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− | विज्ञान और शास्त्र | + | == विज्ञान और शास्त्र == |
| सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं| किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है| और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधारपर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है| जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है| लेकिन इस विज्ञान के आधारपर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे| विभिन्न प्रकारके मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे| जब की व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है| भारतीय दृष्टी से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है| इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे| जब की इस जानकारी का उपयोग मानव जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करना इसे जानना समृद्धि शास्त्र कहलाएगा| परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है| और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है| | | सामान्यत: लोग इन दो शब्दों का प्रयोग इन के भिन्न अर्थों को समझे बिना ही करते रहते हैं| किसी पदार्थ की बनावट याने रचना को समझना विज्ञान है| और इस विज्ञान से प्राप्त जानकारी के आधारपर उस पदार्थ का क्यों, कैसे, किस के लिए उपयोग करना चाहिए आदि समझना यह शास्त्र है| जैसे मानव शरीर की रचना को जानना शरीर विज्ञान है| लेकिन इस विज्ञान के आधारपर शरीर को स्वस्थ बनाये रखने की जानकारी को आरोग्य शास्त्र कहेंगे| विभिन्न प्रकारके मानव जाति के लिए उपयुक्त खाद्य पदार्थों की जानकारी को आहार विज्ञान कहेंगे| जब की व्यक्ति की प्रकृति के अनुसार, मौसम के अनुसार क्या खाना चाहिए और क्या नहीं खाना चाहिए, कब खाना चाहिए और कब नहीं खाना चाहिए, किसने कितना खाना चाहिए आदि की जानकारी आहारशास्त्र है| भारतीय दृष्टी से अर्थ से तात्पर्य इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये गए प्रयास और उपयोग में लाये गए धन, साधन और संसाधन होता है| इन इच्छाओं को और उनकी पूर्ति के प्रयासों तथा इस हेतु उपयोजित धन, साधन और संसाधनों की जानकारी को अर्थ विज्ञान कहेंगे| जब की इस जानकारी का उपयोग मानव जीवन को सार्थक बनाने में किस तरह और क्यों करना इसे जानना समृद्धि शास्त्र कहलाएगा| परमात्मा के स्वरूप को समझने के लिए जो बताया या लिखा जाता है वह अध्यात्म विज्ञान है| और परमात्मा की प्राप्ति के लिए क्या क्या करना चाहिए यह जानना अध्यात्म शास्त्र है| |
| तन्त्रज्ञान यह शास्त्र का ही एक हिस्सा है| क्यों कि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है| और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान है| लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसने करना चाहिये, किसने नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किस लिए नहीं करना चाहिए इन सब बातों को जानना शास्त्र है| | | तन्त्रज्ञान यह शास्त्र का ही एक हिस्सा है| क्यों कि शास्त्र में विज्ञान के माध्यम से प्रस्तुत जानकारी के प्रत्यक्ष उपयोजन का विषय भी होता है| और प्रत्यक्ष उपयोजन की प्रक्रिया ही तन्त्रज्ञान है| लेकिन इस के साथ ही उस विज्ञान का और तन्त्रज्ञान का उपयोग किसने करना चाहिये, किसने नहीं करना चाहिए, कब करना चाहिए कब नहीं करना चाहिए, किसलिए करना चाहिए और किस लिए नहीं करना चाहिए इन सब बातों को जानना शास्त्र है| |
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| मनुष्य यह सृष्टि का सबसे बुध्दिमान प्राणि माना जाता है। लेकिन वर्तमान शिक्षा के कारण वह सुविधाओं को ही सुख समझने लग गया है। सुविधाओं को याने शारीरिक सुख को वह मन के सुख से याने प्रेम, ममता, परोपकार, सहानुभूति आदि भावनाओं से या बुद्धि के सुख याने ज्ञान प्राप्ति के सुख आदि से अधिक श्रेष्ठ मानने लग गया है। | | मनुष्य यह सृष्टि का सबसे बुध्दिमान प्राणि माना जाता है। लेकिन वर्तमान शिक्षा के कारण वह सुविधाओं को ही सुख समझने लग गया है। सुविधाओं को याने शारीरिक सुख को वह मन के सुख से याने प्रेम, ममता, परोपकार, सहानुभूति आदि भावनाओं से या बुद्धि के सुख याने ज्ञान प्राप्ति के सुख आदि से अधिक श्रेष्ठ मानने लग गया है। |
| गत २५०-३०० वर्षों में सायंस ने जो प्रगति की है वह ऑंखों को चौधियानेवाली है। इस प्रगति की व्याप्ति चहुँमुखी है। मानव जीवन का कोई पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है। हमारे सुबह (नींद से) उठने से लेकर दूसरे दिन फिर से सुबह उठनेतक के हमारे दैनंदिन जीवन का विचार करें तो समझ में आएगा कि हमारे जीवन में तन्त्रज्ञान की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण बन गई है। आईये ! एक सरसरी निगाह तन्त्रज्ञान की इस प्रगतिपर डालें। | | गत २५०-३०० वर्षों में सायंस ने जो प्रगति की है वह ऑंखों को चौधियानेवाली है। इस प्रगति की व्याप्ति चहुँमुखी है। मानव जीवन का कोई पहलू इससे अछूता नहीं रह गया है। हमारे सुबह (नींद से) उठने से लेकर दूसरे दिन फिर से सुबह उठनेतक के हमारे दैनंदिन जीवन का विचार करें तो समझ में आएगा कि हमारे जीवन में तन्त्रज्ञान की भूमिका कितनी महत्वपूर्ण बन गई है। आईये ! एक सरसरी निगाह तन्त्रज्ञान की इस प्रगतिपर डालें। |
− | १. विविध क्षेत्रों में तन्त्रज्ञान की छलांग
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| + | == विविध क्षेत्रों में तन्त्रज्ञान की छलांग == |
| - विद्युत निर्माण - अणू / जल / औष्णिक /सौर - स्वास्थ्य यंत्रावली - आवागमन के साधन - प्रसार माध्यम - यांत्रिक कृषि - रासायनिक उत्पादन - प्लॅस्टिक की वस्तुएँ - अवकाश तन्त्रज्ञान - भवन निर्माण - स्वयंचलितीकरण / यंत्रमानव - मृदा - सारक ( अर्थ-मूव्हिंग) यंत्र प्रंणाली - संगणक / अणूडाक, आंतरजाल आदि | | - विद्युत निर्माण - अणू / जल / औष्णिक /सौर - स्वास्थ्य यंत्रावली - आवागमन के साधन - प्रसार माध्यम - यांत्रिक कृषि - रासायनिक उत्पादन - प्लॅस्टिक की वस्तुएँ - अवकाश तन्त्रज्ञान - भवन निर्माण - स्वयंचलितीकरण / यंत्रमानव - मृदा - सारक ( अर्थ-मूव्हिंग) यंत्र प्रंणाली - संगणक / अणूडाक, आंतरजाल आदि |
− | २. दिनचर्या में तंत्रज्ञानपर अवलंबन
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| + | == दिनचर्या में तंत्रज्ञान पर अवलंबन == |
| - चलभाषपर बजी घंटी से प्रारंभ। आजकल पत्नि या पति जीवनसाथी नहीं होता। चलभाष होता है। चलभाष प्राण से बढकर है। | | - चलभाषपर बजी घंटी से प्रारंभ। आजकल पत्नि या पति जीवनसाथी नहीं होता। चलभाष होता है। चलभाष प्राण से बढकर है। |
| - डिझायनर टॉयलेट और स्नानघर। भिन्न भिन्न प्रकार के कृत्रिम गंधोंवाले इत्रों के साबुन, मुख धावक(माऊथ फ्रेशनर्स्, तथाकथित ग्रीन प्रॉडक्ट्स्), शॉवर्स, फाऊंडेशन क्रीम, हेयर रिमूव्हर, रेझर आदि। | | - डिझायनर टॉयलेट और स्नानघर। भिन्न भिन्न प्रकार के कृत्रिम गंधोंवाले इत्रों के साबुन, मुख धावक(माऊथ फ्रेशनर्स्, तथाकथित ग्रीन प्रॉडक्ट्स्), शॉवर्स, फाऊंडेशन क्रीम, हेयर रिमूव्हर, रेझर आदि। |
