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| == शिक्षा का व्यक्ति जीवन में स्थान == | | == शिक्षा का व्यक्ति जीवन में स्थान == |
− | मनुष्य के जीवन के साथ शिक्षा सहज रूप से जुड़ी हुई | + | मनुष्य के जीवन के साथ शिक्षा सहज रूप से जुड़ी हुई है । जिस प्रकार व्यक्ति जीवनभर श्वास लेता है उसी प्रकार वह जीवनभर सीखता रहता है । वह जाने या न जाने वह सीखता है । वह चाहे या न चाहे सीखता है । उसे सिखाने वाला भी जानता हो या नहीं वह सीखता है । सिखाने वाला चाहे या न चाहे वह सीखता है। आज हम शिक्षा को विद्या केन्द्र तक सीमित रखते हैं, पदवी और प्रमाणपत्र के साथ जोड़ते हैं, पुस्तकों ,पाठ्यक्रमों , परीक्षाओं में बाँधते हैं, दिनचर्या और जीवनचर्या में एक समयसीमा में करने लायक काम समझते हैं । परन्तु वह स्वभाव से ही सीमित और बँधी हुई रहने वाली है नहीं । हमें ऐसी स्वाभाविक, सहज, निरन्तर चलने वाली शिक्षा का विचार करना है । |
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− | है । जिस प्रकार व्यक्ति जीवनभर श्वास लेता है उसी प्रकार | + | दूसरी बात यह है कि शिक्षा मनुष्य के लिये अत्यन्त आवश्यक है । हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि में जितने भी चर अचर, सजीव निर्जीव पदार्थ, वनस्पति या प्राणी हैं उनमें मनुष्य का दर्जा विशिष्ट है। मनुष्य पंचमहाभूतों की तरह शरीरधारी है । मनुष्य वनस्पति और प्राणियों की तरह प्राणयुक्त है । इसलिये शरीर और प्राण तक का उसका जीवन पंचमहाभूतों और वनस्पति तथा प्राणियों के समान होता है । |
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− | वह जीवनभर सीखता रहता है । वह जाने या न जाने वह
| + | परन्तु उसे मन है, बुद्धि है, अहंकार है, चित्त है । शास्त्रों ने इसे अन्तःकरण कहा है । मनुष्य का अन्तःकरण बहुत सक्रिय होता है । सक्रिय अन्तः:करण के कारण ही मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि में सबसे श्रेष्ठ और एकमेवादट्रितीय अस्तित्व धारण करने वाला बना है । मनुष्य को छोड़कर शेष सारे पदार्थ और प्राणी प्रकृति के नियन्त्रण में रहते हैं और प्रकृतिदत्त स्वभाव के अनुसार व्यवहार करते हैं । मनुष्य को अन्तःकरण के कारण स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है । स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के के दो पहलुओं की तरह जुड़ा हुआ है। मनुष्य को स्वतन्त्रतापूर्वक जीने का अधिकार और दायित्व के साथ जीने का कर्तव्य प्राप्त हुआ है । ऐसा जीवन जीना उसे विशेष प्रयासपूर्वक सीखना होता है । अत: सीखने की प्रक्रिया कितनी ही सहज और स्वाभाविक होती हो, सिखाने की क्रिया तो आयोजन और नियोजनपूर्वक होना आवश्यक है । |
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− | सीखता है । वह चाहे या न चाहे सीखता है । उसे सिखाने
| + | हमारी सजगता इस बात की होनी चाहिये सिखाने कि क्रिया, अर्थात उसके लिये किया जाने वाला आयोजन और नियोजन, सीखने की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुकूल और अनुरूप हो । शिक्षा को लेकर आज हमारी जितनी भी शिकायतें हैं वे सब इन दो बातों के परस्पर सामंजस्य के नितान्त अभाव से ही पैदा हुई हैं । |
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− | वाला भी जानता हो या नहीं वह सीखता है । सिखाने वाला
| + | पंचमहाभूतों, वनस्पतियों और प्राणियों में जो है वह तो मनुष्य में है ही, परन्तु उनमें जो नहीं है वह भी, अर्थात सक्रिय अन्तःकरण भी, मनुष्य में है । यही मनुष्य की पहचान है। यही मनुष्य की विशेषता है । इसके कारण ही मनुष्य मनुष्य बनता है । पशु को पशु बनना सहज और सरल है । |
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− | चाहे या न चाहे वह सीखता है। आज हम शिक्षा को
| + | मनुष्य को मनुष्य बनना और बने रहना सहज और सरल नहीं होता है । मनुष्य को मनुष्य बनने और बने रहने के लिये शिक्षा आवश्यक है । ऐसी शिक्षा का आयोजन और नियोजन करना होता है । मनुष्य को आजीवन मनुष्य बने रहना है । |
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− | विद्याकेन्द्र तक सीमित रखते हैं, पदवी और प्रमाणपत्र के
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− | साथ जोड़ते हैं, पुस्तकों ,पाठ्यक्रमों , परीक्षाओं में बाँधते हैं,
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− | दिनचर्या और जीवनचर्या में एक समयसीमा में करने लायक
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− | काम समझते हैं । परन्तु वह स्वभाव से ही सीमित और बँधी
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− | हुई रहने वाली है नहीं । हमें ऐसी स्वाभाविक, सहज, निरन्तर
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− | चलने वाली शिक्षा का विचार करना है ।
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− | दूसरी बात यह है कि शिक्षा मनुष्य के लिये अत्यन्त
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− | आवश्यक है । हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि में जितने भी चर अचर, सजीव निर्जीव पदार्थ, वनस्पति या प्राणी हैं उनमें
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− | मनुष्य का दर्जा विशिष्ट है। मनुष्य पंचमहाभूतों की तरह
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− | शरीरधारी है । मनुष्य वनस्पति और प्राणियों की तरह
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− | प्राणयुक्त है । इसलिये शरीर और प्राण तक का उसका जीवन
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− | पंचमहाभूतों और वनस्पति तथा प्राणियों के समान होता है ।
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− | परन्तु उसे मन है, बुद्धि है, अहंकार है, चित्त है । शास्त्रों ने
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− | इसे अन्तःकरण कहा है । मनुष्य का अन्तःकरण बहुत सक्रिय
