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| == एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, भारतीय ' सहकार ' का स्वरूप == | | == एकात्म मानव दर्शनपर आधारित, भारतीय ' सहकार ' का स्वरूप == |
− | स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते। यह वस्तुस्थिती है। इसीलिये 'काम' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है। काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है। ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है। किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है। इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है। अपनी कामनाओं / इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना भारतीय शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है। मुझे अच्छा खाना मिले। ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है। किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है। मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है। किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है। धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति तक स्वार्थ स्वीकार्य है। लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह भारतीय सहकार का नमूना होता है। | + | स्वार्थ भावना के बिना विश्व के व्यवहार चल ही नहीं सकते। यह वस्तुस्थिति है। इसीलिये 'काम' को हमारे शास्त्रों ने पुरूषार्थ कहा है। काम अर्थात् कामनाओं की पूर्ति करने के लिये किये गये प्रयासों को भी हमारे शास्त्रों की मान्यता है। ऐसे प्रयासों को अर्थ पुरूषार्थ कहा गया है। किंतु व्यक्ति का विचार समाज के और प्रकृति के विचार के बिना अधूरा रहता है। इन तीनों का परस्पर अन्योन्याश्रित संबंध है। समाज और सृष्टि के हित के दायरे में काम और अर्थ को रखने के प्रयासों को धर्म कहा गया है। अपनी कामनाओं / इच्छाओं को और उन की पूर्ति के प्रयासों को धर्मानुकूल रखना भारतीय शास्त्रों की दृष्टि से अनिवार्य बात है। मुझे अच्छा खाना मिले। ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। अच्छा खाना मिलने के लिये प्रयास करना भी गलत नहीं है। किंतु मुझे अच्छा खाना मिले इस हेतु दूसरे का खाना छीनकर खाने को धर्म का विरोध है। मुझे सुंदर पत्नि मिले ऐसी इच्छा करना गलत नहीं है। उस हेतु धर्मानुकूल प्रयास करना भी मान्य है। किंतु उस हेतु से अन्यों की पत्नियों को बुरी नजर से देखना, उन्हे छल, बल, कपट से पाने के लिये प्रयास करना धर्म को मान्य नहीं है। धर्मानुकूल इच्छाओं की पूर्ति तक स्वार्थ स्वीकार्य है। लेकिन अन्यों के हित में जब नि:स्वार्थ भाव से काम करते हैं, सहकार की भावना से काम करते हैं तब वह भारतीय सहकार का नमूना होता है। |
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| === एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम === | | === एकात्म मानव दर्शनपर आधारित वर्तमान में चलनेवाले सहकारिता के उपक्रम === |
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| == भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता == | | == भारतीय समृद्धि शास्त्र की पुनर्प्रस्तुति की आवश्यकता == |
− | सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें भारतीय दृष्टिकोण से 'समाजशास्त्र' और आगे 'समृद्धिशास्त्र' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम भारतीय सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे। सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है। इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधारपर करनी होगी। | + | सहकारिता के क्षेत्र में काम करने से पहले हमें भारतीय दृष्टिकोण से 'समाजशास्त्र' और आगे 'समृद्धिशास्त्र' की प्रस्तुति करनी होगी। इन के अभाव में हम भारतीय सहकारिता के तत्व को व्यवहार में नहीं ला सकेंगे। सहकारी उपक्रम यह अर्थ पुरुषार्थ का एक पहलू है। इसलिये समृद्धिशास्त्र के और मानव के शाश्वत विकास के प्राथमिक तत्वों की प्रस्तुति भी एकात्म मानव दर्शन के आधार पर करनी होगी। |
