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| + | शिक्षा का आधार जीवनदृष्टि |
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| + | शिक्षा व्यक्तिगत जीवन की और राष्ट्रजीवन की |
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| + | समस्यायें दूर करती है परन्तु हम देख रहे हैं कि आज शिक्षा |
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| + | स्वयं समस्या बन गई है । सामान्य जन से विद्व्जन शिक्षा से |
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| + | त्रस्त है । अनेक प्रकार के सांस्कृतिक और भौतिक संकटों |
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| + | का व्याप बढ़ रहा है। इसका कारण यह है कि विगत |
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| + | लगभग दोसौ वर्षों से भारत में शिक्षा कि गाड़ी उल्टी पटरी |
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| + | पर चढ़ गई है । शिक्षा राष्ट्र की संस्कृति और जीवनशैली को |
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| + | सुदृढ़ बनाने का काम करती है । वह ऐसा कर सके इसलिए |
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| + | वह राष्ट्र की जीवनदृष्टि पर आधारित होती है, उसके साथ |
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| + | समसम्बन्ध बनाये रखती है । आज भारत की शिक्षा का यह |
| + | |
| + | सम्बन्ध बिखर गया है । शिक्षा जीवनशैली में, विचारशैली में |
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| + | इस प्रकार से परिवर्तन कर रही है कि हम अपनी ही |
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| + | जीवनशैली को नहीं चाहते । अपनी शैली के विषय में हम |
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| + | हीनताबोध से ग्रस्त हो गये हैं और जिन्होंने हमारे राष्ट्रजीवन |
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| + | पर बाह्य और आन्तरिक आघात कर उसे छिन्नविच्छिन्न करने |
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| + | का प्रयास किया उनकी ही शैली को अपनाने का प्रयास कर |
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| + | रहे हैं । हमारा जीवन दो विपरीत धाराओं में बह रहा है । |
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| + | इससे ही सांस्कृतिक और भौतिक संकट निर्माण हो रहे हैं । |
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| + | युगों से अखण्ड बहती आई हमारी ज्ञानधारा आज |
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| + | कलुषित हो गई है । ज्ञान के क्षेत्र में भारतीय और अभारतीय |
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| + | ऐसे दो भाग हो गये हैं । भारतीय ज्ञानधारा के सामने आज |
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| + | प्रश्नार्थ खड़े हो गये हैं । भारतीय और अभारतीय का मिश्रण |
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| + | हो गया है । चारों ओर सम्भ्रम निर्माण हुआ है । उचित और |
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| + | अनुचित, सही और गलत, करणीय और अकरणीय का |
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| + | विवेक लुप्त हो गया है । लोग त्रस्त हैं परन्तु त्रास का कारण |
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| + | नहीं जानते हैं, और त्रास के कारण को ही सुख का स्रोत |
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| + | मानते हैं । धर्म और ज्ञान से मार्गदर्शन प्राप्त करना भूलकर |
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| + | सरकार से सहायता की कामना और याचना कर रहे हैं । धन |
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| + | से ही सारे सुख प्राप्त होंगे ऐसा विचार कर येनकेन प्रकारेण |
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| + | धनप्राप्ति करने के इच्छुक हो रहे हैं । इस स्थिति में हम |
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| + | आचार्यों का स्वनिर्धारित दायित्व है कि इस संकट का |
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| + | निराकरण कैसे हो इसका चिन्तन करें और उपाययोजना भी |
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| + | करें । इस दृष्टि से हमारा विचारविमर्श विगत द्स वर्षों से चल |
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| + | रहा है । एक वर्ष पूर्व हमने भारतीय शिक्षा ग्रन्थमाला के नाम |
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| + | से शिक्षाविषयक पाँच ग्रन्थों के निर्माण की योजना बनाई और |
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| + | तैयारी प्रारम्भ की । हमने अध्ययन यात्रायें कीं । विभिन्न |
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| + | माध्यमों से हमने जनसामान्य से संवाद किया । विभिन्न विषयों |
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| + | पर विट्रत गोष्टियाँ कीं । हमारे चिन्तन को ठीक करने हेतु |
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| + | अभ्यासवर्ग किये । ग्रन्थों का अध्ययन किया | परिस्थिति का |
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| + | आकलन किया । हमारे सामर्थ्य का अनुमान किया । समर्थ |
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| + | विद्वानों को अनुकूल बनाया | एक वर्ष की इस तैयारी के बाद |
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| + | आज से हम इस ग्रन्थमाला की रचना का प्रारम्भ कर रहे हैं । |
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| + | ज्ञान पवित्र है |
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| + | हमारे देश का नाम भारत है । इस नाम का अर्थ है |
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| + | ज्ञान के प्रकाश में रत रहने वाला देश । हम भारतीय हैं । हम |
| + | |
| + | ज्ञान के उपासक हैं । ज्ञान को श्रेष्ठ मानते हैं । ज्ञान को पवित्र |
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| + | मानते हैं । जिस प्रकार अग्नि सभी पदार्थों को तपाकर उनमें |
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| + | जो भी अशुद्धियाँ हैं उनको जलाकर पदार्थ को शुद्ध बनाती |
| + | |
| + | है उसी प्रकार ज्ञान हमारे मनोभावों, विचारों, वृत्तियों, |
| + | |
| + | व्यवहारों की मलीनता को दूर कर उन्हें शुद्ध बनाता है । इस |
| + | |
| + | ज्ञान और ज्ञानोपासना को एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को |
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| + | हस्तान्तरित कर हमने ज्ञानपरम्परा बनाई है । ज्ञानपरम्परा को |
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| + | निरन्तर बनाये रखने की व्यवस्था को शिक्षा कहते हैं । जैसा |
