अधिष्ठाता/मार्गदर्शक, सामर्थ्यवान शिक्षक और कुशल शासक अब प्रत्यक्ष संगठन का सशक्तिकरण और व्यवस्थाओं का निर्माण करेंगे। |
| + | ==References== |
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| + | <references /> |
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| + | अन्य स्रोत: |
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− | [[Category:Bhartiya Jeevan Pratiman (भारतीय जीवन (प्रतिमान)]]
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