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− | होता है । सक्रिय अन्तः:करण के कारण ही मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि
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− | में सबसे श्रेष्ठ और एकमेवादट्रितीय अस्तित्व धारण करने वाला
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− | बना है । मनुष्य को छोड़कर शेष सारे पदार्थ और प्राणी
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− | प्रकृति के नियन्त्रण में रहते हैं और प्रकृतिदत्त स्वभाव के
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− | अनुसार व्यवहार करते हैं । मनुष्य को अन्तःकरण के कारण
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− | स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है । स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के
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− | के दो पहलुओं की तरह जुड़ा हुआ है। मनुष्य को
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− | स्वतन्त्रतापूर्वक जीने का अधिकार और दायित्व के साथ जीने
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− | का कर्तव्य प्राप्त हुआ है । ऐसा जीवन जीना उसे विशेष
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− | प्रयासपूर्वक सीखना होता है । अत: सीखने की प्रक्रिया
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− | कितनी ही सहज और स्वाभाविक होती हो, सिखाने की
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− | क्रिया तो आयोजन और नियोजनपूर्वक होना आवश्यक है ।
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− | हमारी सजगता इस बात की होनी चाहिये सिखाने कि क्रिया,
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− | अर्थात उसके लिये किया जाने वाला आयोजन और
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− | नियोजन, सीखने की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुकूल
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− | और अनुरूप हो । शिक्षा को लेकर आज हमारी जितनी भी
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− | शिकायतें हैं वे सब इन दो बातों के परस्पर सामंजस्य के
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− | नितान्त अभाव से ही पैदा हुई हैं ।
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− | पंचमहाभूतों, वनस्पतियों और प्राणियों में जो है वह तो
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− | मनुष्य में है ही, परन्तु उनमें जो नहीं है वह भी, अर्थात
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− | सक्रिय अन्तःकरण भी, मनुष्य में है । यही मनुष्य की पहचान
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− | है। यही मनुष्य की विशेषता है । इसके कारण ही मनुष्य
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− | मनुष्य बनता है । पशु को पशु बनना सहज और सरल है ।
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− | मनुष्य को मनुष्य बनना और बने रहना सहज और सरल नहीं | |
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− | होता है । मनुष्य को मनुष्य बनने और बने रहने के लिये | |
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− | शिक्षा आवश्यक है । ऐसी शिक्षा का आयोजन और नियोजन | |
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− | करना होता है । मनुष्य को आजीवन मनुष्य बने रहना है । | |
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| इसलिये शिक्षा भी आजीवन चलती है । | | इसलिये शिक्षा भी आजीवन चलती है । |
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| == धर्म विश्वनियम है == | | == धर्म विश्वनियम है == |
− | मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्त्व | + | मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्त्व है वह धर्म है । आश्चर्य मत करें । वर्तमान के अनेक सन्दर्भों के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है । बहुत संक्षेप में हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है । |
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− | है वह धर्म है । आश्चर्य मत करें । वर्तमान के अनेक सन्दर्भों | |
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− | के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में | |
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− | उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और | |
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− | हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है । बहुत संक्षेप में | |
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− | हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है । | |
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− | धर्म विश्वनियम है । इस नियम के कारण सृष्टि में | + | धर्म विश्वनियम है । इस नियम के कारण सृष्टि में असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी आपस में टकराते नहीं हैं । पंचमहाभूतों और प्राणियों के स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस विश्वनियम के कारण होता है । इस विश्वनियम को वेदों में ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक, waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं । |
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− | असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने
| + | जिस विश्वनियम से सृष्टि की धारणा होती है वह विश्वनियम धर्म है । धारणा करता ही वही धर्म है ऐसी ही “धर्म' संज्ञा की व्युत्पत्ति है । |