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| + | हमारा ज्ञान श्रेष्ठ वैसी ही हमारी शिक्षाव्यवस्था भी श्रेष्ठ रही |
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| + | है । इस शिक्षाव्यवस्था के विषय में हमारे समर्थ पूर्वजों ने |
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| + | बहुत चिन्तन किया है और उसके शाख्र को प्रस्तुत किया है । |
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| + | उस शास्त्र का अनुसरण कर हमने पीढ़ी |
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| + | दर पीढ़ी अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया है । |
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| + | परिणामस्वरूप हमारे ज्ञानभाण्डार की रक्षा करने में, उसे |
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| + | परिष्कृत करने में और उसमें वृद्धि करने में हम समर्थ हुए हैं । |
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| + | समय समय पर इस ज्ञानधारा पर विभिन्न प्रकार के आक्रमण |
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| + | हुए हैं परन्तु हम उन आक्रमणों का प्रतिकार करने में समर्थ |
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| + | सिद्ध हुए हैं । इस प्रकार आजतक हमने भारतीय ज्ञानधारा को |
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| + | अविरत रूप से प्रवाहित रखा है। आज भी ऐसा ही |
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| + | आक्रमण का काल है । यह आक्रमण बाह्य और आन्तरिक |
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| + | दोनों प्रकार का है । इस कारण से वह अधिक भीषण है । |
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| + | आन्तरिक होने के कारण वह जल्दी समझ में भी नहीं आता |
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| + | है। आन्तरिक होने के कारण से उसे परास्त करना भी |
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| + | अधिक कठिन हो जाता है । इसलिये हमें सावधान रहना है । |
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| + | आक्रमण के स्वरूप को भलीभाँति पहचानना है और |
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| + | कुशलतापूर्वक उपाययोजना बनानी है । |
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| + | क्या हम शिक्षा को केवल शिक्षा नहीं कह सकते ? |
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| + | शिक्षा को भारतीय ऐसा विशेषण जोड़ने की क्या आवश्यकता |
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| + | है ? विश्वविद्यालयों के अनेक प्राध्यापकों के साथ चर्चा होती |
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| + | है । प्राध्यापक नहीं हैं ऐसे भी अनेक उच्चविद्याविभूषित लोगों |
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| + | के साथ बातचीत होती है । तब “भारतीय' संज्ञा समझ में |
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| + | नहीं आती है । अच्छे अच्छे विद्वान और प्रतिष्ठित लोग भी |
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| + | “भारतीय' संज्ञा का प्रयोग करना टालते हैं, मौन रहते हैं या |
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| + | उसे अस्वीकृत कर देते हैं। वे कहते हैं कि वर्तमान युग |
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| + | वैश्विक युग है । हमें वैश्विक परिप्रेक्ष्य को अपना कर चर्चा |
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| + | करनी चाहिये । उसी स्तर की व्यवस्थायें भी बनानी चाहिये । |
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| + | आज के जमाने में भारतीयता संकुचित मानस का लक्षण है । |
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| + | हमें उसका त्याग करना चाहिये और आधुनिक बनना |
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| + | चाहिये । दूसरा भी तर्क वे देते हैं । वे कहते हैं कि ज्ञान तो |
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| + | ज्ञान होता है, शिक्षा शिक्षा होती है । उसे “भारतीय' और |
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| + | “अभारतीय' जैसे विशेषण लगाने की क्या आवश्यकता है ? |
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| + | आप तो हमेशा ही पुरातन बातें करेंगे । आज दुनिया कितनी |
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| + | आगे बढ़ गई है । आज आपकी पुरातनवादी बातें कैसे |
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| + | चलेंगी ? ऐसा कहकर वे प्राय: चर्चा भी नहीं करते हैं, और |
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| + | करते हैं तो उनके कथनों का कोई आधार ही नहीं होता है । |
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| + | उनका AMA देखकर दया आती है और चर्चा असम्भव |
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| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
| + | |
| + | लगती है । हम भी सम्भ्रम में पड़ जाते हैं । इसका स्पष्टीकरण |
| + | |
| + | आगे दिया है । |
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| + | राष्ट्र की आत्मा “चिति' |
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| + | भारत एक राष्ट्र है । प्रत्येक राष्ट्र का एक स्वभाव होता |
| + | |
| + | है । उस स्वभाव को चिति कहते हैं । दैशिकशास्त्र नामक एक |
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| + | ग्रन्थ है । उस ग्रन्थ में चिति को राष्ट्र की आत्मा कहा गया |
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| + | है । भगवान कृष्ण ने अपनी गीता में भी |
| + | |
| + | Ha ब्रह्म परमं स्वभावो5ध्यात्ममुच्यते । |
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| + | भूतभावोद्भधवकरो विसर्ग: कर्मसब्चित: ।। (गीता.८.३) |
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| + | ऐसा कहा है । अर्थात आत्मा ही स्वभाव है । राष्ट्र की |
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| + | आत्मा कहो या स्वभाव, एक ही बात है । भगवान वेदव्यास |
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| + | ने ब्रह्मसूत्र में चिति को चैतन्य कहा है । |
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| + | चैतन्य का अर्थ भी आत्मा ही है । वेदान्त दर्शन उसे |
| + | |
| + | शबल ब्रह्म कहता है । वह भी आत्मतत्त्व है । राष्ट्र को |
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| + | स्वभाव अपने जन्म के साथ ही प्राप्त होता है । वह उसके |
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| + | अस्तित्व का अभिन्न अंग है । जब तक यह स्वभाव रहता |
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| + | है तब तक राष्ट्र भी रहता है । जब स्वभाव बदलता है तब |
