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== वर्ण के कई अर्थ ==
 
== वर्ण के कई अर्थ ==
लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति ज्ञानकोष में वर्ण इस शब्द के कई अर्थ दिये है। एक है ' रंग '। लाल, पीला आदि सात रंग और इन के एक दूसरे में मिलाने से निर्माण होनेवाली अनगिनत छटाओं को वर्ण की संज्ञा दी हुई है। दूसरा अर्थ ' ध्वनि ' है। हमारे स्वरयंत्र से जो ध्वनि निकलती है उसे भी वर्ण कहते है। इस ध्वनि को विशिष्ट चिन्हों के आधारपर जाना जाता हे। इन चिन्हों को हम अक्षर भी कहते है और वर्ण भी कहते है। स्वर और व्यंजनों के अक्षरों की माला को हम अक्षरमाला भी कहते है और वर्णमाला भी कहते है।
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लक्ष्मण शास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति ज्ञानकोष में वर्ण इस शब्द के कई अर्थ दिये है। एक है 'रंग'। लाल, पीला आदि सात रंग और इन के एक दूसरे में मिलाने से निर्माण होने वाली अनगिनत छटाओं को वर्ण की संज्ञा दी हुई है। दूसरा अर्थ 'ध्वनि' है। हमारे स्वर यंत्र से जो ध्वनि निकलती है, उसे भी वर्ण कहते है। इस ध्वनि को विशिष्ट चिन्हों के आधार पर जाना जाता हे। इन चिह्नों को हम अक्षर भी कहते है और वर्ण भी कहते है। स्वर और व्यंजनों के अक्षरों की माला को हम अक्षरमाला भी कहते है और वर्णमाला भी कहते है।
    
वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
 
वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेनेवाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है । नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है । इस कारण जाति व्यवस्था, व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है । वर्ण व्यवस्था कहने से जाति व्यवस्था का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है । दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
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वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' का वरण करता है। नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है। इस कारण जाति व्यवस्था, व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। वर्ण व्यवस्था कहने से जाति व्यवस्था का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।
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हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है । इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे । मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
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हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है। इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे। मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।
    
== समाज में विभूति संयम ==
 
== समाज में विभूति संयम ==
 
देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं।   
 
देशिक शास्त्र<ref>बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६</ref> के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस [[Society (समाज)|लेख]] में देख सकते हैं।   
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ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी की वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
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ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी कि वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।  
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जिस समाज में विभूति संयम की जगह विभूति संभ्रम निर्माण होता है वह समाज रोगग्रस्त हो जाता है। ब्राह्मण होने के नाते सम्मान चाहिये और शूद्रों की भाँति निश्चिन्तता भी चाहिये यह नहीं चलेगा। या क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य और वैश्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और विलास भी मिलें यह नहीं चल सकता। वर्तमान शिक्षा और लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के कारण प्रत्येक को ब्राह्मण की तरह सम्मान चाहिये, क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य, वैश्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और शूद्र की तरह निश्चिन्तता ऐसा सभी चाहिये। वर्तमान दुर्व्यवस्था का यह भी एक प्रबल कारण है कि  वर्तमान सामाजिक जीवन के  प्रतिमान के कारण विभूति संभ्रम निर्माण हो गया है। और वर्तमान लोकतंत्र और वर्तमान शिक्षा दोनों इस संभ्रम में वृध्दि कर रहें हैं। इस लोकतंत्र में समाज के लिये त्याग करने के लिये कोई तैयार नहीं है लेकिन मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह चारों विभूतियाँ हर एक को चाहिये। समाज के लिये त्याग करने की किसी की तैयारी नहीं होने से समाज की संस्कृति भी नष्ट होती है।  
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जिस समाज में विभूति संयम की जगह विभूति संभ्रम निर्माण होता है वह समाज रोगग्रस्त हो जाता है। ब्राह्मण होने के नाते सम्मान चाहिये और शूद्रों की भाँति निश्चिन्तता भी चाहिये यह नहीं चलेगा। या क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य और वैश्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और विलास भी मिलें यह नहीं चल सकता। वर्तमान शिक्षा और लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के कारण प्रत्येक को ब्राह्मण की तरह सम्मान चाहिये, क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य, वैश्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और शूद्र की तरह निश्चिन्तता ऐसा सभी चाहिये। वर्तमान दुर्व्यवस्था का यह भी एक प्रबल कारण है कि  वर्तमान सामाजिक जीवन के  प्रतिमान के कारण विभूति संभ्रम निर्माण हो गया है। और वर्तमान लोकतंत्र और वर्तमान शिक्षा दोनों इस संभ्रम में वृद्धि कर रहें हैं। इस लोकतंत्र में समाज के लिये त्याग करने के लिये कोई तैयार नहीं है लेकिन मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह चारों विभूतियाँ हर एक को चाहिये। समाज के लिये त्याग करने की किसी की तैयारी नहीं होने से समाज की संस्कृति भी नष्ट होती है।  
    
