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== परिवर्तन की या समस्याओं के निराकरण की दृष्टि ==
 
== परिवर्तन की या समस्याओं के निराकरण की दृष्टि ==
समस्या निराकरण की वर्तमान दृष्टि के कारण ही समस्याओं और समाधान का दुष्ट चक्र निर्माण हुआ दिखाई देता है। इसलिये इस दृष्टि के दोष दूर करने होंगे या स्वच्छ दृष्टि से समस्याओं का निराकरण करना होगा। हमारा काम समस्या निराकरण की वर्तमान दृष्टि का अध्ययन करना और निर्दोष दृष्टि की प्रतिष्ठापना करनाहै। निर्दोष दृष्टि से समस्याओं का समाधान निकालना होगा। इस दृष्टि के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न होंगे।
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समस्या निराकरण की वर्तमान दृष्टि के कारण ही समस्याओं और समाधान का दुष्ट चक्र निर्माण हुआ दिखाई देता है। इसलिये इस दृष्टि के दोष दूर करने होंगे या स्वच्छ दृष्टि से समस्याओं का निराकरण करना होगा। हमारा काम समस्या निराकरण की वर्तमान दृष्टि का अध्ययन करना और निर्दोष दृष्टि की प्रतिष्ठापना करना है। निर्दोष दृष्टि से समस्याओं का समाधान निकालना होगा। इस दृष्टि के महत्त्वपूर्ण पहलू निम्न होंगे।
    