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| + | राष्ट्र बदलता है । जब स्वभाव पूर्ण बदलता है तब राष्ट्र नष्ट |
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| + | होता है । फिर नाम रहता है परन्तु राष्ट्र अलग ही हो जाता |
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| + | है । इसे ही उस देश का देशपन कहते हैं । भारतीयता भारत |
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| + | का भारतपन है, उसकी आत्मा है, उसका स्वभाव है, उसकी |
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| + | पहचान है । विश्व के कई देशों का स्वभाव बदल कर वे या |
| + | |
| + | तो अपना अस्तित्व मिटा चुके हैं अथवा बदल गये हैं परन्तु |
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| + | भारत ने अपने जन्म से लेकर आज तक अपनी पहचान नहीं |
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| + | बदली है । |
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| + | हमारे मनीषी इस तथ्य का जो दर्शन करते हैं, उसकी |
| + | |
| + | जो अनुभूति करते हैं उस आधार पर शास्त्रों की रचना होती |
| + | |
| + | है । समाज की सारी व्यवस्थायें इस तथ्य के अनुरूप ही |
| + | |
| + | बनती हैं । प्रजा का मानस भी उसीके अनुरूप बनता है | |
| + | |
| + | उचित अनुचित की कल्पना भी उसीके अनुसार बनती है । |
| + | |
| + | छोटी से छोटी और बड़ी से बड़ी बातों के पीछे इस स्वभाव |
| + | |
| + | का ही निकष रहता है । भारत के लिये भारतीयता स्वभाव |
| + | |
| + | है । भारत के प्रजाजनों के लिये भारतीय होना ही स्वाभाविक |
| + | |
| + | है । इसलिये अनेक लोगों के मन में इस विषय में प्रश्न ही |
| + | |
| + | निर्माण नहीं होता है । जब बात स्वाभाविक ही हो तो प्रश्र |
| + | |
| + | कैसे निर्माण होंगे ? |
| + | |
| + | हमारी हर व्यवस्था, उसे “भारतीय विशेषण जोड़ो या |
| + | |
| + | न जोड़ो तो भी भारतीय ही रहेगी । कारण स्पष्ट है। उसे |
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| + | बनाने वाले और अपनाने वाले भारतीय हैं । उन्हें भी यह सब |
| + | |
| + | उचित और सही लगता है । अपनाने वाले न तो खुलासा |
| + | |
| + | पूछते हैं, बनाने वालों को न खुलासे देने की आवश्यकता |
| + | |
| + | लगती है । प्रश्न पूछे भी जाते हैं तो वे जिज्ञासावश होते हैं । |
| + | |
| + | आकलन में गलतियाँ की भी जाती हैं तो वे अज्ञान या |
| + | |
| + | अल्पज्ञान के कारण होती हैं, अनास्था या अस्वीकृति के |
| + | |
| + | कारण नहीं । परन्तु आज “भारतीय' और “अभारतीय 'ऐसे दो |
| + | |
| + | विशेषणों का प्रयोग होने लगा है । इसका एक ऐतिहासिक |
| + | |
| + | सन्दर्भ है । सत्रहवीं शताब्दी के प्रारम्भ में ही अंग्रेज़, फ्रेंच, |
| + | |
| + | पोर्तुगीज जैसे यूरोपीय देशों के लोग भारत में आने लगे । वे |
| + | |
| + | भारत की समृद्धि से आकर्षित होकर आये थे । कालफ्रम में |
| + | |
| + | अंग्रेज़ प्रभावी सिद्ध हुए । उन्होंने भारत में राज्य हस्तगत |
| + | |
| + | किया । साथ ही पूर्व में किसी शासक ने नहीं की होगी वैसी |
| + | |
| + | बात भी उन्होंने की । उन्होंने समाज की स्वायत्तता और |
| + | |
| + | स्वतन्त्रता को ही समाप्त कर दिया और समाज को राज्य के |
| + | |
| + | अधीन बनाया । अंग्रेजों से पूर्व के समय में भारत में समाज |
| + | |
| + | सर्वोपरि था और राज्यतन्त्र समाजतन्त्र के अनुकूल चलता |
| + | |
| + | था । अंग्रेजों ने राज्य को सर्वोपरि बनाया और समाज को |
| + | |
| + | राज्य के अधीन बना दिया । यहीं से अभारतीयता का प्रारम्भ |
| + | |
| + | हुआ । समाज ही राज्य के अधीन हो गया तब समाज की |
| + | |
| + | व्यवस्था में चलने वाली सारी बातें भी राज्य के अधीन हो |
| + | |
| + | गईं । व्यापार, कृषि और अन्य उद्योग, शिक्षा, चिकित्सा |
| + | |
| + | आदि सारी बातें राज्य के ही अधीन हो गईं । |
| + | |
| + | अभारतीय दृष्टि |
| + | |
| + | अंग्रेजों का स्वभाव भिन्न था । इसलिये उनके शास्त्र |
| + | |
| + | उनका मानस, उनका व्यवहार, उनकी व्यवस्थायें, उनकी |
| + | |
| + | सम्पूर्ण जीवनशैली भिन्न थी । वह भारत की नहीं थी इसलिये |
| + | |
| + | उसे अभारतीय कहते हैं। अंग्रेजों ने इन सभी बातों को |
| + | |
| + | भारतीय प्रजा पर थोपना प्रारम्भ किया । राज्य उनके अधीन |
| + | |
| + | होने के कारण उन्हें ऐसा करने में सफलता भी fat | |
| + | |
| + | शिक्षाव्यवस्था भी इनमें एक थी । |
| + | |
| + | शिक्षाव्यवस्था का अंग्रेजीकरण या अभारतीयकरण सर्वाधिक |
| + | |
| + | प्रभावी सिद्ध हुआ । इसका कारण भी बहुत स्पष्ट है । शिक्षा |
| + | |
| + | ही शेष सारी बातों को समझने और गढ़ने के लिये उपयोगी |
| + | |
| + | होती है । जैसी शिक्षा मिलती है वैसा ही तो व्यक्ति करता |
| + | |
| + | है। जैसी शिक्षा होती है वैसा ही व्यक्ति बन जाता है। |
| + | |
| + | अंग्रेजों ने देश की सारी व्यवस्थायें बदल दीं । भारतीय |
| + | |
| + | व्यवस्थाओं को नष्ट कर दिया और अभारतीय व्यवस्थाओं |
| + | |
| + | को प्रस्थापित किया । इस कारण से भारतीय और अभारतीय |
| + | |
| + | ऐसे दो शब्दुप्रयोग व्यवहार में आने लगे । ये दोनों शब्द |
| + | |
| + | भारत के ही सन्दर्भ में व्यवहार में लाये जाते हैं । |
| + | |
| + | अंग्रेजों का राज्य लगभग ढाईसौ से तीनसौ वर्ष रहा । |
| + | |
| + | इस अवधि में अंग्रेजी शिक्षा का कालखण्ड लगभग पौने |
| + | |
| + | दोसौ वर्षों का है । इस अवधि में लगभग दस पीढ़ियाँ अंग्रेजी |
| + | |
| + | शिक्षाव्यवस्था में पढ़ चुकी हैं । इस दौरान चार बातें हुई हैं । |
| + | |
| + | एक, भारतीय शास्त्रों का अध्ययन बन्द हो गया और भारतीय |
| + | |
| + | ज्ञानपरम्परा खण्डित हो गई । दूसरा, भारतीय शास्त्रों का जो |
| + | |
| + | कुछ भी अध्ययन होता रहा वह यूरोपीय दृष्टि से होने लगा |
| + | |
| + | और हमारे ही शास्त्रों को हम अस्वाभाविक पद्धति से पढ़ने |
| + | |
| + | लगे । तीसरा, हमारे ज्ञान और हमारी व्यवस्थाओं के प्रति |
| + | |
| + | अनास्था और अश्रद्धा निर्माण करने का भारी प्रयास अंग्रेजों |
| + | |
| + | ने किया और हम भी अनास्था और अश्रद्धा से ग्रस्त हो |
| + | |
| + | गये । चौथा, यूरोपीय ज्ञान विद्यालयों और महाविद्यालयों में |
| + | |
| + | पढ़ाया जाने लगा और अंग्रेजी शास्त्रों को जानने वाले और |
| + | |
| + | मानने वाले विद्वानों को ही विद्वानों के रूप में प्रतिष्ठा प्राप्त |
| + | |
| + | होने लगी । देश अंग्रेजी ज्ञान के अनुसार अंग्रेजी व्यवस्थाओं |
| + | |
| + | में चलने लगा । परिणामस्वरूप बौद्धिक और मानसिक क्षेत्र |
| + | |
| + | भारी मात्रा में प्रभावित हुआ है । इसका ही सीधा परिणाम है |
| + | |
| + | कि स्वाधीन होने के बाद भी हमने शिक्षाव्यवस्था में या अन्य |
| + | |
| + | किसी भी व्यवस्था में परिवर्तन नहीं किया है । देश अभी |
| + | |
