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| आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी अधिक कठिन हो जाता है । इसलिये हमें सावधान रहना है । आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है । | | आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी अधिक कठिन हो जाता है । इसलिये हमें सावधान रहना है । आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है । |
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− | क्या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? | + | क्या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? शिक्षा को भारतीय ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता है ? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती है । प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों के साथ बातचीत होती है । तब “भारतीय' संज्ञा समझ में नहीं आती है । अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी “भारतीय' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग वैश्विक युग है । हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा करनी चाहिये । उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये । |
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− | शिक्षा को भारतीय ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता | + | आज के जमाने में भारतीयता संकुचित मानस का लक्षण है । हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना चाहिये । दूसरा भी तर्क वे देते हैं । वे कहते हैं कि ज्ञान तो ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है । उसे “भारतीय' और “अभारतीय' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ? |
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− | है ? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती
| + | आप तो हमेशा ही पुरातन बातें करेंगे । आज दुनिया कितनी आगे बढ़ गई है । आज आपकी पुरातनवादी बातें कैसे चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है । उनका AMA देखकर दया आती है और चर्चा असम्भव लगती है । हम भी सम्भ्रम में पड़ जाते हैं । इसका स्पष्टीकरण आगे दिया है । |
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− | है । प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों
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− | के साथ बातचीत होती है । तब “भारतीय' संज्ञा समझ में
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− | नहीं आती है । अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी
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− | “भारतीय' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या
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− | वैश्विक युग है । हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा
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− | करनी चाहिये । उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये ।
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− | आज के जमाने में भारतीयता संकुचित मानस का लक्षण है ।
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− | हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना
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− | चाहिये । दूसरा भी तर्क वे देते हैं । वे कहते हैं कि ज्ञान तो
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− | ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है । उसे “भारतीय' और
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− | “अभारतीय' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ?
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− | आप तो हमेशा ही पुरातन बातें करेंगे । आज दुनिया कितनी | |
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− | आगे बढ़ गई है । आज आपकी पुरातनवादी बातें कैसे | |
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− | चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और | |
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− | करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है । | |
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− | उनका AMA देखकर दया आती है और चर्चा असम्भव | |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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− | लगती है । हम भी सम्भ्रम में पड़ जाते हैं । इसका स्पष्टीकरण | |
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− | आगे दिया है । | |
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| == राष्ट्र की आत्मा “चिति' == | | == राष्ट्र की आत्मा “चिति' == |
− | भारत एक राष्ट्र है । प्रत्येक राष्ट्र का एक स्वभाव होता | + | भारत एक राष्ट्र है । प्रत्येक राष्ट्र का एक स्वभाव होता है । उस स्वभाव को चिति कहते हैं । दैशिकशास्त्र नामक एक ग्रन्थ है । उस ग्रन्थ में चिति को राष्ट्र की आत्मा कहा गया है । भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में भी |