== एकात्मता और समग्रता की दृष्टि से समस्याओं को देखना ==
 
== एकात्मता और समग्रता की दृष्टि से समस्याओं को देखना ==
१. अंतिम लक्ष्य को ओझल नहीं होने देना : मानव जो कुछ करता है सुख पाने के लिए करता है। सुख का सबसे उन्नत स्तर है “परमसुख”। मानव के व्यक्तिगत जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। परमसुख की प्राप्ती ही मोक्ष है। और उसका मार्ग है ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च’। जगत् हिताय च का ही अर्थ है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’। सुख के और हित के भिन्न भिन्न स्तर होते हैं।
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# अंतिम लक्ष्य को ओझल नहीं होने देना : मानव जो कुछ करता है सुख पाने के लिए करता है। सुख का सबसे उन्नत स्तर है “परमसुख”। मानव के व्यक्तिगत जीवन का अंतिम लक्ष्य मोक्ष है। परमसुख की प्राप्ति ही मोक्ष है और उसका मार्ग है ‘आत्मनो मोक्षार्थं जगत् हिताय च’। जगत् हिताय च का ही अर्थ है ‘सर्वे भवन्तु सुखिन:’। सुख के और हित के भिन्न भिन्न स्तर होते हैं।
निम्नतम स्तर - मम सुखाय, मम हिताय
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## निम्नतम स्तर- मम सुखाय, मम हिताय
निम्न स्तर - मम जन सुखाय, मम जनहिताय
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## निम्न स्तर- मम जन सुखाय, मम जनहिताय
मध्यम स्तर - बहु जन हिताय बहु जन सुखाय  
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## मध्यम स्तर - बहु जन हिताय बहु जन सुखाय
उच्च स्तर - सर्व जन सुखाय सर्व जनहिताय
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## उच्च स्तर - सर्व जन सुखाय सर्व जनहिताय
सर्वोच्च स्तर - चराचर सुखाय चराचर हिताय या “सर्वे भवन्तु सुखिन:
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## सर्वोच्च स्तर- चराचर सुखाय चराचर हिताय या “सर्वे भवन्तु सुखिन:
इनमें मध्यम स्तर के सुख और हित की ओर ध्यान देने से निम्न स्तर के सुख और हित की आश्वस्ति अपने आप हो होती है। उच्च स्तर के सुख और हित को साधने से निम्न और मध्यम दोनों स्तरोंके सुख और हित की निश्चिती अपने आप हो जाती है। सर्वोच्च स्तर के सुख और हित के प्रयासों से चराचर में ही सभी का समावेष होने से सभी के सुख और हित की आश्वस्ति मिलती है। किसी भी बात के करते समय – चराचर सुखाय चराचर हिताय - इसे ध्यान में रखकर ही व्यवहार करना।
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# इनमें मध्यम स्तर के सुख और हित की ओर ध्यान देने से निम्न स्तर के सुख और हित की आश्वस्ति अपने आप हो होती है। उच्च स्तर के सुख और हित को साधने से निम्न और मध्यम दोनों स्तरों के सुख और हित की निश्चिन्तता अपने आप हो जाती है। सर्वोच्च स्तर के सुख और हित के प्रयासों से चराचर में ही सभी का समावेष होने से सभी के सुख और हित की आश्वस्ति मिलती है। किसी भी बात के करते समय – चराचर सुखाय चराचर हिताय - इसे ध्यान में रखकर ही व्यवहार करना।
२. स्वाभाविक क्या है या प्रकृति सुसंगत क्या है इसे समझना : प्रकृति में अनगिनत अस्तित्त्व हैं। प्रत्येक अस्तित्त्व का प्रयोजन होता है। प्रत्येक अस्तित्व दूसरे से भिन्न होता है। प्रत्येक का प्रयोजन भिन्न होता है। अस्तित्त्व के प्रयोजन को समझकर उसके साथ व्यवहार करने को प्रकृति सुसंगतता कहते हैं। जैसे स्त्री और पुरूष में भिन्नता है। इसलिये स्त्री का प्रयोजन पुरूष से भिन्न है। स्त्री के जैसा व्यवहार पुरूषों के साथ होनेवाले व्यवहार से भिन्न होगा। स्त्री बेटी होगी, बहन होगी, पत्नि होगी, गृहिणी होगी, माँ होगी तो पुरूष बेटा होगा, भाई होगा, पति होगा, गृहस्थ होगा, पिता होगा। माता प्रथम गुरू होगी और पिता द्वितीय गुरू ही होगा।
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# स्वाभाविक क्या है या प्रकृति सुसंगत क्या है इसे समझना : प्रकृति में अनगिनत अस्तित्त्व हैं। प्रत्येक अस्तित्त्व का प्रयोजन होता है। प्रत्येक अस्तित्व दूसरे से भिन्न होता है। प्रत्येक का प्रयोजन भिन्न होता है। अस्तित्त्व के प्रयोजन को समझकर उसके साथ व्यवहार करने को प्रकृति सुसंगतता कहते हैं। जैसे स्त्री और पुरूष में भिन्नता है। इसलिये स्त्री का प्रयोजन पुरूष से भिन्न है। स्त्री के जैसा व्यवहार पुरूषों के साथ होनेवाले व्यवहार से भिन्न होगा। स्त्री बेटी होगी, बहन होगी, पत्नि होगी, गृहिणी होगी, माँ होगी तो पुरूष बेटा होगा, भाई होगा, पति होगा, गृहस्थ होगा, पिता होगा। माता प्रथम गुरू होगी और पिता द्वितीय गुरू ही होगा।
मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना है। मनुष्य के दाँत मनुष्य की ऑंत माँसाहारी पशुओं की बनावट में भिन्न होते हैं। गाय शाकाहारी जीव है। उसे मांसाहार करवाने से 'मॅड काऊ' रोग निर्माण हो गया था। मनुष्य में भी माँसाहार से विकृतियाँ तो आएँगी ही।
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# मनुष्य का शरीर मांसाहार के लिये नहीं बना है। मनुष्य के दाँत मनुष्य की ऑंत माँसाहारी पशुओं की बनावट में भिन्न होते हैं। गाय शाकाहारी जीव है। उसे मांसाहार करवाने से 'मॅड काऊ' रोग निर्माण हो गया था। मनुष्य में भी माँसाहार से विकृतियाँ तो आएँगी ही।
३. करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वह बात होती है जिसे करना चाहिये। अकरणीय वह बात होती है जिसे करना नहीं चाहिये। कोई बात करणीय उसके सरल या सहज होने के कारण नहीं बन जाती। सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये आवश्यक होने से कोई भी बात करणीय बनती है। और सर्वे भवन्तु सुखिन: के विरोधी होने से कोई भी बात अकरणीय बनती है। सबके हित की बात करने में सरल होगी तो सभी (दुष्टबुद्धि छोडकर) करेंगे। लेकिन कठिन या असंभव होनेपर भी ‘सब के हित की बात’ ही करने को ही करणीय अकरणीय विवेक कहते हैं। ऐसी करणीय बात असंभव लगने पर उसे संभव ऐसे चरणों में बाँटकर करना होता है।  
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# करणीय अकरणीय विवेक : करणीय वह बात होती है जिसे करना चाहिये। अकरणीय वह बात होती है जिसे करना नहीं चाहिये। कोई बात करणीय उसके सरल या सहज होने के कारण नहीं बन जाती। सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये आवश्यक होने से कोई भी बात करणीय बनती है। और सर्वे भवन्तु सुखिन: के विरोधी होने से कोई भी बात अकरणीय बनती है। सबके हित की बात करने में सरल होगी तो सभी (दुष्टबुद्धि छोडकर) करेंगे। लेकिन कठिन या असंभव होनेपर भी ‘सब के हित की बात’ ही करने को ही करणीय अकरणीय विवेक कहते हैं। ऐसी करणीय बात असंभव लगने पर उसे संभव ऐसे चरणों में बाँटकर करना होता है। लेकिन प्रत्यक्ष में कोई बात करणीय है या नहीं इस बारे में कई बार संभ्रम पैदा हो जाता है।  
लेकिन प्रत्यक्ष में कोई बात करणीय है या नहीं इस बारे में कई बार संभ्रम पैदा हो जाता है। इस संभ्रम को दूर करने के लिये कृपया निम्न विश्लेषण देखें।
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सर्वे भवन्तु सुखिन: - के लिये करणीय अकरणीय विवेक
      
