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| == रोग मूल का नाश == | | == रोग मूल का नाश == |
− | भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि में एलोपेथी जैसी रोग के लक्षणों को दूर करने के लिए चिकित्सा नहीं की जातीं। रोग मूल को दूर करने के लिए चिकित्सा होती है। जैसे किसी रोगी का सर दर्द कर रहा है। तो एलोपेथी का डोक्टर उसे पैरासीटेमोल देकर सर का दर्द दूर कर देगा। ऐसा करने से रोगी को तात्कालिक राहत तो मिलेगी। लेकिन मूल कारण जो पित्त प्रकोप हुआ है उस पित्तका निराकरण न होनेसे सरदर्द फिर कुछ समय के बाद होगा। भारतीय वैद्य रोगी को दस प्रश्न पूछेगा। रोगी के उत्तरों से यह जानेगा कि सरदर्द का मूल कहाँ है। फिर उस रोगमूल का निराकरण करने के लिए औषधि देगा। ऐसी चिकित्सा कुछ धीमी होती है। जब रोग पुराना होगा तो और भी धीमी होती है। | + | भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि में एलोपेथी जैसी रोग के लक्षणों को दूर करने के लिए चिकित्सा नहीं की जातीं। रोग मूल को दूर करने के लिए चिकित्सा होती है। जैसे किसी रोगी का सर दर्द कर रहा है। तो एलोपेथी का डोक्टर उसे पैरासीटेमोल देकर सर का दर्द दूर कर देगा। ऐसा करने से रोगी को तात्कालिक राहत तो मिलेगी। लेकिन मूल कारण जो पित्त प्रकोप हुआ है उस पित्तका निराकरण न होनेसे सरदर्द फिर कुछ समय के बाद होगा। भारतीय वैद्य रोगी को दस प्रश्न पूछेगा। रोगी के उत्तरों से यह जानेगा कि सरदर्द का मूल कहाँ है। फिर उस रोगमूल का निराकरण करने के लिए औषधि देगा। ऐसी चिकित्सा कुछ धीमी होती है। जब रोग पुराना होगा तो और भी धीमी होती है। |
− | लेकिन जीवन के वर्तमान अभारतीय प्रतिमान के कारण हुई जीवन की तेज गति के कारण अधिक समयतक धैर्य के साथ रोग का सामना करने के लिए लोगों के पास न तो समय है न धैर्य। जीवन की इस तेज गति के कारण मानव सुखी हो जाता है ऐसी बात नहीं है। वास्तव में यह तेज गति मनुष्य के शारिरीक, मानसिक और बौद्धिक रोगों में वृद्धि करती है। शीघ्र गति से रोग के लक्षण दूर करने की एलोपेथी में सुविधा होने के कारण भी वह एलोपेथी का चयन करता है। वैसे तो कोई भी अधिक काल तक बीमार रहना नहीं चाहता। लोगों के इसी अधैर्य का लाभ एलोपेथी के डॉक्टर उठाते हैं। | + | |
| + | लेकिन जीवन के वर्तमान अभारतीय प्रतिमान के कारण हुई जीवन की तेज गति के कारण अधिक समय तक धैर्य के साथ रोग का सामना करने के लिए लोगों के पास न तो समय है न धैर्य। जीवन की इस तेज गति के कारण मानव सुखी हो जाता है ऐसी बात नहीं है। वास्तव में यह तेज गति मनुष्य के शारिरीक, मानसिक और बौद्धिक रोगों में वृद्धि करती है। शीघ्र गति से रोग के लक्षण दूर करने की एलोपेथी में सुविधा होने के कारण भी वह एलोपेथी का चयन करता है। वैसे तो कोई भी अधिक काल तक बीमार रहना नहीं चाहता। लोगों के इसी अधैर्य का लाभ एलोपेथी के डॉक्टर उठाते हैं। |
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| == अहिंसक रोग निवारण == | | == अहिंसक रोग निवारण == |
