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== संकल्प ==
== संकल्प ==
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ॐ तत्सत् अद्य ब्रह्मणों दिव्तीय परार्धे विवस्वते मन्वन्तरे अष्टाविन्शतितमे कलियुगे कलि प्रथम चरणे एकवृन्द: सप्तनवतिकोटी: नवविन्शतिलक्ष: नवचत्वारिंशत् सहस्र: एकदशाधिक शततमे सृष्टि संवत्सरे .... अयने ... ऋतौ ... मासे ... पक्षे ... तिथौ ... वासरे ... काले ... शुभमुहूर्ते... जम्बूद्वीपे ... भरतखंडे ... आर्यावर्तान्तर्गते ... क्षेत्रे ... प्रान्ते ... जनपदे ... ग्रामे/नगरे ... प्रविभागे ................ अस्माभि: अत्र .......यज्ञ: क्रियते।
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संकल्प में हम अपने को अद्य ब्रह्मणों के माध्यम से एक तरफ त्रिकालाबाधित ब्रह्म के साथ जोड़ते हैं तो दूसरी ओर शुभ मुहूर्त के माध्यम से वर्तमान मुहूर्त के साथ याने क्षण के साथ जोड़ते हैं। आगे जम्बूदीप याने एशिया खंड को तथा दूसरी ओर अपने यज्ञ के स्थान के प्रविभाग को जोड़ते हैं। इसे ही कहते हैं “थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली” याने स्थानिक स्तर पर कुछ भी करना है तो वैश्विक हित का सन्दर्भ नहीं छोडना। उस सन्दर्भ का नित्य स्मरण करते रहना।
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संकल्प में हम अपने को अद्य ब्रह्मणों के माध्यम से एक तरफ त्रिकालाबाधित ब्रह्म के साथ जोड़ते हैं तो दूसरी ओर शुभ मुहूर्त के माध्यम से वर्तमान मुहूर्त के साथ याने क्षण के साथ जोड़ते हैं। आगे जम्बूदीप याने एशिया खंड को तथा दूसरी ओर अपने यज्ञ के स्थान के प्रविभाग को जोड़ते हैं। इसे ही कहते हैं “थिंक ग्लोबली एक्ट लोकली” याने स्थानिक स्तरपर कुछ भी करना है तो वैश्विक हित का सन्दर्भ नहीं छोडना। उस सन्दर्भ का नित्य स्मरण करते रहना।
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सीखने की दो प्रणालियाँ होतीं हैं। भारतीय प्रणाली में सामान्यत: पूर्ण याने अपनी प्रणाली से बड़ी प्रणाली के ज्ञान की प्राप्ति के बाद उसके हिस्से के ज्ञान प्राप्ति की रही है। जिस तरह अंगी को ठीक से समझने से अंग को समझना सरल और सहज होता है। अंग/उपांगों के परस्पर संबंधों को समझना सरल हो जाता है। इस प्रणाली में लाभ यह होता है कि बडी प्रणाली की समझ पहले प्राप्त करने से उसके साथ समायोजन करना सरल हो जाता है। इसी तरह से बड़ी प्रणाली के अपने जैसे ही अन्य हिस्सों के साथ समायोजन भी सरल और सहज हो जाता है।
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सीखने की दो प्रणालियाँ होतीं हैं। भारतीय प्रणाली में सामान्यत: पूर्ण याने अपनी प्रणाली से बड़ी प्रणाली के ज्ञान की प्राप्ति के बाद उसके हिस्से के ज्ञान प्राप्ति की रही है। जिस तरह अंगी को ठीक से समझने से अंग को समझना सरल और सहज होता है। अंग/उपांगों के परस्पर संबंधों को समझना सरल हो जाता है। इस प्रणाली में लाभ यह होता है कि बडी प्रणाली की समझ पहले प्राप्त करने से उसके साथ समायोजन करना सरल हो जाता है। इसी तरह से बड़ी प्रणाली के अपने जैसे ही अन्य हिस्सों के साथ समायोजन भी सरल और सहज हो जाता है।
== भारत के भूगोल का इतिहास और सीखने का सबक ==
== भारत के भूगोल का इतिहास और सीखने का सबक ==
