Samhita Skandha (संहिता स्कन्ध)

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संहिता स्कन्ध गणित गोल तथा सतर्क यन्त्र निर्माण एवं शोध तथा प्रयोग के उच्चतम आधार से सम्बद्ध विस्तृत स्कन्ध है। इसके अन्तर्गत भूगोल, खगोल एवं भगोल से सम्बन्धित अनेक विश्वजनीन विषयों का अद्भुत संकलन एवं विश्लेषण किया गया है। इस स्कन्ध में अनेक विद्या शाखाएँ आज भी प्रयोग गम्य हैं। कुछ व्यवहार बाह्य हो गयी हैं, तो कुछ प्रयोग बाह्य हो रही हैं। भारतीय तथा पाश्चात्य अन्वेषणों के फलस्वरूप वर्त्तमान शताब्दी में संहिता के अनेक विषयों की प्रासंगिकता फिर से सिद्ध हो रही है। अतः ध्यानाकर्षण आवश्यक है।

ज्योतिष शास्त्र के दूसरे स्कन्ध संहिता का भी विशेष महत्त्व है। इन ग्रन्थों में मुख्यतः फलादेश संबंधी विषयों का बाहुल्य होता है। आचार्य वराहमिहिरने बृहत्संहिता में कहा है कि जो व्यक्ति संहिता के समस्त विषयों को जानता है, वही दैवज्ञ होता है। संहिता ग्रन्थों में भूशोधन, दिक् शोधन, मेलापक, जलाशय निर्माण, मांगलिक कार्यों के मुहूर्त, वृक्षायुर्वेद, दर्कागल, सूर्यादि ग्रहों के संचार, ग्रहों के स्वभाव, विकार, प्रमाण, गृहों का नक्षत्रों की युति से फल, परिवेष, परिघ, वायु लक्षण, भूकम्प, उल्कापात, वृष्टि वर्षण, अंगविद्या, पशु-पक्षियों तथा मनुष्यों के लक्षण पर विचार, रत्नपरीक्षा, दीपलक्षण नक्षत्राचार, ग्रहों का देश एवं प्राणियों पर आधिपत्य, दन्तकाष्ठ के द्वारा शुभ अशुभ फल का कथन आदि विषय वर्णित किये जाते हैं। संहिता ग्रन्थों में उपरोक्त विषयों के अतिरिक्त एक अन्य विशेषता होती है कि इन ग्रन्थों में व्यक्ति विषयक फलादेश के स्थान पर राष्ट्र विषयक फलादेश किया जाता है।

परिचय

ज्योतिष से कालचक्र समस्त दृश्यादृश्य विश्व, खगोलीय ज्योतिषपिण्ड, पिण्डाण्डीय संस्थान, मान, संचार, संरचना आदि तथ्य जुडे हैं। काल एवं पिण्डापिण्डों का सापेक्षिक प्रभाव, मानव तथा विश्व एवं समस्त विश्वाभिप्रायिक त्रिगोलीय प्रभाव निरूपक यह शास्त्र त्रिस्कन्धात्मक ज्यौतिष है। वेद एवं वैदिक दर्शन अनादि अनन्त सीमाहीन अव्यक्त-महाकाल एवं सीमाहीन महाकाश में सृष्टिचक्र को पर्ययात्मक मानता है। यह चक्र भी अनवरत संचरणशील तथा परिवर्तनशील है। कालान्तर एवं क्षेत्रान्तर जन्य निष्पत्ति व्यक्त सापेक्षिक काल तथा ग्रहर्क्ष पिण्डों के आधार पर व्यक्त होते हैं।

ज्योतिष शास्त्र के प्रधान तीन स्कन्ध हैं - सिद्धान्त, संहिता और होरा। इन प्रधान स्कन्धत्रय में से जिसमें सम्पूर्ण ज्योतिष शास्त्र के विषयों का वर्णन हो, उसको संहिता कहते हैं। संहिता ज्योतिष में बिन्दु से सिन्धु तक, व्यक्ति से समष्टि तक, भूगर्भ से अन्तरिक्ष तक, ग्रह-नक्षत्र-तारादिपिण्डों से लेकर धूमकेतु, उल्कादि पिण्डों तक, वृष्टि-कृषि-पर्यावरणादि से लेकर समस्त सृष्टि पर्यन्त की यात्रा है।