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| द सो कॉल्ड सक्सेसेस ऑफ टेक्नॉलॉजी | | द सो कॉल्ड सक्सेसेस ऑफ टेक्नॉलॉजी |
| डॉ. बॅरी कॉमनर (स्मॉल इज ब्युटीफुल पुस्तक से) | | डॉ. बॅरी कॉमनर (स्मॉल इज ब्युटीफुल पुस्तक से) |
− | सुख की प्राप्ति तो दूर रही बढते उपभोग, बढते केन्द्रीकरण, बढते प्रकृति के शोषण का सामना हमें करना पड रहा है। इसने पाश्चात्य या जिसे हम आधुनिक कहते हैं उस विकास की तथाकथित आधुनिक कल्पना और तथाकथित आधुनिक तन्त्रज्ञान के विश्वभर में चल रहे अंधानुकरण और वैज्ञानिक अंधश्रध्दापर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। | + | सुख की प्राप्ति तो दूर रही बढते उपभोग, बढते केन्द्रीकरण, बढते प्रकृति के शोषण का सामना हमें करना पड रहा है। इसने पाश्चात्य या जिसे हम आधुनिक कहते हैं उस विकास की तथाकथित आधुनिक कल्पना और तथाकथित आधुनिक तन्त्रज्ञान के विश्वभर में चल रहे अंधानुकरण और वैज्ञानिक अंधश्रध्दापर प्रश्नचिन्ह लगा दिया है। |
− | भारतीय और यूरो अमरीकी जीवन दृष्टी और व्यवहार सूत्र | + | |
− | इन के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान विषय की चर्चा में मोटी मोटी बातें जानीं हैं| इसलिए अब हम इस सत्र में केवल उनका अति-संक्षिप्त पुनर्स्मरण करते हुए आगे बढ़ेंगे| (अभारतीय जीवन दृष्टी के ३ और भारतीय जीवन दृष्टी के ५ सूत्र तथा उनपर आधारित व्यवहार सूत्र देखें अध्याय ७ और ८) | + | == भारतीय और यूरो अमरीकी जीवन दृष्टी और व्यवहार सूत्र == |
− | वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान के विकास की पृष्ठभूमि | + | इन के विषय में हमने जीवन के प्रतिमान विषय की चर्चा में मोटी मोटी बातें जानीं हैं| इसलिए अब हम इस सत्र में केवल उनका अति-संक्षिप्त पुनर्स्मरण करते हुए आगे बढ़ेंगे| (अभारतीय जीवन दृष्टी के ३ और भारतीय जीवन दृष्टी के ५ सूत्र तथा उनपर आधारित व्यवहार सूत्र देखें अध्याय ७ और ८) |
− | इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई| अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं| कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है| धर्मपालजी अपनी पुस्तक भारत का पुनर्बोध में पृष्ट २५८ पर बताते हैं - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है| इसी पृष्ठपर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है|
| + | |
− | वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे| ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सडना पडा| फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। | + | == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान के विकास की पृष्ठभूमि == |
− | वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टी | + | इंग्लैण्ड में ग्यारहवीं सदी के मध्य में नॉर्मन जनजाति के विजय के बाद उमरावशाही प्रस्थापित हुई| अन्य देशों में इसके प्रस्थापित होने के अनेक कारण हैं| कार्ल मार्क्स, फ्रेड्रिक एंजल्स आदि के मतानुसार तन्त्रज्ञान में होनेवाला बड़ा परिवर्तन भी उनमें से एक कारण है| धर्मपालजी अपनी पुस्तक भारत का पुनर्बोध में पृष्ट २५८ पर बताते हैं - युद्धों के कारण विज्ञान एवं तन्त्रज्ञान को गति प्राप्त होती है, वह यूरोप के अंतिम कुछ शताब्दियों के अनुभवों का ही परिणाम है| इसी पृष्ठपर आगे और कहा है – अर्थात् आधुनिक विज्ञान गुलामी की प्रथा, उमरावशाही, विश्वविजय एवं अत्याचार तथा अधिपत्य की ही उपज है| |
| + | वर्तमान साईंस का विकास युरोपीय देशों में अभी २००-२५० वर्ष में ही हुवा है। इस विकास में ईसाई मत के कारण कई साईंटिस्टों को कष्ट सहन करने पडे| ब्रूनो जैसे वैज्ञानिकों को जान से हाथ धोना पडा। गॅलिलियो जैसे साईंटिस्ट को मृत्यू के डर से क्षमा माँगनी पडी तथा कारागृह में सडना पडा| फिर भी यूरोप के साईंटिस्टों ने हार नहीं मानी। साईंस के क्षेत्र में अद्वितीय ऐसा पराक्रम कर दिखाया। तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में भी मुश्किल से २५० वर्षों में जो प्रगति हुई है वह स्तंभित करने वाली है। |
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| + | == वर्तमान साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टी == |
| वर्तमान में भारतीय विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टी नष्ट हो गयी है| जो भी है वह अभारतीय साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टी ही है| रेने देकार्ते को इस यूरोपीय साईंस दृष्टि का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। उस के द्वारा प्रतिपादित साईंस दृष्टि के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है। | | वर्तमान में भारतीय विज्ञान और तन्त्रज्ञान दृष्टी नष्ट हो गयी है| जो भी है वह अभारतीय साईंस और तन्त्रज्ञान दृष्टी ही है| रेने देकार्ते को इस यूरोपीय साईंस दृष्टि का जनक माना जाता है। रेने देकार्ते एक गणिति तथा फिलॉसॉफर था। उस के द्वारा प्रतिपादित साईंस दृष्टि के महत्वपूर्ण पहलू निम्न है। |
| १. द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करनेवाला हूँ| मैं इस सृष्टी से भिन्न हूँ| | | १. द्वैतवाद : इस का भारतीय द्वैतवाद से कोई संबंध नहीं है। इस में यह माना गया है कि विश्व में मैं और अन्य सारी सृष्टि ऐसे दो घटक है। मैं इस सृष्टि का ज्ञान प्राप्त करने वाला हूं। मैं इस सृष्टि का भोग करनेवाला हूँ| मैं इस सृष्टी से भिन्न हूँ| |
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| अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। पुनर्जन्म से संबंधित कार्यक्रम कई दूरदर्शन की वाहिनियों ने प्रसारित किये हैं| सभी में वह दूरचित्र वाहिनी एक टोली बनाती है। इस टोली में एक साईंटिस्ट भी लिया जाता है। फिर टोली द्वारा सुने हुवे पुनर्जन्म के किस्सों की तहकीकात की जाती है। प्रत्यक्ष जिन बच्चों को पुर्वजन्म की कुछ स्मृतियाँ है उन से मिल कर उन से पूर्व जन्म की जानकारी ली जाती है। फिर उस बच्चे के पूर्व जन्म के स्थान पर जाकर बच्चे की दी हुई जानकारी को जाँचा जाता है। उसे सत्य पाया जाता है। ऐसी कई घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रसारण वाहिनी के कार्यक्रम में होता है। अंत में उस तहकीकात करने वाली टोलि के सदस्य साईंटिस्ट को प्रश्न पूछ जाता है कि आपने यह सब प्रत्यक्ष देखा है। इस पर आप की क्या राय है? साईंटिस्ट का उत्तर होता है - यह सब तो ठीक है। किन्तु साईंस पुनर्जन्म को मान्यता नहीं देता। | | अपने अधिकार कोई छोडना नहीं चाहता। यह बात स्वाभाविक है। इसी के कारण आज का साईंटिस्ट प्रमाण के क्षेत्र में अपना महत्व खोना नहीं चाहता। पुनर्जन्म से संबंधित कार्यक्रम कई दूरदर्शन की वाहिनियों ने प्रसारित किये हैं| सभी में वह दूरचित्र वाहिनी एक टोली बनाती है। इस टोली में एक साईंटिस्ट भी लिया जाता है। फिर टोली द्वारा सुने हुवे पुनर्जन्म के किस्सों की तहकीकात की जाती है। प्रत्यक्ष जिन बच्चों को पुर्वजन्म की कुछ स्मृतियाँ है उन से मिल कर उन से पूर्व जन्म की जानकारी ली जाती है। फिर उस बच्चे के पूर्व जन्म के स्थान पर जाकर बच्चे की दी हुई जानकारी को जाँचा जाता है। उसे सत्य पाया जाता है। ऐसी कई घटनाओं का प्रत्यक्ष प्रसारण वाहिनी के कार्यक्रम में होता है। अंत में उस तहकीकात करने वाली टोलि के सदस्य साईंटिस्ट को प्रश्न पूछ जाता है कि आपने यह सब प्रत्यक्ष देखा है। इस पर आप की क्या राय है? साईंटिस्ट का उत्तर होता है - यह सब तो ठीक है। किन्तु साईंस पुनर्जन्म को मान्यता नहीं देता। |