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भारतवर्ष के लिए विशेषत: भूगोल का इतिहास भी एक आत्यन्त महत्व का विषय बनता है। भारत की सीमाओं के संकुचन के इतिहास का विश्लेषण करने से निम्न तथ्य सामने आते हैं।
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भारतवर्ष के लिए विशेषत: भूगोल का इतिहास भी एक आत्यन्त महत्व का विषय बनता है। भारत की सीमाओं के संकुचन के इतिहास का विश्लेषण करने से निम्न तथ्य सामने आते हैं:
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१. भारत का भूक्षेत्र धीरे धीरे अभारतीयों ने पादाक्रांत किया। हिंदु अपनी ही भूमीपर अल्पसंख्य और अत्यल्पसंख्य होते गये, नष्ट होते गए।
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# भारत का भूक्षेत्र धीरे धीरे अभारतीयों ने पादाक्रांत किया। हिन्दू अपनी ही भूमि पर अल्पसंख्य और अत्यल्पसंख्य होते गये, नष्ट होते गए।
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२. धर्मसत्ता प्रमुखता से और दूसरे क्रमांकपर राजसत्ता ऐसी दोनों शक्तियाँ इस परिस्थिति से बेखबर अपने ही में मस्त रहीं। विस्तार करने की विजीगिषु वृत्ति भूलकर केवल संरक्षण में ही धन्यता मानने लगी।
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# धर्मसत्ता प्रमुखता से और दूसरे क्रमांक पर राजसत्ता ऐसी दोनों शक्तियाँ इस परिस्थिति से बेखबर अपने ही में मस्त रहीं। विस्तार करने की विजीगिषु वृत्ति भूलकर केवल संरक्षण में ही धन्यता मानने लगी।
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३. जिस भी भूक्षेत्र में हिंदू अल्पसंख्य और अत्यल्पसंख्य हुवे वह भूभाग भारत का हिस्सा नहीं रहा। भारत राष्ट्र का भूक्षेत्र सिकुडता गया।
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# जिस भी भूक्षेत्र में हिंदू अल्पसंख्य और अत्यल्पसंख्य हुए, वह भूभाग भारत का हिस्सा नहीं रहा। भारत राष्ट्र का भूक्षेत्र सिकुडता गया। भारत की भूगोल की सीमाओं के संकुचन के उपर्युक्त इतिहास से हमें निम्न पाठ सीखने होंगे:
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भारत की भूगोल की सीमाओं के संकुचन के उपर्युक्त इतिहास से हमें निम्न पाठ सीखने होंगे।
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## राष्ट्र के छोटे से छोटे भूक्षेत्र में भी हिंदू अल्पसंख्य न हों। हिंदू असंगठित नहीं रहें। हिंदू जाग्रत रहें। हिंदू दुर्बल नहीं रहें। इस हेतु जागरूक रहकर आवश्यकतानुसार नीति का उपयोग कर मजहबीकरण अर्थात् राष्ट्रांतरण रोकने का काम शासन चुस्ती से करता रहे।
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१. राष्ट्र के छोटे से छोटे भूक्षेत्र में भी हिंदू अल्पसंख्य न हों। हिंदू असंगठित नहीं रहें। हिंदू जाग्रत रहें। हिंदू दुर्बल नहीं रहें। इस हेतु जागरूक रहकर आवश्यकतानुसार नीति का उपयोग कर मजहबीकरण अर्थात् राष्ट्रांतरण रोकने का काम शासन चुस्ती से करता रहे।
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## राष्ट्र की धर्मसत्ता और राष्ट्र का शासन इन में तालमेल हो।
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२. राष्ट्र की धर्मसत्ता और राष्ट्र का शासन इन में तालमेल हो।
