Indriyas in Ayurved (आयुर्वेद में इन्द्रियाँ)
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इंद्रियाँ, संघ/मेल के अभिन्न अंगों में से एक हैं, जिन्हें किसी व्यक्ति की आयु (आयुः) कहा जाता है। इंद्रियाँ उन अंगों को संदर्भित करती हैं जो बाहरी दुनिया का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आवश्यक हैं और जीवन को बनाए रखने के लिए इस ज्ञान के प्रतिक्रिया में, कार्य करते हैं। इस प्रकार, इंद्रियां, मानव शरीर के ज्ञानेन्द्रियों और प्रेरक अंगों के साथ सहसंबद्ध हैं। इनकी संख्या कुल 11 है। ज्ञानेन्द्रिय (ज्ञानेन्द्रियणि), कर्मेन्द्रिय (कर्मेन्द्रियणि) और मनस (मनः), इंद्रिय संकाय के घटक हैं।
परिचय
आयुर्वेद किसी व्यक्ति की आयु (जीवन) को बनाए रखने और बढ़ाने के तरीकों का ज्ञान प्रदान करता है। आयु को 4 आवश्यक घटकों के घनिष्ठ मेल के रूप में परिभाषित किया गया है, अर्थात्, शरीर (शरीरम्/ भौतिक शरीर), सत्व या मानस (मनः), आत्मा (आत्मा। चेतना या जीवन ऊर्जा) और इंद्रिय (इंद्रियणि। संवेदी और प्रेरक अंग)। इस प्रकार, इस मेल का प्रत्येक घटक हमारे अस्तित्व के लिए समान रूप से महत्वपूर्ण है। इनमें शरीर और इंद्रियां ऐसे घटक हैं, जो व्यक्ति के जीवन को बाहरी दुनिया से जोड़ते हैं। यहां यह माना जाता है कि इंद्रियां बाहरी दुनिया का ज्ञान प्राप्त करने का कार्य करती हैं, और इस दुनिया में जीवित रहने के लिए अत्यावश्यक कार्य करने के लिए शरीर या दिमाग को अनिवार्य उत्तेजना या संकेत प्रदान करती हैं। इंद्रियों के बिना, बाहरी दुनिया का ज्ञान, और इन संदीपन के प्रतिक्रिया में किसी भी प्रकार की क्रिया करना संभव नहीं है। इस प्रकार, इन्हें ज्ञान के साथ-साथ क्रिया के महत्वपूर्ण उपकरण भी माना जाता है, जो अन्य 3 घटकों, यानी शरीर, मानस (मन), और आत्मा के साथ मिलकर काम करते हैं।
सृष्ट्युत्पत्तिकाले इन्द्रियाणाम् उत्पत्तिः
ऐसा माना जाता है कि सभी 11 इंद्रियों की उत्पत्ति ब्रह्मांड की उत्पत्ति के दौरान एक प्रकार के अहंकार से हुई थी। अव्यक्त (अव्यक्तम्), महत (महत्) को जन्म देता है। महत्, अहंकार उत्पन्न करता है। यह अहंकार तीन प्रकार का होता है। वैकारिक, तैजस् और भूतादि। वैकारिक अहंकार, तैजस अहंकार की सहायता से 11 प्रकार की इंद्रियों को जन्म देता है। इसका उल्लेख आचार्य सुश्रुत ने इस प्रकार स्पष्ट रूप से किया है,
..तत्र वैकारिकादहङ्कारात्तैजससहायात्तल्लक्षणान्येवैकादशेन्द्रियाण्युत्पद्यन्ते, तद्यथा- श्रोत्रत्वक्चक्षुर्जिह्वाघ्राणवाग्घस्तोपस्थपायुपादमनांसीति; तत्र पूर्वाणि पञ्च बुद्धीन्द्रियाणि, इतराणि पञ्च कर्मेन्द्रियाणि, उभयात्मकं मनः ...(सुश्रुत. संहिता. 1.4) 1
इंद्रियों की संख्या और इनके प्रकार॥ इन्द्रियाणि तथा तेषाम् भेदाः
आयुर्वेद में कुल 11 इंद्रियों का वर्णन किया गया है और उन्हें एकादश इन्द्रियाणि के रूप में जाना जाता है। उनका वर्णन इस प्रकार किया गया है -