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− | है । उस स्वभाव को चिति कहते हैं । दैशिकशास्त्र नामक एक | |
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− | ग्रन्थ है । उस ग्रन्थ में चिति को राष्ट्र की आत्मा कहा गया | |
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− | है । भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में भी | |
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| Ha ब्रह्म परमं स्वभावो5ध्यात्ममुच्यते । | | Ha ब्रह्म परमं स्वभावो5ध्यात्ममुच्यते । |
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| भूतभावोद्भधवकरो विसर्ग: कर्मसब्चित: ।। (गीता.८.३) | | भूतभावोद्भधवकरो विसर्ग: कर्मसब्चित: ।। (गीता.८.३) |
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− | ऐसा कहा है । अर्थात आत्मा ही स्वभाव है । राष्ट्र की | + | ऐसा कहा है । अर्थात आत्मा ही स्वभाव है । राष्ट्र की आत्मा कहो या स्वभाव, एक ही बात है । भगवान वेदव्यास ने ब्रह्मसूत्र में चिति को चैतन्य कहा है । चैतन्य का अर्थ भी आत्मा ही है । वेदान्त दर्शन उसे शबल ब्रह्म कहता है । वह भी आत्मतत्त्व है । राष्ट्र को स्वभाव अपने जन्म के साथ ही प्राप्त होता है । वह उसके अस्तित्व का अभिन्न अंग है । जब तक यह स्वभाव रहता है तब तक राष्ट्र भी रहता है । जब स्वभाव बदलता है तब राष्ट्र बदलता है । जब स्वभाव पूर्ण बदलता है तब राष्ट्र नष्ट होता है । फिर नाम रहता है परन्तु राष्ट्र अलग ही हो जाता है । इसे ही उस देश का देशपन कहते हैं । भारतीयता भारत का भारतपन है, उसकी आत्मा है, उसका स्वभाव है, उसकी पहचान है । विश्व के कई देशों का स्वभाव बदल कर वे या तो अपना अस्तित्व मिटा चुके हैं अथवा बदल गये हैं परन्तु भारत ने अपने जन्म से लेकर आज तक अपनी पहचान नहीं बदली है । |
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− | आत्मा कहो या स्वभाव, एक ही बात है । भगवान वेदव्यास | |
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− | ने ब्रह्मसूत्र में चिति को चैतन्य कहा है । | |
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− | चैतन्य का अर्थ भी आत्मा ही है । वेदान्त दर्शन उसे | |
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− | शबल ब्रह्म कहता है । वह भी आत्मतत्त्व है । राष्ट्र को | |
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− | स्वभाव अपने जन्म के साथ ही प्राप्त होता है । वह उसके | |
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− | अस्तित्व का अभिन्न अंग है । जब तक यह स्वभाव रहता | |
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− | है तब तक राष्ट्र भी रहता है । जब स्वभाव बदलता है तब | |
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− | राष्ट्र बदलता है । जब स्वभाव पूर्ण बदलता है तब राष्ट्र नष्ट | |
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− | होता है । फिर नाम रहता है परन्तु राष्ट्र अलग ही हो जाता | |
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− | है । इसे ही उस देश का देशपन कहते हैं । भारतीयता भारत | |
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− | का भारतपन है, उसकी आत्मा है, उसका स्वभाव है, उसकी | |
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− | पहचान है । विश्व के कई देशों का स्वभाव बदल कर वे या | |
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− | तो अपना अस्तित्व मिटा चुके हैं अथवा बदल गये हैं परन्तु | |
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− | भारत ने अपने जन्म से लेकर आज तक अपनी पहचान नहीं | |
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− | बदली है । | |
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− | हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी
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− | जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती
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− | है । समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही
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− | बनती हैं । प्रजा का मानस भी उसीके अनुरूप बनता है |
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− | उचित अनुचित की कल्पना भी उसीके अनुसार बनती है ।
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− | छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव
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− | का ही निकष रहता है । भारत के लिये भारतीयता स्वभाव
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− | है । भारत के प्रजाजनों के लिये भारतीय होना ही स्वाभाविक
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− | है । इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही
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− | निर्माण नहीं होता है । जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र
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− | कैसे निर्माण होंगे ?