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## इस में प्रमुख भूमिका धर्मसत्ता की है। जिसके यह प्राथमिक कर्तव्य हैं कि:
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३. इस में प्रमुख भूमिका धर्मसत्ता की है। जिसके यह प्राथमिक कर्तव्य हैं कि -
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##* धर्माचरणी और धर्म का रक्षण करनेवाले शासन का राज्य हमेशा राष्ट्र की पूरी भूमिपर याने भूगोलापर हो। इस हेतु अपनी तपस्या, राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना, अपनी नैतिक शक्ति के आधारपर शासन को प्रभावित करे
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३.१ धर्माचरणी और धर्म का रक्षण करनेवाले शासन का राज्य हमेशा राष्ट्र की पूरी भूमीपर याने भूगोलापर हो। इस हेतु अपनी तपस्या, राष्ट्र के प्रति समर्पण की भावना, अपनी नैतिक शक्ति के आधारपर शासन को प्रभावित करे।
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##* धर्म, संस्कृति का विस्तार बढती जनसंख्या और बढ़ते भूगोल के क्षेत्र में होता रहे। इस के लिये योग्य शासक निर्माण करे। उसका समर्थन करे। उसकी सहायता करे। इस हेतु आवश्यक प्रचार, प्रसार, शिक्षा, साहित्य का निर्माण करे।
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३.२ धर्म, संस्कृति का विस्तार बढती जनसंख्या और बढ़ते भूगोल के क्षेत्र में होता रहे। इस के लिये योग्य शासक निर्माण करे। उसका समर्थन करे। उसकी सहायता करे। इस हेतु आवश्यक प्रचार, प्रसार, शिक्षा, साहित्य का निर्माण करे।
== भारतीय खगोल/भूगोल/गणित दृष्टि ==
== भारतीय खगोल/भूगोल/गणित दृष्टि ==
प्रकृति में सीधी रेखा में कुछ नहीं होता। प्रकृति सुसंगतता के लिए सीधी रेखा की रचनाएँ टालना। सीधी रेखा में तीर या बन्दूक की गोली जाती है। इससे हिंसा होती है। प्रकृति में अहिंसा है, एक दूसरे के साथ समायोजन है। इसलिए मानव निर्मित सभी बातें जैसे घर, मंदिर, ग्राम की रचनाएँ, सड़कें आदि यथासंभव सीधी रेखा में नहीं होते थे। सीधी सडकों से चेतना के स्तर में कमी आती है।
प्रकृति में सीधी रेखा में कुछ नहीं होता। प्रकृति सुसंगतता के लिए सीधी रेखा की रचनाएँ टालना। सीधी रेखा में तीर या बन्दूक की गोली जाती है। इससे हिंसा होती है। प्रकृति में अहिंसा है, एक दूसरे के साथ समायोजन है। इसलिए मानव निर्मित सभी बातें जैसे घर, मंदिर, ग्राम की रचनाएँ, सड़कें आदि यथासंभव सीधी रेखा में नहीं होते थे। सीधी सडकों से चेतना के स्तर में कमी आती है।
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विविधता या भिन्नता होना यह प्रकृति का स्वभाव है। भेद तो होंगे ही। भेद होना या भिन्नता होना तो प्राकृतिक है। लेकिन इन सब भिन्नताओं में व्यक्त होनेवाला परमात्म-तत्व सब में एक ही है इसे जानना संस्कृति है। सृष्टि के सभी अस्तित्वों का परस्पर आत्मीयता का सम्बन्ध है इसे मनपर बिम्बित करना आवश्यक है। कुटुम्ब भावना यह आत्मीयता का ही सरल शब्दों में वर्णन है।
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हर अस्तित्व का कुछ प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उस अस्तित्व के साथ व्यवहार निश्चित करना उचित है। उदाहरण : जीवक का अध्ययन “नास्ति मूलमनौषधम्” ।
