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इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।  
 
इस प्रकार से कला का हेतु ज्ञान को दृश्य और श्राव्य से अभिव्यक्त करना, शास्त्रों के सिद्धांत मनोरंजन के साथ सिखाना और ज्ञान का अधिकार समूचे समाज को प्राप्त हो ऐसा था।  
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त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। इसलिए त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवि कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं{{Citation needed}}:  
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त्रेता युग की देवता यज्ञ थी। इसलिए त्रेता युग में कलाएं यज्ञ के आश्रय से विकसित हुईं। महाकवि कालिदास नाटक की व्याखा करते हैं{{Citation needed}}: <blockquote>देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् ।</blockquote><blockquote>रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा ।</blockquote><blockquote>त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते ।</blockquote><blockquote>नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनिजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए  रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगों का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगों का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।</blockquote>इसका अर्थ यह है कि भरत मुनि की मान्यता के अनुसार ही कालिदास भी नाटक को “नेत्रसुखकारक सुन्दर यज्ञ” ही कहते हैं। कला शिव और शक्ति के तादात्म्य का साक्षात दर्शन होता है। शक्ति (प्रकृति) त्रिगुणात्मक होती है। इसलिए कला में त्रिगुणों की अभिव्यक्ति होती है। चारों वर्णों के लोगों का मनोरंजन होता है।
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देवानामिदमानन्ति मुने: कान्तं क्रतु चाक्षुषम् ।
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रुद्रेणेदमुप्राकृत व्यक्तिकरे स्वांगे विभक्तं द्विधा ।
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त्रैगुण्योद्भवमंत लोकचरितं नानारसं दृश्यते ।
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नाट्यं भिन्न रुचेर्जनस्य बहुधाऽप्येकं समाराधनम् ।।
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अर्थ : यह देवों का नेत्रसुखकारक यज्ञ ही है ऐसा मुनीजन मानते हैं। आनंद का आस्वाद लेने के लिए  रुद्र स्वत: ही दो भागों में बंट गया। नाटक याने शिव और शक्ति का संगम ही है। नाटक में त्रिगुणों से भरे हुए लोगों का नानाविध चरित्र होता है। नाटक यह भिन्न स्वभाववाले लोगों का सबका एकसाथ मनोरंजन करनेवाला साधन है।  
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इसका अर्थ यह है कि भरत मुनि की मान्यता के अनुसार ही कालिदास भी नाटक को “नेत्रसुखकारक सुन्दर यज्ञ” ही कहते हैं। कला शिव और शक्ति के तादात्म्य का साक्षात दर्शन होता है। शक्ति (प्रकृति) त्रिगुणात्मक होती है। इसलिए कला में त्रिगुणों की अभिव्यक्ति होती है। चारों वर्णों के लोगों का मनोरंजन होता है।
   
    
 
    
 
द्वापर युग की देवता “अर्चा” (पूजा) थी। इसलिए द्वापर युग में कलाओं की अभिव्यक्ति में यज्ञ का स्थान मंदिरों ने लिया। कलाएँ मंदिरों की आश्रय से विकसित हुईं।
 
द्वापर युग की देवता “अर्चा” (पूजा) थी। इसलिए द्वापर युग में कलाओं की अभिव्यक्ति में यज्ञ का स्थान मंदिरों ने लिया। कलाएँ मंदिरों की आश्रय से विकसित हुईं।
 
   
 