| इस में समझने की कुछ बातें है। दूरचित्रवाहिनीवाले और वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते नहीं हैं| इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करता है। | | इस में समझने की कुछ बातें है। दूरचित्रवाहिनीवाले और वह साईंटिस्ट साईंस की सीमाएं या मर्यादाएं जानते नहीं हैं| इन मर्यादाओं को नहीं समझने के कारण वह साईंटिस्ट भी अपने अधिकार के क्षेत्र (भौतिक शास्त्र) के बाहर के विषयों में भी साईंस के आधार पर अपनी राय देता है। किन्तु वास्तव में तो यह पूरा कार्यक्रम साईंस की मर्यादा को ही स्पष्ट करता है। |
− | साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं? इसकी जानकारी हमने अध्याय ३० ‘भारतीय शोध दृष्टी’ में प्राप्त की है| | + | साईंस की कसौटि की मर्यादा समझने के उपरांत साईंस की मर्यादा से बाहर किसे प्रमाण मानना यह प्रश्न रह ही जाता है। इसे कैसे सुलझाएं? इसकी जानकारी हमने अध्याय ३० ‘भारतीय शोध दृष्टी’ में प्राप्त की है| |
− | भारतीय जीवनदृष्टिपर आधारित भारतीय तन्त्रज्ञान दृष्टि के सूत्र | + | |
| + | == भारतीय जीवनदृष्टि पर आधारित भारतीय तन्त्रज्ञान दृष्टि के सूत्र == |
| इस सन्दर्भ में हमें वर्तमान साईंस और भारतीय विज्ञान में अंतर को समझना होगा| वर्तमान साईंस का भारतीय विज्ञान के साथ या अध्यात्म के साथ कोइ झगड़ा या विरोध नहीं है| उलटे वर्तमान साईंस यह भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा मात्र है| इसे समझना भी महत्त्वपूर्ण है| | | इस सन्दर्भ में हमें वर्तमान साईंस और भारतीय विज्ञान में अंतर को समझना होगा| वर्तमान साईंस का भारतीय विज्ञान के साथ या अध्यात्म के साथ कोइ झगड़ा या विरोध नहीं है| उलटे वर्तमान साईंस यह भारतीय विज्ञान का एक हिस्सा मात्र है| इसे समझना भी महत्त्वपूर्ण है| |
| १. विज्ञान की भारतीय व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार - | | १. विज्ञान की भारतीय व्याख्या जो श्रीमद्भगवद्गीता में मिलती है उसके अनुसार - |
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| १८. गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञानने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये। | | १८. गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जब मनुष्य का शरीर गतिमान होता है तो उसकी मति मंदगति से चलती है। और जब मनुष्य शांत या मंद गति से जा रहा होता है तब उसकी मति तेज चलती है। यह सामान्य ज्ञान की बात है। वर्तमान तंत्रज्ञानने जीवन को बेशुमार गति देकर उसे सामान्य मनुष्य के लिये असहनीय बना दिया है। वह आधुनिक तन्त्रज्ञान के साथ समायोजन करने में असमर्थ होने के कारण तन्त्रज्ञान के पीछे छातीफाड गति से भी भाग नहीं पा रहा। वह मजबूर है घसीटे जाने के लिये। |
| * आपध्दर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है। | | * आपध्दर्म के रूप में जैविक, नॅनो, संहारक शस्त्र आदि जैसे तंत्रज्ञानों का उपयोग किया जा सकता है। |
− | जीवन की इष्ट गति | + | |
− | तन्त्रज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है| वह है सामाजिक जीवन की गति को प्रभावित करना| वर्तमान में तन्त्रज्ञान ने समाज जीवन की गति को बहुत तेज कर दिया है| समाज में तन्त्रज्ञान की अच्छी समझ रखनेवालों का बहुत छोटा वर्ग समाज को तन्त्रज्ञान के विकास की गति के साथ घसीट रहा नजर आ रहा है| वर्तमान में व्यक्तिवादी, इहवादी और जडवादी और पैनी मतिवाले लोग याने यूरो-अमरीकी लोग मनुष्य के जीवन की गति का निर्धारण कर रहे है। इसलिए इसमें पैनी मति के लोग बौध्दिक (सबसे श्रेष्ठ) सुख पा रहे हैं। सामान्य मनुष्य जी जान से प्रयास कर रहा है कि वह इस गति के साथ चल सके। इस प्रयास में सामान्य मनुष्य उसका सुख-चैन खोता जा रहा है। आत्मीयता को माननेवाले लोग भी कम बुद्धिमान नहीं हैं| लेकिन उनकी धर्म की समझ और धर्म में निष्ठा कम हुई समझ में आती है| इसलिए वे न तो व्यक्तिश: हानिकारक तन्त्रज्ञान के विरोध में डटकर खड़े होते हैं और न ही विरोध को संगठित करते हैं| | + | == जीवन की इष्ट गति == |
− | १. मति और जीवन की गति का संबंध
| + | तन्त्रज्ञान का एक और महत्वपूर्ण पहलू है| वह है सामाजिक जीवन की गति को प्रभावित करना| वर्तमान में तन्त्रज्ञान ने समाज जीवन की गति को बहुत तेज कर दिया है| समाज में तन्त्रज्ञान की अच्छी समझ रखनेवालों का बहुत छोटा वर्ग समाज को तन्त्रज्ञान के विकास की गति के साथ घसीट रहा नजर आ रहा है| वर्तमान में व्यक्तिवादी, इहवादी और जडवादी और पैनी मतिवाले लोग याने यूरो-अमरीकी लोग मनुष्य के जीवन की गति का निर्धारण कर रहे है। इसलिए इसमें पैनी मति के लोग बौध्दिक (सबसे श्रेष्ठ) सुख पा रहे हैं। सामान्य मनुष्य जी जान से प्रयास कर रहा है कि वह इस गति के साथ चल सके। इस प्रयास में सामान्य मनुष्य उसका सुख-चैन खोता जा रहा है। आत्मीयता को माननेवाले लोग भी कम बुद्धिमान नहीं हैं| लेकिन उनकी धर्म की समझ और धर्म में निष्ठा कम हुई समझ में आती है| इसलिए वे न तो व्यक्तिश: हानिकारक तन्त्रज्ञान के विरोध में डटकर खड़े होते हैं और न ही विरोध को संगठित करते हैं| |
| + | |
| + | === मति और जीवन की गति का संबंध === |
| जीवन की गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। मति याने बुद्धि, जब गतिमान होती है जीवन चलता है। शरीर और मन की शांत स्थिर अवस्था में मति की गति तेज होती है। लेकिन जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन गतिमान होना अनिवार्य होता है। गति के बढने के साथ ही मति की गति याने मति चलने की गति मंद पडने लग जाती है। जब आप दौड की स्पर्धा में दौड रहे होते हैं या अपनी सहज गति से अधिक गति से चल रहे होते हैं आपकी मति कम चलती है। मति की गति जितनी अधिक उतना ही सुख चैन अधिक प्राप्त होता है। हमारे पैदल चलने की भी एक इष्ट गति होती है। चलने की गति का प्रमाण आपकी चलने की इष्ट गति से जब थोडा अधिक होता है तब आपकी मति की गति, शांत स्थिर अवस्था में आपकी मति की जो गति रहती है उसकी तुलना में कम हो जाती है। | | जीवन की गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। मति याने बुद्धि, जब गतिमान होती है जीवन चलता है। शरीर और मन की शांत स्थिर अवस्था में मति की गति तेज होती है। लेकिन जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए जीवन गतिमान होना अनिवार्य होता है। गति के बढने के साथ ही मति की गति याने मति चलने की गति मंद पडने लग जाती है। जब आप दौड की स्पर्धा में दौड रहे होते हैं या अपनी सहज गति से अधिक गति से चल रहे होते हैं आपकी मति कम चलती है। मति की गति जितनी अधिक उतना ही सुख चैन अधिक प्राप्त होता है। हमारे पैदल चलने की भी एक इष्ट गति होती है। चलने की गति का प्रमाण आपकी चलने की इष्ट गति से जब थोडा अधिक होता है तब आपकी मति की गति, शांत स्थिर अवस्था में आपकी मति की जो गति रहती है उसकी तुलना में कम हो जाती है। |
