Dantadhavanam (दन्तधावनम्)

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search

दन्तधावन का स्थान शौच के बाद बतलाया गया है।मुखशुद्धिके विना पूजा-पाठ मन्त्र-जप आदि सभी क्रियायें निष्फल हो जाती हैं अतः प्रतिदिन मुख-शुद्ध्यर्थ दन्तधावन अवश्य करना चाहिये। दन्तधावन करने से दांत स्वच्छ एवं मजबूत होते हैं।मुख से दुर्गन्ध का भी नाश होता है ।

परिचय

दन्तधावन से तात्पर्य दाँतों को स्वच्छ करना है। दाँतों की तुलना मोतियों से की जाती है। दाँतों के विना मुख की शोभा व सौन्दर्य समाप्त हो जाता है। दाँत मनुष्य शरीर के लिये बहुत उपयोगी है। दाँतों को शरीर का रक्षक व निर्माता भी कहा जाता है। दाँत मनुष्य शरीर में जन्म के कुछ माह बाद आते हैं और यदि सफाई व खान-पान का ध्यान न रखा जाए तो यह असमय ही खराब हो जाते हैं।

परिभाषा

शब्दकल्पद्रुम एवं वाचस्पत्यम् में दन्तधावन की व्युत्पत्ति इस प्रकार की गई है-

दन्तानां धावनं यस्मात् तद् दन्तधावनम् ,दन्तमार्ज्जनम् , दन्तकाष्ठं वा।(शब्द क०) दन्तान् धावयति शोधयति इति दन्तधावनः।(वाचस्पत्यम)

अर्थ- जिसके द्वारा दाँतों को स्वछ किया जाए उसे दन्तधावन कहते हैं।

दन्तधावन का महत्व

सनातन धर्म में दन्तधावन हेतु दातौन का प्रयोग बताया गया है ।दातौन (वृक्ष जिसकी लकड़ी दन्तधावन हेतु उपयोग में लायी जा सकती है) का परिमाण वर्ण व्यवस्था के अनुसार बतलाया गया है।जैसे-

द्वादशाङ्गुलक विप्रे काष्ठमाहुर्मनीषिणः । क्षत्रविट्शूद्रजातीनां नवषट्चतुरङ्गुलम्॥

अनु-ब्राह्मणके लिये दातौन बारह अंगुल, क्षत्रियकी नौ अंगुल, वैश्यकी छ: अंगुल और शूद्र तथा स्त्रियोंकी चार-चार अंगुल के बराबर लम्बी होनी चाहिये ।

कनिष्ठिकाङ्गुलिवत् स्थूलं पूर्वार्धकृतकूर्चकम्।

दातौन की चौडाई कनिष्ठिका अंगुलि के समान मोटी हो एवं एक भाग को आगे से कूँचकर कूँची बना लेने के अनन्तर ही दन्तधावन करना होता है।

खदिरश्चकरञ्जश्च कदम्वश्च वटस्तथा । तिन्तिडी वेणुपृष्ठं च आम्रनिम्बो तथैव च ॥अपामार्गश्च बिल्वश्च अर्कश्चौदुम्बरस्तथा । बदरीतिन्दुकास्त्वेते प्रशस्ता दन्तधावने ॥

दातौन के लिये कडवे, कसैले अथवा तीखे रसयुक्त नीम,बबूल,खैर,चिड़चिड़ा, गूलर, आदिकी दातौनें अच्छी मानी जाती हैं ।

आयुर्बलं यशो वर्चः प्रजाः पशुवसूनि च । ब्रह्म प्रज्ञां च मेधां च त्वं नो देहि वनस्पते ॥(कात्यायनस्मृ १०।४, गर्गसंहिता, विज्ञानखण्ड, अ० ७)

अनु-हे वृक्ष! मुझे आयु, बल, यश, ज्योति, सन्तान, पशु, धन, ब्रह्म (वेद), स्मृति एवं बुद्धि दो।इस प्रकार दातौन करने के पूर्व उसे उपर्युक्त मन्त्र द्वारा अभिमन्त्रित करके दातौन करने का विधान धर्मशास्त्रों में बताया गया है।