परिभाषा

ज्योतिष शास्त्र के जिस स्कन्ध में ग्रहचारवश ग्रह- नक्षत्रादि बिम्बों के शुभाशुभ लक्षण से पशु-पक्षी-कीटादियों का भूसापेक्ष सामूहिक विवेचन, आकाशीय घटनाओं का ज्ञान किया जाता हो, उसे संहिता शास्त्र कहते हैं।

सम्यक् हितं प्रतिपाद्यं यस्याः सा संहिता।

ज्योतिषशास्त्र के जिस स्कन्ध में सभी का सम्यक् प्रकार से हित प्रतिपादित किया गया हो वह संहिता है। सभी में केवल मनुष्यों का समावेश नहीं है अपितु क्षेत्र, प्रदेश, राष्ट्र, पशु पक्षी प्राणिमात्र सहित सम्पूर्ण विश्व से संबंधित विषयों का समावेश है। जैसे- पर्यावरण विज्ञान, रसायन विज्ञान, मौसम विज्ञान, भूगर्भ विज्ञान, वृष्टि विज्ञान, दकार्गल, प्राकृतिक आपदा, वनस्पति विज्ञान, ग्रहचार, ग्रह-नक्षत्रादि बिम्बों के शुभाशुभ लक्षण, पशु- पक्षी-कीटादियों से संबंधित विषय, वास्तुशास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, विचित्र आकाशीय व भौमिक घटनाओं का ज्ञान व उनके प्रभाव का अध्ययन इत्यादि अनेकानेक विषयों का अध्ययन जिसमें किया जाता हो, उसे संहिता कहते हैं। बृहत्संहिता में वराहमिहिर का कथन है- तत्कार्त्स्न्योपनयस्य नाममुनिभिः संकीर्त्यते संहिता।

संहिता स्कन्ध का महत्व

आचार्य वराहमिहिर द्वारा विरचित बृहत्संहिता एक अद्वितीय एवं विलक्षण संहिता ग्रन्थ है। उसमें दैवज्ञ प्रशंसा के सन्दर्भ में निर्देश किया है कि जो दैवज्ञ संहिता शास्त्र को सम्यक् रूप से जानता है, वहीं दैवचिन्तक होता है-

संहितापारगश्च दैवचिन्तको भवति।

जो दैवज्ञ गणित व होरा शास्त्र के साथ संहिता शास्त्र में भी पारंगत होता है उसकी संवत्सर संज्ञा दी गई। संवत्सर का अत्यधिक महत्त्व प्रतिपादित किया गया। सांवत्सर किसी देश, प्रदेश, जिले या नगर का शुभाशुभ फलकथन करने में समर्थ होता है, अतएव कहा गया कि अपने कल्याण की इच्छा रखने वाले व्यक्ति को साम्वत्सर रहित देश में निवास नहीं करना चहिये। जैसा कि आचार्य का कथन है-

नासांवत्सरिके देशे वस्तव्यं भूतिमिच्छता। चक्षुर्भूतो हि यत्रैष पापं तत्र न विद्यते॥(बृह० सं० १/११)

सांवत्सर का महत्त्व प्रदर्शित करते हुए आचार्य वराहमिहिर ने वर्णन किया- जैसे दीप्तिरहित रात्रि अन्धकार युक्त होता है, जैसे सूर्यरहित आकाश अन्धकारयुक्त होता है उसी प्रकार दैवज्ञ विहीन राजा अन्धकार में ही भ्रमण करता हैं-

अप्रदीपा यथा रात्रिः अनादित्यं यथा नभः। तथा असांवत्सरो राजा भ्रम्यत्यन्ध इवाध्वनि॥ (बृह० सं० २/८)