| मन भी गतिमान होता है। मन की गति शरीर की गति से कहीं अधिक होती है। एक क्षण में मन कई आलंबनोंपर भ्रमण करता है। इसके एकाग्र होने से मति बहुत तेज गति से काम करती है। अर्थात् मति के गति से काम करने के लिये मन की गति कम होना भी आवश्यक होता है। मन के एकाग्र होने से मति की गति बहुत ही बढ जाती है। | | मन भी गतिमान होता है। मन की गति शरीर की गति से कहीं अधिक होती है। एक क्षण में मन कई आलंबनोंपर भ्रमण करता है। इसके एकाग्र होने से मति बहुत तेज गति से काम करती है। अर्थात् मति के गति से काम करने के लिये मन की गति कम होना भी आवश्यक होता है। मन के एकाग्र होने से मति की गति बहुत ही बढ जाती है। |
− | गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जीवन की गति हो या चलने की गति हो या मन की गति हो, गति जब बढती है तब मति मंद हो जाती है याने काम नहीं करती और गति मंद होती है तब मति की गति अधिक होती है। जीवन चलाने के लिये याने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ न्यूनतम गति तो अनिवार्य होती है। और मति को सर्वोत्तम गति से चलाने के लिये शरीर तथा मन की स्थिरता महत्त्वपूर्ण होती है। इन दोनों की गतियों का लक्ष्यप्राप्ति के लिये मति की गति के साथ किये गए समायोजन से हम जीवन की इष्ट गति प्राप्त कर सकते हैं। | + | गति और मति का संबंध व्यस्त होता है। जीवन की गति हो या चलने की गति हो या मन की गति हो, गति जब बढती है तब मति मंद हो जाती है याने काम नहीं करती और गति मंद होती है तब मति की गति अधिक होती है। जीवन चलाने के लिये याने जीवन के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए कुछ न्यूनतम गति तो अनिवार्य होती है। और मति को सर्वोत्तम गति से चलाने के लिये शरीर तथा मन की स्थिरता महत्त्वपूर्ण होती है। इन दोनों की गतियों का लक्ष्यप्राप्ति के लिये मति की गति के साथ किये गए समायोजन से हम जीवन की इष्ट गति प्राप्त कर सकते हैं। |
− | २. जीवन की गति बढने के दुष्परिणाम
| + | |
| + | === जीवन की गति बढने के दुष्परिणाम === |
| जीवन की गति अनावश्यक स्तर तक तेज हो जाने से समाज को निम्न परिणाम भोगने पडते हैं। | | जीवन की गति अनावश्यक स्तर तक तेज हो जाने से समाज को निम्न परिणाम भोगने पडते हैं। |
| १. जिनकी बुद्धि तेज चलती है ऐसे कुछ लोगों के पीछे बडी संख्या में सामान्य मनुष्य घसीटा जाता है। बुद्धि के तेज चलने से तात्पर्य ठीक चलने से नहीं है। तेज चलना और ठीक चलना दो भिन्न बातें होतीं हैं। | | १. जिनकी बुद्धि तेज चलती है ऐसे कुछ लोगों के पीछे बडी संख्या में सामान्य मनुष्य घसीटा जाता है। बुद्धि के तेज चलने से तात्पर्य ठीक चलने से नहीं है। तेज चलना और ठीक चलना दो भिन्न बातें होतीं हैं। |
| २. संस्कृति नष्ट हो जाती है। संस्कृति विकास के लिये समाज जीवन में ठहराव आवश्यक होता है। ठहराव से तात्पर्य गतिशून्यता से नहीं है। सामाजिक जीवन का पूरा प्रतिमान बिगड जाता है। जीवनशैली और व्यवस्थाएँ बिगड जातीं हैं। | | २. संस्कृति नष्ट हो जाती है। संस्कृति विकास के लिये समाज जीवन में ठहराव आवश्यक होता है। ठहराव से तात्पर्य गतिशून्यता से नहीं है। सामाजिक जीवन का पूरा प्रतिमान बिगड जाता है। जीवनशैली और व्यवस्थाएँ बिगड जातीं हैं। |
− | ३. जीवन एक दौड की स्पर्धा का रूप ले लेता है। हर संभव तरीके से आगे जाने का प्रयास हर कोई करने लगता है। आगे जाने की होड लग जाती है। कम बुध्दिवाले लोग होड में पिछड जाते हैं। इस के कारण ईर्षा, द्वेष आदि व्यापक हो जाते हैं। पैनी बुध्दिवाले लोग कम बुध्दिवाले लोगों का उपयोग अपने लिये करने लगते हैं। स्पर्धा में असफल हुए पिछडे लोगोंद्वारा बुद्धि का दुरूपयोग होने लग जाता है। | + | ३. जीवन एक दौड की स्पर्धा का रूप ले लेता है। हर संभव तरीके से आगे जाने का प्रयास हर कोई करने लगता है। आगे जाने की होड लग जाती है। कम बुध्दिवाले लोग होड में पिछड जाते हैं। इस के कारण ईर्षा, द्वेष आदि व्यापक हो जाते हैं। पैनी बुध्दिवाले लोग कम बुध्दिवाले लोगों का उपयोग अपने लिये करने लगते हैं। स्पर्धा में असफल हुए पिछडे लोगोंद्वारा बुद्धि का दुरूपयोग होने लग जाता है। |
− | जीवन को गति देनेवाले घटक | + | |
− | १. प्राकृतिक गति पतन की ओर (ढलानपर नीचे की ओर गति): किसी भी जीवंत ईकाई का विकास तो विशेष प्रयत्नों के अभाव में रुक जाता है। फिर भी -हास तो होता ही रहता है। नीचे के स्तर की ओर गति करना यह प्रकृति का नियम है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन डयू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। ऊपर के स्तर की ओर जाने के लिए विशेष परिश्रम करने होते हैं। अवतारों और मनीषियों ने किए हुए मार्गदर्शन के कारण प्रकृति के नियम के अनुसार नीचे के स्तर की ओर जाने की गति मंद हो जाती है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन ड्यू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। बाप से बेटा सवाई, गुरू गुड रहे चेला शकर बन गया जैसी अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी के निर्माण के लिए निर्मित परंपराएँ गुरूत्व - त्वरण के प्रभाव को कम करता है।
| + | === जीवन को गति देनेवाले घटक === |
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| + | ==== प्राकृतिक गति पतन की ओर (ढलानपर नीचे की ओर गति) ==== |
| + | <nowiki>:</nowiki> किसी भी जीवंत ईकाई का विकास तो विशेष प्रयत्नों के अभाव में रुक जाता है। फिर भी -हास तो होता ही रहता है। नीचे के स्तर की ओर गति करना यह प्रकृति का नियम है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन डयू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। ऊपर के स्तर की ओर जाने के लिए विशेष परिश्रम करने होते हैं। अवतारों और मनीषियों ने किए हुए मार्गदर्शन के कारण प्रकृति के नियम के अनुसार नीचे के स्तर की ओर जाने की गति मंद हो जाती है। नीचे की ओर गति में गुरूत्व - त्वरण (एक्सीलरेशन ड्यू टु ग्रॅव्हिटी) भी गति बढाने में योगदान देता है। बाप से बेटा सवाई, गुरू गुड रहे चेला शकर बन गया जैसी अपने से अधिक श्रेष्ठ अगली पीढी के निर्माण के लिए निर्मित परंपराएँ गुरूत्व - त्वरण के प्रभाव को कम करता है। |
| भारतीय चतुर्युगों की मान्यता मानव जाति के प्राकृतिक पतन के त्वरण को स्पष्ट करती है। निम्न तालिका देखें। | | भारतीय चतुर्युगों की मान्यता मानव जाति के प्राकृतिक पतन के त्वरण को स्पष्ट करती है। निम्न तालिका देखें। |