== कृतियों के वर्ग ==
 
== कृतियों के वर्ग ==
कृतियाँ के दो वर्ग किये जा सकते हैं।
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कृतियाँ के दो वर्ग किये जा सकते हैं:
१  करणीय : करणीय का अर्थ है करना चाहिये ऐसी कृति। करणीय कृति उसे कहते हैं जिस के करने से किसी का अहित नहीं होता किन्तु एक से अधिक लोगों का लाभ होता है या चराचर को लाभ होता है।
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# करणीय : करणीय का अर्थ है करना चाहिये ऐसी कृति। करणीय कृति उसे कहते हैं जिस के करने से किसी का अहित नहीं होता किन्तु एक से अधिक लोगों का लाभ होता है या चराचर को लाभ होता है।
अकरणीय : अकरणीय कृति उसे कहते हैं जिस से किसी का भी अहित होता है।
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# अकरणीय : अकरणीय कृति उसे कहते हैं जिस से किसी का भी अहित होता है।
    
== करणीय और अकरणीय विवेक ==
 
== करणीय और अकरणीय विवेक ==
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== कृतियों के प्रकार ==
 
== कृतियों के प्रकार ==
कृतियाँ चार प्रकार की होतीं हैं।
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कृतियाँ चार प्रकार की होतीं हैं:
१. सर्वहितकारी    
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# सर्वहितकारी
२. सर्व अ-हितकारी
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# सर्व अ-हितकारी
३. किसी के हित की लेकिन अहित किसी का नहीं
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# किसी के हित की लेकिन अहित किसी का नहीं
४. किसी या कुछ लोगों के हित की और कुछ लोगों के अहित की
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# किसी या कुछ लोगों के हित की और कुछ लोगों के अहित की
इन में पर्यावरण को सुधारने की या पर्यावरण सुरक्षा की सभी बातें सर्वहितकारी होतीं हैं। इसलिये ये करणीय वर्ग में आतीं हैं।  
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इन में पर्यावरण को सुधारने की या पर्यावरण सुरक्षा की सभी बातें सर्वहितकारी होतीं हैं। इसलिये ये करणीय वर्ग में आतीं हैं। इसी तरह पर्यावरण को बिगाडनेवाली सभी बातें सर्व अ-हितकारी होतीं हैं। ये सभी अकरणीय वर्ग में आतीं हैं।
इसी तरह पर्यावरण को बिगाडनेवाली सभी बातें सर्व अ-हितकारी होतीं हैं। ये सभी अकरणीय वर्ग में आतीं हैं।
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जो कृतियाँ एक व्यक्ति के या कुछ लोगों के हित में हैं लेकिन जिन के करने से किसी का अहित नहीं होता वे भी करणीय वर्ग में आतीं हैं। जैसे कला साधना, व्यायाम आदि।  
 