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विविधता या भिन्नता होना यह प्रकृति का स्वभाव है। भेद तो होंगे ही। भेद होना या भिन्नता होना तो प्राकृतिक है। लेकिन इन सब भिन्नताओं में व्यक्त होनेवाला परमात्म-तत्व सब में एक ही है इसे जानना संस्कृति है। सृष्टि के सभी अस्तित्वों का परस्पर आत्मीयता का सम्बन्ध है इसे मनपर बिम्बित करना आवश्यक है। कुटुम्ब भावना यह आत्मीयता का ही सरल शब्दों में वर्णन है। हर अस्तित्व का कुछ प्रयोजन है। इस प्रयोजन के अनुसार उस अस्तित्व के साथ व्यवहार निश्चित करना उचित है। उदाहरण : जीवक का अध्ययन “नास्ति मूलमनौषधम्”।
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मानव को जन्म से ही कुछ विशेष शक्तियां मिलीं हैं। इन शक्तियों को प्राप्त करने की, इनके विकास के लिए बुद्धि भी मिली है। इस कारण मानव यह पृथ्वी का सबसे बलवान प्राणी है। इस का मानव को अहंकार हो जाता है। खगोल के अध्ययन से यह अहंकार दूर हो जाता है। उसे ध्यान में आता है कि ब्रह्माण्ड इतना विशाल है कि उसकी विशालता की वह कल्पना भी नहीं कर सकता। ढेरसारी वैज्ञानिक उपलब्धियों के उपरांत भी मानव सृष्टि के छोर का अनुमान नहीं लगा पा रहा। इससे उसका अहंकार दूर हो जाता है।
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मानव को जन्म से ही कुछ विशेष शक्तियां मिलीं हैं। इन शक्तियों को प्राप्त करने की, इनके विकास के लिए बुद्धि भी मिली है। इस कारण मानव पृथ्वी का सबसे बलवान प्राणी है। इस का मानव को अहंकार हो जाता है। खगोल के अध्ययन से यह अहंकार दूर हो जाता है। उसे ध्यान में आता है कि ब्रह्माण्ड इतना विशाल है कि उसकी विशालता की वह कल्पना भी नहीं कर सकता। ढेर सारी वैज्ञानिक उपलब्धियों के उपरांत भी मानव सृष्टि के छोर का अनुमान नहीं लगा पा रहा। इससे उसका अहंकार दूर हो जाता है।
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सृष्टि के सन्तुलन की प्राकृतिक व्यवस्था है। इस सन्तुलन को बिगाड़ने की क्षमता केवल मानव जाति के पास है। लेकिन मानव जब इस सन्तुलन को बिगाड़ता है प्रकृति मानव को हानि पहुंचाकर इस सन्तुलन को ठीक रखने का सन्देश देती है। अपने अहंकार के कारण या कर्मसिद्धांत के विषय में अज्ञान के कारण मानव जब फिर भी नहीं समझता तब यह हानि बढ़ती जाती है।
सृष्टि के सन्तुलन की प्राकृतिक व्यवस्था है। इस सन्तुलन को बिगाड़ने की क्षमता केवल मानव जाति के पास है। लेकिन मानव जब इस सन्तुलन को बिगाड़ता है प्रकृति मानव को हानि पहुंचाकर इस सन्तुलन को ठीक रखने का सन्देश देती है। अपने अहंकार के कारण या कर्मसिद्धांत के विषय में अज्ञान के कारण मानव जब फिर भी नहीं समझता तब यह हानि बढ़ती जाती है।
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हमारी काल गणना की मान्यता किसी मर्त्य मानव से जुडी नहीं है। वह ब्रह्माण्ड के निर्माण से जुडी है। यह काल के प्रारम्भ से जुडी है। ब्रह्माण्ड के निर्माण के क्षण से ही काल का प्रारम्भ होता है। ब्रह्माण्ड के लय के साथ काल का भी लय हो जाता है।
हमारी काल गणना की मान्यता किसी मर्त्य मानव से जुडी नहीं है। वह ब्रह्माण्ड के निर्माण से जुडी है। यह काल के प्रारम्भ से जुडी है। ब्रह्माण्ड के निर्माण के क्षण से ही काल का प्रारम्भ होता है। ब्रह्माण्ड के लय के साथ काल का भी लय हो जाता है।
