Asterism - Nakshatras (नक्षत्र)

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नक्षत्र भारतीय पंचांग ( तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण) का तीसरा अंग है। जिसका क्षरण न हो, जो गतिमान न हों, जो स्थिर दिखाई दें उन्हें नक्षत्र कहते हैं। नक्षत्र सदैव अपने स्थान पर ही रहते हैं जबकि ग्रह नक्षत्रों में संचार करते हैं। नक्षत्रों की संख्या २७ है एवं मुहूर्तज्योतिषमें अभिजित को भी गिनतीमें शामिल करने से २८ नक्षत्रों की भी गणना होती है।

Introduction to Elements of a Panchanga - Nakshatra. Courtesy: Prof. K. Ramasubramaniam and Shaale.com

परिचय॥ Introduction

नक्षत्र को तारा भी कहते हैं। एक नक्षत्र उस पूरे चक्र(३६०॰) का २७वाँ भाग होता है जिस पर सूर्य एक वर्ष में एक परिक्रमा करता है। सभी नक्षत्र प्रतिदिन पूर्व में उदय होकर पश्चिम में अस्त होते हैं। तथा पुनः पूर्व में उदय होते हैं। इसी को नाक्षत्र अहोरात्र कहते हैं। यह चक्र सदा समान रहता है। कभी घटता बढता नहीं है। सूर्य जिस मार्गमें भ्रमण करते है, उसे क्रान्तिवृत्त कहते हैं। यह वृत्त ३६० अंशों का होता है। इसके समान रूप से १२ भाग करने से एक-एक राशि तथा २७ भाग कर देने से एक-एक नक्षत्र कहा गया है। यह चन्द्रमा से सम्बन्धित है। राशियों के समूह को नक्षत्र कहते हैं। ज्योतिष शास्त्रानुसार २७ नक्षत्र होते हैं। अश्विन्यादि से लेकर रेवती पर्यन्त प्रत्येक नक्षत्र का मान १३ अंश २० कला होता है। नक्षत्र आकाशीय पिण्ड होता है।[1]

  • नक्षत्रों के पुँज में अनेक तारे समाहित होते हैं।
  • क्रान्तिवृत्त(राशिचक्र) के अन्तर्गत २७ पुंजात्मक नक्षत्रों को मुख्य व्यवहृत किया गया है।
  • चन्द्रमा एक दिन में एक नक्षत्रका भोग पूर्ण करता है।

परिभाषा॥ Paribhasha

आप्टेकोश के अनुसार- न क्षरतीति नक्षत्राणि।

अर्थात् जिनका क्षरण नहीं होता, वे नक्षत्र कहलाते हैं। नक्षत्र के पर्यायवाची शब्द जो कि इस प्रकार हैं-

नक्षत्रमृक्षं भं तारा तारकाप्युडु वा स्त्रियाम् दाक्षायिण्योऽश्विनीत्यादि तारा ...। (अमरकोश)

गण्ड, भ, ऋक्ष, तारा, उडु, धिष्ण्य आदि ये नक्षत्रों के पर्याय कहे गये हैं।

नक्षत्र साधन॥ Nakshatra Sadhan

नक्षत्र के आधार पर ही चन्द्रभ्रमण के कारण मासों का नामकरण किया जाता है। नक्षत्र दो प्रकार के होते हैं - सौर भ्रमण के आधार एवं चन्द्र भ्रमण पथ के आधार पर।

चान्द्र मास(पूर्णिमा तिथि में नक्षत्र के अनुसार)
चान्द्रनक्षत्राणि मासाः
चित्रा, रोहिणी चैत्र
विशाखा, अनुराधा वैशाख
ज्येष्ठा, मूल ज्येष्ठ
पू०षा०, उ०षा० आषाढ
श्रवण, धनिष्ठा श्रावण
शतभिषा, पू०भा०, उ०भा० भाद्रपद
रेवती, अश्विनी, भरणी आश्विन
कृत्तिका, रोहिणी कार्तिक
मृगशीर्ष, आर्द्रा मार्गशीर्ष
पुनर्वसु, पुष्य पौष
आश्लेषा, मघा माघ
पू०फा०, उ०फा०, हस्त फाल्गुन

नक्षत्र गणना का स्वरूप॥ Nakshatra ganana ka Svaropa

अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी मृगः। आर्द्रापुनर्वसू तद्वत् पुष्योऽहिश्च मघा ततः॥