जो कृतियाँ एक व्यक्ति के या कुछ लोगों के हित में हैं लेकिन जिन के करने से किसी का अहित नहीं होता वे भी करणीय वर्ग में आतीं हैं। जैसे कला साधना, व्यायाम आदि।  
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जो कृतियाँ कुछ लोगों के हित में और कुछ लोगों के अहित में होतीं हैं वे भी अकरणीय के वर्ग की होती हैं। सामान्यत: दुनियाँ भर की समस्याएँ इसी कृति के प्रकार के कारण होतीं हैं। जैसे रासायनिक उत्पादन। यह कारखाने के मालिक, कर्मचारी, मजदूर और ग्राहक के लिये तो हितकारी है। लेकिन उस के द्वारा फैलाए गये प्रदूषण से उस कारखाने के मालिक, कर्मचारी और मजदूरों समेत हजारों लोगों का स्वास्थ्य बिगडता है।
 
जो कृतियाँ कुछ लोगों के हित में और कुछ लोगों के अहित में होतीं हैं वे भी अकरणीय के वर्ग की होती हैं। सामान्यत: दुनियाँ भर की समस्याएँ इसी कृति के प्रकार के कारण होतीं हैं। जैसे रासायनिक उत्पादन। यह कारखाने के मालिक, कर्मचारी, मजदूर और ग्राहक के लिये तो हितकारी है। लेकिन उस के द्वारा फैलाए गये प्रदूषण से उस कारखाने के मालिक, कर्मचारी और मजदूरों समेत हजारों लोगों का स्वास्थ्य बिगडता है।
    
