Praman (प्रमाण)
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प्रमाण (संस्कृत: प्रमाणम्) वैध ज्ञान (प्रमा) को जानने का साधन/माध्यम या मुख्य साधन है। ब्रह्मांड की रचना किसने और किससे की, वस्तुओं की प्रकृति का निर्धारण कैसे किया, जैसे प्रश्नों से, वस्तुओं की वास्तविक स्थिति (तत्त्वजिज्ञासा) की जांच करने की प्रबल इच्छा पैदा हुई। इन प्रश्नों के परिणामस्वरूप वैध ज्ञान की कसौटी की पहचान करने तथा वस्तुओं या चीजों को पहचानने के तरीकों की खोज की गई और अंततः संज्ञान के सिद्धांत तैयार किए गए। प्रमाण एक ऐसा विषय है जो वैध ज्ञान को पहचानने की आवश्यकता से उत्पन्न हुआ है और इसका वर्णन करने के लिए विभिन्न विभिन्न सिद्धांत प्रस्तावित किए गए हैं।[1]
परिचय॥ Introduction
सामान्य रूप से सभी विचारकों ने लंबे समय से संज्ञान की समस्या पर अपना ध्यान दिया है। भारतीय तत्व शास्त्र इस मायने में अद्वितीय हैं कि ज्ञान (ज्ञानम्), प्रमा (सही या वैध ज्ञान) और अप्रमा (अमान्य ज्ञान) स्पष्ट रूप से अलग-अलग अस्तित्व हैं। पश्चिमी परंपरा 'ज्ञान' को सत्य के रूप में परिभाषित करती है, और सच्चे विश्वास को उचित ठहराती है। भारतीय परंपरा में विश्वास के लिए कोई समकक्ष शब्द नहीं है। भारतीय शास्त्रों में, पुरुषार्थों को पूरा करने के संदर्भ में प्रम का अन्वेषण किया गया है, जबकि पश्चिमी परंपराओं का ज्ञान की खोज के लिए ऐसा अंतिम लक्ष्य नहीं है, इसलिए उनके लिए ज्ञान केवल ज्ञान के लिए है। ज्ञान और कर्म दोनों मन से संबंधित हैं। हालाँकि, क्रिया अभिकर्ता और उसकी इच्छा (कर्त-तंत्र) पर निर्भर करती है, जबकि ज्ञान अपने उद्देश्य (वास्तु-तंत्र) पर निर्भर करता है। जब कोई व्यक्ति यात्रा करने का निर्णय लेता है तो उसकी वसीयत यात्रा का तरीका और पहुँचने का स्थान निर्धारित करती है। यह ज्ञान का मामला नहीं है, यह व्यक्ति की इच्छा से स्वतंत्र है, एक स्तंभ एक स्तंभ है और वास्तु या वस्तु की पुष्टि करता है और तब भी नहीं बदलता है जब कोई गलती से किसी व्यक्ति को खड़आ समझता है। यहाँ स्पष्टता के सामान्य रूप से सभी विचारकों ने लंबे समय से संज्ञान की समस्या पर अपना ध्यान दिया है। भारतीय तत्त्व शास्त्र इस मायने में अद्वितीय हैं कि ज्ञान (ज्ञानम्।ज्ञान), प्रमा (सही या वैध ज्ञान) और अप्रमा (अमान्य ज्ञान) स्पष्ट रूप से अलग-अलग इकाइयाँ हैं। पश्चिमी परंपरा में 'ज्ञान’ को सत्य और न्यायोचित सच्चा विश्वास के रूप में परिभाषित किया गया है। भारतीय परंपरा में विश्वास के लिए कोई समानार्थी शब्द नहीं है। भारतीय शास्त्रों में, पुरुषार्थ को पूरा करने के संदर्भ में प्रमा की खोज की जाती है, जबकि पश्चिमी परंपराओं में ज्ञान की खोज के लिए ऐसा कोई परम लक्ष्य नहीं है, इसलिए उनके लिए ज्ञान केवल ज्ञान के लिए है। ज्ञान और क्रिया दोनों ही मन से संबंधित हैं। हालाँकि, क्रिया कर्ता और उसकी इच्छा (कर्तृ-तंत्र) पर निर्भर है जबकि ज्ञान अपने उद्देश्य (वस्तु-तंत्र) से निर्धारित होता है। जब कोई व्यक्ति यात्रा करने का निर्णय लेता है तो उसकी इच्छा यात्रा के तरीके और पहुँचने के स्थान को निर्धारित करती है। यह ज्ञान का मामला नहीं है, यह व्यक्ति की इच्छा से स्वतंत्र है, एक स्तंभ एक स्तंभ ही है और यह वस्तु की पुष्टि करता है, यह नहीं बदलता, भले ही, कोई गलती से इसे एक खड़ए आदमी समझ ले।[2]
यहाँ स्पष्टता के लिए, ज्ञान को सामान्य ज्ञान माना गया है, जिसका विश्लेषण या संज्ञान करने पर सच्चा ज्ञान प्रकट होता है, उसे प्रमाण या वैध ज्ञान कहते हैं, और जब यह रहस्योद्घाटन मिथ्या होता है, तो उसे अप्रमा या अमान्य ज्ञान कहते हैं।