   
कलियुग की देवता “नामजप” है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि"। नामजप भक्ति का ही रूप है। लेकिन यहाँ ‘नाम’ शब्द के विषय में थोड़ा अधिक समझने की आवश्यकता है। हर वस्तू का या पदार्थ का नाम होता है। और हर पदार्थ में परम तत्त्व का वास भी होता है। किसी भी वस्तू में परम तत्व को देखने का या अनुभूत करने का, लगन के साथ किया हुआ प्रयास कला है। भारतीय दृष्टि से अपनी रुची की विषयवस्तु की प्रस्तुति के माध्यम से परमतत्व की अनुभूति करना और करवाना ही कलियुग की कला है।  
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कलियुग की देवता “नामजप” है। श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान कहते हैं "यज्ञानां जपयज्ञोऽस्मि"। नामजप भक्ति का ही रूप है। लेकिन यहाँ ‘नाम’ शब्द के विषय में थोड़ा अधिक समझने की आवश्यकता है। हर वस्तु का या पदार्थ का नाम होता है। और हर पदार्थ में परम तत्व का वास भी होता है। किसी भी वस्तु में परम तत्व को देखने का या अनुभूत करने का, लगन के साथ किया हुआ प्रयास कला है। भारतीय दृष्टि से अपनी रूचि की विषयवस्तु की प्रस्तुति के माध्यम से परमतत्व की अनुभूति करना और करवाना ही कलियुग की कला है।
भारत में कलाओं के अस्तित्व के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनका काल ईसापूर्व कम से कम १०,००० वर्ष तक जाता है। इस काल के शैलचित्र भीमबेटका जैसे स्थानोंपर आज भी हम देख सकते हैं।  
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भारतवर्ष के विजेता आक्रान्ताओं की संस्कृति का प्रभाव जिस प्रकार से भारतीय जीवनपर हुआ वैसे ही भारतीय कला दृष्टि पर भी हुआ। क्रमश: इसकी अध्यात्मिकता घटती गई। वैसे तो केवल भौतिकता से कलाओं का विचार तो सदा से ही चलता आया है। लेकिन भारतवर्ष में वह कभी प्रभावी नहीं रहा। लेकिन जब आक्रान्ता विजेता भी हो गए तब उनकी संस्कृति का प्रभाव भारतीय कला दृष्टिपर होना स्वाभाविक था। “यथा राजा तथा प्रजा” होता ही है। आज शासक और जनता दोनों ही यूरो अमरीकी प्रभाव से ग्रस्त हैं। इसलिए अब जब कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लगे हैं, कला का बाजारू बन जाना स्वाभाविक है।
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भारत में कलाओं के अस्तित्व के जो अवशेष प्राप्त हुए हैं उनका काल ईसापूर्व कम से कम १०,००० वर्ष तक जाता है। इस काल के शैल चित्र भीमबेटका जैसे स्थानों पर आज भी हम देख सकते हैं। भारतवर्ष के विजेता आक्रान्ताओं की संस्कृति का प्रभाव जिस प्रकार से भारतीय जीवन पर हुआ वैसे ही भारतीय कला दृष्टि पर भी हुआ। क्रमश: इसकी अध्यात्मिकता घटती गई। वैसे तो केवल भौतिकता से कलाओं का विचार तो सदा से ही चलता आया है। लेकिन भारतवर्ष में वह कभी प्रभावी नहीं रहा। लेकिन जब आक्रान्ता विजेता भी हो गए तब उनकी संस्कृति का प्रभाव भारतीय कला दृष्टि पर होना स्वाभाविक था। “यथा राजा तथा प्रजा” होता ही है। आज शासक और जनता दोनों ही यूरो अमरीकी प्रभाव से ग्रस्त हैं। इसलिए अब जब कुटुम्ब भी बाजार भावना से चलने लगे हैं, कला का बाजारू बन जाना स्वाभाविक है।
    