== समस्या मूलों की पहचान ==
 
== समस्या मूलों की पहचान ==
एक एक समस्या लेकर अन्य किसी भी प्रकार से बिगाड़ न करते हुए उसका निराकरण अत्यंत कठिन या लगभग असंभव बात है। क्यों कि जीवन टुकड़ों में नहीं जिया जाता। जीवन का हर पहलू दूसरे हर पहलू से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जुडा हुआ होता है। इसलिए समास्याओं का समस्यामूलों के आधारपर वर्गीकरण करना होगा। फिर समस्या मूलों को निर्मूल करने के लिए प्रयास करने होंगे। उपर्युक्त समस्याओं की सूचि का वर्गीकरण अलग अलग ढँग से किया जा सकता है।  
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एक एक समस्या लेकर अन्य किसी भी प्रकार से बिगाड़ न करते हुए उसका निराकरण अत्यंत कठिन या लगभग असंभव बात है। क्यों कि जीवन टुकड़ों में नहीं जिया जाता। जीवन का हर पहलू दूसरे हर पहलू से प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप में जुडा हुआ होता है। इसलिए समास्याओं का समस्यामूलों के आधारपर वर्गीकरण करना होगा। फिर समस्या मूलों को निर्मूल करने के लिए प्रयास करने होंगे। उपर्युक्त समस्याओं की सूची का वर्गीकरण अलग अलग ढँग से किया जा सकता है।  
एक ढँग के वर्गीकरण से यह ध्यान में आएगा कि ये समस्याएँ मोटा मोटी निम्न दो समस्यामूलों की उपज हैं। धर्म को आई व्यापक ग्लानी की सूचक हैं।
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- कामनाओं/इच्छाओं का धर्म के अधीन नहीं होना।
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एक ढँग के वर्गीकरण से यह ध्यान में आएगा कि ये समस्याएँ मोटा मोटी निम्न दो समस्यामूलों की उपज हैं। धर्म को आई व्यापक ग्लानि की सूचक हैं:
- इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास, इच्छाओं की पूर्ति के लिये उपयोग में लाए जानेवाले धन साधन और संसाधन धर्मयुक्त नहीं होना।
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* कामनाओं/इच्छाओं का धर्म के अधीन नहीं होना।
और एक वर्गीकरण के अनुसार यह वर्ग निम्न होंगे।
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* इच्छाओं की पूर्ति के प्रयास, इच्छाओं की पूर्ति के लिये उपयोग में लाए जानेवाले धन साधन और संसाधन धर्मयुक्त नहीं होना।
- स्वार्थ भावना का सार्वत्रिकीकरण
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और एक वर्गीकरण के अनुसार यह वर्ग निम्न होंगे:
- कौटुम्बिक भावना का ह्रास
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* स्वार्थ भावना का सार्वत्रिकीकरण
और एक वर्गीकरण के अनुसार ये वर्ग निम्न होंगे।
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* कौटुम्बिक भावना का ह्रास
- विश्व निर्माण की मान्यताएँ ठीक नहीं होना। इस कारण जीवन की ओर देखने की दृष्टि ठीक नहीं होना। आत्मीयता पर या कौटुम्बिक भावनापर आधारित जीवनदृष्टि के स्थानपर स्वार्थ आधारित जीवनदृष्टि का स्वीकार।
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और एक वर्गीकरण के अनुसार ये वर्ग निम्न होंगे:
- उपर्युक्त जीवनदृष्टि के ही अनुसार व्यवहार के सूत्र भी आत्मीयता या कौटुम्बिक भावना के स्थानपर बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाले होना।
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* विश्व निर्माण की मान्यताएँ ठीक नहीं होना। इस कारण जीवन की ओर देखने की दृष्टि ठीक नहीं होना। आत्मीयता पर या कौटुम्बिक भावना पर आधारित जीवनदृष्टि के स्थान पर स्वार्थ आधारित जीवनदृष्टि का स्वीकार।
- समाज का संगठन धर्मयुक्त नहीं होना या समाज के धर्मयुक्त संगठन में टूटन आना।
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* उपर्युक्त जीवनदृष्टि के ही अनुसार व्यवहार के सूत्र भी आत्मीयता या कौटुम्बिक भावना के स्थानपर बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाले होना।
- जीवन की व्यवस्थाएँ भी कौटुम्बिक भावनाओं का विकास और पोषण करनेवाली होने के स्थानपर बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली होना।
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* समाज का संगठन धर्मयुक्त नहीं होना या समाज के धर्मयुक्त संगठन में टूटन आना।