व्युत्पत्ति॥ Etymology
शब्दकल्पद्रुम के अनुसार प्रमाण (प्रमाणम्) शब्द धातु मा (मा॒ङ् माने) से लिया गया है, इसे एक उपसर्ग 'प्र’ के साथ माप तथा अनुभूति के अर्थ में उपयोग किय जाता है, जिसका उपयोग प्रकृष्टः और प्रत्यय ल्युट (ल्युट्) के अर्थ में किया जाता है। प्रत्यय 'ल्युट' एक साधनात्मक कारक है। प्रमाण का अर्थ है वह साधन जिसके द्वारा किसी चीज़ को सही ढंग से पहचाना जाता है। प्रो० कोराडा सुब्रह्मण्यम के अनुसार -[3]
प्रमाण वह साधन है जिसके द्वारा किसी भी वस्तु के सार की वास्तविकता का पता लगाया जाता है -
प्रमीयते परिच्छिद्यते वस्तुतत्त्वं येन तत्प्रमाणम् – माङ् माने अथवा डुमिञ् प्रक्षेपणे – करणे ल्युट् – करणाधिकरणयोश्च पा० ३-३-११७, प्रमाकरणं प्रमाणम्॥
प्रमाण' शब्द साधन को दर्शाता है क्योंकि (इसकी व्युत्पत्ति इस प्रकार हुई है) "इससे सही रूप से जाना जाता है” (प्रमीयते अनेन)। मोटे तौर पर यह शब्द ज्ञान के साथ-साथ वैध ज्ञान के साधन के लिए भी प्रयोग किया जाता है, लेकिन न्याय तर्क में इसे आम तौर पर दूसरे अर्थ में प्रयोग किया जाता है।[2]
वेदों में प्रमाण॥ Pramanas in Vedas
प्रमाण एक तरह से हमारे ज्ञान की जांच, सत्यापन, संशोधन और पुष्टि के मानक हैं। तैत्तिरीय आरण्यक में प्रमाणों का उल्लेख इस प्रकार मिलता है -
स्मृतिः प्रत्यक्षमैतिह्यम्। अनुमानश्चतुष्टयम्। (तैत्ति०आर०1.2.1)[4]
स्मृति, प्रत्यक्ष, ऐतिह्य और अनुमान ये चार पद हैं।
प्रमाण तत्व॥ Pramana Tattva
वस्तु के बारे में वास्तविक ज्ञान", "वस्तु द्वारा वास्तव में धारण किया गया गुण", "किसी वस्तु का सुनिश्चित संज्ञान", ये सभी चीजों या वस्तुओं की वास्तविक स्थिति की जांच का संकेत देते हैं। "ज्ञान" और "प्रमा" दोनों ही किसी न किसी प्रकार के ज्ञान का संकेत देते हैं, हालाँकि -
- ज्ञान॥ Jnana ज्ञान का अर्थ है सभी प्रकार का ज्ञान, सत्य या असत्य। उदाहरण - रस्सी या साँप है।
- यथार्थज्ञान॥ Yatharthajnana यथार्थज्ञान या प्रमा वह है जब वास्तविकता सत्य ज्ञान (मान्य ज्ञान) को प्रकट करती है। उदाहरण - रस्सी में रस्सी का ज्ञान।
- अप्रमा॥ Aprama वह है जब वास्तविकता मिथ्या ज्ञान (अमान्य ज्ञान) को प्रकट करती है। उदाहरण- रस्सी में साँप का ज्ञान।
जबकि ज्ञान का प्रयोग मनोवैज्ञानिक दृष्टिकोण से ज्ञान को दर्शाने के लिए किया जाता है जो किसी वस्तु के संज्ञान में मदद करता है, प्रमा का प्रयोग तार्किक अर्थ में सच्चे ज्ञान को इंगित करने के लिए किया जाता है, जो किसी वस्तु की वास्तविक प्रकृति और चरित्र को पहचानने की क्षमता को दर्शाता है। निम्नलिखित अनुभाग उन चार कारकों पर विस्तार से प्रकाश डालता है जो ज्ञान की प्रणाली का निर्माण करते हैं, जैसा कि विद्वानों द्वारा आम तौर पर सहमति व्यक्त की गई है।
अर्थ तत्व॥ Artha Tattva
न्याय दर्शन के अनुसार मान्यता की प्रणाली में चार मूल तत्व शामिल हैं। चूँकि इस शास्त्र में ज्ञान के सभी मूलभूत पहलुओं की व्याख्या की गई है, इसलिए न्याय के सूत्रों को मानक के रूप में लिया जाता है। न्यायसूत्र के वात्स्यायन भाष्य में 4 घटकों को इस प्रकार परिभाषित किया गया है -
तत्र यस्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता । स येनार्थं प्रमिणोति तत्प्रमाणं । योऽर्थः प्रतीयते तत्प्रमेयं । यदर्थविज्ञानं सा प्रमितिः । चतसृषु चैवंविधास्वार्थतत्वं परिसमाप्यते । (वात्स० भाष्य० भूमिका)[5]
भाषार्थ -
- प्रमा या प्रमिति : किसी वस्तु का वैध ज्ञान, सही समझ।
- प्रमेय : जानने योग्य, जानने योग्य वस्तु, वैध ज्ञान की वस्तु।