| + | भी अंग्रेजी व्यवस्था में ही चलता है । हम स्वाधीन होने पर |
| + | |
| + | भी स्वतन्त्र नहीं हैं । deat अंग्रेजों का ही चलता है, हम उसे |
| + | |
| + | चलाते हैं । |
| + | |
| + | फिर भी सुदैव से अनेक लोगों के हृदय और बुद्धि में |
| + | |
| + | इस बात की चुभन है । स्वाधीन भारत परतन्त्र है यह उन्हें |
| + | |
| + | स्वीकार नहीं है । इनके ही प्रयासों के |
| + | |
| + | कारण से “भारतीय' और “अभारतीय' संज्ञाओं का प्रचलन |
| + | |
| + | है । ये लोग भारतीयता की प्रतिष्ठा करना चाहते हैं । इनके |
| + | |
| + | प्रयास बौद्धिक क्षेत्र में और भौतिक क्षेत्रों में चल रहे हैं । हम |
| + | |
| + | भी भारतीयता के पुरस्कर्ता हैं । इसीलिये हमने “भारतीय |
| + | |
| + | शिक्षा ग्रन्थमाला' की स्चना करने का उपक्रम हाथ में लिया |
| + | |
| + | है । शिक्षा के तन्त्र, मन्त्र और यन्त्र को भारतीय बनाना यह |
| + | |
| + | मूल बात है क्योकि शिक्षा को भारतीय बनायेंगे तो शेष |
| + | |
| + | व्यवस्थायें भारतीय बनाने में सरलता होगी । |
| + | |
| + | आज भी जो लोग आधुनिकता, वैश्विकता, परिवर्तन |
| + | |
| + | आदि की बात करते हैं उनकी बात भी समझ लेनी चाहिये |
| + | |
| + | ऐसा लगता है । हम अनुभव करते हैं कि व्यक्तियों के स्वभाव |
| + | |
| + | में परिवर्तन आता है । हम देखते हैं कि परिस्थितियाँ बदलती |
| + | |
| + | हैं । हम हवामान और तापमान में बदल होते भी अनुभव कर |
| + | |
| + | ही रहे हैं । तब विचारों में भी परिवर्तन होना स्वाभाविक |
| + | |
| + | मानना चाहिये । अभारतीय होना क्या इतनी बुरी बात है ? |
| + | |
| + | दूसरे देशों की शैली अपनाना भी अस्वाभाविक क्यों मानना |
| + | |
| + | चाहिये ? |
| + | |
| + | एक अन्य तर्क भी लोग देते हैं जिसमें कुछ दम लगता |
| + | |
| + | है । वे कहते हैं कि आज संचार माध्यम बहुत प्रभावी हो गये |
| + | |
| + | हैं। सम्पर्क के सूत्र भी बहुत सुलभ हो गये हैं । विश्व के |
| + | |
| + | किसी भी कोने से कहीं पर भी हम चौबीस घण्टों के भीतर |
| + | |
| + | जा सकते हैं । किसीसे भी बात कर सकते हैं । कोई भी वस्तु |
| + | |
| + | पहुँचा सकते हैं । कहाँ कया हो रहा है वह देख सकते हैं । |
| + | |
| + | विश्व इतना छोटा हो गया है कि सभी देश एकदूसरे को |
| + | |
| + | प्रभावित करते हैं और एकदूसरे से प्रभावित होते हैं । इस |
| + | |
| + | स्थिति में जीवनशैलियों का और विचारों का मिश्रण होना |
| + | |
| + | स्वाभाविक है । ऐसा होते होते एक विश्वसंस्कृति यदि हो |
| + | |
| + | जाती है तो इसमें कया हानि है ? हम भी तो वसुधैव |
| + | |
| + | कुट्म्बकम कहते हैं । |
| + | |
| + | स्वभाव अपरिवर्तनीय |
| + | |
| + | अपनी उत्पत्ति के साथ राष्ट्रीं को जो स्वभाव प्राप्त हुआ |
| + | |
| + | होता है उसमें सम्पूर्ण परिवर्तन होना सम्भव नहीं है । वह सृष्टि |
| + | |
| + | के प्रलय के समय ही होता है । हाँ, ऊपरी परिवर्तन अवश्य |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
| + | |
| + | होते हैं । उदाहरण के लिये हम ठण्ड के दिनों में गरम और |
| + | |
| + | गर्मी के दिनों में महीन कपड़े पहनते हैं । तापमान के अनुसार |
| + | |
| + | कपड़ों के प्रकार में परिवर्तन होता है । उसी प्रकार क्रतु के |
| + | |
| + | अनुसार हमारा खानपान बदलता है । यह बाह्म परिवर्तन होना |
| + | |
| + | प्रकृति का स्वभाव है । प्रकृति नित्य परिवर्तनशील है क्योंकि |
| + | |
| + | वह गतिमान है । प्रकृति में कुछ न कुछ होता ही रहता है । |
| + | |
| + | प्रकृति में एक भी पदार्थ स्थिर नहीं है । अत: परिवर्तन होना |
| + | |
| + | स्वाभाविक है । परन्तु सभी प्रकार के परिवर्तनों के पीछे भी |
| + | |
| + | कई बातें ऐसी हैं जो कभी भी परिवर्तित नहीं होती हैं । |
| + | |
| + | उदाहरण के लिये किसी व्यक्ति की लम्बाई यदि पाँच फीट |
| + | |
| + | दस इंच है तो वह किसी भी प्रकार कम या अधिक नहीं हो |
| + | |
| + | सकती है । किसी व्यक्ति की वात प्रकृति है तो वह आजन्म |
| + | |
| + | बदल नहीं सकती है। देशों के भूखण्डों की जलवायु |
| + | |
| + | सहस्राब्दियों में नहीं बदलती है । पंचमहाभूतों का व्यवहार |
| + | |
| + | कभी भी बदलता नहीं है क्योंकि वे अपने स्वभाव का |
| + | |
| + | अनुसरण करते हैं । पानी कभी भी नीचे से ऊपर की ओर |
| + | |
| + | बहने नहीं लगता है । कभी भी बहना बन्द नहीं करता है । |
| + | |
| + | यही बात सभी पंचमहाभूतों को लागू है। सृष्टि का |
| + | |
| + | गुरुत्वाकर्षण का नियम कभी भी बदलता नहीं है । उसी |
| + | |
| + | प्रकार से मन का विचार करने का, बुद्धि का आकलन करने |
| + | |
| + | का स्वभाव कभी बदलता नहीं है । इसी प्रकार जीवन को |
| + | |
| + | देखने की और समझने की, अनुभूति की प्रवृत्ति भी बदलती |
| + | |
| + | नहीं है । अल्प मात्रा में तो हरेक व्यक्ति का स्वभाव भिन्न |
| + | |
| + | होता है परन्तु मूल बातों में वह प्रजाओं का स्वभाव बन |
| + | |
| + | जाता है और अपरिवर्तनीय हो जाता है । और भी उदाहरण |
| + | |
| + | देखें । हमारा अनुभव है कि प्रत्येक व्यक्ति रूप रंग में एक |
| + | |
| + | दूसरे से भिन्न ही होता है । परन्तु एक देश के अन्तर्गत भी |
| + | |
| + | गुजरात, केरल, बंगाल, पंजाब और असम के लोग अपने |
| + | |
| + | रूप रंग के कारण ही अलग दिखते हैं । देशों के आगे राज्यों |
| + | |
| + | के भेद मिट जाते हैं । जैसे चीन, भारत, आफ्रिका और यूरोप |
| + | |
| + | के लोग रूप रंग में एक दूसरे से भिन्न ही होते हैं । उसी |
| + | |
| + | प्रकार खानपान से लेकर विचारों, अनुभूतियों, बौद्धिक |
| + | |
| + | क्षमताओं और दृष्टिकोण में प्रजाओं प्रजाओं में भिन्नता रहती |
| + | |
| + | है । मनीषी इस स्वभाव को पहचानने का, समझने का प्रयास |
| + | |
| + | करते हैं और अनेक प्रकार के व्यवहारशास्त्रों की रचना करते |
| + | |
| + | ............. page-23 ............. |
| + | |
| + | पर्व १ : उपोद्धात |
| + | |
| + | हैं । प्रजा इन शास्त्रों को समझने का प्रयास करती है और |
| + | |
| + | अपना व्यवहार उसके अनुसार ढालती है । इससे संस्कृति |
| + | |
| + | विकसित होती है । इसीसे आज जिन्हें जीवनमूल्य कहते हैं |
| + | |
| + | वे विकसित होते हैं । संस्कृति फिर पीढ़ी दर पीढ़ी उस प्रजा |
| + | |
| + | को सहज प्राप्त होती है । यही उस राष्ट्र का स्वभाव होता है । |
| + | |
| + | इसमें ऊपरी परिवर्तन भले ही होते हों, या होते दिखाई देते |
| + | |
| + | हों तो भी मूलगत परिवर्तन नहीं होते हैं । बाहरी प्रभावों से |
| + | |
| + | जो परिवर्तन होता है वह बाहरी ही होता है । वह कभी |
| + | |
| + | क्षणिक सुख का और कभी व्यापक दुःख का भी कारण |
| + | |
| + | बनता है । इन दुःखदायक प्रभावों से बचना ही प्रजा का |
| + | |
| + | पुरुषार्थ होता है । संक्षेप में कहें तो स्वभाव में मूलतः |
| + | |
| + | परिवर्तन होता नहीं है । |
| + | |
| + | अभारतीय दृष्टि अनात्मवादी (आसुरी) |
| + | |
