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# व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी। व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है।  
 
# व्यवस्था धर्म के अनुसार व्यवस्थाएँ निर्माण करनी होंगी। व्यवस्था धर्म के सूत्रों का विचार हमने समाज धारणा के अध्याय में किया है।  
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== समृद्धि व्यवस्था का ढाँचा ==
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== भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा ==
 
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
 
समृद्धि व्यवस्था में स्वतन्त्रता और सहानुभूति का सन्तुलन  होता है। इस सन्तुलन के कारण धन का अभाव और प्रभाव दोनों निर्माण नहीं हो पाते। जब धन का संचय किसी के हाथों में हो जाता है उसमें उद्दंडता, मस्ती, अहंकार बढ़ता है। इससे वह धन के बल पर लोगों को पीड़ित करने लग जाता है। और अर्थ का प्रभाव समाज में दिखने लग जाता है। इसी तरह से जब धन के अभाव के कारण समाज के किन्ही सदस्यों में या वर्गों में दीनता, लाचारी का भाव पैदा होता है। कहा गया है{{Citation needed}} : <blockquote>यौवनं धन सम्पत्ति प्रभुत्वमविवेकिता। एकैकमप्यनर्थाय किमु यत्र चतुष्ट्य ।।</blockquote><blockquote>अर्थ : यौवन, धन/सम्पत्ति, असीम अधिकार और अविवेक इन चारों में से कोई एक भी होने से अनर्थ हो जाता है। यदि चारों एक साथ हों तो भगवान जाने क्या होगा?</blockquote>लेकिन धन का संचय होनेपर जब दान की भावना से वह पुन: जरूरतमंदों में वितरित हो जाता है, सड़क निर्माण, कुए या तालाबों का निर्माण, धर्मशालाओं का निर्माण आदि में व्यय होता है, तब धन का अनावश्यक संचय नहीं होता। धन का संचय न होने से अर्थ का प्रभाव नहीं होता। और उसका जरूरतमंदों में वितरण हो जाने से धन का अभाव भी नहीं रहता।  
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भारतीय समृद्धिशास्त्र की पुन: प्रतिष्ठा 
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जीवन का भारतीय प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी। इस का विचार हमने [[Bharat's Social Paradigm (भारतीय समाज धारणा दृष्टि)|इस]] अध्याय में किया है। इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे। वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अभारतीय है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अभारतीय हैं। इसलिए हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे:
जीवन का भारतीय प्रतिमान धर्माधिष्ठित है। इसलिए समृद्धि व्यवस्था की पुनर्प्रतिष्ठा के लिए धर्म के और शिक्षा क्षेत्र के जानकार लोगों को ही पहल करनी होगी। शासन व्यवस्था का भी इसमें सहयोग अनिवार्य है। लेकिन परिवर्तन का वातावरण निर्माण करना विद्वानों का काम होगा। यथावश्यक शासन की मदद लेनी होगी। इस का विचार हमने “समाज धारणा” के अध्याय में किया है। इसलिए यहाँ केवल मोटी मोटी बातों का विचार ही हम करेंगे।  
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# कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा:
वर्तमान में जीवन का प्रतिमान अभारतीय है। इसमें कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था ये व्यवस्थाएँ दुर्बल हो गईं हैं। और दुर्बल होती जा रहीं हैं। राष्ट्र की सभी व्यवस्थाओं के तंत्र पूर्णत: अभारतीय हैं। इसलिए हमें दो प्रकार के प्रयास करने होंगे।
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## राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।
१. कुटुम्ब व्यवस्था, ग्राम व्यवस्था, कौशल विधा याने जाति व्यवस्था व्यवस्थाओं के दोष दूर कर उनका शुद्धिकरण करना होगा। यह काम निम्न पद्धति से होगा।