- प्रमाण : वह साधन जिससे प्रमेय का मूल्यांकन किया जाता है, और जाना जाता है, तथा वैध ज्ञान का मुख्य साधन है।
- प्रमाता : वस्तु का ज्ञाता, वैध ज्ञान का ज्ञाता, प्रमाण का उपयोग करने वाला।
इस प्रकार प्रमाता (वस्तु का ज्ञाता) प्रमाण (उस ज्ञान का साधन) के माध्यम से प्रमेय (जानने योग्य वस्तु) के प्रमा (सही समझ) को मान्य करता है। अर्थतत्व की पूर्णता के लिए इन चारों की आवश्यकता होती है। इसलिए यह कहा जा सकता है कि इनमें से किसी एक के अभाव में वैध ज्ञान संभव नहीं है। दर्शन के पश्चिमी सिद्धांत, तीन कारकों का उपयोग करते हैं, अर्थात् विषय, वस्तु और परिणामी ज्ञान। भारतीय दर्शन इस मायने में विशिष्ट और अद्वितीय है कि यह वैध अनुभूति या ज्ञान का माध्यम या साधन है, अर्थात प्रमाण।[6]
उदाहरण - अर्थतत्त्व के इन चार घटकों का एक बहुत ही सरल उदाहरण बाजार में फल या सब्जी खरीदने के रूप में दिया जा सकता है।
- प्रमाण मानक वजन पट्टी है, जैसे कि 1 किलोग्राम (मापने का माध्यम)।
- प्रमेय वह सब्जी या फल है जिसे खरीदना होता है।
- प्रमा निश्चित ज्ञान है कि तौला गया सब्जी का एक निश्चित मात्रा 1 किलोग्राम के बराबर है।
- प्रमाता वह व्यक्ति है जो एक किलोग्राम सब्जी या फल की निर्दिष्ट मात्रा का वजन करता है तथा उस (निर्दिष्ट मात्रा), का ज्ञान प्राप्त करता है।
प्रमा॥ Prama
निश्चित ज्ञान का एक रूप - प्रमा, किसी वस्तु के वैध ज्ञान के दो पहलू होते हैं -
- वस्तु की प्रकृति
- प्रकृति के सत्यापन या वैधता का परीक्षण
न्याय - यदर्थविज्ञानं सा प्रमितिः। (वात्स० भाष्य० भूमिका)[5]
न्याय दर्शन मानता है कि प्रमा एक निश्चित/स्पष्ट या निश्चित (असंदिग्धम्। असंदिग्ध), अचूक (यथार्थ) ज्ञान है, और इसमें वस्तु को, जैसी वह है, वैसा ही जानना शामिल है। इस प्रकार सत्य की प्रकृति तद्विति तत्प्रकारम् है, जिसका अर्थ है ज्ञान की वस्तु बिना किसी विकृति के सम्पूर्ण है।
तर्कसंग्रह - तद्वति तत्प्रकारकोऽनुभवो यथार्थः। (तर्क संग्रह 3.19)[7]
न्याय के समान ही, अन्नमभट्ट के तर्कसंग्रह में भी बताया गया है कि यथार्थ ज्ञान ही प्रमा है। इसमें प्रमा और अप्रमा के बीच के अंतर को स्पष्ट रूप से इस प्रकार परिभाषित करता है।
यथा रजते इदं रजतमिति ज्ञानम्। सैव प्रमेच्युते ॥19॥ (तर्क संग्रह 3.19)[7]
सारांश - इस प्रकार प्रमा वह है जो यथार्थानुभवः (वस्तु का निश्चित ज्ञान) से संबंधित है, जो कि वास्तविक रूप चरित्र से प्रस्तुतीकरणात्मक है, जैसे कि ज्ञान - चांदी की वस्तु के बारे में कि "यह चांदी है”।
सांख्य - द्वयोरेकतरस्यवाप्यसन्निकृष्टार्थपरिच्छित्तिः प्रमा ...(प्रमा स्वरूपं)। (सांख्य सूत्र 1.87)[8]
किसी ऐसी वस्तु/विषय का निर्धारण जो (पहले से) न तो दोनों में से किसी में दर्ज थी, न तो दोनों (इन्द्रिय और विषय), में और न ही उनमें से किसी एक में स्थित है उसका निश्चय ही प्रमा अर्थात् सम्यक् ज्ञान है।
वैशेषिका - अदुष्टं विद्या । वैशेषिक-9,2.12। (वैशेषि. सूत्र. 9.2.12)[9] जो ज्ञान दूषित नहीं है वह विद्या है। इस सूत्र से यह संकेत मिलता है कि जो दूषित नहीं है, भली-भाँति परखा हुआ है, इन्द्रिय दोषों और संस्कार दोषों से मुक्त है, वह प्रमा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।
प्रभाकर मीमांसा - वे प्रमा या वैध ज्ञान को तात्कालिक अनुभव (अनुभूति) के रूप में परिभाषित करते हैं। यह स्मृत से अलग है जो पिछले अनुभवों की छाप/चिन्ह है। अर्थात् ’मान्य ज्ञान' ही बोध है। इसलिए उनके अनुसार ज्ञान की सच्चाई, प्रमाणिकता इसकी तात्कालिकता की विशेषता से सुनिश्चित होती है।