− | जब शरीर बलवान होता है तब दुर्जन ऐसे मनुष्य को तकलीफ नहीं देते। दे सकते ही नहीं। यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसी तरह जिस शरीर की अवरोध शक्ति अधिक है उसे रोग नहीं होते। एलोपेथी जैसी प्रतिजैविक औषधियों की यह चिकित्सा प्रणाली नहीं है। प्रतिजैविकों का काम ही जैविक पेशियों को मारने का होता है। नष्ट करने का होता है। लेकिन ऐसा करते समय इन प्रतिजैविक औषधियों को कौनसी जैविक पेशियाँ शरीर के लिए हितकारक हैं और कौनसी पेशियाँ रोगजन्य हैं इसमें भेदभाव करना नहीं आता। इसलिए वह दायें बाएं जो भी जैविक पेशियाँ उनके संपर्क में आतीं हैं उन्हें नष्ट करती हैं। इससे एक ओर रोग के जंतु मरते हैं तो दूसरी ओर रोगी के रोग का अवरोध करनेवाली पेशियाँ भी मारी जातीं हैं। इससे रोगी की अवरोध शक्ति कम हो जाती है। उसमें दुर्बलता आ जाती है। उसे विश्राम की आवश्यकता निर्माण हो जाती है। ऐसी स्थिति याने दुर्बल अवरोध शक्ति की स्थिति में रोगी का शरीर अन्य रोगों के लिए एक सरल लक्ष्य बन जाता है। | + | जब शरीर बलवान होता है तब दुर्जन ऐसे मनुष्य को तकलीफ नहीं देते। दे सकते ही नहीं। यह सामान्य ज्ञान की बात है। इसी तरह जिस शरीर की अवरोध शक्ति अधिक है उसे रोग नहीं होते। एलोपेथी जैसी प्रतिजैविक औषधियों की यह चिकित्सा प्रणाली नहीं है। प्रतिजैविकों का काम ही जैविक पेशियों को मारने का होता है। नष्ट करने का होता है। लेकिन ऐसा करते समय इन प्रतिजैविक औषधियों को कौनसी जैविक पेशियाँ शरीर के लिए हितकारक हैं और कौनसी पेशियाँ रोगजन्य हैं इसमें भेदभाव करना नहीं आता। इसलिए वह दायें बाएं जो भी जैविक पेशियाँ उनके संपर्क में आतीं हैं उन्हें नष्ट करती हैं। इससे एक ओर रोग के जंतु मरते हैं तो दूसरी ओर रोगी के रोग का अवरोध करनेवाली पेशियाँ भी मारी जातीं हैं। इससे रोगी की अवरोध शक्ति कम हो जाती है। उसमें दुर्बलता आ जाती है। उसे विश्राम की आवश्यकता निर्माण हो जाती है। ऐसी स्थिति याने दुर्बल अवरोध शक्ति की स्थिति में रोगी का शरीर अन्य रोगों के लिए एक सरल लक्ष्य बन जाता है। |
− | भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि के अनुसार शरीर की अवरोध शक्ति बढाने से रोगी का शरीर स्वयं ही रोग के जंतुओं का सामना करने में सक्षम बन जाता है। इससे रोग निवारण तो होता ही है साथ ही में रोगी की रोग अवरोध शक्ति बढ़ती है। भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि इसी सिद्धांत के ऊपर आधारित है। एक दृष्टि से देखें तो भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि यह एक अहिंसक रोग चिकित्सा दृष्टि है ऐसा कहना योग्य ही होगा। | + | |
− | भारतीय संजीवनी चिकित्सा पद्धति में औषधि की व्याख्या भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि की परिचायक है। | + | भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि के अनुसार शरीर की अवरोध शक्ति बढाने से रोगी का शरीर स्वयं ही रोग के जंतुओं का सामना करने में सक्षम बन जाता है। इससे रोग निवारण तो होता ही है साथ ही में रोगी की रोग अवरोध शक्ति बढ़ती है। भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि इसी सिद्धांत के ऊपर आधारित है। एक दृष्टि से देखें तो भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि यह एक अहिंसक रोग चिकित्सा दृष्टि है ऐसा कहना योग्य ही होगा। |