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− | के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी | + | सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है । पानी का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है। |
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− | आपस में टकराते नहीं हैं । पंचमहाभूतों और प्राणियों के
| + | शक्कर पानी में घुलती है । मोम गर्मी से पिघलता है । साँप रेंगकर ही गति करता है । गाय कभी माँस नहीं खाती है । सिंह कभी घास नहीं खाता है । प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना स्वभाव छोड़ते नहीं हैं । कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं । गाय का गायपन, सिंह का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव है । यह धर्म है । इसे गुणधर्म भी कहते हैं । |
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− | स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब
| + | विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म कहते हैं । यह धर्म कर्तव्य है । इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं। |
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− | सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस
| + | उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है । पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक का बहुत बड़ा हिस्सा है । संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है । हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन |
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− | विश्वनियम के कारण होता है । इस विश्वनियम को वेदों में
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− | ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक,
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− | waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं ।
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− | जिस विश्वनियम से सृष्टि की धारणा होती है वह विश्वनियम
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− | धर्म है । धारणा करता ही वही धर्म है ऐसी ही “धर्म' संज्ञा
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− | की व्युत्पत्ति है ।
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− | सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता
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− | है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है । पानी
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− | का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है ।
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− | शक्कर पानी में घुलती है । मोम गर्मी से पिघलता है । साँप
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− | रेंगकर ही गति करता है । गाय कभी माँस नहीं खाती है । सिंह
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− | कभी घास नहीं खाता है । प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना
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− | स्वभाव छोड़ते नहीं हैं । कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते
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− | हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं । गाय का गायपन, सिंह
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− | का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव
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− | है । यह धर्म है । इसे गुणधर्म भी कहते हैं ।
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− | विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा
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− | हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म
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− | कहते हैं । यह धर्म कर्तव्य है । इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं ।
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− | उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये | |
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− | और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है । | |
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− | पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक का बहुत बड़ा हिस्सा है । | |
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− | संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है । | |
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− | हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन | |
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| तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है । | | तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है । |
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| == शिक्षा का समाजजीवन में स्थान == | | == शिक्षा का समाजजीवन में स्थान == |
− | शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं | + | शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं है । सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है । कोई कह सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग |
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− | है । सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है । कोई कह | |