प्रमाणमनुभूतिः, सा स्मृतेरन्या, न सा स्मृतिः। न प्रमाणं स्मृतिः पूर्वप्रतिपत्तिव्यपेक्षणात्।(प्रकरणपंचिका)[10]
विभिन्न भारतीय शास्त्रों द्वारा प्रमा की संरचना के बारे में अन्य संस्करण हैं, हालांकि उनका सूत्र प्रारूप में स्पष्ट रूप से उल्लेख नहीं किया गया है।[6]
Difference between Prama and Jnana॥ प्रमा और ज्ञान में अंतर
दर्शन | प्रमा | ज्ञान |
प्रमाण द्वारा किसी अज्ञात इकाई की वैधता का परीक्षण करने के बाद प्राप्त ज्ञान के रूप में परिभाषित। | व्यापक रूप से सामान्य ज्ञान के रूप में परिभाषित। | |
संख्या | किसी वस्तु का ज्ञान, निस्संदेह और वास्तविक (परीक्षितम्),पहले से अज्ञात (अपूर्वनिश्चितज्ञानम्)11] | स्वप्रकाशत्व का सिद्धांत ज्ञान (बुद्धि) जड़ (अचेतनम्) होने के कारण, पुरुष द्वारा अनुभव किया जाता है, जो स्वयं आत्म-चेतन है।11] |
न्याय | किसी वस्तु का निश्चित ज्ञान जो कि वास्तविक प्रस्तुतिकरणात्मक चरित्र का हो (यथार्थानुभवः) | परप्रकाशत्व का सिद्धांत ज्ञान केवल अनुभूति के एक अन्य भाग के माध्यम से ही जाना जाता है जिसे अनुव्यवसाय कहते हैं (अनुव्यवसाः कुछ, जो धारणा का अनुसरण करता है,))11] |
वैशेषिका | निश्चितता (निःसंधिग्धः संदेह का अभाव) गैर-विरोधाभासी (अबाधितः) और निश्चितता (निश्चितः) और इसमें स्मृति शामिल है। | परप्रकाशत्व का सिद्धांत
न्याय की तरह वैशेषिक भी मानते हैं कि ज्ञान स्वयं प्रकाशमान नहीं है[6] |
अद्वैत वेदांत | सत्य या वैध अनुभूति एक असंदर्भित ज्ञान है (अबाधितत्व) | स्वप्रकाशत्व का सिद्धांत इसका अर्थ है निरपेक्ष (स्वरूप ज्ञान या ब्रह्म का ज्ञान) और सापेक्ष ज्ञान (वृत्ति ज्ञान अविद्या या माया) जो मूल चेतना द्वारा ही प्रकाशित होता है।6] |
उत्तर मीमांसा का विशिष्टाद्वैत | किसी वस्तु को उसके वास्तविक रूप में समझता है तथा फलदायी क्रियाकलाप को प्रेरित करता है। | स्वप्रकाशत्व का सिद्धांत। ज्ञान वह है जो किसी वस्तु को उसकी अंतर्निहित क्षमता के आधार पर उसके विषय के सामने प्रकट करता है। (पृष्ठ 36, पृ..... 6]) |
प्रभाकर मीमांसा | न्याय के समान लेकिन अनुभूति का उपयोग करता है (अनुभवः) | स्वप्रकाशत्व का सिद्धांत ज्ञान स्वप्रकाश या स्वयं प्रकाशमान है, तीन कारकों को एक साथ पहचानता है - 1. वस्तु 2. स्वयं 3. ज्ञाता (आत्मा)। (त्रिपुटी-संवित)11] |
भट्ट मीमांसा | वस्तुओं का निश्चित, सत्य और नवीन ज्ञान (अनधिगतत्वम्), जिसे अन्य ज्ञानों द्वारा पुष्टि की आवश्यकता नहीं होती।11] | परप्रकाशत्व का सिद्धांत ज्ञान निराकार है और स्वयं प्रकाशमान नहीं है, इसलिए इसे प्रत्यक्ष रूप से नहीं देखा जा सकता, बल्कि इसे वस्तु में व्यक्तता (ज्ञानता) नामक एक नए गुण द्वारा अनुमानित किया जा सकता है (संदर्भ का पृष्ठ 8)[11] |
प्रमेय॥ Prameya
गौतम के न्याय सूत्र, स्पष्ट रूप से प्रेमय या ज्ञान की वस्तुओं को परिभाषित करते हैं जिन्हें जानना है। इसे 12 प्रकारों में वर्गीकृत किया गया है -
आत्मशरीरेन्द्रियार्थबुद्धिमनःप्रवृत्तिदोषप्रेत्यभावफलदुःखापवर्गाः तु प्रमेयम्॥ ९ ॥{प्रमेयौद्देशसूत्रम्}[12]
भाषार्थ - आत्मा (आत्मा), शरीर (शरीरम्), इंद्रिय-अंग (इंद्रियाणि), वस्तुएं (अर्थ), ज्ञान (बुद्धिः), मन (मनः), गतिविधि (प्रवृत्तिः), दोष (राग, द्वेष आदि दोषः), पुनर्जन्म (प्रत्ययभावः), परिणाम (फलम्), दर्द (दुःख), और सांसारिक बंधनों से मुक्ति (अपवर्गः) अनुभूति की वस्तुओं का गठन करते हैं।
न्याय सूत्र 9 के लिए वात्स्यायन भाष्य इस प्रकार है, जो सूत्र द्वारा दिए गए 12 प्रकार के प्रमेय को समझाते हुए प्रत्येक लक्षण के अंतर्गत दिया गया है।