− | इस प्रणाली के अनुसार औषधि उसे कहते हैं जो निरोग व्यक्ति के ग्रहण करने से उस व्यक्ति को हानि नहीं होती। और रोगी उसे जब ग्रहण करता है तो वह रोग का निराकरण करती है। | + | |
| + | भारतीय संजीवनी चिकित्सा पद्धति में औषधि की व्याख्या भारतीय स्वास्थ्य दृष्टि की परिचायक है। इस प्रणाली के अनुसार औषधि उसे कहते हैं जो निरोग व्यक्ति के ग्रहण करने से उस व्यक्ति को हानि नहीं होती। और रोगी उसे जब ग्रहण करता है तो वह रोग का निराकरण करती है। |
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| == यद्देशस्य यो जंतु: तद्देशस्य तदौषधी: == | | == यद्देशस्य यो जंतु: तद्देशस्य तदौषधी: == |
− | इसका अर्थ है जिस भौगोलिक क्षेत्र का रोग होगा उसी भौगोलिक क्षेत्र में उस रोग के निवारण की औषधि होती है। वर्तमान के जीवन के अभारतीय प्रतिमानमें इस सहज स्वाभाविक प्रणाली को स्थान नहीं मिला सकता। इस प्रतिमान का एक प्रमुख लक्षण है पगढ़ीलापन। समाज पगढ़ीला बन गया है। एक भौगोलिक क्षेत्र से रोग जनुओं से प्रभावित होता है। लेकिन औषधि के लिए किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में चला जाता है। वैद्य की स्थानिक औषधियों की उसके रोग को दूर करने की क्षमता घट जाती है। कुशल वैद्य पता कर लेता है कि रोगी रोग कहाँ से लाया है। और उसे कैसी याने किस भौगोलिक प्रदेश की औषधि की आवश्यकता है। लेकिन नया या अनुभवहीन वैद्य इसे समझ नहीं पाता। फिर रोग की चिकित्सा या तो अधिक समय लेती है या फिर काम ही नहीं करती। इससे वैद्य को व्यक्तिगत हानी तो होती ही है साथ ही में भारतीय स्वास्थ्यशास्त्र का नाम भी बदनाम होता है। फिर एलोपेथी कितनी भी हानिकारक हो मजबूरी में उसका ही सहारा लेना पड़ता है। | + | इसका अर्थ है जिस भौगोलिक क्षेत्र का रोग होगा उसी भौगोलिक क्षेत्र में उस रोग के निवारण की औषधि होती है। वर्तमान के जीवन के अभारतीय प्रतिमान में इस सहज स्वाभाविक प्रणाली को स्थान नहीं मिला सकता। इस प्रतिमान का एक प्रमुख लक्षण है पगढ़ीलापन। समाज पगढ़ीला बन गया है। एक भौगोलिक क्षेत्र से रोग जनुओं से प्रभावित होता है। लेकिन औषधि के लिए किसी दूसरे भौगोलिक क्षेत्र में चला जाता है। वैद्य की स्थानिक औषधियों की उसके रोग को दूर करने की क्षमता घट जाती है। कुशल वैद्य पता कर लेता है कि रोगी रोग कहाँ से लाया है। और उसे कैसी याने किस भौगोलिक प्रदेश की औषधि की आवश्यकता है। लेकिन नया या अनुभवहीन वैद्य इसे समझ नहीं पाता। फिर रोग की चिकित्सा या तो अधिक समय लेती है या फिर काम ही नहीं करती। इससे वैद्य को व्यक्तिगत हानी तो होती ही है साथ ही में भारतीय स्वास्थ्यशास्त्र का नाम भी बदनाम होता है। फिर एलोपेथी कितनी भी हानिकारक हो मजबूरी में उसका ही सहारा लेना पड़ता है। |
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| == नास्ति मूलमनौषधम् == | | == नास्ति मूलमनौषधम् == |