जो राजा विजय की कामना करता है उसे सिद्धान्त संहिता होरा रूप त्रिस्कन्धात्मक ज्योतिषशास्त्र में पारंगत सांवत्सर की अभ्यर्चना कर अपने राज्य में स्थान देना चाहिये।

संहिता स्कन्ध के प्रमुख ग्रन्थ एवं आचार्य

इस संहिता स्कन्ध के विषयों का धिअकता से वर्णन ज्योतिष शास्त्र की प्रतिष्ठा के समय से ही वेदों एवं वेदांग - साहित्य में स्मृतियों, पुराणों में है। इनमें आचार्यों के मत यत्र-तत्र प्रकीर्ण अवस्था में प्रसंगवशात् हैं, जिनका आगे चलकर संहिता-ग्रन्थों में संकलन किया गया। इनमेंसे कुछ संहिताएं मिलती हैं तो अधिकतर लुप्तप्राय हैं। गर्गसंहिता, बार्हस्पत्य संहिता, काश्यपसंहिता, पाराशर संहिता जैसे कुछ संहिता ग्रन्थ क्वचित अंशों में तो कहीं पूर्णरूपेण मिलते हैं किन्तु इतना निश्चित् है कि अनेक आचार्यों के संहिता-ज्योतिष विषयक मत मिलते हैं जिनका संकलन परवर्ती आचार्यों जैसे- वराहमिहिर-बृहत्संहिता , बल्लासेन- अद्भुत सागर, भद्रबाहु- भद्रबाहु संहिता में क्रमशः किया है।

संहिता स्कन्ध के प्रमुख विषय

अद्भुत सागर ग्रन्थ में भी बृहत्संहिता के समान ही विषयों का वर्णन है, परन्तु उसमें अनेक नवीन विषयों का भी विवेचन किया गया जिनकी चर्चा बृहत्संहिता में भी चर्चा नहीं है। उसमें दिव्याश्रय, अन्तरिक्षाश्रय और भौमाश्रय संज्ञक तीन भागों में विविध उत्पातों का सोपपत्तिक वर्णन किया है व उनकी शान्ति के उपाय भी वर्णित किये हैं।

भौमाश्रय में भूकम्प, जलाशय अग्नि, दीप, देव प्रतिमा, शक्रध्वज, वृक्ष, गृह, वातज उपस्कर, वस्त्र, उपाहन, आसन, शस्त्र,दिव्य स्त्रीपुरुष दर्शन, मानुष, पिटक, स्वप्न, कायरिष्ट, दन्त जन्म, प्रसव, सर्वशाकुन, नाना मृग, विहग, गज, अश्व, वृष, महिष, बिडाल, शकुन, शृगाल, गृहगोधिका, पिपीलिका, पतंग, मशक, मक्षिक, लूता, भ्रमर, भेक, खञ्जरीट दर्शन, पोतकी, कृष्णपेचिका, वायसाद्भुतावर्त, मिश्रकाद्भुतावर्त्त, अद्भुतशान्त्यद्भुतावर्त्त, सद्योवर्षनिमित्ताद्भुतावर्त्त, अविरुद्धाद्भुतावर्त्त और पाकसमयाद्भुतावर्त का निरूपण किया है जिनमें से अनेक विषयों की चर्चा बृहत्संहिता में नहीं प्राप्त होती।

संहिता स्कन्ध का मूलाधार

गणित, गोल-गोलीय, यन्त्र तथा मानवीय बुद्धि का समवेत रूप है। मानवीय पिण्ड से गोलीय पिण्ड तक तथा गोलीय पिण्ड से ब्रह्माण्ड तक का पञ्चमहाभूतात्मक त्रिगुणात्मक विस्तार न्यूनाधिक रूप भूत निष्पत्ति, प्राणांश, क्षेत्रांश तथा कालांश का योगज एवं वियोगज चमत्कार मात्र है। तदवदानुकरण से आविष्कारों का प्रादुर्भाव विश्वव्यापी दृष्टान्त से प्रत्यक्ष है। सजीव क्रम में पञ्चमहाभूत, त्रिगुण, मन, बुद्धि, अहंकार, आत्मा तथा काल प्रभृति अवयव आत्मकेन्द्रिक हैं।[1]