| + | परन्तु भारतीय और अभारतीय का मुद्दा एक अन्य |
| + | |
| + | प्रकार से विचारणीय अवश्य है । भारतीयतावादी लोग जब |
| + | |
| + | अभारतीय जीवनशैली या जीवनदृष्टि की बात करते हैं तब |
| + | |
| + | अनात्मवादी विचार, पंचमहाभूतों के शोषण की प्रवृत्ति, |
| + | |
| + | व्यक्तिकेन्द्री और स्वार्थपरक व्यवहार, भौतिकता का अधिष्ठान |
| + | |
| + | आदि की चर्चा करते हैं । आज विश्व पर अमेरीका और यूरोप |
| + | |
| + | का प्रभाव छा गया है और वहाँ इस विचारधारा को मान्यता |
| + | |
| + | प्राप्त है इसलिये इसे पाश्चात्य या अभारतीय जीवनदृष्टि कहा |
| + | |
| + | जाता है । जो लोग भारतीय हैं परन्तु इस विचारधारा को |
| + | |
| + | मान्यता देते हैं और उसे अपनाते हैं वे अभारतीय विचारधारा |
| + | |
| + | से प्रभावित हैं ऐसा माना जाता है । परन्तु भारत में भी ऐसे |
| + | |
| + | लोगों का होना स्वाभाविक माना गया है । श्रीमद भगवद |
| + | |
| + | गीता में दैवी और आसुरी सम्पद् की चर्चा की गई है । वहाँ |
| + | |
| + | arg aie वाले लोगों का वर्णन ठीक वही है जिसे |
| + | |
| + | अभारतीय या पाश्चात्य कहा जाता है । वे भी भौतिकतावादी |
| + | |
| + | हैं, वे भी व्यक्तिकेन्ट्री हैं, वे भी जीवन और जगत का विचार |
| + | |
| + | समग्रता में नहीं अपितु खण्ड खण्ड में करते हैं । |
| + | |
| + | दम्भोदर्पोडभिमानश्र क्रोध: पारुष्यमेव च । |
| + | |
| + | अज्ञानं चाभिजातस्य पार्थ सम्प्रदमासुरीमू ।। १६.४ |
| + | |
| + | ऐसी आसुरी सम्पद् बन्धन और विनाश का कारण |
| + | |
| + | बनती है ऐसा भी श्री भगवान कहते हैं । |
| + | |
| + | एतां दृष्टिमव्टभ्य नष्टात्सानोइल्पबुद्धय: । |
| + | |
| + | WHAM: AAT SATA SHAT: ।। १६.९ |
| + | |
| + | हमारे यहाँ चार्वाक दर्शन की भी चर्चा होती है । इस |
| + | |
| + | दर्शन में भी इंद्रियों के सुखों को प्रधानता दी गई है और |
| + | |
| + | पापपुण्य या संयम की आवश्यकता नहीं है ऐसा कहा गया |
| + | |
| + | है। |
| + | |
| + | यावज्ीवेत् सुखंजीवेत् ऋणं कृत्वा धृतम् पीबेत । |
| + | |
| + | भस्मीभूतस्य देहस्य GRIT He: I |
| + | |
| + | चार्वाक भारतीय ही है, असुर भारतीय ही हैं, खण्ड |
| + | |
| + | खण्ड में विचार करने वाले और उसके अनुसार व्यवहार करने |
| + | |
| + | वाले भी भारतीय ही हैं । केवल उन्हें मान्यता नहीं है । हम |
| + | |
| + | जब इसे अभारतीय की संज्ञा देते हैं तब हमारा तात्पर्य उसे |
| + | |
| + | मान्यता देने वाले देशों के साथ उसे जोड़ने का ही होता है । |
| + | |
| + | परन्तु कभी ऐसा भी विचार कर सकते हैं कि sa gg aT |
| + | |
| + | स्वरूप भारतीय और अभारतीय का न होकर दैवी और आसुरी |
| + | |
| + | विचारधारा के विरोध का ही है । अभारतीय को हम पाश्चात्य |
| + | |
| + | केवल इसलिये कहते हैं क्योकि पाश्चात्य देशों में इसे मान्यता |
| + | |
| + | है और वे इस मान्यता को पूरे विश्व पर थोपना चाहते हैं । |
| + | |
| + | जो लोग इसे आधुनिक कहते हैं या वैश्विक कहते हैं |
| + | |
| + | वे केवल अज्ञान के कारण ही ऐसा करते हैं । इस अज्ञान को |
| + | |
| + | कैसे दूर करना इसका विचार हम अलग से करेंगे । |
| + | |
| + | इस सन्दर्भ में एक और मुद्दा विचारणीय है । भारत में |
| + | |
| + | या विश्व में जीवनविषयक जो चर्चा चलती है उसमें किसी एक |
| + | |
| + | देश के साथ उसे नहीं जोड़ा जाता है । वह ठीक है कि नहीं |
| + | |
| + | इसका ही विचार किया जाता है । आज अमेरिका और यूरोप |
| + | |
| + | जिस विचारधारा की बात करते हैं वे भी उसे अमरीकी या |
| + | |
| + | यूरोपीय नहीं कहते हैं । वे उसे मानवीय ही कहते हैं । भारतीय |
| + | |
| + | दर्शनों में भी भारतीय या हिन्दू के नाम से चर्चा नहीं की गई |
| + | |
| + | है । मानवीय दृष्टि से ही की गई है । दोनों ही स्थानों पर एक |
| + | |
| + | अर्थ में तो वैश्विकता की ही बात की गई है । भारत भी जब |
| + | |
| + | विचार करता है तब केवल भारत के सन्दर्भ में ही नहीं करता |
| + | |
| + | है । वह सम्पूर्ण सचराचर सृष्टि के सन्दर्भ में ही विचार करता |
| + | |
| + | है । पाश्चत्य जगत विचार करता है तब भी सचराचर सृष्टि के |
| + | |
| + | सन्दर्भ में ही विचार करता है । केवल दोनों विचारधाराओं में |
| + | |
| + | अन्तर है । भारत इस अन्तर को मूल रूप से दैवी और आसुरी |
| + | |
| + | ............. page-24 ............. |
| + | |
| + | सम्पद का अन्तर कहता है, पाश्चात्य |
| + | |
| + | जगत इसे आधुनिक और रूढ़िवादी अथवा प्रगत और पिछड़े |
| + | |
| + | का अन्तर कहता है । वास्तव में हम जिसे अभारतीय कहते |
| + | |
| + | हैं वह सही अर्थों में आसुरी विचारधारा है । इस प्रकार समझने |
| + | |
| + | से हम उसके सन्दर्भ में कैसा रुख अपनाना इस विषय में भी |
| + | |
| + | अधिक स्पष्ट हो सकते हैं । |
| + | |
| + | भारतीय दृष्टि आत्मवादी (दैवी ) |
| + | |
| + | पुन: एक बार कहें तो अभारतीय विचारधारा वही है |
| + | |
| + | जो भारत में आसुरी के नाम से जानी जाती है परन्तु यूरोप |
| + | |
| + | और अमेरिका में जिसे समर्थन प्राप्त है । ऐसी विचारधारा का |
| + | |
| + | प्रभाव भारत में बढ़ रहा है और उसे समर्थन प्राप्त हो रहा है |
| + | |
| + | यही हमारी चिन्ता का विषय है । |
| + | |
| + | और भी स्पष्ट करना है तो आज के सन्दर्भ में हम कह |
| + | |
| + | सकते हैं कि अभारतीय का अर्थ है आसुरी और भारतीय का |
| + | |
| + | अर्थ है दैवी । आसुरी का अर्थ है विनाशक और दैवी का |
| + | |
| + | अर्थ है उद्घारक । विनाशक का अर्थ है त्याज्य और दैवी का |
| + | |
| + | अर्थ है स्वीकार्य । आसुरी का त्याग करने के लिये और दैवी |
| + | |
| + | को अपनाने के लिये हरेक को साधना करनी होती है । इसे |
| + | |
| + | प्राप्त करना ही जीवन विकास है । |
| + | |
| + | भारत के सम्बन्ध में जो भी बातें हैं वे भारतीय हैं । |
| + | |
| + | भारत का स्वभाव जिसमें झलकता है वह भारतीय है । |
| + | |
| + | उदाहरण के लिये भारतीय मानस ऐसा एक शब्द है । भारत |
| + | |
| + | के लोग किसी भी घटना या पदार्थ को जिस प्रकार देखते हैं |
| + | |
| + | उसे भारतीय मानस कहा जाता है । हम छोटे बच्चों को |
| + | |
| + | चन्दामामा, बिछिमौसी, चिडियारानी कहकर पशुपक्षियों का |
| + | |
| + | परिचय करवाते हैं और सबके प्रति आत्मीयता और प्रेम के |
| + | |
| + | संस्कार देते हैं यह भारतीय मानस का लक्षण है । आचार्य |
| + | |
| + | और छात्र का सम्बन्ध पिता पुत्र जैसा है ऐसा कहते हैं तब |
| + | |
| + | वह भारतीयता का लक्षण है । अर्थात भारत जिस विशिष्ट |
| + | |
| + | पद्धति से पेश आता है वह भारतीय पद्धति है । इस दृष्टि से |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा का अर्थ क्या है इसे भी हम स्पष्ट कर लें । |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा के विषय में जानना अर्थात .... |
| + | |
| + | भारत में शिक्षा की क्या परम्परा रही है यह जानना । |
| + | |