इन सब को ध्यान में रखकर अब हम विश्लेषण करेंगे। मानव जीवन में परस्पर संबंधों के दो ही आधार होते हैं। एक है स्वार्थ। दूसरा है आत्मीयता। स्वार्थ का अर्थ ठीक से समझना आवश्यक है। मनुष्य की आवश्यकताएँ होतीं हैं। आवश्यकताएँ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के कारण निर्माण होतीं हैं। प्राण की शक्ति मर्यादित होती है। इसलिये आवश्यकताएँ सीमित होतीं हैं। मनुष्य का मन इच्छा करता है। मन की शक्ति असीम है। इसलिये इच्छाएँ असीम होतीं हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के आगे की इच्छाएँ और उन की पूर्ति के प्रयास स्वार्थ की कक्षा में आते हैं। आत्मीयता का ही दूसरा नाम कुटुम्ब भावना है।
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* जीवन की व्यवस्थाएँ भी कौटुम्बिक भावनाओं का विकास और पोषण करने वाली होने के स्थान पर बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली होना।
जब समाज के सभी लोग स्वार्थ को वरीयता देते हैं तब बलवानों की चलती है। दुर्बलों के स्वार्थ का कोई महत्त्व नहीं होता। स्वार्थ के लिये संघर्ष करना होता है। दुर्बल इस संघर्ष में हार जाते हैं। अधिकारों के लिये संघर्ष यह स्वार्थ भावना का ही फल होता है। अधिकारों के लिये संघर्ष होने से समाज में बलवानों के छोटे वर्ग को छोडकर अन्य सभी लोग संघर्ष, अशांति, अस्थिरता, दु:ख, विषमता आदि से पीडित हो जाते हैं। सभी समाजों में व्यवस्थाएँ बनानेवाले बलवान ही होते हैं। स्वार्थपर आधारित समाज में बलवानों के स्वार्थ के पोषण के लिये व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। जब जीवन का आधार स्वार्थ होता है तो स्वार्थ का व्यवहार हो सके ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनतीं हैं। विचार, विचार के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को मिलाकर ही उसे समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। शासन सबसे बलवान होने से शासन सर्वोपरि बन जाता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ शासक की सुविधा के लिये बनतीं हैं। इस प्रतिमान में लोगों की सामाजिकता को नष्ट किया जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित बनाया जाता है। तब कोई भी अच्छे सामाजिक संगठन ऐसे समाज में पनप नहीं पाते। आज भी हम देख रहे हैं कि वर्तमान जीवन का अभारतीय प्रतिमान कुटुंब, स्वभाव समायोजन, कौशल समायोजन जैसी राष्ट्र के सामाजिक संगठन की प्रणालियों को ध्वस्त किये जा रहा है।  
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इन सब को ध्यान में रखकर अब हम विश्लेषण करेंगे।
जीवन की सारी समस्याओं का प्रारंभ स्वार्थ भावना के कारण होता है। आत्मीयता बढने से स्वार्थ में कमी आती है। जीवन में सुख चैन बढते हैं। स्वार्थ भावना से मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। परोपकार की नि:स्वार्थ भावना और व्यवहार से मोक्षगामी हुआ जाता है। इसलिये स्वार्थपर आधारित जीवन को मर्यादा डालकर आत्मीयता को बढावा देनेवाले जीवन के प्रतिमान का विकास और स्वीकार करना होगा। मनुष्य जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकारों की समझ होती है। उस की केवल अधिकारों की समझ दूर कर उस के स्थानपर कर्तव्यों की समझ निर्माण करने से समाज सुखी बन जाता है। यह काम सामाजिक व्यवस्थाओं का है। कौटुम्बिक भावना का संबंध कर्तव्यों से होता है। समाज जीवन की सारी व्यवस्थाएँ कौटुम्बिक भावनापर आधारित होने से, कौटुम्बिक भावना के लिये पूरक होने से समाज में सुख, शांति, एकात्मता व्याप्त हो जाती है। जीवन के भारतीय प्रतिमान का आधार ‘आत्मीयता याने कुटुम्ब भावना” है।  
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उपर्युक्त सभी बिन्दुओं के अध्ययन से यह ध्यान में आएगा कि सभी समस्याओं की जड़ स्वार्थ आधारित जीवनदृष्टि है। सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ भी जीवन दृष्टी से सुसंगत ही होती हैं। संक्षेप में कहें तो सारी समस्याओं का मूल वर्तमान में हम जिस जीवन के प्रतिमान में जी रहे हैं वह जीवन का अभारतीय प्रतिमान है। इस प्रतिमान को केवल नकारने से समस्याएं नहीं सुलझनेवाली। साथ ही में जीवन के निर्दोष भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना भी करनी होगी।