== भारत की ६४ कलाएं – सूचि ==
 
== भारत की ६४ कलाएं – सूचि ==
भारत में प्राचीन काल से १४ विद्याएँ और ६४ कलाओं का वर्णन मिलता है। १४ विद्याओं में ४ वेद, ४ उपवेद और ६ दर्शनों का समावेश होता है। सदियों से ६४ कलाओं का उल्लेख भारतीय साहित्य में मिलता है। ये कलाएं निम्न हैं।
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भारत में प्राचीन काल से १४ विद्याएँ और ६४ कलाओं का वर्णन मिलता है। १४ विद्याओं में ४ वेद, ४ उपवेद और ६ दर्शनों का समावेश होता है। सदियों से ६४ कलाओं का उल्लेख भारतीय साहित्य में मिलता है। ये कलाएं निम्न हैं: 
१. गायन २. वादन ३. नृत्य ४. नाट्य  ५. लेखन ६. निशानेबाजी       ७. चांवल और फूलों की भिन्नभिन्न प्रकारकी मोहक आकृतियाँ बनाना     ८. फूलों के गलीचे बनाना  ९. शय्याका सुशोभन  १०. जलतरंग जैसे वाद्य     ११. दांतों को रंगना, वस्त्रोंपर आकृतियाँ बनाना और बदनपर गुन्दवाना         १२. भिन्न भिन्न भौमितीय आकृतियों से जमीनपर मणियों से चित्र बनाना        १३. मिट्टीके चित्र बनाना  १४. फूलों के हार, गजरे बनाना  १५. मुकुट को शोभावान बनाना १६. नेपथ्य रचना     १७. कानोंपर कोमल पंखुड़ियां रखना १८. सुवासिक पदार्थ बनाना १९. सुवर्ण काम २०. जादू करना २१. हस्तलाघव/हाथ चलाखी २२. पाकशास्त्र २३. बदन में उबटन लगाना २४. भिन्न भिन्न प्रकारके पेय बनाना २५. सिलाई काम  २६. पुतलियों का नाच, भंवरों का खेल २७. वीणा, डमरू बजाना २८. पहेलियाँ बूझना २९. मूर्ती, बर्तन आदि के साँचे  बनाना    ३०. कपट विद्या ३१. अधूरा काव्य पूरा करना ३२. नाटक, प्रहसन करना ३३. पढ़ना    ३४. पट्टा घुमाना, बेंत चलाना, तीर चलाना  ३५. तर्क करना  ३६. सुतार काम  ३७. घर बांधना  ३८. सोना, चांदी और रत्नों को परखना ३९. अशोधित धातु शुद्ध करना    ४०. रत्नों को रंग देना ४१. खदानों का पता लगाना   ४२. वृक्षों की आयु बढाने के उपाय  ४३. बकरे, मुर्गे आदि प्राणियों के युद्ध लगाना   ४४. शुक, मैना को बोलना सिखाना ४५. पतंग उड़ाना ४६. जुडा/वेणी बांधना   ४७. करपल्लवी, नेत्रपल्लवी आदि भाषाओं का ज्ञान   ४८. देशभाषा जानना    ४९. बागवानी  ४८. मनमें का अक्षर पूछकर मुठ्ठी की वस्तू पहचानना ५१. वजनों के वहन के लिए यंत्र बनाना ५२. वक्तृत्वकला  ५३. मन ही मन में काव्य की रचना करना(आशुकवि)    ५४. भिन्न भिन्न कोशों का ज्ञान ५५. छंदशास्त्र का ज्ञान ५६. चमत्कार कर दिखाना    ५७. विदूषक कला     ५८. वस्त्र हमेशा ताजे लगें ऐसे उन्हें रखना ५९. द्यूतकला ६०. मल्लयुद्ध     ६१. बच्चों के लिए खिलोने बनाना ६२. संकट दूर करने की विद्या ६३. विजय प्राप्ति की तरकीब ६४. भूत पिशाचों का ज्ञान   
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१. गायन २. वादन ३. नृत्य ४. नाट्य  ५. लेखन ६. निशानेबाजी       ७. चांवल और फूलों की भिन्नभिन्न प्रकारकी मोहक आकृतियाँ बनाना     ८. फूलों के गलीचे बनाना  ९. शय्याका सुशोभन  १०. जलतरंग जैसे वाद्य     ११. दांतों को रंगना, वस्त्रोंपर आकृतियाँ बनाना और बदनपर गुन्दवाना         १२. भिन्न भिन्न भौमितीय आकृतियों से जमीनपर मणियों से चित्र बनाना        १३. मिट्टीके चित्र बनाना  १४. फूलों के हार, गजरे बनाना  १५. मुकुट को शोभावान बनाना १६. नेपथ्य रचना     १७. कानोंपर कोमल पंखुड़ियां रखना १८. सुवासिक पदार्थ बनाना १९. सुवर्ण काम २०. जादू करना २१. हस्तलाघव/हाथ चलाखी २२. पाकशास्त्र २३. बदन में उबटन लगाना २४. भिन्न भिन्न प्रकारके पेय बनाना २५. सिलाई काम  २६. पुतलियों का नाच, भंवरों का खेल २७. वीणा, डमरू बजाना २८. पहेलियाँ बूझना २९. मूर्ती, बर्तन आदि के साँचे  बनाना    ३०. कपट विद्या ३१. अधूरा काव्य पूरा करना ३२. नाटक, प्रहसन करना ३३. पढ़ना    ३४. पट्टा घुमाना, बेंत चलाना, तीर चलाना  ३५. तर्क करना  ३६. सुतार काम  ३७. घर बांधना  ३८. सोना, चांदी और रत्नों को परखना ३९. अशोधित धातु शुद्ध करना    ४०. रत्नों को रंग देना ४१. खदानों का पता लगाना   ४२. वृक्षों की आयु बढाने के उपाय  ४३. बकरे, मुर्गे आदि प्राणियों के युद्ध लगाना   ४४. शुक, मैना को बोलना सिखाना ४५. पतंग उड़ाना ४६. जुडा/वेणी बांधना   ४७. करपल्लवी, नेत्रपल्लवी आदि भाषाओं का ज्ञान   ४८. देशभाषा जानना    ४९. बागवानी  ४८. मनमें का अक्षर पूछकर मुठ्ठी की वस्तु पहचानना ५१. वजनों के वहन के लिए यंत्र बनाना ५२. वक्तृत्वकला  ५३. मन ही मन में काव्य की रचना करना(आशुकवि)    ५४. भिन्न भिन्न कोशों का ज्ञान ५५. छंदशास्त्र का ज्ञान ५६. चमत्कार कर दिखाना    ५७. विदूषक कला     ५८. वस्त्र हमेशा ताजे लगें ऐसे उन्हें रखना ५९. द्यूतकला ६०. मल्लयुद्ध     ६१. बच्चों के लिए खिलोने बनाना ६२. संकट दूर करने की विद्या ६३. विजय प्राप्ति की तरकीब ६४. भूत पिशाचों का ज्ञान   
    