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सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिए भी भूगोल का ज्ञान अनिवार्य है। जबतक पृथ्वीपर रहनेवाले सभी समाज सुखी नहीं होंगे, आर्यत्व में दीक्षित नहीं होंगे, हम भी सुख से नहीं जी सकेंगे। इसीलिये हमने “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” की आकांक्षा सहेजी थी। इसका मार्ग भी हमारा अपना था। वह था “स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन् “ था। अपना व्यवहार इतना श्रेष्ठतम रखना जिससे अन्य समाजों को लगे कि हिंदु समाज जैसा व्यवहार हमने भी करना चाहिए। इस के लिए हमारा पृथिवी का ज्ञान आवश्यक है।
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प्रकृति में भिन्नता है। प्रकृति को न्यूनतम परेशान करते हुए जीना ही प्रकृति सुसंगत जीना होता है। ऐसा जीने के लिए स्थानिक संसाधनों का उपयोग ही इष्ट होता है। धूप, जल, वायु और जमीन इन का सही ज्ञान होने से ही स्थानिक के सन्दर्भ में प्राकृतिक को समझना सरल हो जाता है। स्थानिक प्राकृतिक उपज के आधार से जीना मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा होता है। जैसे कोंकण में तो चांवल ही मुख्य अन्न होगा, तो मध्य भारत में गेहूं मुख्य अन्न होगा। विविध कौशलों का विकास भी स्थानिक संसाधनों के साथ जुड़ता है। जैसे राजस्थान में पत्थर के मकान बनाना। कोंकण में ‘जाम्बा” नाम के लाल पत्थर से मकान बनाना। आसाम जैसे क्षेत्र में जहाँ बंबू बड़े पैमाने पर पैदा होता है वहाँ बंबू के आचार, बंबू की सब्जी से लेकर बंबू के घरतक बंबू की विविध वस्तुओं के निर्माण का कौशल विकसित होता है।
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सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिए भी भूगोल का ज्ञान अनिवार्य है। जब तक पृथ्वी पर रहने वाले सभी समाज सुखी नहीं होंगे, आर्यत्व में दीक्षित नहीं होंगे, हम भी सुख से नहीं जी सकेंगे। इसीलिये हमने “कृण्वन्तो विश्वमार्यम्” की आकांक्षा सहेजी थी। इसका मार्ग भी हमारा अपना था। वह था "स्वं स्वं चरित्रम् शिक्षेरन्" था। अपना व्यवहार इतना श्रेष्ठतम रखना जिससे अन्य समाजों को लगे कि हिन्दू समाज जैसा व्यवहार हमने भी करना चाहिए। इस के लिए हमारा पृथ्वी का ज्ञान आवश्यक है।
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भौगोलिक ज्ञान का उपयोग अभ्युदय के लिए करना। “स्वोट विश्लेषण” का उपयोग करना। इसमें ताकत(स्ट्रेंग्थ), दुर्बलता(वीकनेस), अवसर(अपोर्चुनिटी) और चुनौतियां(चैलेंजेस) के आधारपर भौगोलिक ज्ञान का उपयोग करते हुए हम अभ्युदय को प्राप्त कर सकते हैं। स्थाई सुखमय जीवन का निर्माण कर सकते हैं।
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तत्व की बातें, धर्म का तत्व, कुछ वैज्ञानिक बातें आदि समझने में कुछ कठिन होतीं हैं। इसलिए उसे किसी रीति या रिवाज के रूप में समाज में स्थापित किया जाता था। जैसे तुलसी पूजन, आम के पत्तों का तोरण बनाना, नहाते समय गंगे च यमुनेचैव जैसे श्लोक कहना आदि।