नीति शास्त्रगत मानवीय तथा सामाजिक सौहार्द्र को स्थापित करना सुख-शान्ति, आरोग्य, निर्भयत्व, कल्याण तथा दुःखहीन जीवन भारतीय संस्कृति तथा संहिता स्कन्ध का मूल लक्ष्य है।

संहिता स्कन्ध के उपस्कन्ध

संहिता स्कन्ध अपने आप मेम एक अत्यन्त विशाल कल्पवृक्ष के समान है, जिसमें प्रकृति एवं खगोलीय तादात्म्य के आधार पर विविध देशों, प्राणियों और वनस्पतियों में होने वाले भेद और फल का बडे ही उदात्त भाव से वर्णन किया गया है। प्राणिविज्ञान, वनस्पतिविज्ञान, कृषिविज्ञान, वृष्टि एवं ऋतुविज्ञान, पर्यावरणविज्ञान, जलविज्ञान, अर्थशास्त्र, भूगर्भविज्ञान भूगोल और मनोविज्ञान के साथ-साथ सामुद्रिकशास्त्र, रत्नविज्ञान, धर्मशास्त्र, कर्मकाण्ड का विज्ञानिक पक्ष, स्वरोदयशास्त्र, मुहूर्तशास्त्र, स्वप्नशास्त्र के सभी विषयों का अंतर्भाव सरलता से इस स्कंध में होता है।[2] यदि इन सभी विषयों को स्थूलरूप से वर्गीकृत करें तो संहिता के कुछ उपस्कंध समझ में आते हैं जिन पर भारतीय ज्योतिष के इतिहास में ग्रन्थ मिलते हैं-

संहिता स्कन्ध- शकुन, स्वप्न, सामुद्रिकशास्त्र, वास्तु, मुहूर्त, अर्घ और वृष्टि। इन उपस्कन्धों के भी विषय की दृष्टि से और विभाग हो सकते हैं, जिससे कि संहिता में शोध को नई दिशा मिल सके।

शकुन

प्राकृतिक संकेत या जानवरों एवं पक्षियों की चेष्टाएं और ध्वनियां अंगस्फुरण (अंगों का फ़डकना) तथा पल्लीपतन आदि मुख्यतया शकुन के विचारणीय विषय हैं। वसन्तराज का 'वसन्तराजशकुनम् ' शकुनशास्त्र का प्रसिद्ध ग्रन्थ है। शुभ और अशुभ इन दोनों प्रकार के शकुनों के फल इस ग्रन्थ में वर्णित हैं। बृहत्संहिता में उत्पातों भूकम्प आदि के लक्षण में एवं कृषि की सूचना में पक्षियों की विशेष चेष्टाओं का वर्णन है, जिनके आधार पर उत्पातों, भूकंप आदि का पूर्वानुमान प्राचीन समय में सांहितिक आचार्य किया करते थे। कालक्रम से इसका लोप हो गया। किन्तु विडम्बना यह है कि पाश्चात्य देशों एवं जापान आदि में पशु-पक्षियों की इन चेष्टाओं पर गंभीर अध्ययन और शोध हो रहे हैं जिनके आधार पर प्राकृतिक-उत्पात आदि के पूर्वानुमान में वैज्ञानिक सफल भी हो रहे हैं। इसके अतिरिक्त बृहत्संहिता में एवं वास्तु के ग्रन्थों में भी वास्तु-निर्माण के पूर्व सूत्रपात शल्योद्धार के समय शकुन का विचार किया गया है। मुहूर्त-ग्रन्थों यथा- मुहूर्तचिंतामणि, मुहूर्तमार्तण्ड, रत्नमाला आदि में यात्रा-मुहूर्त के वर्णन के प्रसंग में भी शकुनों का विचार है। इन शकुनों परे भारत में भी शोध की संभावनायें अनंत हैं।[2]