| युग धर्म : सत्य, यज्ञ, तप, दान अधर्म : असत्य, हिंसा, असंतोष, कलह पतन का कालखण्ड | | युग धर्म : सत्य, यज्ञ, तप, दान अधर्म : असत्य, हिंसा, असंतोष, कलह पतन का कालखण्ड |
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| द्वापर आधा अधिक तीसरा चौथाई ८,६४,००० वर्ष | | द्वापर आधा अधिक तीसरा चौथाई ८,६४,००० वर्ष |
| कलि चौथाई पूरा ४,३२,००० वर्ष | | कलि चौथाई पूरा ४,३२,००० वर्ष |
− | धर्म का पतन याने अधर्म के शून्य से चौथाई तक बढने के लिए सत्ययुग में १७,२९,००० वर्ष लगते हैं। त्रेता युग में यह गति तेज हो जाती है। अब दूसरे चौथाई पतन के लिए त्रेता युग में केवल १२,९६,००० वर्ष लगते हैं। द्वापर युग में धर्म के अगले चौथाई पतन के लिए ८,६४,००० वर्ष, तो कलियुग में अधर्म के चौथाई प्रमाण में बढने के लिए केवल ४,३२,००० वर्ष ही लगते हैं। | + | धर्म का पतन याने अधर्म के शून्य से चौथाई तक बढने के लिए सत्ययुग में १७,२९,००० वर्ष लगते हैं। त्रेता युग में यह गति तेज हो जाती है। अब दूसरे चौथाई पतन के लिए त्रेता युग में केवल १२,९६,००० वर्ष लगते हैं। द्वापर युग में धर्म के अगले चौथाई पतन के लिए ८,६४,००० वर्ष, तो कलियुग में अधर्म के चौथाई प्रमाण में बढने के लिए केवल ४,३२,००० वर्ष ही लगते हैं। |
− | २. जीवन के विपरीत प्रतिमान की शिक्षा
| + | |
| + | ==== जीवन के विपरीत प्रतिमान की शिक्षा ==== |
| वर्तमान में समस्या जीवन की इष्ट गति से कम गति की नहीं है। वर्तमान की समस्या है समाज जीवन को इष्ट गति से बहुत अधिक तेज गति प्राप्त होना। विपरीत शिक्षा से भी पतन की गति और इसलिए जीवन की गति भी तेज हो जाती है। वर्तमान की शिक्षा के निम्न घटक उसे विपरीत शिक्षा बनाते हैं। | | वर्तमान में समस्या जीवन की इष्ट गति से कम गति की नहीं है। वर्तमान की समस्या है समाज जीवन को इष्ट गति से बहुत अधिक तेज गति प्राप्त होना। विपरीत शिक्षा से भी पतन की गति और इसलिए जीवन की गति भी तेज हो जाती है। वर्तमान की शिक्षा के निम्न घटक उसे विपरीत शिक्षा बनाते हैं। |
− | अभारतीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली तथा व्यवस्थाएँ मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। वैसे तो तन्त्रज्ञान का विकास भी जीवन के प्रतिमान के अंतर्गत आनेवाला विषय है। लेकिन वर्तमान में तन्त्रज्ञान को जो महत्व प्राप्त हुआ है उस के कारण जीवनदृष्टि के सूत्रों के साथ तन्त्रज्ञान के विषय का स्वतंत्र विचार भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में स्थापित जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र, जीवनशैली याने प्रत्यक्ष व्यवहार के सूत्र और ऐसा व्यवहार हो सके इसलिए बनाई गई व्यवस्थाएँ आदि भी जीवन की गति बढाते हैं। | + | अभारतीय जीवनदृष्टि, जीवनशैली तथा व्यवस्थाएँ मिलकर जीवन का प्रतिमान बनता है। वैसे तो तन्त्रज्ञान का विकास भी जीवन के प्रतिमान के अंतर्गत आनेवाला विषय है। लेकिन वर्तमान में तन्त्रज्ञान को जो महत्व प्राप्त हुआ है उस के कारण जीवनदृष्टि के सूत्रों के साथ तन्त्रज्ञान के विषय का स्वतंत्र विचार भी आवश्यक हो गया है। वर्तमान में स्थापित जीवनदृष्टि के निम्न सूत्र, जीवनशैली याने प्रत्यक्ष व्यवहार के सूत्र और ऐसा व्यवहार हो सके इसलिए बनाई गई व्यवस्थाएँ आदि भी जीवन की गति बढाते हैं। |
− | २.१ व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं।
| + | # व्यक्तिवादिता या स्वार्थ आधारित संबंध : स्वार्थ आधारित सामाजिक संबंधों के कारण प्रत्येक सामाजिक संबंध में अधिकारों के लिए संघर्ष और इस कारण बलवानों का वर्चस्व, अमर्याद व्यक्तिगत स्वातंत्र्य के कारण स्वैराचार, अपने से दुर्बल ऐसे प्रत्येक का शोषण, बलवानों के स्वार्थ का पोषण करनेवाली व्यवस्थाएँ आदि बातें समाज में स्थापित हो जातीं हैं। जब बलवानों का स्वार्थ समाज जीवन के परस्पर संबंधों का आधार होगा तो जीवन की गति का निर्धारण भी जिन की बुद्धि बलवान होती है याने की बुद्धि की गति तेज है ऐसे स्वार्थी लोग ही करते हैं। |
− | २.२ ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। इसलिए इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है।
| + | # ईहवादिता और जडवदिता : जो भी कुछ है बस यही जीवन है। इस जन्म के आगे कुछ नहीं होगा और इस जन्म से पहले भी कुछ नहीं था ऐसी मान्यता को इहवादिता कहते हैं। इस के कारण जितना भी अधिक से अधिक उपभोग मैं इस जन्म में कर सकता हूँ कर लूँ ऐसी महत्वाकांक्षा निर्माण हो जाती है। उपभोक्तावाद को बढावा मिलता है। प्रकृति का अनावश्यक विनाश होता है। इस अधिक से अधिक उपभोग करने की होड के कारण जीवन को अनावश्यक तेज गति प्राप्त हो जाती है। सारी सृष्टि जड से बनीं है ऐसा मान लेने से जीवन की गति का विचार ही नष्ट हो जाता है। वर्तमान विज्ञान के अनुसार जड पदार्थों की अधिकतम गति प्रकाश की गति होती है। इसलिए इस प्रकाश की गति के अधिक से अधिक निकट की गति प्राप्त करने के प्रयास वर्तमान में हो रहे हैं। जड की गति की सहायता से जीवन की गति बढाने को ही विकास माना जा रहा है। इस कारण भी जीवन की गति इष्ट गति से बहुत अधिक हो गई है। |
− | २.३ तन्त्रज्ञान : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अभारतीय जीवनदृष्टिवाले लोगों के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अभारतीय समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान का साधन नहीं था। इसलिए वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है।
| + | # तन्त्रज्ञान : वैसे तो विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों ही तटस्थ होते हैं। अपने आप में वे हानिकारक या लाभकारक नहीं होते। उनके विकास और उपयोजन के पीछे काम करनेवाली जीवनदृष्टि ही उन्हें उपकारक या हानिकारक बनाती है। यूरो-अमरीकी याने अभारतीय जीवनदृष्टिवाले लोगों के हाथ में नेतृत्व होने से तन्त्रज्ञान उपकारक कम और संहारक अधिक हो गया है। २०० वर्ष पहले भी अभारतीय समाजों की जीवनदृष्टि तो वही थी जो आज है। लेकिन उस समय उनके पास तन्त्रज्ञान का साधन नहीं था। इसलिए वे जीवन को अधिक गति दे नहीं पाए थे। लेकिन जब से तन्त्रज्ञान का शस्त्र उनके हाथ में लगा है, तन्त्रज्ञान के विकास और उपयोजन के कारण जीवन की गति इष्ट गति से अत्यंत अधिक हो गई है। |
− | भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के महत्त्वपूर्ण सूत्र | + | |
− | १. विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों तटस्थ होते हैं। उन्हें हितकारी या विनाशक तो बनानेवाला और उसका उपयोग कल्याण के लिये करता है या नाश के लिये इसपर निर्भर है। विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल पात्र मनुष्य को ही मिले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस दृष्टि से विविध तंत्रज्ञानों के लिये पात्रता के निकष लगाकर उसमें पात्र सिध्द हुए युवकों को ही तन्त्रज्ञान का अंतरण करना।
| + | == भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के महत्त्वपूर्ण सूत्र == |
− | २. पारीवारिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विकास को प्रोत्साहन देना। केवल आपध्दर्म के रूप में कुछ सुरक्षा उद्योगों को जबतक वैश्विक परिदृष्य बदलने में हम सफल नहीं हो जाते तबतक इस में छूट देनी होगी।
| + | # विज्ञान और तन्त्रज्ञान दोनों तटस्थ होते हैं। उन्हें हितकारी या विनाशक तो बनानेवाला और उसका उपयोग कल्याण के लिये करता है या नाश के लिये इसपर निर्भर है। विज्ञान और तन्त्रज्ञान केवल पात्र मनुष्य को ही मिले यह सुनिश्चित करना आवश्यक है। इस दृष्टि से विविध तंत्रज्ञानों के लिये पात्रता के निकष लगाकर उसमें पात्र सिध्द हुए युवकों को ही तन्त्रज्ञान का अंतरण करना। |
− | ३. नॅनो, जैविक या न्यूक्लियर जैसे तन्त्रज्ञान का विकास और सुपात्रों को अंतरण भी केवल आपध्दर्म के रूप में करना। यहाँ सुपात्र की कसौटि अत्यंत कठोर होगी। कनपटीपर बंदूक लगानेपर भी, माँ, बहन, पत्नि, पति, बेटी आदि जैसे करीबी रिश्तेदारों की हत्या करने की गंभीर धमकी के उपरांत भी जो तन्त्रज्ञान का न तो स्वत: दुरूपयोग करेगा और ना ही करने देगा वही ऐसे तंत्रज्ञानों के लिये सुपात्र माना जाए।
| + | # पारीवारिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विकास को प्रोत्साहन देना। केवल आपध्दर्म के रूप में कुछ सुरक्षा उद्योगों को जबतक वैश्विक परिदृष्य बदलने में हम सफल नहीं हो जाते तबतक इस में छूट देनी होगी। |
− | ४. सर्वे भवन्तु सुखिन: ही हमारी विज्ञान और तन्त्रज्ञान नीति का एकमात्र मार्गदर्शक सूत्र होगा। इसका व्यावहारिक स्वरूप निम्न होगा।
| + | # नॅनो, जैविक या न्यूक्लियर जैसे तन्त्रज्ञान का विकास और सुपात्रों को अंतरण भी केवल आपध्दर्म के रूप में करना। यहाँ सुपात्र की कसौटि अत्यंत कठोर होगी। कनपटीपर बंदूक लगानेपर भी, माँ, बहन, पत्नि, पति, बेटी आदि जैसे करीबी रिश्तेदारों की हत्या करने की गंभीर धमकी के उपरांत भी जो तन्त्रज्ञान का न तो स्वत: दुरूपयोग करेगा और ना ही करने देगा वही ऐसे तंत्रज्ञानों के लिये सुपात्र माना जाए। |
| + | # सर्वे भवन्तु सुखिन: ही हमारी विज्ञान और तन्त्रज्ञान नीति का एकमात्र मार्गदर्शक सूत्र होगा। इसका व्यावहारिक स्वरूप निम्न होगा: |
| ४.१ ऐसे तन्त्रज्ञान जिनसे चराचर का हित होता है - स्वीकारार्ह हैं। | | ४.१ ऐसे तन्त्रज्ञान जिनसे चराचर का हित होता है - स्वीकारार्ह हैं। |
| ४.२ जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानी किसी की नहीं होती - स्वीकारार्ह हैं। | | ४.२ जिन तंत्रज्ञानों से किसी को लाभ तो होता है लेकिन हानी किसी की नहीं होती - स्वीकारार्ह हैं। |
| ४.३ जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं। | | ४.३ जिन तंत्रज्ञानों से चराचर सभी की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं। |
| ४.४ जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं। | | ४.४ जिन के प्रयोग से कुछ लोगों का लाभ होता है और कुछ लोगों की हानी होती है - अस्वीकार्य हैं। |
− | उपर्युत में से ३ रे और ४ थे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनियाँभर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरेधीरे लेकिन कठोरतासे ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा। | + | उपर्युत में से ३ रे और ४ थे प्रकार के तन्त्रज्ञान ही दुनियाँभर की तंत्रज्ञानों से निर्मित समस्याओं के मूल कारण हैं। वर्तमान में ऐसे तंत्रज्ञानों का ही बोलबाला है। इसलिये धीरेधीरे लेकिन कठोरतासे ऐसे तंत्रज्ञानों का उपयोग और विकास रोकना होगा। |
− | ५. कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बडे उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बडे उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बडे उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है। | + | |
− | भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के अनुपालन की प्रक्रिया | + | ५. कौटुम्बिक उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों के विकास को प्रोत्साहन देना और बडे उद्योगों के लिये उपयुक्त तंत्रज्ञानों को हतोत्साहित करना। कौटुम्बिक उद्योग समाज की आवश्यकताओं के साथ अपने को समायोजित करते हैं। जब की बडे उद्योग अपने हित के लिये समाज को विज्ञापनबाजी, भ्रष्टाचार आदि के माध्यम से समायोजित करते हैं। कौटुम्बिक उद्योगों की अर्थव्यवस्था में धन विकेंद्रित हो जाता है। सम्पत्ति का वितरण लगभग समान होता है। बडे उद्योगों की अर्थव्यवस्था में अमीर, और अमीर बनते हैं। गरीबी और अमीरी की खाई बढती जाती है। अर्थ का प्रभाव और अभाव ऐसी दोनों बीमारियों से समाज ग्रस्त हो जाता है। अर्थ का अभाव और प्रभाव निर्माण होकर समाज को अशांत और दु:खी बना देता है। |
− | वर्तमान की आओ जाओ घर तुम्हारा है जैसी यानी धर्मशाला जैसी मुक्त या दुष्टों के हाथों में भी संहारक तन्त्रज्ञान जाने से न रोकने वाली विकृत तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधारपर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है।
| + | |
− | १. ‘कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग’ यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना।
| + | == भारतीय तन्त्रज्ञान नीति के अनुपालन की प्रक्रिया == |
− | २. कौटुम्बिक उद्योगों की महत्ता, असुर वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, असुर प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होनेवाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में, सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना। असुरों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबध्द करना।
| + | वर्तमान की आओ जाओ घर तुम्हारा है जैसी यानी धर्मशाला जैसी मुक्त या दुष्टों के हाथों में भी संहारक तन्त्रज्ञान जाने से न रोकने वाली विकृत तन्त्रज्ञान नीति से सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये उपयुक्त तन्त्रज्ञान नीति तक समाज को ले जाना अत्यंत कठिन बात है। लेकिन करणीय तो यही है। इसलिये हर प्रकार के प्रयत्नों से करना तो ऐसा ही होगा। कई प्रकार के बिंदू इसमें ध्यान में लेने की आवश्यकता है। इस दृष्टि से कुछ बिन्दू नीचे दे रहे हैं। अपनी मति और अनुभवों के आधारपर स्थल, काल और परिस्थिति का ध्यान रखकर इस परिवर्तन की प्रक्रिया को सुदृढ और तेज किया जा सकता है। |
− | ३. पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना।
| + | # ‘कुटुम्ब और कौटुम्बिक उद्योग’ यह विषय शिक्षा के हर स्तरपर शक्ति के साथ समाविष्ट करना। |
− | ४. वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना।
| + | # कौटुम्बिक उद्योगों की महत्ता, असुर वृत्ति के लोगों को कैसे पहचानना, असुर प्रवृत्तियों के हाथों में घातक तन्त्रज्ञान जाने से होनेवाले सामाजिक दुष्परिणामों के विषय में, सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तंत्रज्ञानों के व्यावहारिक उपयोजन आदि के बारे में शिक्षा के माध्यम से बच्चों के मन को आकार देना। असुरों के हाथ में ऐसा कोई भी घातक तन्त्रज्ञान नहीं जाने देंगे इस बिंदूपर उन्हें संकल्पबध्द करना। |