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− | अफ्रीका के देश अविकसित माने जाते हैं। कई एशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता है। अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है। योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं। किंतु अमरिका और योरप के देशों समेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता। और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग । अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग । इसे ही विकास कहा जाता है । विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुआ है । इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है । इसके तीन प्रमुख कारण है । एक तो यह की पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है । और दूसरा कारण यह है की भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है । और तीसरा कारण यह भी है की जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुआ है । उस आतंक से जूझने के लिये, उसपर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युध्द के मार्गपर चल पडे है । | + | अफ्रीका के देश अविकसित माने जाते हैं। कई एशिया के देशों को भी अविकसित माना जाता है। अमरिका शायद सबसे अधिक विकसित देश माना जाता है। योरप के भी काफी देश विकसित माने जाते हैं। किंतु अमरिका और योरप के देशों समेत एक भी ऐसा देश नहीं है जो और अधिक विकास नहीं करना चाहता। और उनके विकास का अर्थ है, और अधिक उपभोग। अधिक और अधिक प्राकृतिक संसाधनों का उपभोग। इसे ही विकास कहा जाता है। विकास की दर बढाने की होड में हर देश लगा हुआ है। इसी होड के कारण आज विश्वभर के सभी देशों ने पाश्चात्य अर्थशास्त्र का स्वीकार किया है। इसके तीन प्रमुख कारण हैं। एक तो यह कि पश्चिमी देशों की तकनीकी प्रगति के कारण सभी की ऑंखें चौंधिया गयी है। और दूसरा कारण यह है कि भारत को छोड़कर इस पाश्चात्य इकोनोमिक्स से अधिक श्रेष्ठ ऐसा अन्य कोई विकल्प आज विश्व के किसी भी देश के सामने नहीं है। और तीसरा कारण यह भी है कि जिस प्रकार से हिंसक पशु पागल होकर जंगल में आतंक फैलाकर जंगल का जीवन भयप्रद कर देते है, इस विश्व के पर्यावरण में कई बलवान और मदांध देशों का आतंक मचा हुआ है। उस आतंक से जूझने के लिये, उस पर विजय प्राप्त करने के लिये जापान और भारत जैसे देश भी पाश्चात्य अधर्म युद्ध के मार्गपर चल पडे है । |
− | वास्तव में देखें तो कोई भी देश इस स्पर्धा के कारण सुखी नहीं है । प्रगत देशों के केवल बलशाली लोग हैं, वह इस होड से लाभ पा रहे है । विश्व का हर देश इस विकास की होड में घसीटा जा रहा है । किसी में भी यह हिम्मत नहीं है की इसका विरोध कर सके। ऐसी स्थिती में एक भिन्न इकोनोमिक्स की प्रस्तुति और व्यवहार यह बहुत ही हिम्मत की बात है । ऐसे इकोनोमिक्स को व्यवहार में लाने की क्षमता भी उस देश के पास होना आवश्यक है । इस दृष्टि से भारत का स्थान अनन्य साधारण है । भारत अपने आप में एक विश्व हैं। हमारे पास संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टि से विश्व की सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रतिभा है और संसाधनों की विपुलता है। विश्व के इतिहास में जबजब ऐसे प्रसंग आये भारत ने ही विश्व को मार्गदर्शन किया है। आज भी विश्व को भारत से यही अपेक्षा है ।