== स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां ==
 
== स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां ==
मानव जीवन का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता तीन प्रकार की होती है। आर्थिक स्वतंत्रता, शासनिक स्वतंत्रता और स्वाभाविक स्वतंत्रता। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा करने की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है। इसी तरह शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश शासनिक स्वतंत्रता में हो जाता है। शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के लोगों की है। और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी वैश्य की है। स्वाभाविक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का कोई अवरोध नहीं हो। ऐसे ही शासनिक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का शासनिक अवरोध नहीं हो। इसी तरह आर्थिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का आर्थिक अवरोध न हो। इस प्रकार से सारे समाज की स्वाभाविक (सर्वोच्च) स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण (लेनेवाला) ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी बनता है। ऐसी जिम्मेदारी न लेनेवाला ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी नहीं बन सकता। इसी तरह जो क्षत्रिय, समाज की शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता वह भी दूसरे क्रमांक के सम्मान का अधिकारी नहीं रहता। यही बात आर्थिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में वैश्य के लिए भी लागू है।
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मानव जीवन का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता तीन प्रकार की होती है। आर्थिक स्वतंत्रता, शासनिक स्वतंत्रता और स्वाभाविक स्वतंत्रता। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा करने की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है। इसी तरह शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश शासनिक स्वतंत्रता में हो जाता है। शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के लोगों की है। और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी वैश्य की है। स्वाभाविक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का कोई अवरोध नहीं हो। ऐसे ही शासनिक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का शासनिक अवरोध नहीं हो। इसी तरह आर्थिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का आर्थिक अवरोध न हो। इस प्रकार से सारे समाज की स्वाभाविक (सर्वोच्च) स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण (लेने वाला) ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी बनता है। ऐसी जिम्मेदारी न लेने वाला ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी नहीं बन सकता। इसी तरह जो क्षत्रिय, समाज की शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता वह भी दूसरे क्रमांक के सम्मान का अधिकारी नहीं रहता। यही बात आर्थिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में वैश्य के लिए भी लागू है।
    
वर्ण व्यवस्था यह इस सामाजिक विभूति संयम को और स्वतंत्रता की रक्षा की व्यवहार में आश्वस्ति हेतु निर्माण की गई व्यवस्था है।
 
वर्ण व्यवस्था यह इस सामाजिक विभूति संयम को और स्वतंत्रता की रक्षा की व्यवहार में आश्वस्ति हेतु निर्माण की गई व्यवस्था है।
    
== वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन ==
 
== वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन ==
परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4-13</ref> में भगवान कहते है:<blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश:  (4-13)</blockquote>जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुध्दि और वृध्दि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है।
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परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 4-13</ref> में भगवान कहते है:<blockquote>चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश:  (4-13)</blockquote>जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुद्धि और वृद्धि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है।
# वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक  का ‘स्वभाव ‘ और गुण लक्षणों को समझना । अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना।
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# वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक  का 'स्वभाव' और गुण लक्षणों को समझना। अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना।
# शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुध्दि और वृध्दि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुध्दि और वृध्दि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है।
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# शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुद्धि और वृद्धि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुद्धि और वृद्धि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है।
    