− | भारतीय विद्वान कहते हैं – | + | भारतीय विद्वान कहते हैं: |
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| अमन्त्रमक्षरो नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् । | | अमन्त्रमक्षरो नास्ति नास्ति मूलमनौषधम् । |
− | अयोग्य: पुरुषोनास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ: ।। | + | |
| + | अयोग्य: पुरुषोनास्ति योजकस्तत्र दुर्लभ: ।। |
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| अर्थ : ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र निर्माण के लिए उपयोग न हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका कोई औषधि बनाने के लिए उपयोग (वैद्य जीवक की कथा) न होता हो। इसका अर्थ है कि प्रत्येक वनस्पति के अस्तित्व को कुछ न कुछ प्रयोजन तो है ही। भारतीय मान्यता है कि हर अतित्व के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इस प्रयोजन को समझकर यदि उस का उपयोग किया जाय तब अधिक से अधिक लाभ मिलता है। इसी तरह से ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जिसका उपयोग नहीं है। क्षमतावान योजक इन सबका उपयोग क्रमश: अक्षरों का मन्त्रों के लिए, वनस्पति का रोगनिवारण हेतु औषधि बनाने के लिए और प्रत्येक मनुष्य का उपयोग व्यक्ति, समाज या सृष्टी के हित के लिए किसी न किसी काम में आ सके इस ढंग से कर लेता है। | | अर्थ : ऐसा कोई भी अक्षर नहीं है जिसका मंत्र निर्माण के लिए उपयोग न हो। ऐसी कोई वनस्पति नहीं जिसका कोई औषधि बनाने के लिए उपयोग (वैद्य जीवक की कथा) न होता हो। इसका अर्थ है कि प्रत्येक वनस्पति के अस्तित्व को कुछ न कुछ प्रयोजन तो है ही। भारतीय मान्यता है कि हर अतित्व के निर्माण का कुछ प्रयोजन होता है। इस प्रयोजन को समझकर यदि उस का उपयोग किया जाय तब अधिक से अधिक लाभ मिलता है। इसी तरह से ऐसा कोई भी मनुष्य नहीं है जिसका उपयोग नहीं है। क्षमतावान योजक इन सबका उपयोग क्रमश: अक्षरों का मन्त्रों के लिए, वनस्पति का रोगनिवारण हेतु औषधि बनाने के लिए और प्रत्येक मनुष्य का उपयोग व्यक्ति, समाज या सृष्टी के हित के लिए किसी न किसी काम में आ सके इस ढंग से कर लेता है। |
| परमात्मा ने सृष्टी के अनगिनत अस्तित्वों का निर्माण किया है। कोई भी वस्तू जब निर्माण की जाती है तब वह अकारण निर्माण नहीं की जाती। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही उसका निर्माण कोई करता है। इसी तरह से सृष्टी के हर अस्तित्व के याने निर्मिती के निर्माण का कोई प्रयोजन होता है। प्रत्येक वनस्पति के संदर्भ में आयुर्वेद शास्त्र इसकी पुष्टी करता है। | | परमात्मा ने सृष्टी के अनगिनत अस्तित्वों का निर्माण किया है। कोई भी वस्तू जब निर्माण की जाती है तब वह अकारण निर्माण नहीं की जाती। किसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए ही उसका निर्माण कोई करता है। इसी तरह से सृष्टी के हर अस्तित्व के याने निर्मिती के निर्माण का कोई प्रयोजन होता है। प्रत्येक वनस्पति के संदर्भ में आयुर्वेद शास्त्र इसकी पुष्टी करता है। |