ज्ञानेन्द्रियाणि
ये इंद्रियां हैं जो दृष्टि, गंध की 5 इंद्रियों के माध्यम से ज्ञान प्राप्त करने के लिए उत्तेजना उत्पन्न करने के लिए जिम्मेदार हैं। ये इंद्रियां दृष्टि, गंध, ध्वनि, स्पर्श और स्वाद की पाँच इंद्रियों के माध्यम से संदीपन पैदा करने, ज्ञान प्राप्त करने के लिए जिम्मेदार हैं। ये संख्या में पाँच हैं और इस प्रकार हैं -
- चक्षु इन्द्रिय (चक्षु इन्द्रियम्। वह अंग जो,’दृष्टि' से संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण कर के स्थानांतरित करे)
- घ्राण इंद्रिय (घ्राणेंद्रियम। वह अंग जो, ’गंध' से संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण कर के स्थानांतरित करे)
- श्रोत्र इंद्रिय (श्रोत्रेन्द्रियम्। वह अंग जो, ’ध्वनि' से संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण कर के स्थानांतरित करे)
- रसना इंद्रिय (रसनेंद्रियम। वह अंग जो, ’स्वाद' से संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण कर के स्थानांतरित करे)
- स्पर्शन इंद्रिय (स्पर्शनेंद्रियम। वह अंग जो, ’स्पर्श' से संबंधित संवेदनाओं को ग्रहण कर के स्थानांतरित करे)
ज्ञानेन्द्रियेषु पञ्चमहाभूतानाम् अधिक्यम्
आयुर्वेद का मानना है कि सभी इंद्रियां 5 मूल तत्वों (पंचमहाभूतः) से बनी हैं। यद्यपि प्रत्येक इंद्रिया में सभी 5 मूल तत्व होते हैं, एक ज्ञानेंद्रिय (ज्ञानेंद्रियम्। संवेदी अंग) के लिए 1 विशेष तत्व (महाभूत:) का प्रभुत्व मौजूद होता है।[2] यह प्रभुत्व ही उस इन्द्रिय की विशिष्ट क्रिया के लिये उत्तरदायी है।इसलिए, इंद्रिय और उसके मूल तत्व के बीच इस संबंध को समझना महत्वपूर्ण है, ताकि इन्द्रियों की गड़बड़ी और बीमारियों को समझा जा सके। इन इंद्रियों के साथ-साथ उनके सामान्य कार्य को बहाल करने के लिए इन असंतुलनों को स्थिर करने के लिए सही तरीके खोजने होंगे। यह संधि/साहचर्य, नीचे तालिका में वर्णित है।
पंचमहाभूतों के साथ ज्ञानेन्द्रियों का संबंध
कर्मेन्द्रियाणि॥ प्रेरक अंग
इस प्रकार के इंद्रियाँ किसी भी उत्पन्न संदीपन की प्रतिक्रिया के रूप में उचित कार्रवाई करने के लिए जिम्मेदार होते हैं।[3] ऐसी पाँच इंद्रियाँ हैं और इन्हें निम्नलिखित रूप में सूचीबद्ध किया गया है -
- हस्त (हस्तौ। दोनों हाथ)
- पद (पादौ। दोनों पैर)
- गुदा (गुदाम्)
- उपास्था (उपास्थाम्। लिंग या यौन अंग)
- वाक (वाक्।वाचा)
मन:।। मनस (मन)
जिसे सत्वम् के नाम से भी जाना जाता है। यह संख्या में 1 है। यद्यपि मानस आयु के संयोजन/संघटन में एक अलग इकाई है, लेकिन इसे इंद्रियों के तहत भी गिना जाता है क्योंकि इसमें स्वतंत्र रूप से ज्ञान प्राप्त करने की क्षमता है और यह केवल तभी होता है जब मानस किसी विशेष इन्द्रिय के साथ मिलकर बाहरी दुनिया में वस्तु से संदीपन को ग्रहण करके स्थानांतरित करता है। इसके अलावा, बाहरी संदीपन से प्राप्त ज्ञान के प्रतिउत्तर में कोई भी स्वैच्छिक शारीरिक या मौखिक कार्रवाई नहीं कर सकता है, अगर मानस उस समय प्रेरक अंग के साथ एकजुट नहीं होता है। यह किसी भी प्रकार का ज्ञान प्राप्त करने की प्रक्रिया में आत्मा और इंद्रियों के बीच की एक महत्वपूर्ण कड़ी है। ।