स्वप्न

स्वप्न पर आधारित सूत्र प्रायः पुराणों में मिलते हैं। मत्स्य पुराण, अग्निपुराण, नारदपुराण और अन्य पुरानों में स्वप्न के शुभाशुभ फल का विचार किया गया है। स्वप्नदर्शन के प्रकार और परिणाम पर भी दैवज्ञों ने सविस्तार प्रकाश डाला है, जो ज्योतिष के अतिरिक्त संसार के अन्य किसी भी चिन्तन में दृष्टिगोचर नहीं होता। यद्यपि ऐसे चिन्तन ब्रह्मवैवर्त आदि पुराणों में प्राप्त होते हैं, किंतु वे विचार भी ज्योतिषतत्त्व मूलक ही हैं। यथा-

स्वप्ने हसति यो हर्षाद्विवाहं यदि पश्यति। नर्तकं गीतमिष्टञ्च विपत्तिस्तस्य निश्चितम् ॥(स्वप्न०वि० दुःस्व० श्लो० २)

स्वप्नों पर अधिक कार्य स्वतन्त्र रूप से प्राप्त नहीं होता है, अतः संहिता के इस भाग पर यदि मनोवैज्ञानिक एवं अध्यात्म-विद्या के क्षेत्र में कार्य कर रहे विद्वान् मिलकर शोध करें तो निश्चय ही मनुष्य को समझने और कई मानसिक रोगों से लडने में सफलता प्राप्त की जा सकती है।

सामुद्रिकशास्त्र

समुद्र मुनि द्वारा प्रतिपादित यह सामुद्रिक शास्त्र बडे ही महत्व का है। इस शास्त्र में स्त्री-पुरुषों की आकृति, वर्ण, हस्तरेखा एवं विविध अंगों की बनावट के आधार पर न केवल उसकी प्रकृति का अपितु भविष्य में घटित होने वाली शुभ-अशुभ घटनाओं का भी फलादेश किया जाता है। महर्षि समुद्र के अनुसार ललाट में ७ रेखाएं ऊपरसे क्रमशः १-शनिस्वामिनी, २-गुरुस्वामिनी, ३-मंगलस्वामिनी, ४-सूर्यस्वमिनी, ५-भृगुस्वामिनी, ६-बुधस्वामिनी तथा ७-चन्द्रस्वामिनी होती हैं। जिनके आकार, लम्बाई, स्थिति आदि के अनुसार फलादेश किया जाता है। इसी प्रकार हस्त और चरण की रेखाएँ भी पृथक् - पृथक् फल प्रदान करती हैं तथा नेत्रों के आकार, रंग, कर्ण, ओष्ठ, नासिका एवं दन्तादि अंगों की आकृतियाँ भी अलग-अलग फल प्रदान करती हैं, जिन्हैं ज्ञान और अभ्यास के द्वारा जाना जा सकता है।

इसी प्रकार शरीर के विभिन्न अंगों में स्थित चिह्नों और तिलों के स्वरूप और स्थितियाँ भी तत्सम्बद्ध मानव के जीवन के सन्दर्भ में बहुत कुछ फलों की संसूचना देते हैं। यहाँ तक कि चिह्नों के द्वारा जातक की राशि, लग्न और नक्षत्र का ज्ञान भी प्राप्त हो जाता है और मनुष्य के सन्तानसंख्या, दाम्पत्यसुख, भ्राता, भगिनी, स्त्री, सम्पत्ति और चरित्र का ज्ञान भी ज्योतिषी को हो जाता है।[2]