| + | भारत में शिक्षा का अर्थ कया है यह जानना । |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
| + | |
| + | भारत में शिक्षा के प्रति किस दृष्टि से देखा जाता है यह |
| + | |
| + | समझना | |
| + | |
| + | भारत में शिक्षा की क्या व्यवस्था रही है यह जानना । |
| + | |
| + | भारत में शिक्षा व्यवस्था का इतिहास जानना । |
| + | |
| + | भारत में शिक्षा के क्षेत्र में क्या चिन्तन विकसित हुआ |
| + | |
| + | है यह जानना । |
| + | |
| + | भारत के महान शिक्षकों के विषय में जानना । |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा का सैद्धान्तिक अधिष्ठान क्या है यह |
| + | |
| + | समझना । |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा की श्रेष्ठता किसमें है यह जानना । |
| + | |
| + | भारत की शिक्षा के मूल तत्त्वों और व्यवहार के विषय |
| + | |
| + | में जानना । |
| + | |
| + | इनके सम्बन्ध में जानने के साथ साथ आज भारत में |
| + | |
| + | शिक्षा की क्या अवस्था है, उसके कारण और परिणाम कौनसे |
| + | |
| + | हैं, आज यदि शिक्षा की दुरवस्था है तो उसे ठीक करने के |
| + | |
| + | क्या उपाय हैं यह भी हमें समझना होगा । इसके बाद योजना |
| + | |
| + | का भी विचार करना होगा । अर्थात यह एक व्यापक प्रयास |
| + | |
| + | है जो हमें धैर्यपूर्वक करना है। चिन्तन से शुरु कर |
| + | |
| + | कार्ययोजना तक का हमारा व्याप है । |
| + | |
| + | शिक्षा का व्यक्ति जीवन में स्थान |
| + | |
| + | मनुष्य के जीवन के साथ शिक्षा सहज रूप से जुड़ी हुई |
| + | |
| + | है । जिस प्रकार व्यक्ति जीवनभर श्वास लेता है उसी प्रकार |
| + | |
| + | वह जीवनभर सीखता रहता है । वह जाने या न जाने वह |
| + | |
| + | सीखता है । वह चाहे या न चाहे सीखता है । उसे सिखाने |
| + | |
| + | वाला भी जानता हो या नहीं वह सीखता है । सिखाने वाला |
| + | |
| + | चाहे या न चाहे वह सीखता है। आज हम शिक्षा को |
| + | |
| + | विद्याकेन्द्र तक सीमित रखते हैं, पदवी और प्रमाणपत्र के |
| + | |
| + | साथ जोड़ते हैं, पुस्तकों ,पाठ्यक्रमों , परीक्षाओं में बाँधते हैं, |
| + | |
| + | दिनचर्या और जीवनचर्या में एक समयसीमा में करने लायक |
| + | |
| + | काम समझते हैं । परन्तु वह स्वभाव से ही सीमित और बँधी |
| + | |
| + | हुई रहने वाली है नहीं । हमें ऐसी स्वाभाविक, सहज, निरन्तर |
| + | |
| + | चलने वाली शिक्षा का विचार करना है । |
| + | |
| + | दूसरी बात यह है कि शिक्षा मनुष्य के लिये अत्यन्त |
| + | |
| + | आवश्यक है । हम अनुभव करते हैं कि सृष्टि में जितने भी |
| + | |
| + | ............. page-25 ............. |
| + | |
| + | पर्व १ : उपोद्धात |
| + | |
| + | चर अचर, सजीव निर्जीव पदार्थ, वनस्पति या प्राणी हैं उनमें |
| + | |
| + | मनुष्य का दर्जा विशिष्ट है। मनुष्य पंचमहाभूतों की तरह |
| + | |
| + | शरीरधारी है । मनुष्य वनस्पति और प्राणियों की तरह |
| + | |
| + | प्राणयुक्त है । इसलिये शरीर और प्राण तक का उसका जीवन |
| + | |
| + | पंचमहाभूतों और वनस्पति तथा प्राणियों के समान होता है । |
| + | |
| + | परन्तु उसे मन है, बुद्धि है, अहंकार है, चित्त है । शास्त्रों ने |
| + | |
| + | इसे अन्तःकरण कहा है । मनुष्य का अन्तःकरण बहुत सक्रिय |
| + | |
| + | होता है । सक्रिय अन्तः:करण के कारण ही मनुष्य सम्पूर्ण सृष्टि |
| + | |
| + | में सबसे श्रेष्ठ और एकमेवादट्रितीय अस्तित्व धारण करने वाला |
| + | |
| + | बना है । मनुष्य को छोड़कर शेष सारे पदार्थ और प्राणी |
| + | |
| + | प्रकृति के नियन्त्रण में रहते हैं और प्रकृतिदत्त स्वभाव के |
| + | |
| + | अनुसार व्यवहार करते हैं । मनुष्य को अन्तःकरण के कारण |
| + | |
| + | स्वतन्त्रता प्राप्त हुई है । स्वतन्त्रता के साथ दायित्व एक सिक्के |
| + | |
| + | के दो पहलुओं की तरह जुड़ा हुआ है। मनुष्य को |
| + | |
| + | स्वतन्त्रतापूर्वक जीने का अधिकार और दायित्व के साथ जीने |
| + | |
| + | का कर्तव्य प्राप्त हुआ है । ऐसा जीवन जीना उसे विशेष |
| + | |
| + | प्रयासपूर्वक सीखना होता है । अत: सीखने की प्रक्रिया |
| + | |
| + | कितनी ही सहज और स्वाभाविक होती हो, सिखाने की |
| + | |
| + | क्रिया तो आयोजन और नियोजनपूर्वक होना आवश्यक है । |
| + | |
| + | हमारी सजगता इस बात की होनी चाहिये सिखाने कि क्रिया, |
| + | |
| + | अर्थात उसके लिये किया जाने वाला आयोजन और |
| + | |
| + | नियोजन, सीखने की सहज स्वाभाविक प्रक्रिया के अनुकूल |
| + | |
| + | और अनुरूप हो । शिक्षा को लेकर आज हमारी जितनी भी |
| + | |
| + | शिकायतें हैं वे सब इन दो बातों के परस्पर सामंजस्य के |
| + | |
| + | नितान्त अभाव से ही पैदा हुई हैं । |
| + | |
| + | पंचमहाभूतों, वनस्पतियों और प्राणियों में जो है वह तो |
| + | |
| + | मनुष्य में है ही, परन्तु उनमें जो नहीं है वह भी, अर्थात |
| + | |
| + | सक्रिय अन्तःकरण भी, मनुष्य में है । यही मनुष्य की पहचान |
| + | |
| + | है। यही मनुष्य की विशेषता है । इसके कारण ही मनुष्य |
| + | |
| + | मनुष्य बनता है । पशु को पशु बनना सहज और सरल है । |
| + | |
| + | मनुष्य को मनुष्य बनना और बने रहना सहज और सरल नहीं |
| + | |
| + | होता है । मनुष्य को मनुष्य बनने और बने रहने के लिये |
| + | |
| + | शिक्षा आवश्यक है । ऐसी शिक्षा का आयोजन और नियोजन |
| + | |
| + | करना होता है । मनुष्य को आजीवन मनुष्य बने रहना है । |
| + | |
| + | इसलिये शिक्षा भी आजीवन चलती है । |
| + | |
| + | धर्म विश्वनियम है |
| + | |
| + | मनुष्य बनने और बने रहने के लिये जो नियामक तत्त्व |
| + | |
| + | है वह धर्म है । आश्चर्य मत करें । वर्तमान के अनेक सन्दर्भों |
| + | |
| + | के कारण धर्म संज्ञा विवाद में पड़ गई है और हमारे मन में |
| + | |
| + | उलझन निर्माण करती है यह सत्य है परन्तु धर्म धर्म है और |
| + | |
| + | हमारे लिये अनिवार्य है यह परम सत्य है । बहुत संक्षेप में |
| + | |
| + | हम समझ लें कि “धर्म' से हमारा क्या तात्पर्य है । |
| + | |
| + | धर्म विश्वनियम है । इस नियम के कारण सृष्टि में |
| + | |
| + | असंख्य ग्रह, नक्षत्र आदि सारे पदार्थ निरन्तर गतिमान होने |
| + | |
| + | के बाद भी, अपनी अपनी गति से गतिमान होने के बाद भी |
| + | |
| + | आपस में टकराते नहीं हैं । पंचमहाभूतों और प्राणियों के |
| + | |
| + | स्वभाव एकदूसरे से भिन्न, और कभी विरोधी होने पर भी सब |
| + | |
| + | सुरक्षित हैं, सबका जीवननिर्वाह हो जाता है। यह उस |
| + | |
| + | विश्वनियम के कारण होता है । इस विश्वनियम को वेदों में |
| + | |
| + | ऋत कहा है। यह ma at धर्म है। सुरक्षापूर्वक, |
| + | |
| + | waa, Aaa बने रहने को धारणा कहते हैं । |
| + | |
| + | जिस विश्वनियम से सृष्टि की धारणा होती है वह विश्वनियम |
| + | |
| + | धर्म है । धारणा करता ही वही धर्म है ऐसी ही “धर्म' संज्ञा |
| + | |
| + | की व्युत्पत्ति है । |
| + | |
| + | सृष्टि के प्रत्येक पदार्थ का अपना अपना स्वभाव होता |
| + | |