आत्मा॥ Atma
- सूत्र - इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्मनः लिङ्गं इति ॥१०॥ {आत्मलक्षणम्}[12] इच्छाद्वेषप्रयत्नसुखदुःखज्ञानानि आत्माः लिंगम इति।।10।। {आत्मलक्षणम्} अर्थ: इच्छा (इच्छा), किसी चीज से दूर रहने की इच्छा (द्वेषः), क्रिया (प्रयत्नः), सुख, दुख और ज्ञान (सुखदुःखज्ञाननि) आत्मा के लक्षण हैं।
- भाष्य - तत्रात्मा सर्वस्य दृष्टा सर्वस्य भोक्ता सर्वज्ञः सर्वानुभावो। (संदर्भ के पृष्ठ 71 [5]) आत्म द्रष्टा (दुख और सुख लाने वाली सभी चीजों को जानने वाला), भोक्ता (सभी दुखों और सुखों का अनुभव करने वाला), सर्वज्ञ (सभी ज्ञान को जानने वाला), सर्वानुभव (सभी चीज़ओं का अनुभव करने वाला)।
शरीर॥ Body
- सूत्र - चेष्टेन्द्रियार्थाश्रयः शरीरम्॥११॥ {शरीरलक्षणम्}[12] जिसका अर्थ है क्रिया (चेष्टा), इंद्रिय-अंगों (इंद्रियाणि) और वस्तुओं (अर्थः) का आधार या स्थान शरीर (शरीर) है।
- भाष्य - तस्य भोगायतनं शरीरम्। आत्मा के अनुभवों का आधार शरीर है। (पृष्ठ 52, संदर्भ)[13]
इन्द्रिय॥ Sense-organs
- सूत्र - घ्राण्रसनचक्षुस्त्वक्ष्रोत्राणि इन्द्रियाणि भूतेभ्यः।।12।। {इंद्रियलक्षणम्}[12] इसका अर्थ है कि इन्द्रियाँ (गंध, स्वाद, दृष्टि, संवेदना, श्रवण इन्द्रियाँ) भौतिक पदार्थों (पंचमहाभूतों) से बनी हैं।
- भाष्य - भोगसाधननिन्द्रियाणि। इन्द्रियाँ आत्मा के अनुभव के साधन हैं। (पृष्ठ 52, संदर्भ)[13]
अर्थ॥ Objects
- सूत्र - गन्धरसरूपस्पर्शशब्दाः पृथिव्यादिगुणाः तदर्थाः॥१४॥[12]
- अर्थ - गंध, रस, रंग, स्पर्श और शब्द जो भौतिक पदार्थों (पृथ्वी, अप:, तेज:, वायु और आकाश) के गुण हैं।
- भाष्य - भोक्तव्या इन्द्रियार्थः। अर्थ अनुभव की जाने वाली वस्तुएँ हैं। (पृष्ठ 52, संदर्भ)[13]
बुद्धि॥ Knowledge
- सूत्र - बुद्धिः उपलब्धिः ज्ञानं इति अनर्थान्तरम्॥१५॥{बुद्धिलक्षणम्}[12] सार यह है कि न्याय दर्शन में बुद्धि ज्ञान का पर्याय है।
- भाष्य - भोगो बुद्धिः। ज्ञान (ज्ञान और उपलब्धि) का अनुभव रूप, बुद्धि है।
मन॥ Manas
- सूत्र - युगपत्ज्ञानानुत्पत्तिः मनसः लिंगम्।।16।।{मनोलक्षणम्}[12] जिसका अर्थ है कि सभी इंद्रियों का एक साथ अनुभव न होना मन की उपस्थिति का सूचक है।
- भाष्य - सर्वार्थोपलब्धौ नेन्द्रियाणि प्रभवन्तीति सर्वविषयमन्तःकरणं मनः। मन वह आंतरिक इंद्रिय है जो उन सभी चीजों (सुख और दुख) का अनुभव करने में सक्षम है जिन्हें करने में इंद्रियां भी (अपने दायरे में सीमित होने के कारण) असमर्थ हैं। (पृष्ठ 52, संदर्भ)[13]
प्रवृत्ति॥ Action
- सूत्र - प्रवृत्तिः वाग्बुद्धिशरीरारम्भः॥१७॥{प्रवृत्तिलक्षणम्} इसका अर्थ है कि क्रिया में वाणी, मन की क्रिया और शरीर की क्रिया शामिल है। दोष (अपूर्णता) ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करने का कारण होते हैं।
दोष॥ Dosha
- सूत्र - प्रवर्त्तनालक्षणाः दोषाः॥१८॥{दोषलक्षणम्} दोष (अपूर्णता) ही व्यक्ति को कार्य करने के लिए प्रेरित करने का कारण होते हैं।
- भाष्य - शरीरेन्द्रियार्थबुद्धिसुखवेदनानां निवृत्तिकारणं प्रवृत्तिः दोषाश्च । नास्येदं शरीरमपूर्वमनुत्तरं च । शरीर, इन्द्रियाँ, पदार्थ (अर्थ), सुख-दुःख, ये सभी कर्म और दोष (राग आदि दोष) की उपज हैं। (सन्दर्भ का पृष्ठ 52)[13]
प्रेत्यभाव॥ Rebirth
- सूत्र - पुनरुत्पत्तिः प्रेत्यभावः ॥१९॥{प्रेत्यभावलक्षणम्}[12] पुनर्जन्म, जिसमें मृत्यु के बाद पुनः जन्म लेना शामिल है, प्रेतभाव है।