निहन्ति वक्त्रवैरस्यं जिह्वादन्ताश्रितं मलम् । आरोग्यंरुचिमाधत्ते सद्योदन्तविशोधनम् ॥(राजवल्लभः)

प्रभातेमार्जयेद्दन्तान् वाससा रसनां तथा। कुर्याद्द्वादशविप्रेन्द्र कवलानिजलैर्बुधः॥

उपवासेपितृश्राद्धे विधिनानेन जैमिने। दन्तधावनकृन्मर्त्यः संपूर्णं लभते फलम् ॥(पाद्मे क्रियायोगसारः)

जिह्वा निर्लेखन

दन्तधावन के अंग भूत ही दन्तधावन के पश्चात् जिह्वानिर्लेखन अर्थात् जिभी द्वारा जिह्वा को साफ करना चाहिये। जिसका वर्णन इस प्रकार से है-

जिह्वानिर्लेखनं रौप्यं सौवर्णं वार्क्षमेव च। तन्मलापहरं शस्तं मृदुष्लक्ष्णं दशांगुलम् ॥(सू०चि०अ०२४)

गण्डूष या गरारे करना

दन्तधावन के पश्चात् जल से अथवा स्नेह (तिल तैल) का गरारा करना चाहिये। मुख में इतनी मात्रा में जल अथवा तैल को भरना चाहिये। जिससे वह मुँह में घुमाया ना जा सके, इसे गण्डूष कहते हैं। तथा मुख में जल अथवा तैल की इतनी मात्रा भरें कि जिससे वह मुँह में घुमाया जा सके इसे कवल कहते हैं। मुख में तैल या जल इतनी देर तक रखना चाहिये कि जब तक नेत्रों से अश्रुस्राव न होने लगे।

आयुर्वेदीय ग्रन्थ सुश्रुत संहिता में इस प्रकार वर्णन किया गया है-

मुखवैरस्य दौर्गन्ध्यषोफजाड्यहरं सुखम् । दन्तदाढर्यकरं रूच्यं स्नेहगण्डूषधारणम् ॥(सु०चि०२४/१४)

अर्थात् इससे मुख की शुद्धि होती है। दुर्गन्ध तथा जीभ व दाँतों में जमा मैल भी निकल जाता है। अतिरिक्त कफ भी निकल जाता है। तैल गण्डूष को दन्त दाढर्यकर(दाँतों को दृढ बनाने वाला) कहा जाता है। दॉत मजबूत होते हैं। दाँत दर्द नहीं होते हैं। मुँह का स्वाद अच्छा रहता है। चेहरे पर कोमलता भोजन में रुचि होने लगती है।

मुख प्रक्षालन

गण्डूष अथवा कवल के उपरांत मुख तथा नेत्र प्रक्षालन करना चाहिये। मुख प्रक्षालन क्षीरि वृक्षों के कषाय से करना चाहिये। इसके अभाव में शीतोदक(ठण्डा जल) से मुख एवं नेत्र प्रक्षालन करना चाहिये।

मुख तथा नेत्रों का प्रक्षालन करने से मुख में झाई, मस्से दाने आदि नहीं होते हैं। तथा नेत्र ज्योति बढती है।

विचार-विमर्श

शौचविधि पूर्ण होने के उपरांत दंतधावन किया जाता है। जैसा कि गरुडपुराण में कहा गया है-

उषः काले तु सम्प्राप्ते शौचं कृत्वा यथार्थवत् । ततः स्नानं प्रकुर्वीत दन्तधावनपूर्वकम् ॥(गरुडपु)

प्राचीनकालमें दाँत साफ करने के लिये शास्त्रके अनुसार दातौन या मंजन का उपयोग किया जाता था। वर्तमान कालमें लोगों की अवधारणा इस प्रकार हो गई है कि सुबह उठने के बाद सर्वप्रथम दन्तधावन करना चाहिये। उनका मानना है कि दंत धावन करते समय मंजन मलने से मलोत्सर्ग की प्रेरणा उत्पन्न होती है। परन्तु यथार्थ में ये तर्क संगत युक्त नहीं प्रतीत होता है। आयुर्वेद में भी मलोत्सर्ग के बाद ही दंतधावन का विधान प्राप्त होता है। प्रातः एवं सायान्ह काल दो बार दन्त धावन करना चाहिये।

उद्धरण