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## स्थान स्थान पर इनके अस्थाई अध्ययन और मार्गदर्शन के लिए केन्द्र निर्माण करने होंगे। इन केन्द्रों के माध्यम से लोकमत परिष्कार करना होगा।
१.१ राष्ट्र और राष्ट्र की इन प्रणालियों की श्रेष्ठ व्यवस्थाओं की सैद्धांतिक प्रस्तुति करनी होगी।  
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## इन प्रणालियों के परिष्कार के उपरांत भी इनमें से कुछ केन्द्र निरन्तर काम करेंगे। इन स्थाई केन्द्रों का काम इन प्रणालियों का निरंतर अध्ययन करना, कुछ गलत होता हो तो उसे जान कर उसके सुधार की प्रक्रिया चलाने का होगा।
१.२ स्थानस्थानपर इनके अस्थाई अध्ययन और मार्गदर्शन के लिए केन्द्र निर्माण करने होंगे। इन केन्द्रों के माध्यम से लोकमत परिष्कार करना होगा।  
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# राष्ट्रीय स्तर पर समृद्धि शास्त्र के बिन्दुओं का क्रियान्वयन सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र से प्रारम्भ कर पीछे पीछे अन्य सभी व्यवस्थाओं को अनुकूल बनाना होगा। इसकी प्रक्रिया निम्न पद्धति से चलेगी:
१.३ इन प्रणालियों के परिष्कार के उपरांत भी इनमें से कुछ केन्द्र निरन्तर काम करेंगे। इन स्थाई केन्द्रों का काम इन प्रणालियों का निरंतर अध्ययन करना, कुछ गलत होता हो तो उसे जान कर उसके सुधार की प्रक्रिया चलाने का होगा।  
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## सर्वप्रथम उन व्यवस्थाओं के शास्त्रों के भारतीय स्वरूपों की बुद्धियुक्त प्रस्तुति करना। यह काम धर्म और शिक्षा से सम्बंधित विद्वानों का है।
२. राष्ट्रीय स्तरपर समृद्धि शास्त्र के बिन्दुओं का क्रियान्वयन सर्वप्रथम शिक्षा के क्षेत्र से प्रारम्भ कर पीछे पीछे अन्य सभी व्यवस्थाओं को अनुकूल बनाना होगा। इसकी प्रक्रिया निम्न पद्धति से चलेगी।
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## शासन के सहयोग से भारतीय व्यवस्थाओं के स्थानिक स्तर के कुछ प्रयोग करने होंगे। प्रयोगों के लिए अनुकूल स्थान का चयन करना होगा। इन प्रयोगों के द्वारा शास्त्रों की प्रस्तुतियों की उचितता और श्रेष्ठता को जांचना होगा। आवश्यकतानुसार शास्त्रों की प्रस्तुतियों में सुधार करने होंगे। स्थानिक स्तर पर सफलता मिलने के बाद जनपद या प्रांत के स्तरपर प्रयोग करने होंगे। अनुकूल प्रांत में शासन की सहमति और सहयोग से ये प्रयोग किये जाएंगे। आगे अन्य अनुकूल प्रान्तों में और सबसे अंत में समूचे राष्ट्र में इस परिवर्तन की प्रक्रिया को चलाना होगा।
२.१ सर्वप्रथम उन व्यवस्थाओं के शास्त्रों के भारतीय स्वरूपों की बुद्धियुक्त प्रस्तुति करना। यह काम धर्म और शिक्षा से सम्बंधित विद्वानों का है।  
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## परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरांत भी इन व्यवस्थाओं के निरंतर अध्ययन और परिष्कार की स्थाई व्यवस्था बनानी होगी।
२.२ शासन के सहयोग से भारतीय व्यवस्थाओं के स्थानिक स्तर के कुछ प्रयोग करने होंगे। प्रयोगों के लिए अनुकूल स्थान का चयन करना होगा। इन प्रयोगों के द्वारा शास्त्रों की प्रस्तुतियों की उचितता और श्रेष्ठता को जांचना होगा। आवश्यकतानुसार शास्त्रों की प्रस्तुतियों में सुधार करने होंगे। स्थानिक स्तरपर सफलता मिलने के बाद जनपद या प्रांत के स्तरपर प्रयोग करने होंगे। अनुकूल प्रांत में शासन की सहमति और सहयोग से ये प्रयोग किये जाएंगे। आगे अन्य अनुकूल प्रान्तों में और सबसे अंत में समूचे राष्ट्र में इस परिवर्तन की प्रक्रिया को चलाना होगा।  
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२.३ परिवर्तन की प्रक्रिया पूर्ण होने के उपरांत भी इन व्यवस्थाओं के निरंतर अध्ययन और परिष्कार की स्थाई व्यवथा बनानी होगी।
      
==References==
 
==References==
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