== मजदूर, कारीगर और कलाकार ==
 
== मजदूर, कारीगर और कलाकार ==
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हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से इनका सम्बन्ध होता है। हर अगला पुरुष पहले से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ दुर्बल या छोटा नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है व्यापक, बलवान। अन्नमय पुरुष शरीर है। उससे सूक्ष्म प्राणमय पुरुष का संबंध ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से है। मनोमय पुरुष मन से संबंध रखता है। विज्ञानमय पुरुष का स्तर बुद्धि का होता है जब की आनंदमय कोष चित्त से संबंधित होता है।  
 
हमारे व्यक्तित्व के विभिन्न पहलुओं से इनका सम्बन्ध होता है। हर अगला पुरुष पहले से अधिक सूक्ष्म होता है। सूक्ष्म का अर्थ दुर्बल या छोटा नहीं है। सूक्ष्म का अर्थ है व्यापक, बलवान। अन्नमय पुरुष शरीर है। उससे सूक्ष्म प्राणमय पुरुष का संबंध ज्ञानेन्द्रियों और कर्मेन्द्रियों से है। मनोमय पुरुष मन से संबंध रखता है। विज्ञानमय पुरुष का स्तर बुद्धि का होता है जब की आनंदमय कोष चित्त से संबंधित होता है।  
 
अब हम देखेंगे कि किस प्रकार से कला का विकास मनुष्य के पाँचों कोषों या पञ्चविध पुरुष के विकास के साथ जुडा है। इन के विकास के स्तर के अनुसार ही कला की यथार्थता का भी स्तर होता है। कम विकसित पञ्चविध पुरुष याने पंचकोषों के कारण कला में यथार्थता नहीं आ पाती।  
 