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प्रकृति में भिन्नता है। प्रकृति को न्यूनतम परेशान करते हुए जीना ही प्रकृति सुसंगत जीना होता है। ऐसा जीने के लिए स्थानिक संसाधनों का उपयोग ही इष्ट होता है। धूप, जल, वायु और जमीन इन का सही ज्ञान होने से ही स्थानिक के सन्दर्भ में प्राकृतिक को समझना सरल हो जाता है। स्थानिक प्राकृतिक उपज के आधार से जीना मनुष्य के स्वास्थ्य के लिए भी अच्छा होता है। जैसे कोंकण में तो चावल ही मुख्य अन्न होगा, तो मध्य भारत में गेहूं मुख्य अन्न होगा। विविध कौशलों का विकास भी स्थानिक संसाधनों के साथ जुड़ता है। जैसे राजस्थान में पत्थर के मकान बनाना। कोंकण में ‘जाम्बा” नाम के लाल पत्थर से मकान बनाना। आसाम जैसे क्षेत्र में जहाँ बंबू बड़े पैमाने पर पैदा होता है वहाँ बंबू के आचार, बंबू की सब्जी से लेकर बंबू के घर तक बंबू की विविध वस्तुओं के निर्माण का कौशल विकसित होता है।
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भारतीय शिक्षा प्रणाली में विषयों की शिक्षा नहीं होती। जीवन की शिक्षा होती है। आवश्यकतानुसार विषय का ज्ञान भी साथ ही में दिया जाता था। इसलिए सामान्यत: खगोल/भूगोल ऐसा अलग से विषय पढ़ाया नहीं जाता था। वेदांगों के अध्ययन में गृह ज्योतिष सीखते समय, आयुर्वेद में वनस्पतियों की जानकारी के लिए भूगोल का आवश्यक उतना अध्ययन कर लिया जाता था। रामायण, महाभारत या पुराणों के अध्ययन के माध्यम से आनन फानन में बच्चे खगोल-भूगोल की कई पेचीदगियों को समझ सकते हैं। जैसे एक स्थान से सुदूर दूसरे स्थानपर जाने के लिए तेज गति (प्रकाश की) के साथ जाने से आयु नहीं बढ़ना आदि। इससे खगोल-भूगोल की शिक्षा भी रोचक रंजक हो जाती है।
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भौगोलिक ज्ञान का उपयोग अभ्युदय के लिए करना। “स्वोट विश्लेषण” का उपयोग करना। इसमें ताकत(स्ट्रेंग्थ), दुर्बलता(वीकनेस), अवसर(अपोर्चुनिटी) और चुनौतियां(चैलेंजेस) के आधार पर भौगोलिक ज्ञान का उपयोग करते हुए हम अभ्युदय को प्राप्त कर सकते हैं। स्थाई सुखमय जीवन का निर्माण कर सकते हैं।
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तत्व की बातें, धर्म का तत्व, कुछ वैज्ञानिक बातें आदि समझने में कुछ कठिन होतीं हैं। इसलिए उसे किसी रीति या रिवाज के रूप में समाज में स्थापित किया जाता था। जैसे तुलसी पूजन, आम के पत्तों का तोरण बनाना, नहाते समय गंगे च यमुनेचैव जैसे श्लोक कहना आदि।
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भारतीय शिक्षा प्रणाली में विषयों की शिक्षा नहीं होती। जीवन की शिक्षा होती है। आवश्यकतानुसार विषय का ज्ञान भी साथ ही में दिया जाता था। इसलिए सामान्यत: खगोल / भूगोल ऐसा अलग से विषय पढ़ाया नहीं जाता था। वेदांगों के अध्ययन में गृह ज्योतिष सीखते समय, आयुर्वेद में वनस्पतियों की जानकारी के लिए भूगोल का आवश्यक उतना अध्ययन कर लिया जाता था। रामायण, महाभारत या पुराणों के अध्ययन के माध्यम से आनन फानन में बच्चे खगोल-भूगोल की कई पेचीदगियों को समझ सकते हैं। जैसे एक स्थान से सुदूर दूसरे स्थानपर जाने के लिए तेज गति (प्रकाश की) के साथ जाने से आयु नहीं बढ़ना आदि। इससे खगोल-भूगोल की शिक्षा भी रोचक रंजक हो जाती है।
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