वास्तु

वासयोग्यभूमि या गृहनिर्माणभूमि की वास्तु संज्ञा है। वास्तुशास्त्र का जितना विस्तार हुआ उतना अन्य उपस्कन्धों का नहीं हुआ। इसका कारण यह है कि मत्स्यपुराण, अग्निपुराण, स्कन्दपुराण, विष्णुधर्मोत्तरपुराण आदि में वास्तु के विषय पर्याप्त-मात्रा में मिले जिनका पल्ल्वन स्वतन्त्र-ग्रन्थों के रूप में हुआ। इसके अतिरिक्त कश्यप, नारद, विश्वकर्मा, मयासुर, नग्नजित आदि पौराणिक आचार्यों ने भी अपने-अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन उस काल में किया। वास्तु के १८ आचार्य तो स्वयं मत्स्यपुराण में गिनाए गये हैं।

वास्तु को मुख्यतया १, सामान्यगृह, २,राजगृह एवं ३,देवगृह एवं ४, नगर-निवेश में विभक्त किया जा सकता है। इन तीनों ही प्रकार के वास्तु-निर्माण में ध्यातव्य मुख्य बिंदु- भूमिपरीक्षण, शल्योद्धार, आयादिसाधन, 'ध्रुवादि'गृह-संज्ञा, शतपद आदि विविध वास्तु चक्र, गृहारंभ, विविध शुभाशुभयोग, द्वारस्थापन, इष्ट-चयन विविधशाला-युक्त गृहों के भेद, देवालय कक्ष सज्जा, प्रतिमा, शिल्प एवं चित्र कला, वापी-कूप-तडाग-उपवन आदि का निर्माण, नगर में मार्ग-चत्वर-प्रणाली आदि की व्यवस्था एवं राजा, मंत्री, अधिकारी-गण व प्रजा के आवासों की व्यवस्था आदि विषय वर्णित हैं।

विश्वकर्मवास्तु, विश्वकर्मप्रकाश, मयमत, अपराजितपृच्छा, मानसार, समरांगणसूत्रधार इत्यादि अनेकों स्वतंत्र ग्रन्थ तथा वास्तुरत्नावली, वास्तुसौख्य, बृहद्वास्तुमाला आदि संकलन-ग्रन्थ भी मिलते हैं।

इस शाखा पर आज भी सर्वाधिक कार्य हो रहे हैं किन्तु प्राच्य-सिद्धान्तों का अध्ययन और शोध की अभी भी महती आवश्यकता है, विशेषकर प्रासाद-वास्तु एवं मंदिर-वास्तु के क्षेत्र में। इस कर्म में यदि नव्य-यंत्रों की सहायता ली जाए तो न केवल प्राच्य-वास्तु-सिद्धान्तों को समझा जा सकता है अपितु प्राच्य-वास्तु-कला को पुनः जीवित करके इस क्षेत्र में भारत की प्रतिष्ठा को पुनःस्थापित किया जा सकता है।[2]

मुहूर्त

यद्यपि वैदिक एवं पौराणिक-सहित्य में मुहूर्त के पर्याप्त बीज मिलते हैं, जिनका विकास उस दृष्टि से नहीं हुआ जिस प्रकार होना चाहिये था तथापि स्मृति-ग्रन्थों और गृह्यसूत्रों के प्रभाव के कारण इस शाखा का पर्याप्त विकास १०वीं से १७वीं शताब्दी के मध्य हुआ और अनेकों मुहूर्त ग्रन्थों यथा- रत्नकोष, रत्नमाला, मुहूर्तगणपति, मुहूर्तमार्तण्ड, मुहूर्तपदवी, मुहूर्तदिवाकर, मुहूर्तचिन्तामणि, विवाहवृन्दावन, ज्योतिर्विदाभरण, बृहद्दैवज्ञरंजन आदि का निर्माण हुआ।[2]

अर्घ

वस्तुओं के मूल्य-निर्धारण का विचार अर्घ नाम से प्रसिद्ध है। मूल्य-वृद्धि को महर्घ एवं सामान्य को समर्घ कहते हैं। नक्षत्रों में ग्रहों के संचरण, ग्रहों की शर-क्रान्ति-युति, संक्रान्ति, सर्वतोभद्र-चक्र आदि के द्वारा वस्तुओं के अर्घ का विचार संहितास्कन्ध में मिलता है, जिस पर शोध एवं अध्ययन वर्तमान समय की मांग है। शेयर-मार्केट में वस्तुओं के मूल्य का आंकलन जैसे वाणिज्य-शास्त्र के जानकार करते हैं वैसे ही यदि ज्योतिषी भी इसका अध्ययन करके पूर्व अनुमान करे तो ये आश्चर्यजनक परिणाम निकल सकते हैं।[2]