अब हम देखेंगे कि किस प्रकार से कला का विकास मनुष्य के पाँचों कोषों या पञ्चविध पुरुष के विकास के साथ जुडा है। इन के विकास के स्तर के अनुसार ही कला की यथार्थता का भी स्तर होता है। कम विकसित पञ्चविध पुरुष याने पंचकोषों के कारण कला में यथार्थता नहीं आ पाती।  
कला तो जन्मजात होती है। लेकिन बचपन में कला में यथार्थता नहीं पाई जाती। इसका कारण उस बच्चे में जन्म से कला नहीं है ऐसा नहीं है। जब बालक के ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेंद्रिय, मन, बुद्धि और चित्त का विकास होता है तब कला में यथार्थता आती है। चित्त यह संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकारका ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तू का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्तपर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्तपर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित  विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्तपर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्तपर अंकित पूर्व के संस्कारों(ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्यों कि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्तमें पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, बुद्धि और  की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी। आगे उस आकलन के अनुसार कला के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया चलती है। यह आकलन जीवात्मा के प्रतिनिधि अहंकार (ज्ञाता) को होता है। अब कला की अभियक्ति की प्रक्रिया शुरू होती है।
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कला तो जन्मजात होती है। लेकिन बचपन में कला में यथार्थता नहीं पाई जाती। इसका कारण उस बच्चे में जन्म से कला नहीं है ऐसा नहीं है। जब बालक के ज्ञानेन्द्रिय, कर्मेंद्रिय, मन, बुद्धि और चित्त का विकास होता है तब कला में यथार्थता आती है। चित्त यह संस्कार संग्रहण का स्थान है। इसमें सभी प्रकारका ज्ञान अंकित होता है। लेकिन चित्त बच्चे के शरीर, इन्द्रियाँ, मन, बुद्धि और अहंकार से आवेष्टित होने से प्रकट नहीं होता। ज्ञानेन्द्रिय कला वस्तु का आकलन करते हैं, इस आकलन के संस्कार चित्तपर होते हैं। मन इन संस्कारों के साथ ही चित्तपर अंकित और विषयवस्तु से सम्बंधित  विभिन्न विकल्प बुद्धि के सामने प्रस्तुत करता है। चित्तपर हुए संस्कारों के साथ बुद्धि जीवात्मा के प्रकाश में चित्तपर अंकित पूर्व के संस्कारों(ज्ञान) के साथ तुलना कर के देखती है और यह तय करती है कि उचित संस्कार क्या है। क्यों कि बुद्धि व्यवसायात्मिका होती है, सत्यान्वेषी होती है। जीवात्मा के प्रकाश के कारण चित्तमें पहले से उपस्थित संस्कारों (ज्ञान) अनावृत्त हो जाता है। प्रकाशित हो जाता है। तब आकलन का अनुभव होता है। तब अंत:करण के एक घटक अहंकार जो जीवात्मा का प्रतिनिधि है, ज्ञान प्राप्त होता है। आकलन होता है। यह है आकलन की प्रक्रिया। यह आकलन उतना ही यथार्थ होगा जितनी ज्ञानेन्द्रियों की, मन, बुद्धि और  की क्षमता और चित्त की निर्मलता होगी। आगे उस आकलन के अनुसार कला के प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया चलती है। यह आकलन जीवात्मा के प्रतिनिधि अहंकार (ज्ञाता) को होता है। अब कला की अभियक्ति की प्रक्रिया शुरू होती है।
 
जीवात्मा के आदेश से चित्तपर अंकित संस्कारों के अनुसार, बुद्धि सही दिशा देती है, जो आकलन हुआ है उस विकल्पपर मन एकाग्र हो जाता है और कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियों की मदद से कला को अभिव्यक्त करतीं हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यथार्थता तब ही आती है जब ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त और कर्मेन्द्रियाँ सभी सधे हुए याने शिक्षित या विकसित होते हैं।  
 
जीवात्मा के आदेश से चित्तपर अंकित संस्कारों के अनुसार, बुद्धि सही दिशा देती है, जो आकलन हुआ है उस विकल्पपर मन एकाग्र हो जाता है और कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियों की मदद से कला को अभिव्यक्त करतीं हैं। इस पूरी प्रक्रिया में यथार्थता तब ही आती है जब ज्ञानेन्द्रियाँ, मन, बुद्धि, चित्त और कर्मेन्द्रियाँ सभी सधे हुए याने शिक्षित या विकसित होते हैं।  
 
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न होता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त आदि में भिन्नता होने के कारण से होता है। इसीलिये कलाकार जब मन लगाकर कला का निर्माण करता है तब वह अपने व्यक्तित्व को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। जैसे राजा रविवर्मा की चित्रकला में उनके चरित्र की झलक मिलती है। जब कई कलाकार ऐसे कलाकार का अनुसरण करते हैं तब वह शैली का रूप ले लेता है।
 
प्रत्येक व्यक्ति का व्यक्तित्व भिन्न होता है। यह प्रत्येक व्यक्ति के शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और चित्त आदि में भिन्नता होने के कारण से होता है। इसीलिये कलाकार जब मन लगाकर कला का निर्माण करता है तब वह अपने व्यक्तित्व को ही कला के माध्यम से अभिव्यक्त करता है। जैसे राजा रविवर्मा की चित्रकला में उनके चरित्र की झलक मिलती है। जब कई कलाकार ऐसे कलाकार का अनुसरण करते हैं तब वह शैली का रूप ले लेता है।
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