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− | हमारी हर व्यवस्था, उसे “भारतीय विशेषण जोड़ो या
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− | बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं । उन्हें भी यह सब
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− | उचित और सही लगता है । अपनाने वाले न तो खुलासा
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− | पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकता
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− | लगती है । प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं ।
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− | आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या
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− | अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के
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− | कारण नहीं । परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो
| + | हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती है । समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही बनती हैं । प्रजा का मानस भी उसीके अनुरूप बनता है | उचित अनुचित की कल्पना भी उसीके अनुसार बनती है । |
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− | विशेषणों का प्रयोग होने लगा है । इसका एक ऐतिहासिक
| + | छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव का ही निकष रहता है । भारत के लिये भारतीयता स्वभाव है । भारत के प्रजाजनों के लिये भारतीय होना ही स्वाभाविक है । इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही निर्माण नहीं होता है । जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र कैसे निर्माण होंगे ? |
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− | सन्दर्भ है । सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच,
| + | हमारी हर व्यवस्था, उसे “भारतीय विशेषण जोड़ो या न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी । कारण स्पष्ट है। उसे बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं । उन्हें भी यह सब उचित और सही लगता है । अपनाने वाले न तो खुलासा पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकतालगती है । प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं । |
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− | पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे । वे | + | आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के कारण नहीं । परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो विशेषणों का प्रयोग होने लगा है । इसका एक ऐतिहासिक सन्दर्भ है । सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच, पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे । वे भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे । कालफ्रम में अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए । उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत किया । साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी बात भी उन्होंने की । उन्होंने समाज की स्वायत्तता और स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के अधीन बनाया । अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता था । अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को राज्य के अधीन बना दिया । यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ हुआ । समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो गईं । व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं । |
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− | भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे । कालफ्रम में | |
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− | अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए । उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत | |
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− | किया । साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी | |
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− | बात भी उन्होंने की । उन्होंने समाज की स्वायत्तता और | |
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− | स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के | |
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− | अधीन बनाया । अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज | |
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− | सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता | |
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− | था । अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को | |
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− | राज्य के अधीन बना दिया । यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ | |
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− | हुआ । समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की | |
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− | व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो | |
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− | गईं । व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा | |
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− | आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं । | |
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| == अभारतीय दृष्टि == | | == अभारतीय दृष्टि == |
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| है । मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास | | है । मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास |
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− | करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते | + | करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते हैं । प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और |
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− | पर्व १ : उपोद्धात
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− | हैं । प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और | |
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| अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है । इससे संस्कृति | | अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है । इससे संस्कृति |
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| सन्दर्भ में ही विचार करता है । केवल दोनों विचारधाराओं में | | सन्दर्भ में ही विचार करता है । केवल दोनों विचारधाराओं में |
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− | अन्तर है । भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी | + | अन्तर है । भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य |
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− | सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य | |
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| जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े | | जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े |
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| भारत में शिक्षा का अर्थ कया है यह जानना । | | भारत में शिक्षा का अर्थ कया है यह जानना । |
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− | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप
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| भारत में शिक्षा के प्रति किस दृष्टि से देखा जाता है यह | | भारत में शिक्षा के प्रति किस दृष्टि से देखा जाता है यह |
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| दूसरी बात यह है कि शिक्षा मनुष्य के लिये अत्यन्त | | दूसरी बात यह है कि शिक्षा मनुष्य के लिये अत्यन्त |
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− | आवश्यक है । हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि में जितने भी | + | आवश्यक है । हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि में जितने भी चर अचर, सजीव निर्जीव पदार्थ, वनस्पति या प्राणी हैं उनमें |
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− | पर्व १ : उपोद्धात
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− | चर अचर, सजीव निर्जीव पदार्थ, वनस्पति या प्राणी हैं उनमें | |
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| मनुष्य का दर्जा विशिष्ट है। मनुष्य पंचमहाभूतों की तरह | | मनुष्य का दर्जा विशिष्ट है। मनुष्य पंचमहाभूतों की तरह |
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| और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है । | | और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है । |
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− | पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक | + | पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक का बहुत बड़ा हिस्सा है । |
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− | पर्व १ : उपोद्धात
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− | का बहुत बड़ा हिस्सा है । | |
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| संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है । | | संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है । |
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| विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल | | विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल |
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− | कानून पर आधारित होती है । वह एकात्म सम्बन्ध है । उस | + | कानून पर आधारित होती है । वह एकात्म सम्बन्ध है । उस सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष |
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− | सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष | |
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| साथ रहते हैं तब परिवार बनता है । परिवार की इकाइयाँ जब | | साथ रहते हैं तब परिवार बनता है । परिवार की इकाइयाँ जब |