== जीवंत इकाई के अंग ==
 
== जीवंत इकाई के अंग ==
 
मनुष्यों के स्वभाव के वर्गीकरण के अनुसार चार वर्ग बनते है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन प्रवृत्तियों के अनुसार वह वर्ग विशिष्ट प्रकार के कर्म ही अच्छी तरह कर सकता है। इन वर्गों की विशिष्ट प्रवृत्तियों की चर्चा हम आगे करेंगे। अभी इतना हम समझ लें की हर जीवंत इकाई में इन चार प्रवृत्तियों के अनुसार कर्म करनेवाला उस समाज का या जीवंत इकाई का कोई अंग अवश्य होता है। जैसे मनुष्य का शरीर। यह एक जीवंत इकाई है। इस में भी ब्राह्मण की भूमिका में सिर, क्षत्रिय की भूमिका में हाथ, वैश्य की भूमिका में पेट और शूद्र की भूमिका में पैर काम करते है।   
 
मनुष्यों के स्वभाव के वर्गीकरण के अनुसार चार वर्ग बनते है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन प्रवृत्तियों के अनुसार वह वर्ग विशिष्ट प्रकार के कर्म ही अच्छी तरह कर सकता है। इन वर्गों की विशिष्ट प्रवृत्तियों की चर्चा हम आगे करेंगे। अभी इतना हम समझ लें की हर जीवंत इकाई में इन चार प्रवृत्तियों के अनुसार कर्म करनेवाला उस समाज का या जीवंत इकाई का कोई अंग अवश्य होता है। जैसे मनुष्य का शरीर। यह एक जीवंत इकाई है। इस में भी ब्राह्मण की भूमिका में सिर, क्षत्रिय की भूमिका में हाथ, वैश्य की भूमिका में पेट और शूद्र की भूमिका में पैर काम करते है।   
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ॠग्वेद के पुरूषसूक्त में (१०-९०) और यजुर्वेद (यजुर्वेद ३१-११) में भी यही बताया गया है<ref>ॠग्वेद पुरूषसूक्त (१०-९०) और यजुर्वेद (३१-११)</ref>। <blockquote>ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद् बाहू राजन्य: कृत: ।</blockquote><blockquote>ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥</blockquote>जीवंत इकाई के हर अंग का महत्व होता है। किसी भी अंग की हानि, अंगी की यानी जीवंत इकाई की हानि होती है। मनुष्य के शरीर में जैसे पैर की हानि शरीर की हानि होती है इसी तरह समाज में किसी भी मनुष्य की या वर्ण की या जाति की हानि होती है। किंतु इस का अर्थ यह नहीं की हाथ का काम कान करने लगे। हाथ का काम अलग है और कान का काम अलग है। प्रत्त्येक का मनुष्य के अस्तित्व का अलग महत्व है। अलग प्रयोजन है। जिस प्रकार हम शरीर के प्रत्येक अंग के स्वास्थ्य की चिंता करते है, उसी प्रकार से समाज में विभिन्न घटकों का महत्व कम अधिक होने पर भी सभी के साथ, हम अपने शरीर के प्रत्येक अंग के साथ, वह अपना अंग है यह ध्यान में रखकर जैसा व्यवहार करते है, वैसा यानी ‘मेरा अपना सगा’  जैसा व्यवहार तो होना ही चाहिये ।  
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ॠग्वेद के पुरूषसूक्त में (१०-९०) और यजुर्वेद (यजुर्वेद ३१-११) में भी यही बताया गया है<ref>ॠग्वेद पुरूषसूक्त (१०-९०) और यजुर्वेद (३१-११)</ref>। <blockquote>ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद् बाहू राजन्य: कृत: ।</blockquote><blockquote>ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥</blockquote>जीवंत इकाई के हर अंग का महत्व होता है। किसी भी अंग की हानि, अंगी की यानी जीवंत इकाई की हानि होती है। मनुष्य के शरीर में जैसे पैर की हानि शरीर की हानि होती है इसी तरह समाज में किसी भी मनुष्य की या वर्ण की या जाति की हानि होती है। किंतु इस का अर्थ यह नहीं की हाथ का काम कान करने लगे। हाथ का काम अलग है और कान का काम अलग है। प्रत्येक का मनुष्य के अस्तित्व का अलग महत्व है। अलग प्रयोजन है। जिस प्रकार हम शरीर के प्रत्येक अंग के स्वास्थ्य की चिंता करते है, उसी प्रकार से समाज में विभिन्न घटकों का महत्व कम अधिक होने पर भी सभी के साथ, हम अपने शरीर के प्रत्येक अंग के साथ, वह अपना अंग है यह ध्यान में रखकर जैसा व्यवहार करते है, वैसा यानी ‘मेरा अपना सगा’  जैसा व्यवहार तो होना ही चाहिये ।  
    