- भाष्य - पूर्वशरीराणामादिर्नास्ति उत्तरेषामपवर्गो अन्तः इति प्रेत्यभावः । आत्मा के लिए यह शरीर न तो पहला है और न ही अंतिम। पिछले शरीरों के संदर्भ में पहला जैसी कोई चीज नहीं है। भविष्य में शरीरों के अस्तित्व के संदर्भ में अपवर्ग अंतिम है। यह पुनर्जन्म के अस्तित्व को इंगित करता है। (संदर्भ का पृष्ठ 52)[13]
फल॥ Result
- सूत्र - प्रवृत्तिदोषजनितः अर्थः फलम्॥२०॥{फललक्षणम्}[12]
- अर्थ - कर्म और दोष के कारण जो उत्पन्न होता है, वही अर्थ रूपी परिणाम है।
- भाष्य - ससाधनसुखदःखोपभोगः फलम् सुख-दुख का अनुभव तथा उन्हें प्राप्त करने के साधन ही परिणाम हैं। (सन्दर्भ का पृष्ठ 52)[13]
दुःख ॥ Pain
- सूत्र - बाधनालक्षणं दुःखम्॥२१॥{दुःखलक्षणम्}[12]
- अर्थ - दुख या चोट का अनुभव दर्द से युक्त होता है।
- भाष्य - दुःखमिति, नेदमनुकूलवेदनीयस्य सुखस्य प्रतीतेः प्रत्याख्यानं। किं तर्हि जन्मन एवेदम् । 'दर्द’ के विशेष उल्लेख (और 'खुशी' के लोप) का मतलब यह नहीं है कि कोई खुशी नहीं है। यहां जन्म का अभिप्राय पीड़ा से है। (संदर्भ का पृष्ठ 52)[13]
अपवर्ग॥ Release from Worldly Bonds
- सूत्र - तदत्यन्तविमोक्षः अपवर्गः।।22।। {अपवर्गलक्षणम्}[12]
उपरोक्त दुख या दर्द आदि से पूर्ण मुक्ति अपवर्ग है।
- भाष्य - सुखसाधनस्य दुःखानुषङ्गदुखेन अविप्रयोगाद्विविध-बन्धनायोगाद्दुःखमिति समाधिभावनमुपदिश्यते समाहितो भावयति भावययन्निर्विद्यते विर्विण्णस्य वैराग्यं विरक्तस्यापवर्ग इति । जन्ममरणप्रवन्धोच्छेदः सर्वदुःखप्रहाणमपवर्ग इति । अस्य तु तत्वज्ञानादपवर्गो मिथ्थाज्ञानात्संसार इति। (वात्स० भाष्य० पृष्ठ 71 और 72)[5]
सुख के सभी साधन दुख से जुड़ए हुए हैं और कभी भी उससे अलग नहीं हो सकते। जीवन में विभिन्न कठिनाइयों की उपस्थिति यह दर्शाती है कि दुख जीवन से अविभाज्य है। व्यक्ति को समाधि (विचारपूर्ण चिंतन) का अभ्यास करना चाहिए। जैसे जब मनुष्य विचारशील होता है, तो वह परिस्थिति को समझ लेता है, और सांसारिक वस्तुओं से अपने आपको हटाकर सभी आसक्तियों से मुक्त हो जाता है और इस प्रकार 'अपवर्ग' को प्राप्त करता है, जो जन्म-मरण के चक्र का अंत है। सभी दुखों से मुक्ति अपवर्ग है। (संदर्भ का पृष्ठ 52)[13]
इस प्रकार प्रमेय के 12 प्रकार पूरे हो गए। अगला भाग प्रमाण से संबंधित है।
प्रमाण॥ Pramana
प्रमाण अर्थात, प्रमाण का साधन तत्व शास्त्रों के बारे में सबसे मौलिक और अद्वितीय है। कुछ शास्त्र अनुभूति के सिद्धांतों पर चर्चा करते हैं, लेकिन न्याय दर्शन ज्ञान के सिद्धांतों के बारे में विस्तार से बताता है और इसलिए बुनियादी अवधारणाओं को समझाने के लिए यहाँ इसका उपयोग किया जाता है।
- न्याय - प्रमा (मान्य अनुभूति) के साधन को प्रमाण कहा जाता है जैसा कि नीचे दिए गए वात्स्यायन भाष्य द्वारा समझाया गया है।
प्रमाणतोऽर्थप्रतिपत्तौ प्रवृत्तिसामर्थ्थदर्थवत् प्रमाणम् ।... तस्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य समीहा प्रवृत्तिरित्युच्यते । (वात्स० भाष्य० भूमिका)[5]
अर्थ - प्राप्त करने की इच्छा (इप्सा। इप्सा) और विषय से छुटकारा पाने की इच्छा (जिहासा। जिहासा रोग आदि) से प्रेरित कर्ता (मनुष्य) का प्रयास प्रवृत्ति: (प्रवृत्ति। परिश्रम) कहलाता है। इनमें से दो मिलकर एजेंट को प्रवृत्ति या कार्रवाई के लिए प्रेरित करते हैं। (संदर्भ का पृष्ठ 20)[13]
अर्थस्तु सुखं सुखहेतुः दुःखं दुःखहेतुश्च। (वात्स०भाष्य० भूमिका)[5]
सारांश: प्रमाण या ज्ञान के साधन के माध्यम से ज्ञात अर्थ (विषय या वस्तु ) चार प्रकार का होता है, अर्थात सुख, सुख का स्रोत, दुःख, दुःख का स्रोत। हालाँकि, जीवों की संख्या अनंत होने के कारण ये ज्ञान की वस्तुएँ असंख्य हैं।(संदर्भ का पृष्ठ 22)[13]