वृष्टि

वर्षा के विचार से संहिता-ग्रन्थ भरे पडे हैं। वर्षा के पूर्वानुमान का अत्यधिक विचार इस स्कन्ध में है। बृहत्संहिता में इससे संबंधित ८अध्याय हैं, जिनमे मेघों के गर्भ और प्रसव-काल से लेकर विविध योगों का विचार किया गया है। कृषिपाराशर एवं शार्गधरसंहिता में वर्षा के अनेकों योग वर्णित हैं। संहिता स्कन्ध में वर्णित वृष्टि-विचार की एक मुख्य विशेषता यह है कि वो वृष्टि का अनुमान वर्षा-काल के ३ से ६ महीने पूर्व मेघों को देखकर लगाते हैं, जिसे मेघ का गर्भधारण कहते हैं। यह गर्भधारण जिस नक्षत्र और संक्रान्ति में हुआ है उस समय ग्रहों की स्थिति का विचार करके भविष्यमाण वर्षा के काल और मात्रा का अनुमान संहिता-स्कंध में किया जाता है। यदि मौसम-वैज्ञानिक और संहिता-स्कंध के विद्वान् मिलकर इस दिशा में शोध करें तो समाज का अत्यन्त कल्याण हो सकता है।

इसके अतिरिक्त इन उपस्कन्धों के भी अनेकों भेद हो सकते हैं, जिनका विस्तार-भय से यहाँ उल्लेख करना संभव नहीं है किन्तु यह तय है कि संहिता-स्कन्ध की परिकल्पना प्राचीन ऋषियों द्वारा जिस उद्देश्य से की गयी थी वह साकार व सफल तभी हो सकती है जब इसके प्रत्येक उपस्कंध पर वर्तमान परिप्रेक्ष्य में परिणाम-प्रद शोध किए जाएं।[2]

संहिता स्कन्ध के मुख्य विषय विभाग

प्रभाव की दृष्टि से संहिता के मुख्य तीन भाग हैं-

  1. दिव्य प्रभाव - सूर्य, द्वादशादित्य, एकादशरुद्र, अष्तवसु दो अश्विनी तथा नक्षत्रमण्डलीय दिव्य प्रभाव तथा दिव्य केतु मण्डलीय प्रभाव। द्युलोक अर्थात् नक्षत्र मण्डल, सौर क्रान्तिक्षेत्रीय नक्षत्रपुञ्जों का साक्षात् प्रभाव। ग्रह, नक्षत्र तथा केतु ये दिव्य प्रभावोत्पादक हैं।
  2. नाभस प्रभाव - अन्तरिक्ष जन्य प्रभाव इसके अनेक प्रभेद बनते हैं।
  3. भौम प्रभाव - पृथ्वी का प्रभाव-गर्भीय प्रभाव तथा पृष्ठीय प्रभाव।

ये तीन मुख्य प्रभेद हैं। पञ्चमहाभूत, ग्रहर्क्षसंरचना संचरण, उदयास्त, युति, भेद, लोप, ग्रहण आदि प्रभावोत्पादक हैं। पञ्चमहाभूत समस्त प्रभावों का आश्रय भूत है। भूतत्व के आश्रय से भौमप्रभाव व्यक्त होते हैं।[3]

ज्योतिष की प्रमुख संहिताऐं

वैदिक काल से हि ज्योतिषशास्त्र के संहिता संबंधित विभिन्न विषयों का लेखन प्रारंख हो चुका था, विशेष रूप से अथर्ववेद में संहिता संबंधित विभिन्न विषयों का वर्णन प्राप्त होता है। कालान्तर में अनेक आचार्यों ने संहिता संबंधित स्वतंत्र ग्रन्थों की रचना की। जैसे-