पुर्वोत्तराफल्गुनीति हस्तचित्रेऽनिलस्तथा। विशाखा चानुराधाऽपि ज्येष्ठामूले क्रमात्ततः॥

पूर्वोत्तराषाढसंज्ञे ततः श्रवणवासवौ। शतताराः पूर्वभाद्रोत्तराभाद्रे च रेवती॥

सप्तविंशतिकान्येवं भानीमानि जगुर्बुधाः। अभिजिन्मलनक्षत्रमन्यच्चापि बुधैः स्मृतम्॥

उत्तराषाढतुर्यांशः श्रुतिपञ्चदशांशकः। मिलित्वा चाभिजिन्मानं ज्ञेयं तद्द्वयमध्यगम्॥ (मुहूर्तचिन्तामणि)

अर्थ- अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृगशिरा, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वफल्गुनी, उत्तराफल्गुनी, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढ, उत्तराषाढ, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, पूर्वभाद्र, उत्तरभाद्र और रेवती- ये सत्ताईस नक्षत्र हैं। उत्तराषाढ का चतुर्थांश और श्रवण का पन्द्रहवाँ भाग मिलकर अभिजित् का मान होता है।[2]

ज्योतिषमें नक्षत्र की विशेषताएं॥ Nakshatra characteristics in Jyotisha

आकाश में तारों के समूह को तारामण्डल कहते हैं। इसमें तारे परस्पर यथावत अंतर से दृष्टिगोचर होते हैं। ये सूर्य से बहुत दूर हैं और सूर्य की परिक्रमा नहीं करने के कारण स्थिर जान पड़ते हैं। इन तारों के समूह की पहचान स्थापित करने हेतु नामकरण किया गया। यह नाम उन तारों के समूह को मिलाने से बनने आकृति के अनुसार दिया गया है। नक्षत्रमें आने वाले ताराओं की संख्या एवं नक्षत्रों के अधिष्ठातृ देवता और नक्षत्र से संबंधित वृक्ष जो कि इस प्रकार हैं - [3]