− | ५. जो भी कौटुम्बिक उद्योग शुरू करना चाहता है उसे भी हर तरह से बढावा देना।
| + | # पहल करना, प्रोत्साहन देना, प्रायोजित करना ऐसे भिन्न भिन्न मार्गों से ‘संयुक्त कुटुम्बों का सुसंस्कृत, समृध्द और शक्तिशाली समाज बनाने में योगदान’ के ऊपर शोध कार्य करवाना। ऐसा सभी ज्ञान, शिक्षा में और समाज में लाना। |
− | ६. तन्त्रज्ञान महाविद्यालयों में कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विषय उसकी भिन्न भिन्न विधाओं के साथ शुरू करना। जैसे जैसे कौटुम्बिक उद्योग बढते जाएँगे बाजारू तन्त्रज्ञान विद्यालय/महाविद्यालय, उनकी आवश्यकताही नहीं होने से अपने आप बंद हो जाएँगे।
| + | # वर्तमान में जो कौटुम्बिक उद्योग चल रहे हैं उन्हें हर तरह से बढावा देना। |
− | ७. इस दृष्टि से उद्योग मंत्रालय में ‘कौटुम्बिक उद्योग प्रोत्साहन विभाग’ शुरू करना। इस विभाग को हर प्रकार की प्राथमिकता देना।
| + | # जो भी कौटुम्बिक उद्योग शुरू करना चाहता है उसे भी हर तरह से बढावा देना। |
− | ८. कौटुम्बिक उद्योगों में काम करनेवाले छोटे बच्चों को बाल मजदूरी के कानून से छुटकारा देना।
| + | # तन्त्रज्ञान महाविद्यालयों में कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान विषय उसकी भिन्न भिन्न विधाओं के साथ शुरू करना। जैसे जैसे कौटुम्बिक उद्योग बढते जाएँगे बाजारू तन्त्रज्ञान विद्यालय/महाविद्यालय, उनकी आवश्यकताही नहीं होने से अपने आप बंद हो जाएँगे। |
− | ९. माध्यमिक स्तरपर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माणकी संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना।
| + | # इस दृष्टि से उद्योग मंत्रालय में ‘कौटुम्बिक उद्योग प्रोत्साहन विभाग’ शुरू करना। इस विभाग को हर प्रकार की प्राथमिकता देना। |
− | १०. तन्त्रज्ञान विषय के वर्तमान प्राध्यापकों को कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान में लगाना। न्यूनतम एक नये कौटुम्बिक तन्त्रज्ञान के विकास की शर्त पदोन्नति की अनिवार्य शर्त बनाना। इसके अभाव में वेतन में वृद्धि रोकने जैसे उपायों का भी उचित ढँग से उपयोग करना।
| + | # कौटुम्बिक उद्योगों में काम करनेवाले छोटे बच्चों को बाल मजदूरी के कानून से छुटकारा देना। |
− | ११. जिनकी कौटुम्बिक उद्योगों में निष्ठा नहीं है उन्हें शासकीय तन्त्रज्ञान विद्यालयों में नौकरी नहीं देना। वर्तमान नौकरों को हतोत्साहित करना।
| + | # माध्यमिक स्तरपर सर्वे भवन्तु सुखिन: के लिये तन्त्रज्ञान के निर्माणकी संकल्पना को बच्चों के मनों में स्थापित करना। |
− | १२. तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना।
| + | # तन्त्रज्ञान विषय के वर्तमान प्राध्यापकों को कौटुम्बिक उद्योगों के लिये तन्त्रज्ञान के अध्ययन और अनुसंधान में लगाना। न्यूनतम एक नये कौटुम्बिक तन्त्रज्ञान के विकास की शर्त पदोन्नति की अनिवार्य शर्त बनाना। इसके अभाव में वेतन में वृद्धि रोकने जैसे उपायों का भी उचित ढँग से उपयोग करना। |
− | १३. हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकोंने और शिक्षकोंने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधारपर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना।
| + | # जिनकी कौटुम्बिक उद्योगों में निष्ठा नहीं है उन्हें शासकीय तन्त्रज्ञान विद्यालयों में नौकरी नहीं देना। वर्तमान नौकरों को हतोत्साहित करना। |
− | १३. पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणालि को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधारपर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियोंको लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है।
| + | # तंत्रशास्त्र के प्राध्यापकों के विकास के लिये बारबार ‘कौटुम्बिक उद्योग-आमुखीकरण’ की कार्यशालाएँ, पाठयक्रमों का आयोजन करना। इन में उपस्थिति की अनिवार्यता रखना। हर ५ वर्ष में एक बार प्राध्यापकोंने और शिक्षकोंने कौटुम्बिक उद्योगों का विषय कितना आत्मसात किया है इस का परिक्षण करना। परीक्षण के आधारपर योग्य बदलाव के लिये सकारात्मक और नकारात्मक कार्यवाही करना। |
− | १४. दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ कालतक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपध्दर्म ही है। यह कालखण्ड शायद ३ -४ पीढीयोंतक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ कालतक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनियाँ की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा।
| + | # पात्रता और कुपात्रता की परीक्षा प्रणालि को कौटुम्बिक पार्श्वभूमि, सामान्य व्यवहार, स्वभाव की विशेषताएँ आदि के आधारपर मूल्यांकन करने की पक्की प्रक्रिया का विकास करना। वैसे कोई सुसंस्कृत है, धर्माचरणी है इसे जानना बहुत कठिन नहीं होता। इस दृष्टि से परीक्षक की निष्पक्षता, सर्वभूतहितेरत: वृत्ति या स्वभाव और परीक्षा की विधा का ज्ञान इन तीन कसौटियोंको लगाकर परीक्षक का चयन किया जा सकता है। |
− | १५. बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना।
| + | # दुष्ट समाजों से संरक्षण हेतु कुछ कालतक तो संहारक शस्त्रों के तन्त्रज्ञान का विकास और उपयोग करना हमारे लिये आपध्दर्म ही है। यह कालखण्ड शायद ३ -४ पीढीयोंतक का भी हो सकता है। इसलिये कुछ कालतक तो एक ओर कौटुम्बिक उद्योग आधारित तन्त्रज्ञान युग और दूसरी ओर कुछ अनिवार्य प्रमाण में बडे उद्योगों का युग ऐसे दोनों युग साथ में चलेंगे। क्रमश: दूसरा युग विश्वभर में क्षीण होता जाए ऐसे प्रयास करने होंगे। इसके लिये हमें दुनियाँ की क्रमांक एक की भौतिक शक्ति तो बनना ही होगा। |
− | १६. पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी।
| + | # बडे उद्योग इसे सहजता से नहीं लेंगे। इसलिये एक ओर तो समाज में कौटुम्बिक उद्योगों के संबंध में जागरूकता निर्माण करना और साथ में बडे उद्योगों को दी जानेवाली सुविधाएँ कम करते जाना और दूसरी ओर बडे उद्योग कौटुम्बिक उद्योगों को हानी न पहुँचा पाए इसकी आश्वस्ति जागरूक और सक्षम कानून और सुरक्षा व्यवस्था के माध्यम से करना। |
− | मनुष्य और समाज | + | # पुराने और नये तंत्रज्ञानों के सार्वत्रिकीकरण के लिये नियामक व्यवस्था निर्माण करना। जो वर्तमान तन्त्रज्ञान इन नियमों के विपरीत समझ में आएँ उन्हें न्यूनतम हानी हो इस ढँग से कालबध्द तरीके से बंद करना। नियामक व्यवस्था के दो स्तर होंगे। पहले स्तरपर तन्त्रज्ञान को ‘पर्यावरण सुरक्षा’ की कसौटिपर परखा जाएगा। इस में अनुत्तीर्ण तन्त्रज्ञान को सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। पर्यावरण सुरक्षा की कसौटी में उत्तीर्ण हुए तन्त्रज्ञान को दूसरे स्तरपर ‘सामाजिकता की सुरक्षा’ की कसौटी लगाई जाएगी। जो तन्त्रज्ञान सामाजिकता को हानि पहुँचानेवाले होंगे वे अनुत्तीर्ण होंगे। उन के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति नहीं मिलेगी। जो तन्त्रज्ञान दोनों ही कसौटियो में उत्तीर्ण होंगे उन्हीं के सार्वत्रिकीकरण की अनुमति दी जाएगी। मनुष्य और समाज मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्त्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे। |