| + | है। अग्नि का स्वभाव गर्मी और प्रकाश देने का है । पानी |
| + | |
| + | का स्वभाव समतल बने रहने का और शीतलता देने का है । |
| + | |
| + | शक्कर पानी में घुलती है । मोम गर्मी से पिघलता है । साँप |
| + | |
| + | रेंगकर ही गति करता है । गाय कभी माँस नहीं खाती है । सिंह |
| + | |
| + | कभी घास नहीं खाता है । प्राणी और पदार्थ कभी भी अपना |
| + | |
| + | स्वभाव छोड़ते नहीं हैं । कभी नहीं छोड़ते हैं, नहीं छोड़ सकते |
| + | |
| + | हैं इसलिये ही उसे स्वभाव कहते हैं । गाय का गायपन, सिंह |
| + | |
| + | का सिंहपन, पानी का पानीपन, अगि का अगिपन ही स्वभाव |
| + | |
| + | है । यह धर्म है । इसे गुणधर्म भी कहते हैं । |
| + | |
| + | विश्वनियम के आधार पर सृष्टि और समाज की धारणा |
| + | |
| + | हेतु मनुष्य के लिये आचरण के जो नियम बने हैं उन्हें धर्म |
| + | |
| + | कहते हैं । यह धर्म कर्तव्य है । इसे कर्तव्य धर्म कहते हैं । |
| + | |
| + | उदाहरण के लिये छात्र को आचार्य का आदर करना चाहिये |
| + | |
| + | और उनकी आज्ञा का पालन करना चाहिये यह छात्रधर्म है । |
| + | |
| + | पिता को पुत्र का पालन करना चाहिये और पालनपोषण पूर्वक |
| + | |
| + | ............. page-26 ............. |
| + | |
| + | भारतीय शिक्षा : संकल्पना एवं स्वरूप |
| + | |
| + | उसे कर्तव्य धर्म सिखाना चाहिये यह... अन्न प्राप्त करने के लिये कहीं जाना पड़ता है, कभी संघर्ष |
| + | |
| + | उसका कर्तव्य है, उसका पितृधर्म है । राजा का प्रजा के प्रति... करना पड़ता है, कभी संकटों का सामना करना पड़ता है यह |
| + | |
| + | जो कर्तव्य है वह उसका राजधर्म है । गृहस्थ का समाज के... बात सत्य है, परन्तु एक बार प्राप्त कर लेने के बाद उसे |
| + | |
| + | प्रति जो कर्तव्य है वह उसका समाजधर्म है, नागरिक का देश. काटना, छीलना या पकाना नहीं पड़ता है । प्राणियों को वस्त्र |
| + | |
| + | के प्रति जो कर्तव्य है वह उसका देशधर्म है । हरेक व्यक्ति... पहनने नहीं पड़ते हैं क्योंकि शीलरक्षा या शरीररक्षा का प्रश्न |
| + | |
| + | को अपनी संस्कृति का आदर और श्रद्धापूर्वक, कृतिशील उनके लिये नहीं है । निवास के लिये केवल पक्षी को घोंसला |
| + | |
| + | होकर अनुसरण करना चाहिये यह उसका राष्ट्रधर्म है । बनाना पड़ता है । शेष सारे प्राणी या तो प्रकृति निर्मित स्थानों |
| + | |
| + | मनुष्य को विश्वनियमरूप धर्म, स्वभावधर्म और में अथवा मनुष्य निर्मित स्थानों में रहते हैं । गुफा और |
| + | |
| + | कर्तव्यधर्म ऐसे तीनों का पालन करना होता है । इस धर्म का... गोशाला इसके क्रमश: उदाहरण हैं । मनुष्य को अपनी इन |
| + | |
| + | पालन नहीं किया तो सृष्टि का सामंजस्य बिगड़ता है, जीवन... आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्रयास करने होते हैं । ऐसे |
| + | |
| + | संकट में पड़ जाता है । सृष्टि का सामंजस्य बिगाड़ना अधर्म.... प्रयासों के लिये बहुत कुछ सीखना होता है । जैसे कि कपड़ा |
| + | |
| + | है, अपराध है । धर्म से ही जीवन के परम लक्ष्य मोक्ष के... बुनना, अनाज उगाना, भोजन पकाना, घर बांधना, घर बनाने |
| + | |
| + | प्रति गति होती है और उसकी प्राप्ति होती है । के सामान का उत्पादन करना आदि । यह उसकी औपचारिक |
| + | |
| + | इस धर्म को सिखाने के लिये शिक्षा होती है । शिक्षा... अनौपचारिक शिक्षा का महत्त्वपूर्ण हिस्सा है । मनुष्य समाज |
| + | |
| + | का यह परम लक्ष्य है । बनाकर रहता है । साथ रहना है तो अनेक व्यवस्थायें करनी |
| + | |
| + | विश्वनियम के आधार पर मनुष्य के कर्तव्य और कर्तव्य... होती हैं, नियम बनाने होते हैं । इन व्यवस्थाओं को बनाना |
| + | |
| + | के पालनपूर्वक अपना जीवन सुखमय बनाना यह मनुष्य के... भी सीखना ही होता है । यथा कानून और न्याय, व्यापार |
| + | |
| + | लिये जीवनसाधना है । मनुष्य को स्वतन्त्रता प्राप्त है, और यात्रा आदि । मनुष्य में जिज्ञासा होती है । वह बहुत |
| + | |
| + | स्वतन्त्रता को सुरक्षित रखने का सामर्थ्य प्राप्त हुआ है, साथ... कुछ जानना चाहता है । जिज्ञासा समाधान के लिये वह |
| + | |
| + | ही सृष्टि का सामंजस्य न बिगाड़ने का कर्तव्य और दायित्व... निरीक्षण करता है, प्रयोग करता है, प्रयोग के लिये आवश्यक |
| + | |
| + | भी प्राप्त हुआ है । इसका पालन करना अनेक कारणों से. उपकरण बनाता है । इसके लिये उसे बहुत कुछ सीखना होता |
| + | |
| + | उसके लिये सरल नहीं है । इसे सरल और सहज बनाना ही. है । मनुष्य सृष्टि के रहस्यों को जानना चाहता है, अपने |
| + | |
| + | उसके लिये साधना है । शिक्षा जीवनसाधना के लिये मनुष्य... आपको जानना चाहता है । जानने के लिये वह विचार करता |
| + | |
| + | को समर्थ बनाती है । है, ध्यान करता है, अनुभव करता है । यह सब भी उसे |
| + | |
| + | सीखना ही पड़ता है । अर्थात धर्माचरण सीखने के साथ साथ |
| + | |
| + | शिक्षा धर्म सिखाती है उसे असंख्य बातें अपना जीवन चलाने के लिये सीखनी होती |
| + | |
| + | इसलिए मनुष्य के लिये शिक्षा अनिवार्य है । हैं । सीखना उसके जीवन का अविभाज्य अंग ही बन जाता |
| + | |
| + | मोक्षमार्ग को प्रशस्त करने वाले धर्म को सिखाने वाली... है । इसलिये शिक्षा का बहुत बड़ा शास्त्र निर्माण हुआ है । |
| + | |
| + | शिक्षा के अनेक गौण आयाम हैं जो व्यवहारजीवन के लिये... धर्मशास्त्र के समान ही शिक्षाशास््र अत्यन्त व्यापक और |
| + | |
| + | अत्यन्त आवश्यक हैं । गौण होने का अर्थ वे कम महत्त्वपूर्ण. आधारभूत शाख्त्र है । |
| + | |
| + | हैं ऐसा नहीं है । उसका अर्थ यह है कि वे सब मुख्य बात मनुष्य के व्यक्तिगत, सामाजिक, सृष्टित और |
| + | |
| + | के अविरोधी होने चाहिये अर्थात धर्म के अविरोधी होने... पारमार्थिक व्यवहारों को चलाने के लिये वह अनेक प्रकार के |
| + | |
| + | चाहिये । उदाहरण के लिये मनुष्य को अन्न वस्त्र की अनिवार्य. शास्त्रों की रचना करता है, अनेक प्रकार की व्यवस्थायें |
| + | |
| + | आवश्यकता है । मनुष्य को अन्न वस्त्र अन्य प्राणियों के तरह. बनाता है । इसके लिये उसे काम करना होता है, विचार |
| + | |
| + | बिना प्रयास किये प्राप्त नहीं होते हैं । पशुओं को भी अपना... करना होता है, अनुभव करना होता है । ये सब उसकी शिक्षा |
| + | |
| + | श्० |
| + | |
| + | ............. page-27 ............. |
| + | |
| + | पर्व १ : उपोद्धात |
| + | |
| + | का बहुत बड़ा हिस्सा है । |
| + | |
| + | संक्षेप में मनुष्य का जीवन शिक्षारहित होता ही नहीं है । |
| + | |
| + | हम जब शिक्षा का विचार करने के लिये उद्यत हुए हैं तब इन |
| + | |
| + | तथ्यों को हमें ठीक से समझ लेने की आवश्यकता है । |
| + | |
| + | शिक्षा का समाजजीवन में स्थान |
| + | |
| + | शिक्षा केवल व्यक्ति के लिये आवश्यक है ऐसा नहीं |
| + | |
| + | है । सम्पूर्ण समाज को शिक्षा की आवश्यकता है । कोई कह |
| + | |
| + | सकता है कि व्यक्ति को शिक्षा मिली तो समाज को अलग |
| + | |
| + | से शिक्षा की क्या आवश्यकता है । व्यक्ति व्यक्ति मिलकर ही |
| + | |