  • वृद्धगर्गीय संहिता
  • बार्हस्पत्यसंहिता
  • काश्यप संहिता
  • भृगु संहिता
  • गर्ग संहिता
  • वशिष्ठ संहिता
  • नारद संहिता
  • पाराशर संहिता आदि

छ्ठी शताब्दी में आचार्य वराहमिहिर ने उस समय में उपलब्ध सभी संहिता ग्रन्थों का अध्ययन कर एक अत्यन्त महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ बृहत्संहिता की रचना की। इस ग्रन्थ में पूर्ववर्ती अनेक आचार्यों का नामोल्लेख किया गया है। जिससे संहिता ग्रन्थों के निर्माण की सुदीर्घ परम्परा का ज्ञान होता है। यह उपलब्ध संहिता ग्रन्थों में सबसे प्राचीन एवं सम्पूर्ण विषयों का समावेश किया हुआ ग्रन्थ है।

रामायण में संहिता स्कन्ध के अंश

संहिता स्कन्ध की समाज में उपयोगिता

संहिता स्कन्धमें ग्रह-नक्षत्रोंके द्वारा भूपृष्ठपर पडनेवाले सामूहिक प्रभावका विवेचन किया जाता है। इस स्कन्धको भौतिक एवं वैश्विक ज्योतिष भी कहा जाता है। संहिता स्कन्ध के विषय में वराहमिहिर ने लिखा है-

ज्योतिःशास्त्रमनेकभेदविषयं स्कन्धत्रयाधिष्ठितम्। तत्कार्त्स्न्योपनयनस्य नाम मुनिभिः संहीर्त्यते संहिता॥(बृ०सं० उपनय० श्लो० ९)

वस्तुतः सिद्धान्त और होरा स्कन्धों का संक्षेप में समवेत विवेचन ही संहिता है। संहिता स्कन्ध में ग्रहों की गति, ग्रहयुति, मेघलक्षण, वृष्टिविचार, उल्का-विचार, भूकम्प-विचार, जलशोधन, विभिन्न शकुनों का विचार, वास्तुविद्या तथा ग्रहणादि का समस्त चराचर जगत् पर पडने वाले सामूहिक प्रभाव इत्यादि का विचार किया जाता है। संहिता के विषयोंको भी तीन प्रकार से विभाजित किया जा सकता है-

पंचांगविषयक

राष्ट्रविषयक

व्यक्तिविषयक

वृष्टि एवं आपदा

विभिन चार फल विचार

वास्तु विचार

सारांश

प्रारंभ में ज्योतिषशास्त्र में अनेकों विषयों का समावेश था। परन्तु कालान्तर में इसके तीन प्रमुख विभाग माने गये - सिद्धान्त, संहिता और होरा। जो सम्यक् रूप से मनुष्य के हितों का प्रतिपादन करे वही संहिता है। ज्योतिष शास्त्र के तीन प्रमुख स्कन्धों में संहिता-स्कन्ध सबसे विशाल है, इसी कारण आचार्य वराहमिहिर जी ने कहा -

तत् कार्त्स्न्योपनयस्य नाम मुनिभिः संकीर्त्यते संहिता।

वैदिक संहिताओं से प्रारंभ करते हुए, संहिता ज्योतिष के विकास की एक सुदीर्घ परम्परा रही है।

उद्धरण

  1. प्रो० सच्चिदानन्दमिश्र, संहिता स्कन्ध का इतिहास, भारतीय विद्या संस्थान वाराणसी(पृ० २)।
  2. 2.0 2.1 2.2 2.3 2.4 2.5 2.6 श्याम देव मिश्र, ज्योतिष शास्त्र के अंग, प्रमुख स्कन्ध-संहिता, सन् २०२१, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० २०६)।
  3. प्रो० सच्चिदानन्द मिश्र, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, ज्योतिष खण्ड, संहिता स्कन्ध, उत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान लखनऊ,(पृ०२७४)।