  • नक्षत्रों के नाम - अश्विनी भरणी चैव कृत्तिका रोहिणी मृगः। आर्द्रापुनर्वसूपुष्यस्तथाऽश्लेषा मघा ततः। पूर्वाफाल्गुनिका तस्मादुत्तराफाल्गुनी ततः। हस्तश्चित्रा तथा स्वाती विशाखा तदनन्तरम्। अनुराधा ततो ज्येष्ठा मूलं चैव निगद्यते। पूर्वाषाढोत्तराषाढा त्वभिजिच्छ्रवणस्ततः। धनिष्ठा शतताराख्यं पूर्वाभाद्रपदा ततः। उत्तराभाद्रपदाश्चैव रेवत्येतानिभानि च॥
  • नक्षत्र देवता- मुहूर्तचिन्तामणि ग्रन्थ में अश्विनी आदि नक्षत्रों के पृथक् - पृथक् देवताओं का उल्लेख किया गया है जैसे- अश्विनी नक्षत्र के देवता अश्विनी कुमार, भरणी नक्षत्र के यम आदि। नक्षत्रों के देवता विषयक ज्ञान के द्वारा जातकों (जन्म लेने वालों) के जन्मनक्षत्र अधिष्ठातृ देवता से संबन्धित नाम रखना, नक्षत्र देवता की प्रकृति के अनुरूप जातक का स्वभाव ज्ञात करना, नक्षत्र जनित शान्ति के उपाय, जन्म नक्षत्रदेवता की आराधना आदि नक्षत्र देवता के नाम ज्ञात होने से विविध प्रयोजन सिद्ध होते हैं।
  • नक्षत्रतारक संख्या- नक्षत्र तारक संख्या इस बिन्दुमें अश्विनी आदि नक्षत्रों की अलग-अलग ताराओं की संख्या का निर्देश किया गया है। नक्षत्रों में न्यूनतम तारा संख्या एक एवं अधिकतम तारा संख्या १०० है।
  • नक्षत्र आकृति- जिस नक्षत्र की ताराओं की स्थिति जिस प्रकार महर्षियों ने देखी अनुभूत कि उसी प्रकार ही प्रायः नक्षत्रों के नामकरण भी किये हैं। जैसे- अश्विनी नक्षत्र की तीन ताराओं की स्थिति अश्वमुख की तरह स्थित दिखाई देती है अतः इस नक्षत्र का नाम अश्विनी किया। इसी प्रकार से ही सभी नक्षत्रों का नामकरण भी जानना चाहिये।
  • नक्षत्र एवं वृक्ष- भारतीय मनीषियों ने आकाश में स्थित नक्षत्रों का संबंध धरती पर स्थित वृक्षों से जोडा है। प्राचीन भारतीय साहित्य एवं ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार २७ नक्षत्र पृथ्वी पर २७ संगत वृक्ष-प्रजातियों के रूप में अवतरित हुये हैं। इन वृक्षों में उस नक्षत्र का दैवी अंश विद्यमान रहता है। इन वृक्षों की सेवा करने से उस नक्षत्र की सेवा हो जाती है। इन्हीं वृक्षों को नक्षत्रों का वृक्ष भी कहा जाता है। ज्योतिर्विज्ञान के अनुसार अपने जन्म नक्षत्र वृक्ष का पालन-पोषण, बर्धन और रक्षा करने से हर प्रकार का कल्याण होता है, तथा इनको क्षति पहुँचाने से सभी प्रकार की हानि होती है। के बारे में देखें नीचे दी गई सारणी के अनुसार जानेंगे -
नक्षत्रों के नाम, पर्यायवाची, देवता, तारकसंख्या, आकृति(पहचान) एवं तत्संबंधि वृक्ष सारिणी
क्र०सं० नक्षत्र नाम पर्यायवाची[4] नक्षत्र देवता[4] तारा संख्या आकृतिः वृक्ष[5]
1 अश्विनी नासत्य, दस्र, अश्वियुक् तुरग, वाजी, अश्व, हय। अश्विनी कुमार 3 अश्वमुख आंवला
2 भरणी अन्तक, यम, कृतान्त। यम 3 योनि यमक(युग्म वृक्ष)
3 कृत्तिका अग्नि, वह्नि, अनल, कृशानु, दहन, पावक, हुतभुक् , हुताश। अग्नि 6 क्षुरा उदुम्बर(गूलर)
4 रोहिणी धाता, ब्रह्मा, कः, विधाता, द्रुहिण, विधि, विरञ्चि, प्रजापति। ब्रह्मा 5 शकट जम्बु(जामुन)
5 मृगशिरा शशभृत् , शशी, शशांक, मृगांक, विधु, हिमांशु, सुधांशु। चन्द्रमा 3 मृगास्य खदिर(खैर)
6 आर्द्रा रुद्र, शिव, ईश, त्रिनेत्र। रुद्र 1 मणि कृष्णप्लक्ष(पाकड)
7 पुनर्वसु अदिति, आदित्य। अदिति 4 गृह वंश(बांस)
8 पुष्य ईज्य, गुरु, जीव, तिष्य, देवपुरोहित। बृहस्पति 3 शर पिप्पल(पीपल)
9 आश्लेषा सर्प, उरग, भुजग, भुजंग, अहि, भोगी। सर्प 5 चक्र नाग(नागकेसर)
10 मघा पितृ, पितर। पितर 5 भवन वट(बरगद)
11 पूर्वाफाल्गुनी भग, योनि, भाग्य। भग(सूर्य विशेष) 2 मञ्च पलाश
12 उत्तराफाल्गुनी अर्यमा। अर्यमा(सूर्य विशेष) 2 शय्या अक्ष(रुद्राक्ष)
13 हस्त रवि, कर, सूर्य, व्रघ्न, अर्क, तरणि, तपन। रवि 5 हस्त अरिष्ट(रीठा)
14 चित्रा त्वष्टृ, त्वाष्ट्र, तक्ष। त्वष्टा(विश्वकर्मा) 1 मुक्ता श्रीवृक्ष(बेल)
15 स्वाती वायु, वात, अनिल, समीर, पवन, मारुत। वायु 1 मूँगा अर्जुन
16 विशाखा शक्राग्नी, वृषाग्नी, इन्द्राग्नी, द्वीश, राधा। अग्नि और इन्द्र 4 तोरण विकंकत
17 अनुराधा मित्र। मित्र(सूर्य विशेष) 4 बलि बकुल(मॉल श्री)
18 ज्येष्ठा इन्द्र, शक्र, वासव, आखण्डल, पुरन्दर। इन्द्र 3 कुण्डल विष्टि(चीड)
19 मूल निरृति, रक्षः, अस्रप। निरृति(राक्षस) 11 सिंहपुच्छ सर्ज्ज(साल)
20 पूर्वाषाढा जल, नीर, उदक, अम्बु, तोय। जल 2 गजदन्त वंजुल(अशोक)
21 उत्तराषाढा विश्वे, विश्वेदेव। विश्वेदेव 2 मञ्च पनस(कटहल)
22 अभिजित् विधि, विरञ्चि, धाता, विधाता। ब्रह्मा 3 त्रिकोण
23 श्रवण गोविन्द, विष्णु, श्रुति, कर्ण, श्रवः। विष्णु 3 वामन अर्क(अकवन)
24 धनिष्ठा वसु, श्रविष्ठा। अष्टवसु 4 मृदंग शमी
25 शतभिषा वरुण, अपांपति, नीरेश, जलेश। वरुण 100 वृत्तम् कदम्ब
26 पूर्वाभाद्रपदा अजपाद, अजचरण, अजांघ्रि। अजचरण (सूर्य विशेष) 2 मंच आम
27 उत्तराभाद्रपदा अहिर्बुध्न्य नाम के सूर्य। अहिर्बुध्न्य(सूर्यविशेष) 2 यमल पिचुमन्द(नीम)
28 रेवती पूषा नाम के सूर्य, अन्त्य, पौष्ण। पूषा(सूर्य विशेष) 32 मृदंग मधु(महुआ)