=== वर्णों की विशेषताएं ===
 
=== वर्णों की विशेषताएं ===
मनुष्य जो भी कुछ ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अनुभव करता है उसे वह दिमाग में संग्रहित करता है। उस का विश्लेषण करता है और शरीर के विभिन्न कर्मेन्द्रियों को ' कर्म करने की ' सूचना देता है। सामान्यत: कर्मेंद्रिय इस सूचना के अनुसार कर्म करते है। जब किसी मनुष्य में मस्तिष्क या कर्मेन्द्रिय इस प्रकार से काम नहीं करते इसे अस्वस्थता का या रोग का लक्षण माना जाता हे। समाज में मस्तिष्क की भूमिका ब्राह्मण वर्ण के लोगों की होती है। ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करते है। फिर उस ज्ञान का विश्लेषण कर मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिये सुझाव देते है। समाज में यदि कुछ अनिष्ट निर्माण हुए हैं तो उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है।  
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मनुष्य जो भी कुछ ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अनुभव करता है उसे वह दिमाग में संग्रहित करता है। उस का विश्लेषण करता है और शरीर के विभिन्न कर्मेन्द्रियों को 'कर्म करने की' सूचना देता है। सामान्यत: कर्मेंद्रिय इस सूचना के अनुसार कर्म करते है। जब किसी मनुष्य में मस्तिष्क या कर्मेन्द्रिय इस प्रकार से काम नहीं करते इसे अस्वस्थता का या रोग का लक्षण माना जाता हे। समाज में मस्तिष्क की भूमिका ब्राह्मण वर्ण के लोगों की होती है। ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करते है। फिर उस ज्ञान का विश्लेषण कर मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिये सुझाव देते है। समाज में यदि कुछ अनिष्ट निर्माण हुए हैं तो उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है।  
    
मनुष्य के शरीर में हाथ बाहर के खतरों से शरीर की रक्षा करते है। कहीं खुजली होती है, मोच आती है तो ऐसी शरीर की अंतर्गत समस्याओं के निवारण का भी काम करते है। इसी तरह समाज में क्षत्रिय वर्ण के लोग समाज का बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षण करते है।  
 
मनुष्य के शरीर में हाथ बाहर के खतरों से शरीर की रक्षा करते है। कहीं खुजली होती है, मोच आती है तो ऐसी शरीर की अंतर्गत समस्याओं के निवारण का भी काम करते है। इसी तरह समाज में क्षत्रिय वर्ण के लोग समाज का बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षण करते है।  
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=== वर्णों के कर्म ===
 
=== वर्णों के कर्म ===
श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के ‘स्व ‘भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग ‘शास्त्र ‘ है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आजतक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। ‘स्व ‘ भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।   
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श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के 'स्व' भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग 'शास्त्र' है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आज तक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। 'स्व' भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।   
    
ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार।  
 
ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-42</ref> <blockquote>शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।</blockquote><blockquote>ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥</blockquote>अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार।  
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