− | मनुष्य समाज का एक घटक होता है। किसी एक मनुष्य के नहीं होने से समाज जीवन में सामान्यत: कुछ कमी नहीं आती। किंतु समाज नहीं होने से मनुष्य तो पशु जीवन व्यतीत करने के लिए बाध्य हो जाएगा। इसलिये मनुष्य और समाज का संबंध अंगांगी संबंध होता है। मनुष्य अंग होता है और समाज अंगी होता है। अंग का धर्म होता है अंगी के धर्म के अविरोधी रहना। अर्थात् मनुष्य ऐसा कुछ नहीं करे जो सामाजिक हित का विरोधी हो। सामाजिक सुख का विरोधी हो। | + | ## सुसाध्य आजीविका:जीने के लिए आवश्यक पदाथों की प्राप्ति सहज हो। इन पदाथों की प्राप्ति के लिए किए गये परिश्रम से मनुष्य का स्वास्थ्य नहीं बिगडे। साथ ही में दिन में ८ घंटे से अधिक उसे आजीविका के लिए व्यय नहीं करना पडे। |
− | इस दृष्टि से सामाजिकता का तकाजा है कि कोई भी मनुष्य, समाज जीवन की इष्ट गति के विरोध में व्यवहार नहीं करे। किसी की मति अन्यों की तुलना में बहुत पैनी हो सकती है। लेकिन वह इस पैनी मति का याने मति की तेज गति का उपयोग जिससे समाज की इष्ट गति में बडी मात्रा में वृद्धि होती हो इस तरह से नहीं करे। | + | ## शांति : शांति से तात्पर्य मनुष्य को जो विश्राम की आवश्यकता होती है उससे है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों के कारण थकान आना स्वाभाविक होता है। कुछ भी नहीं करने के उपरांत भी कुछ समय के बाद थकान तो आती ही है। इस थकान को मिटाने के लिए भी उसे विश्राम की, आराम की आवश्यकता तो होती ही है। दिन में ८ घंटे मनुष्य को यदि चिंतामुक्त आराम/विश्राम /नींद के लिए समय मिलता है तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में शांति है। |
− | हमने ऊपर देखा है कि सुख ही इष्ट गति का नियामक तत्त्व है। देशिक शास्त्र के अनुसार सुख प्राप्ति के लिए मनुष्य को चार बातें आवश्यक होतीं हैं। सुसाध्य आजीविका, शांति, स्वतन्त्रता और पुरूषार्थ। इन चार घटकों के आधारपर हम अब इष्ट गति के लिए समाज जीवन के लिए आवश्यक मानव की दिनचर्या का मोटा मोटा विचार करेंगे। | + | ## स्वतन्त्रता : आजीविका का संबंध समाज से होता है। इस लिए आजीविका के अर्जन में मनुष्य पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। मनुष्य की स्वतन्त्रता से यहाँ तात्पर्य है जिन बातों में मनुष्य रुचि रखता है उन बातों के लिए किसी के भी अवरोध या विरोध के बिना वह कुछ समय व्यतीत कर सके। सामान्यत: दिन में यह समय ४ घंटे का होता है तो यह उचित होगा। |
− | १. सुसाध्य आजीविका:जीने के लिए आवश्यक पदाथों की प्राप्ति सहज हो। इन पदाथों की प्राप्ति के लिए किए गये परिश्रम से मनुष्य का स्वास्थ्य नहीं बिगडे। साथ ही में दिन में ८ घंटे से अधिक उसे आजीविका के लिए व्यय नहीं करना पडे।
| + | ## पुरूषार्थ : आजीविका का अर्जन वास्तव में पुरूषार्थ ही होता है। लेकिन यहाँ पुरूषार्थ से तात्पर्य है अन्यों के लिए किए गये प्रयासों से। अन्यों के हित के लिए दिए गए समय से। जब समाज का हर मनुष्य अपनी आजीविका अर्जन के काम के साथ ही दिन में ४ घंटे समाज के हित के अन्य कोई काम करता है तब सुख समष्टिगत बनता है। सुख जब समष्टिगत होता है तब मनुष्य भी सुखी होता है। सुख जितना समष्टिगत होता है उस के प्रमाण में ही मनुष्य भी सुख प्राप्त करता है। |
− | २. शांति : शांति से तात्पर्य मनुष्य को जो विश्राम की आवश्यकता होती है उससे है। लक्ष्य की प्राप्ति के लिए किए गए प्रयासों के कारण थकान आना स्वाभाविक होता है। कुछ भी नहीं करने के उपरांत भी कुछ समय के बाद थकान तो आती ही है। इस थकान को मिटाने के लिए भी उसे विश्राम की, आराम की आवश्यकता तो होती ही है। दिन में ८ घंटे मनुष्य को यदि चिंतामुक्त आराम/विश्राम /नींद के लिए समय मिलता है तो हम कह सकते हैं कि मनुष्य के जीवन में शांति है।
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− | ३. स्वतन्त्रता : आजीविका का संबंध समाज से होता है। इस लिए आजीविका के अर्जन में मनुष्य पूर्णत: स्वतंत्र नहीं होता। मनुष्य की स्वतन्त्रता से यहाँ तात्पर्य है जिन बातों में मनुष्य रुचि रखता है उन बातों के लिए किसी के भी अवरोध या विरोध के बिना वह कुछ समय व्यतीत कर सके। सामान्यत: दिन में यह समय ४ घंटे का होता है तो यह उचित होगा।
| + | == उपसंहार == |
− | ४. पुरूषार्थ : आजीविका का अर्जन वास्तव में पुरूषार्थ ही होता है। लेकिन यहाँ पुरूषार्थ से तात्पर्य है अन्यों के लिए किए गये प्रयासों से। अन्यों के हित के लिए दिए गए समय से। जब समाज का हर मनुष्य अपनी आजीविका अर्जन के काम के साथ ही दिन में ४ घंटे समाज के हित के अन्य कोई काम करता है तब सुख समष्टिगत बनता है। सुख जब समष्टिगत होता है तब मनुष्य भी सुखी होता है। सुख जितना समष्टिगत होता है उस के प्रमाण में ही मनुष्य भी सुख प्राप्त करता है।
| + | तन्त्रज्ञान दृष्टि में बदलाव लाना सहज बात नहीं है। लेकिन फिर भी यह करणीय होने से विशेष ध्यान देकर इसे स्थापित करना होगा। यह बदलाव अकेले तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में नहीं आ सकता। इसलिये हम जिस प्रतिमान में जी रहे हैं उस अभारतीय प्रतिमान के प्रत्येक घटक को बदलने की प्रक्रिया समांतर ंतथा साथ साथ चलानी होगी। साथ साथ चलाने से ऐसे परिवर्तन के प्रयास एक दूसरे के पूरक और पोषक होंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया को भूमितीय प्रमाण में गति देंगे। वैसे तो दुनियाँ के अन्य समाज भी उनके वर्तमान प्रतिमान के कारण दु:खी ही है। लेकिन उनके पास वर्तमान प्रतिमान से अधिक श्रेष्ठ विकल्प ही नहीं है। हमारे पास जीवन के भारतीय प्रतिमान का कालसिध्द श्रेष्ठ विकल्प भी है और करने की सामर्थ्य भी है। आवश्यकता है इस परिवर्तन के संकल्प की। |
− | उपसंहार | |
− | तन्त्रज्ञान दृष्टि में बदलाव लाना सहज बात नहीं है। लेकिन फिर भी यह करणीय होने से विशेष ध्यान देकर इसे स्थापित करना होगा। | |
− | यह बदलाव अकेले तन्त्रज्ञान के क्षेत्र में नहीं आ सकता। इसलिये हम जिस प्रतिमान में जी रहे हैं उस अभारतीय प्रतिमान के प्रत्येक घटक को बदलने की प्रक्रिया समांतर ंतथा साथ साथ चलानी होगी। साथ साथ चलाने से ऐसे परिवर्तन के प्रयास एक दूसरे के पूरक और पोषक होंगे। परिवर्तन की प्रक्रिया को भूमितीय प्रमाण में गति देंगे। | |
− | वैसे तो दुनियाँ के अन्य समाज भी उनके वर्तमान प्रतिमान के कारण दु:खी ही है। लेकिन उनके पास वर्तमान प्रतिमान से अधिक श्रेष्ठ विकल्प ही नहीं है। हमारे पास जीवन के भारतीय प्रतिमान का कालसिध्द श्रेष्ठ विकल्प भी है और करने की सामर्थ्य भी है। आवश्यकता है इस परिवर्तन के संकल्प की। | |
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