- सांख्य: जो वस्तु पहले से दोनों (इन्द्रिय और विषय) में नहीं थी, न ही उनमें से किसी एक में थी, उसका निश्चय ही प्रम है, अर्थात् सही ज्ञान है। प्रम प्राप्त करने का सर्वोच्च साधन प्रमाण है, और यह तीन प्रकार का है (प्रत्यक्ष, अनुमान, शब्द)।
द्वयोरेकतरस्य चापि असन्निकृष्टार्थपरिच्छित्तिः प्रमा, तत्साधकतमं यत्तत्त्रिविधं प्रमाणं। (सांख्यसूत्र-१.८७) प्रमा स्वरूपं, प्रमाणेयत्ता च॥ (सांख्यसूत्र-1.87)[8]
एक अन्य विद्वान के अनुसार प्रमाण को इस प्रकार परिभाषित किया गया है - प्रकृष्टरूपेण अनुमाति अनेन। (पृष्ठ 12, संदर्भ)[2]
"किसी वस्तु को सही ढंग से जानना, उस वस्तु का एक प्रकार का उचित मापन है। 'जानना’ को रूपकात्मक रूप से हमारे संज्ञान के माध्यम से 'मापना’ कहा जाता है। चूंकि वैध संज्ञान हमें किसी विशेष वस्तु की तस्वीर देता है, इसलिए इसे ’बौद्धिक मापन' के रूप में वर्णित किया जा सकता है।"
विभिन्न दर्शन संप्रदाय, प्रमाण के शाब्दिक अर्थ के साथ-साथ इसके कार्य या उद्देश्य के बारे में कमोबेश सहमत हैं कि यह वैध ज्ञान (प्रमा) के लिए सहायक है। जबकि सभी इस बात पर सहमत हैं कि प्रमाण को प्रमा के साधन या कारण के रूप में परिभाषित किया गया है, वैध ज्ञान के कारण की सटीक प्रकृति और दायरे के बारे में दर्शनिक संप्रदायों के बीच बहुत मतभेद है। (संदर्भ के पृष्ठ 39 से 42)[6]
- प्रभाकर मीमांसा संप्रदाय प्रमाण को एक तात्कालिक अनुभव (अनुभूति) मानता है, जो स्मृति से भिन्न है।
- मीमांसा और अद्वैत के भट्ट संप्रदाय में प्रमाण को किसी वस्तु के वैध ज्ञान के साधन के रूप में परिभाषित किया गया है, जो पहले से अज्ञात है और बाद में उसका उप-ज्ञान नहीं किया गया है।
- सांख्य दर्शन भी इसे वैध ज्ञान के एक असाधारण साधन के रूप में परिभाषित करता है।
- न्याय और वैशेषिक दोनों प्रमाण को वैध अनुभूति के साधन के रूप में स्वीकार करते हैं - प्रमाकरणं प्रमाणम्।
- तर्क सम्प्रदाय का मानना है कि करण असामान्य कारणात्मक स्थिति (असधारणा कारणम्) है, और प्रमाण ज्ञान या प्रमा का सक्रिय विशेष असामान्य कारण है।
- विशिष्टाद्वैत भी स्वीकार करता है कि प्रमाण वैध ज्ञान का साधन है, जिसकी विषय-वस्तु जीवन की व्यावहारिक आवश्यकताओं के अनुकूल होती है।
- द्वैत दर्शन भी यह स्वीकार करता है कि प्रमाण वह है जो किसी वस्तु को उसके वास्तविक स्वरूप में समझता है, यथार्थ प्रमाणम्।
प्रमाणों की संख्या ॥ Number of Pramanas
प्रमाण कम से कम दस प्रकार के होते हैं, लेकिन विभिन्न प्रमाणों को मान्यता देने के मामले में भारतीय दर्शन के विभिन्न विद्यालयों ने भिन्न-भिन्न योजनाएँ अपनाईं। महत्वपूर्ण विद्यालयों द्वारा स्वीकार किए गए प्रमाणों की संख्या एक से आठ तक भिन्न-भिन्न है। (संदर्भ का पृष्ठ 33)[6]
- चार्वाक प्रत्यक्ष प्रमाण (धारणा) को केवल ज्ञान के एक साधन के रूप में स्वीकार करते हैं।
- नास्तिक दर्शन प्रत्यक्ष (धारणा) और अनुमान (तर्क) को स्वीकार करते हैं।
- उत्तर मीमांसा के वैशेषिक, सांख्य, योग, द्वैत, विशिष्टाद्वैत स्कूल 3 प्रमाणों-प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमाना (तर्क) और शब्द या आगम (मौखिक साक्ष्य) को ज्ञान के साधन के रूप में मान्यता देते हैं।
- नैयायिक ज्ञान के साधन के रूप में 4 प्रमाणों - प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमान (तर्क), शब्द और उपमान (तुलना) को मान्यता देते हैं।
- पूर्व मीमांसा का प्रभाकर विद्यालय ज्ञान के साधन के रूप में 5 प्रमाण - प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमान (तर्क) और शब्द या आगम (मौखिक साक्ष्य) और उपमान (तुलना) और अर्थपत्ति (अनुमान) को स्वीकार करता है।