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− | सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग | |
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− | से शिक्षा की क्या आवश्यकता है । व्यक्ति व्यक्ति मिलकर ही
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− | तो समाज बनता है । व्यक्तियों को यदि उचित शिक्षा प्राप्त हुई
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− | तो समाज तो शिक्षित हो ही जायेगा । परन्तु इस सम्बन्ध में
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− | जरा और विचार करने की आवश्यकता है । समाज केवल
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− | व्यक्तियों का जोड़ नहीं है । समाज व्यक्तियों का सम्बन्ध है ।
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− | दो व्यक्ति केवल साथ साथ बैठने से, चलने से या रहने से
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− | इकट्ठे दिखाई देते हैं, वे एकदूसरे से संबन्धित नहीं होते ।
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− | सम्बन्ध आन्तरिक होता है । सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की
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− | लेनदेन का नहीं होता है, या किसी स्वार्थ के लिये एकदूसरे
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− | का काम कर देने के लिये नहीं होता है । सम्बन्ध केवल
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− | भौतिक स्तर पर नहीं होता है, भावना के स्तर पर होता है ।
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− | दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं
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− | बनते हैं । वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता
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− | है । दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं । तब
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− | वह समाज होता है । दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ
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− | खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं
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− | बनते । वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और
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− | यह परिवार ही समाज की इकाई है । समाज व्यक्तियों की
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− | इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है।
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− | आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं । वे
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− | at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे
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− | पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं । यह विवाह
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− | नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी
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− | नहीं बनते हैं ।
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− | विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल
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− | कानून पर आधारित होती है । वह एकात्म सम्बन्ध है । उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष
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− | साथ रहते हैं तब परिवार बनता है । परिवार की इकाइयाँ जब
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− | साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही
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− | लागू है । इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का
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− | आधार है । समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की
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− | स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह
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− | समाज की आवश्यकता है । समाज को जब यह शिक्षा
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− | मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें
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− | परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं । यह तत्त्व गूढ़ लगता
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− | है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2 |
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− | दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता
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− | भी नहीं है । एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये ।
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− | यह समाज की आवश्यकता है ।
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− | समाज के लिये आवश्यक इस शिक्षा का क्रियान्वयन
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− | तो व्यक्ति के स्तर पर ही होता है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति व्यक्ति
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− | को दी जाती है । शिक्षा देने वाला और लेने वाला एक समय
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− | में एक व्यक्ति ही होता है । परन्तु शिक्षा की व्यवस्था करना,