| + | तो समाज बनता है । व्यक्तियों को यदि उचित शिक्षा प्राप्त हुई |
| + | |
| + | तो समाज तो शिक्षित हो ही जायेगा । परन्तु इस सम्बन्ध में |
| + | |
| + | जरा और विचार करने की आवश्यकता है । समाज केवल |
| + | |
| + | व्यक्तियों का जोड़ नहीं है । समाज व्यक्तियों का सम्बन्ध है । |
| + | |
| + | दो व्यक्ति केवल साथ साथ बैठने से, चलने से या रहने से |
| + | |
| + | इकट्ठे दिखाई देते हैं, वे एकदूसरे से संबन्धित नहीं होते । |
| + | |
| + | सम्बन्ध आन्तरिक होता है । सम्बन्ध भौतिक वस्तुओं की |
| + | |
| + | लेनदेन का नहीं होता है, या किसी स्वार्थ के लिये एकदूसरे |
| + | |
| + | का काम कर देने के लिये नहीं होता है । सम्बन्ध केवल |
| + | |
| + | भौतिक स्तर पर नहीं होता है, भावना के स्तर पर होता है । |
| + | |
| + | दो अपरिचित व्यक्ति साथ साथ खड़े हों तो वे समाज नहीं |
| + | |
| + | बनते हैं । वे मित्रता के सम्बन्ध से जुड़े हों तो समाज बनता |
| + | |
| + | है । दोनों एक ही पिता की सन्तान हों तो भाई बनते हैं । तब |
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| + | वह समाज होता है । दो अपरिचित स्त्री और पुरुष साथ साथ |
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| + | खड़े हों और साथ साथ काम भी करते हों तो वे समाज नहीं |
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| + | बनते । वे विवाह संस्कार से जुड़े हों तो परिवार बनते हैं और |
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| + | यह परिवार ही समाज की इकाई है । समाज व्यक्तियों की |
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| + | इकाई से नहीं बनता, परिवार की इकाई से बनता है। |
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| + | आजकल बिना विवाह के स्त्रीपुरुष साथ साथ रहते हैं । वे |
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| + | at ak yes a कामयुक्त व्यवहार भी करते हैं परन्तु वे |
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| + | पति पत्नी नहीं होते हैं, केवल साथीदार होते हैं । यह विवाह |
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| + | नहीं है, आन्तरिक सम्बन्ध भी नहीं है इसलिए वे समाज भी |
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| + | नहीं बनते हैं । |
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| + | विवाह भी केवल तान्त्रिक व्यवस्था नहीं है जो केवल |
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| + | कानून पर आधारित होती है । वह एकात्म सम्बन्ध है । उस |
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| + | सम्बन्ध के आधार पर स्त्री और पुरुष |
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| + | साथ रहते हैं तब परिवार बनता है । परिवार की इकाइयाँ जब |
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| + | साथ साथ रहती हैं तो उनमें भी एकात्म सम्बन्ध का सूत्र ही |
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| + | लागू है । इस प्रकार से जो समाज बनता है वह शिक्षा का |
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| + | आधार है । समाज के स्तर पर एकात्म सम्बन्ध की |
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| + | स्वाभाविकता और आवश्यकता की जो शिक्षा होती है वह |
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| + | समाज की आवश्यकता है । समाज को जब यह शिक्षा |
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| + | मिलती है तब सामुदायिक जीवन की सारी व्यवस्थायें |
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| + | परिवारभावना से अनुप्राणित होती हैं । यह तत्त्व गूढ़ लगता |
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| + | है क्योंकि उसका अनुभव करना किंचित कठिन होता 2 | |
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| + | दूसरा कारण यह भी है कि आज इस दिशा में चिन्तन होता |
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| + | भी नहीं है । एकात्म समाज के लिये एकात्म शिक्षा चाहिये । |
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| + | यह समाज की आवश्यकता है । |
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| + | समाज के लिये आवश्यक इस शिक्षा का क्रियान्वयन |
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| + | तो व्यक्ति के स्तर पर ही होता है क्योंकि शिक्षा व्यक्ति व्यक्ति |
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| + | को दी जाती है । शिक्षा देने वाला और लेने वाला एक समय |
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| + | में एक व्यक्ति ही होता है । परन्तु शिक्षा की व्यवस्था करना, |
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| + | शिक्षा तन्त्र विकसित करना और निभाना समाज का दायित्व |
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| + | होता है, केवल व्यक्ति का नहीं । शिक्षा तन्त्र का रक्षण और |
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| + | पोषण करना भी समाज का ही दायित्व है । जब हमारे देश |
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| + | में राजाओं का राज्य था तब यह दायित्व राजा का होता |
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| + | at | समाज की ओर से राजा शिक्षा के तन्त्र का योगक्षेम |
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| + | ठीक चले इसकी चिन्ता करता था । आज लोकतन्त्र है। |
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| + | लोकतन्त्र में समाज की ओर से लोकतान्त्रिक सरकार शासन |
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| + | करती है । तब शिक्षा का योगक्षेम वहन करने की चिन्ता |
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| + | सरकार को होनी चाहिये । परन्तु आज इस बात में विपर्यास |
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| + | हुआ दिखाई देता है। इस विपर्यास और उससे जनित |
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| + | समस्याओं की चर्चा हम स्वतन्त्र रूप से करेंगे । लोकतन्त्र |
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| + | और लोकतान्त्रिक सरकार का स्वरूप क्या हो इसकी चर्चा |
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| + | किये बिना शिक्षा के योगक्षेम का दायित्व सरकार का है, |
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| + | समाज के प्रतिनिधि के रूप में सरकार का है यह कह देना |
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| + | पर्याप्त नहीं होगा । |
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| + | समाज में शिक्षा का स्थान क्या है इस विषय में एक |
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| + | और बात विचारणीय है । शिक्षा धर्म सिखाने वाली है अतः |