मनःपुरःसराणीन्द्रियाण्यर्थग्रहणसमर्थानि भवन्ति|| (चरक. सहिंता. 8.7)[4]
अर्थ: इंद्रियाँ वस्तुओं को तभी ग्रहण करने में सक्षम होती हैं जब वे मन से जुड़ी हों। इसके अलावा, मानस में ज्ञानेन्द्रियों (ज्ञानेन्द्रियणि। संवेदी अंगों) के साथ-साथ कर्मेन्द्रियों (कर्मेन्द्रियाणी। प्रेरक अंगों) के साथ जुड़ने की अद्वितीय क्षमता है, जो दोनों क्रियाओं को निष्पादित करता है, अर्थात् ज्ञान प्राप्त करना, और प्रतिक्रियाशील गतिविधि का निर्णय लेना। इस प्रकार, इसे उभयात्मकम् इन्द्रियम् (दोनों प्रकार के कार्य करने में सक्षम) कहा जाता है।
इन्द्रियबुद्धयः॥ इंद्रियों का कार्य, धारणा और क्रिया
सभी प्रकार के इंद्रियाँ इस संसार में व्यक्ति के अस्तित्व के लिए, विशिष्ट कार्य करते हैं। प्रत्येक इंद्रिय को अनन्य क्रिया सौंपा जाता है और इसे उस इंद्रिय का कार्य कहा जाता है। चूंकि मानस अपनी अनूठी प्रकृति और भूमिका के कारण विभिन्न प्रकार की गतिविधियाँ कर सकता है, इसलिए इसे नीचे दी गई तालिका में सूचीबद्ध नहीं किया गया है। विवरण के लिए मानस का संदर्भ लें।
इंद्रिय के कार्य
जीवन में इंद्रियों का महत्व
सभी वस्तुओं को सजीव और निर्जीव के रूप में वर्गीकृत किया जा सकता है। इस वर्गीकरण का आधार विशिष्ट वस्तुओं में आत्मा की उपस्थिति या अनुपस्थिति नहीं है। चूँकि आत्मा को विभु (सर्वव्यापी अर्थात् हर स्थान पर उपस्थित) के रूप में वर्णित किया गया है। लेकिन आत्मा की उपस्थिति इन्द्रियों के माध्यम से प्रकट होती है। इसलिए, इंद्रियों (ज्ञानेन्द्रियों), की उपस्थिति या अनुपस्थिति को सजीव और निर्जीव वस्तुओं के वर्गीकरण के लिए आधार के रूप में लिया जाता है।
सेन्द्रियं चेतनं द्रव्यं, निरिन्द्रियमचेतनम्|| (चरक.सहिंता. 1.1.48)[5]
यहाँ इंद्रिय अंग केवल बाहरी रूप से ज्ञात अंगों जैसे आँखों, कानों आदि को संदर्भित नहीं करते हैं। इंद्रिया सूक्ष्म हैं और इसलिए अदृश्य अस्तित्व हैं। आँख, कान आदि बाह्य रूप से ज्ञात अंग उनके उपकरण मात्र हैं। जैसे पौधे आँख आदि बाह्य ज्ञानेन्द्रियों का प्रदर्शन नहीं करते, बल्कि उनमें वे सभी संवेदनाएँ होती हैं, जो आंतरिक रूप से विद्यमान सूक्ष्म इन्द्रियों द्वारा अनुभव की जाती हैं।
अनुभव की जाती हैं।। यह ध्यान देने योग्य बात है कि यह प्राचीन भारतीय विद्वानों और विशेष रूप से वैद्यों (आयुर्वेदिक चिकित्सकों) को भी ज्ञात था कि पौधों में संवेदनाएँ होती हैं, जैसे प्रकाश संवेदनशीलता, श्रवण, स्वाद, घ्राण और स्पर्श संवेदना यानी सभी पाँच संवेदनाएँ। [6]