नक्षत्रोंका वर्गीकरण॥ Classification of Nakshatras

भारतीय ज्योतिष ने नक्षत्र गणना की पद्धति को स्वतन्त्र रूप से खोज निकाला था। वस्तुतः नक्षत्र पद्धति भारतीय ऋषि परम्परा की दिव्य अन्तर्दृष्टि से विकसित हुयी है जो आज भी अपने मूल से कटे बिना चली आ रही है।[6]

नक्षत्रों का वर्गीकरण दो प्रकार से मिलता है-

  1. प्रथमप्राप्त वर्णन उनके मुखानुसार है, जिसमें ऊर्ध्वमुख, अधोमुख तथा तिर्यग्मुख- इस प्रकार के तीन वर्गीकरण हैं।
  2. द्वितीय प्राप्त दूसरे प्रकार का वर्गीकरण सात वारोंकी प्रकृतिके अनुसार सात प्रकारका प्राप्त होता है। जैसे- ध्रुव(स्थिर), चर(चल), उग्र(क्रूर), मिश्र(साधारण), लघु(क्षिप्र), मृदु(मैत्र) तथा तीक्ष्ण (दारुण)।

नक्षत्रों की संज्ञाएं॥ Nakshatron ki Sangyaen

अधोमुखादि नक्षत्रसंज्ञा सारिणी
अधोमुखी नक्षत्र ऊर्ध्वमुखी नक्षत्र तिर्यक् मुखी नक्षत्र
मूल आर्द्रा मृगशिरा
आश्लेषा पुष्य रेवती
कृत्तिका श्रवण चित्रा
विशाखा धनिष्ठा अनुराधा
पू०फा० शतभिषा हस्त
पू०षा० उत्तराफाल्गुनी स्वाती
पू०भा० उत्तराषाढा पुनर्वसु
मघा उत्तराभाद्रपद ज्येष्ठा
भरणी रोहिणी अश्विनी

अधोमुख नक्षत्र कृत्य- उपर्युक्त सारिणी अनुसार ९ नक्षत्र अधोमुख संज्ञक कहलाते हैं। इनमें अधोमुख कार्य करना शीघ्र लाभप्रद होता है। जैसे- वापी, कुआ, तडाग(तालाब), खनन संबंधी कार्य आदि।

ऊर्ध्वमुख नक्षत्र कृत्य- ऊर्ध्वमुख संज्ञक नक्षत्रों में ऊर्ध्वमुख कार्य जैसे-बृहद् भवन, राजमहल निर्माण, राज्याभिषेक आदि कार्य सिद्धि प्रदायक होते हैं।

तिर्यक्मुख नक्षत्र कृत्य- तिर्यक् मुख संज्ञक नक्षत्रों में पार्श्वमुखवर्ति कार्य जैसे- मार्गका निर्माण, यन्त्र वाहन आदि का चलाना, खेत में हल चलाना और कृषि संबन्धि आदि कार्य किये जाते हैं।