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== विश्लेषण ==
इस प्रतिमान के परिवर्तन की योजना और क्रियान्वयन का विचार हम अगले अध्यायों में करेंगे।
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मानव जीवन में परस्पर संबंधों के दो ही आधार होते हैं। एक है स्वार्थ। दूसरा है आत्मीयता। स्वार्थ का अर्थ ठीक से समझना आवश्यक है। मनुष्य की आवश्यकताएँ होतीं हैं। आवश्यकताएँ आहार, निद्रा, भय और मैथुन इन प्राणिक आवेगों के कारण निर्माण होतीं हैं। प्राण की शक्ति मर्यादित होती है। इसलिये आवश्यकताएँ सीमित होतीं हैं। मनुष्य का मन इच्छा करता है। मन की शक्ति असीम है। इसलिये इच्छाएँ असीम होतीं हैं। आवश्यकताओं की पूर्ति के आगे की इच्छाएँ और उन की पूर्ति के प्रयास स्वार्थ की कक्षा में आते हैं। आत्मीयता का ही दूसरा नाम कुटुम्ब भावना है।
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जब समाज के सभी लोग स्वार्थ को वरीयता देते हैं तब बलवानों की चलती है। दुर्बलों के स्वार्थ का कोई महत्त्व नहीं होता। स्वार्थ के लिये संघर्ष करना होता है। दुर्बल इस संघर्ष में हार जाते हैं। अधिकारों के लिये संघर्ष यह स्वार्थ भावना का ही फल होता है। अधिकारों के लिये संघर्ष होने से समाज में बलवानों के छोटे वर्ग को छोड़कर अन्य सभी लोग संघर्ष, अशांति, अस्थिरता, दु:ख, विषमता आदि से पीडित हो जाते हैं। सभी समाजों में व्यवस्थाएँ बनाने वाले बलवान ही होते हैं। स्वार्थ पर आधारित समाज में बलवानों के स्वार्थ के पोषण के लिये व्यवस्थाएँ बनतीं हैं। जब जीवन का आधार स्वार्थ होता है तो स्वार्थ का व्यवहार हो सके ऐसी व्यवस्थाएँ भी बनतीं हैं। विचार, विचार के अनुसार व्यवहार करने के लिये उपयुक्त व्यवस्था समूह को मिलाकर ही उसे समाज के जीवन का प्रतिमान कहते हैं। शासन सबसे बलवान होने से शासन सर्वोपरि बन जाता है। अन्य सभी सामाजिक व्यवस्थाएँ शासक की सुविधा के लिये बनतीं हैं। इस प्रतिमान में लोगों की सामाजिकता को नष्ट किया जाता है। व्यक्ति को व्यक्तिवादी याने स्वार्थ प्रेरित बनाया जाता है। तब कोई भी अच्छे सामाजिक संगठन ऐसे समाज में पनप नहीं पाते। आज भी हम देख रहे हैं कि वर्तमान जीवन का अभारतीय प्रतिमान कुटुंब, स्वभाव समायोजन, कौशल समायोजन जैसी राष्ट्र के सामाजिक संगठन की प्रणालियों को ध्वस्त किये जा रहा है।
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जीवन की सारी समस्याओं का प्रारंभ स्वार्थ भावना के कारण होता है। आत्मीयता बढने से स्वार्थ में कमी आती है। जीवन में सुख चैन बढते हैं। स्वार्थ भावना से मोक्ष की प्राप्ति दुर्लभ हो जाती है। परोपकार की नि:स्वार्थ भावना और व्यवहार से मोक्षगामी हुआ जाता है। इसलिये स्वार्थ पर आधारित जीवन को मर्यादा डालकर आत्मीयता को बढावा देने वाले जीवन के प्रतिमान का विकास और स्वीकार करना होगा। मनुष्य जन्म लेता है तब उसे केवल अधिकारों की समझ होती है। उस की केवल अधिकारों की समझ दूर कर उस के स्थान पर कर्तव्यों की समझ निर्माण करने से समाज सुखी बन जाता है। यह काम सामाजिक व्यवस्थाओं का है। कौटुम्बिक भावना का संबंध कर्तव्यों से होता है। समाज जीवन की सारी व्यवस्थाएँ कौटुम्बिक भावनापर आधारित होने से, कौटुम्बिक भावना के लिये पूरक होने से समाज में सुख, शांति, एकात्मता व्याप्त हो जाती है। जीवन के भारतीय प्रतिमान का आधार ‘आत्मीयता याने कुटुम्ब भावना” है।
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उपर्युक्त सभी बिन्दुओं के अध्ययन से यह ध्यान में आएगा कि सभी समस्याओं की जड़ स्वार्थ आधारित जीवनदृष्टि है। सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ भी जीवन दृष्टि से सुसंगत ही होती हैं। संक्षेप में कहें तो सारी समस्याओं का मूल वर्तमान में हम जिस जीवन के प्रतिमान में जी रहे हैं वह जीवन का अभारतीय प्रतिमान है। इस प्रतिमान को केवल नकारने से समस्याएं नहीं सुलझनेवाली। साथ ही में जीवन के निर्दोष भारतीय प्रतिमान की प्रतिष्ठापना भी करनी होगी।
    
==References==
 
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