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− | शिक्षा तन्त्र विकसित करना और निभाना समाज का दायित्व
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− | होता है, केवल व्यक्ति का नहीं । शिक्षा तन्त्र का रक्षण और
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− | पोषण करना भी समाज का ही दायित्व है । जब हमारे देश
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− | में राजाओं का राज्य था तब यह दायित्व राजा का होता
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− | at | समाज की ओर से राजा शिक्षा के तन्त्र का योगक्षेम
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− | ठीक चले इसकी चिन्ता करता था । आज लोकतन्त्र है।
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− | लोकतन्त्र में समाज की ओर से लोकतान्त्रिक सरकार शासन
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− | करती है । तब शिक्षा का योगक्षेम वहन करने की चिन्ता
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− | सरकार को होनी चाहिये । परन्तु आज इस बात में विपर्यास
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− | हुआ दिखाई देता है। इस विपर्यास और उससे जनित
| + | से शिक्षा की क्या आवश्यकता है । व्यक्ति व्यक्ति मिलकर ही तो समाज बनता है । व्यक्तियों को यदि उचित शिक्षा प्राप्त हुई तो समाज तो शिक्षित हो ही जायेगा । परन्तु इस सम्बन्ध में जरा और विचार करने की आवश्यकता है । समाज केवल व्यक्तियों का जोड़ नहीं है । समाज व्यक्तियों का सम्बन्ध है । |
| | | |
− | समस्याओं की चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे । लोकतन्त्र
| + | दो व्यक्ति केवल साथ साथ बैठने से, चलने से या रहने से इकट्ठे दिखाई देते हैं, वे एकदूसरे से संबन्धित नहीं होते । सम्बन्ध आन्तरिक होता है । सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की लेनदेन का नहीं होता है, या किसी स्वार्थ के लिये एक दूसरे का काम कर देने के लिये नहीं होता है । सम्बन्ध केवल भौतिक स्तर पर नहीं होता है, भावना के स्तर पर होता है । |
| | | |
− | और लोकतान्त्रिक सरकार का स्वरूप क्या हो इसकी चर्चा | + | दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं बनते हैं । वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता है । दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं । तब वह समाज होता है । दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं बनते । वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और यह परिवार ही समाज की इकाई है । समाज व्यक्तियों की इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है। |
| | | |
− | किये बिना शिक्षा के योगक्षेम का दायित्व सरकार का है,
| + | आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं । वे at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं । यह विवाह नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी नहीं बनते हैं । |
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− | समाज के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का है यह कह देना | + | विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल कानून पर आधारित होती है । वह एकात्म सम्बन्ध है । उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष साथ रहते हैं तब परिवार बनता है । परिवार की इकाइयाँ जब साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही लागू है । इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का आधार है । समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह समाज की आवश्यकता है । समाज को जब यह शिक्षा मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं । यह तत्त्व गूढ़ लगता है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2 | |
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− | पर्याप्त नहीं होगा ।
| + | दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता भी नहीं है । एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये । यह समाज की आवश्यकता है । |
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− | समाज में शिक्षा का स्थान क्या है इस विषय में एक | + | समाज के लिये आवश्यक इस शिक्षा का क्रियान्वयन तो व्यक्ति के स्तर पर ही होता है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति व्यक्ति को दी जाती है । शिक्षा देने वाला और लेने वाला एक समय में एक व्यक्ति ही होता है । परन्तु शिक्षा की व्यवस्था करना, शिक्षा तन्त्र विकसित करना और निभाना समाज का दायित्व होता है, केवल व्यक्ति का नहीं । शिक्षा तन्त्र का रक्षण और पोषण करना भी समाज का ही दायित्व है । जब हमारे देश में राजाओं का राज्य था तब यह दायित्व राजा का होता at | समाज की ओर से राजा शिक्षा के तन्त्र का योगक्षेम ठीक चले इसकी चिन्ता करता था । आज लोकतन्त्र है। लोकतन्त्र में समाज की ओर से लोकतान्त्रिक सरकार शासन करती है । तब शिक्षा का योगक्षेम वहन करने की चिन्ता सरकार को होनी चाहिये । परन्तु आज इस बात में विपर्यास हुआ दिखाई देता है। इस विपर्यास और उससे जनित समस्याओं की चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे । लोकतन्त्र और लोकतान्त्रिक सरकार का स्वरूप क्या हो इसकी चर्चा किये बिना शिक्षा के योगक्षेम का दायित्व सरकार का है, समाज के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का है यह कह देना पर्याप्त नहीं होगा । |
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− | और बात विचारणीय है । शिक्षा धर्म सिखाने वाली | + | समाज में शिक्षा का स्थान क्या है इस विषय में एक और बात विचारणीय है । शिक्षा धर्म सिखाने वाली |
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