- पूर्व मीमांसा के कुमारिलाभट्ट विद्यालय और उत्तर मीमांसा विद्यालय के अद्वैत वेदांत दोनों, ज्ञान के साधन के रूप में 6 प्रमाण - प्रत्यक्ष (धारणा), अनुमान (अनुमान), शब्द या आगम (मौखिक साक्ष्य), उपमान (तुलना), अर्थपत्ति (अनुमान) और अनुपलब्धि (निषेध या गैर-आशंका) को स्वीकार करते हैं।
- पौराणिक ग्रंथों में सम्भव (संभावना या समावेश) और ऐतिह्य (परंपरा या अफवाह) को जोड़कर उपरोक्त 6 को स्वीकार किया गया है।
- तांत्रिक उपरोक्त 8 के साथ-साथ चेष्टा (संकेत) को ज्ञान के साधन के रूप में पहचानते हैं।
- मणिमेखला में कहा गया है कि वेदव्यास और जैमिनी के अनुसार, अन्य 8 विधियों के अलावा स्वभाव और परिशेष नामक दो अन्य विधियां भी हैं।
- कुछ अन्य विचारक (बौद्ध) प्रतिभा (जीवंत कल्पना) को ज्ञान के स्रोत के रूप में स्वीकार करते हैं, जिससे प्रमाणों की संख्या ग्यारह हो जाती है।
इनमें से छह (षड् प्रमाण) पर विस्तार से चर्चा की गई है।
प्रमाण और प्रमाणाभास॥ Pramana and Pramanabhasa
ज्ञान के साधन किसी वस्तु से संबंधित होते हैं। प्रमाण वैध ज्ञान उत्पन्न करता है, जिसका विषय वास्तविक दुनिया में मौजूद होता है, जबकि प्रमाणभास केवल भ्रामक ज्ञान उत्पन्न करता है।[2]
प्रमाता॥ Pramata
तत्र यस्येप्साजिहासाप्रयुक्तस्य प्रवृत्तिः स प्रमाता। (वात्स०भाष्य०भूमिका)[5]
प्रमाता का तात्पर्य किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा (ईप्सा) या किसी वस्तु को दूर रखने की इच्छा (जिहासा) से प्रेरित (प्रयुक्ति) क्रिया (प्रवृत्तिः) में शामिल व्यक्ति से है।
संदर्भ॥ References
- ↑ हर्ह, अमल कुमार, (1994) पीएच० डी० थीसिस टाइटलः The Means of knowing a negative fact a critical study on the theory of Anupalabdhi in Indian philosophy यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ बेंगाल।
- ↑ Jump up to: 2.0 2.1 2.2 2.3 जया अधिकारी, (2003) पीएच० डी० थीसिस टाइटल: The Nyaya Concepts of Prama Pramana and Pramanya : A critical study, यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ बेंगाल।
- ↑ पेपर प्रेजेंटेशन वाय प्रो० के० सुब्रह्मण्यम, टाइटल्ड - Pramāṇas in Indian Philosophy
- ↑ तैत्तिरीय आरण्यक (प्रपाठक 1 अनुवाक 2)
- ↑ Jump up to: 5.0 5.1 5.2 5.3 5.4 5.5 पं० गंगाधर शास्त्री तैलंग (1896), The Nyayasutras with Vatsayana's Bhashya and Extracts from the Nyayavarttika and the Tatparyatika. (पेज 48 ऑफ पी०एड०एफ०) बनारस: ई० जे० Lazarus & Co.
- ↑ Jump up to: 6.0 6.1 6.2 6.3 हरह, अमल कुमार. (1994) पी० एच० डी० थिसिस टाइटल: द मीन्स ऑफ नोइंग ए नेगेटिव फैक्ट ए क्रिटिकल स्टडी ऑन द थ्योरी ऑफ अनुपलब्धि इन इंडियन फिलोसोफी, (चैप्टर 2) यूनिवर्सिटी ऑफ नॉर्थ बेंगाल।
- ↑ Jump up to: 7.0 7.1 तर्कसंग्रह (गुणलक्षण प्रकरण)
- ↑ Jump up to: 8.0 8.1 सांख्य सूत्र
- ↑ वैशेषिक सूत्र
- ↑ म० गंगानाथ झा, (रीप्रिंट 1978), The Prabhakara School of Purva Mimamsa, दिल्ली : मोतीलाल बनारसीदास पब्लिशर्स।
- ↑ एम० चन्द्रैया (2002) पीएच० डी० थिसिस टाइटल : अनुपलब्धि एस ए प्रमाण, ए क्रिटिकल स्टडी, तिरुपति : वेंकटेश्वर यूनिवर्सिटी।
- ↑ Jump up to: 12.0 12.1 12.2 12.3 12.4 12.5 12.6 12.7 12.8 12.9 न्याय सूत्र (अध्याय 1 आह्निका 1)
- ↑ Jump up to: 13.00 13.01 13.02 13.03 13.04 13.05 13.06 13.07 13.08 13.09 13.10 मम० गंगानाथ झा (1939), गौतमास् न्यायसूत्रास विथ वात्स्यायन भाष्य पूना : ओरिएंटल बुक एजेंसी (पेज नं० 20)।