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| + | वास्तव में देखें तो कोई भी देश इस स्पर्धा के कारण सुखी नहीं है। प्रगत देशों के केवल बलशाली लोग हैं, वह इस होड से लाभ पा रहे है। विश्व का हर देश इस विकास की होड में घसीटा जा रहा है। किसी में भी यह हिम्मत नहीं है कि इसका विरोध कर सके। ऐसी स्थिति में एक भिन्न इकोनोमिक्स की प्रस्तुति और व्यवहार यह बहुत ही हिम्मत की बात है। ऐसे इकोनोमिक्स को व्यवहार में लाने की क्षमता भी उस देश के पास होना आवश्यक है। इस दृष्टि से भारत का स्थान अनन्य साधारण है। भारत अपने आप में एक विश्व हैं। हमारे पास संख्यात्मक और गुणात्मक दृष्टि से विश्व की सर्वश्रेष्ठ मानवीय प्रतिभा है और संसाधनों की विपुलता है। विश्व के इतिहास में जब जब ऐसे प्रसंग आये भारत ने ही विश्व को मार्गदर्शन किया है। आज भी विश्व को भारत से यही अपेक्षा है । |
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| == एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के प्रतिमान : दो उदाहरण == | | == एकात्म मानव दर्शनपर आधारित सहकारिता के प्रतिमान : दो उदाहरण == |
− | योगेश्वर कृषि और मत्स्यगंधा : स्वाध्याय कुटुम्ब के पुरोधा स्वर्गीय श्री पांडुरंग शास्त्री उपाख्य दादा आठवलेद्वारा यह दो प्रयोग सफलता से किये गये है । दोनों ही में वर्षभर में गाँव का प्रत्येक कुटुम्ब एक दिन गाँव के लिये देता है । इस परिश्रम से जो उपज या मत्स्य-उत्पादन होता है उस का विनियोग दुर्बल घटकों को सबल बनाने के किया किया जाता है । इस प्रक्रिया के चलते स्वर्गीय दादा ने ऐसे कई गाँव सबल बनाये है । इन गाँवों में कोई दुर्बल नहीं है। यह गाँव अब अन्य गाँवों को मार्गदर्शन कर वहाँ के दुर्बलों को सबल बनाने का प्रयास कर रहे है । इन दोनों उपक्रमों से विशाल पूँजी का निर्माण यह गाँव कर सके है । | + | योगेश्वर कृषि और मत्स्यगंधा : स्वाध्याय कुटुम्ब के पुरोधा स्वर्गीय श्री पांडुरंग शास्त्री उपाख्य दादा आठवले द्वारा यह दो प्रयोग सफलता से किये गये है। दोनों ही में वर्षभर में गाँव का प्रत्येक कुटुम्ब एक दिन गाँव के लिये देता है। इस परिश्रम से जो उपज या मत्स्य-उत्पादन होता है उस का विनियोग दुर्बल घटकों को सबल बनाने के किया किया जाता है। इस प्रक्रिया के चलते स्वर्गीय दादा ने ऐसे कई गाँव सबल बनाये है। इन गाँवों में कोई दुर्बल नहीं है। यह गाँव अब अन्य गाँवों को मार्गदर्शन कर वहाँ के दुर्बलों को सबल बनाने का प्रयास कर रहे है। इन दोनों उपक्रमों से विशाल पूँजी का निर्माण यह गाँव कर सके हैं। |
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| == उपसंहार == | | == उपसंहार == |
− | कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी । इस बातपर विचारपूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है । ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है । इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा । भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक भारतीय है । वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगोंपर हुआ है । ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है । इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे । | + | कौटुम्बिक भावना से चलाए गये उपक्रम सामने रखकर ही हमें भावी सहकारिता के क्षेत्र की पुनर्रचना करनी होगी। इस बातपर विचार पूर्वक और हिम्मत से प्रयोग करने की आवश्यकता है। ग्रामकुल जैसी व्यवस्थाएं कुछ गाँवों में क्षीण अवस्था में, लेकिन आज भी विद्यमान है। इन व्यवस्थाओं का और पू. दादा आठवलेजी ने किये प्रयोगों का अध्ययन करना होगा। भारतीयता की दृष्टि से ग्रामीण लोग अधिक भारतीय है। वर्तमान शिक्षा का असर उनपर उतना नहीं हुआ है जितना शहरी लोगों पर हुआ है। ग्रामीण लोग अभी भी एकात्म मानव दर्शन के विचार से पूर्णत: विलग नहीं हुए है। इसीलिये सहकारिता में हो या अर्थशास्त्र में, परिवर्तन के प्रयोग हमें ग्रामीण क्षेत्र से ही प्रारभ करने होंगे । |
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| ==References== | | ==References== |