नक्षत्र क्षय-वृद्धि विचार॥ Nakshatra kshaya-Vrddhi Vichara

दैनिक जीवन में पञ्चांग के अन्तर्गत चन्द्र नक्षत्रों का ही ग्रहण होता है अर्थात चन्द्रमा प्रतिदिन नक्षत्र चक्र में जिस नक्षत्र के विभाग में होता है वही नक्षत्र नित्य व्यवहार में लिया जाता है। इसी लिए नक्षत्रों का साधन ग्रह कलाओं की सहायता से किया जाता है तथा चन्द्र कलाओं से चन्द्र नक्षत्र एवं सूर्य कलाओं से सूर्य नक्षत्र प्राप्त होता है। क्षय-वृद्धि के विचार क्रममें वस्तुतः किसी नक्षत्र की क्षय-वृद्धि नहीं होती परन्तु सूर्योदय से असम्बद्ध होने से नक्षत्रों की क्षय तथा तथा दो सूर्योदयों से युक्त होने से वृद्धि संज्ञा होती है।

जन्म नक्षत्र॥ Janma Nakshatra

किसी व्यक्ति के जन्म के समय चन्द्रमा पृथ्वी से जिस नक्षत्र की सीध में रहता है, वह उस व्यक्ति का जन्म नक्षत्र कहलाता है। जैसे- किसी व्यक्ति के जन्म के समय चन्द्रमा पृथ्वी से देखने पर कृत्तिका नक्षत्र के नीचे स्थित हो तो उस व्यक्ति का जन्म नक्षत्र कृत्तिका कहा जायेगा।

नक्षत्र चरण॥ Nakshatra Padas (quarters)

जन्म इष्ट काल नक्षत्र के जिस चरण में पडा है, उसे नक्षत्र चरण मानकर जातक का नामकरण तथा चन्द्रराशि निर्धारित की जाती है। वर्णाक्षर तथा स्वर ज्ञान नक्षत्र चरण तथा राशि का ज्ञान कोष्ठक की सहायता से सुगमता पूर्वक जाना जा सकता है। जैसे -

(नक्षत्रों का चरण एवं अक्षर निर्धारण तथा इसके आधार पर नामकरण)
# Name Pada 1 Pada 2 Pada 3 Pada 4
1 Ashwini (अश्विनि) चु Chu चे Che चो Cho ला Laa
2 Bharani (भरणी) ली Lii लू Luu ले Le लो Lo
3 Krittika (कृत्तिका) अ A ई I उ U ए E
4 Rohini(रोहिणी) ओ O वा Vaa/Baa वी Vii/Bii वु Vuu/Buu
5 Mrigashīrsha (मृगशीर्ष) वे Ve/Be वो Vo/Bo का Kaa की Kii
6 Ārdrā (आर्द्रा) कु Ku घ Gha ङ Ng/Na छ Chha
7 Punarvasu (पुनर्वसु) के Ke को Ko हा Haa ही Hii
8 Pushya (पुष्य) हु Hu हे He हो Ho ड ḍa
9 Āshleshā (अश्लेषा) डी ḍii डू ḍuu डे ḍe डो ḍo
10 Maghā (मघा) मा Maa मी Mii मू Muu मे Me
11 Pūrva or Pūrva Phalgunī (पूर्व फल्गुनी) मो Mo टा ṭaa टी ṭii टू ṭuu
12 Uttara or Uttara Phalgunī (उत्तर फल्गुनी) टे ṭe टो ṭo पा Paa पी Pii
13 Hasta (हस्त) पू Puu ष Sha ण Na ठ ṭha
14 Chitra (चित्रा) पे Pe पो Po रा Raa री Rii
15 Svātī (स्वाति) रू Ruu रे Re रो Ro ता Taa
16 Viśākhā (विशाखा) ती Tii तू Tuu ते Te तो To
17 Anurādhā (अनुराधा) ना Naa नी Nii नू Nuu ने Ne
18 Jyeshtha (ज्येष्ठा) नो No या Yaa यी Yii यू Yuu
19 Mula (मूल) ये Ye यो Yo भा Bhaa भी Bhii
20 Pūrva Āshādhā (पूर्व आषाढ़) भू Bhuu धा Dhaa फा Bhaa/Phaa ढा Daa
21 Uttara Āṣāḍhā (उत्तर आषाढ़) भे Bhe भो Bho जा Jaa जी Jii
22 Śrāvaṇa (श्रावण) खी Ju/Khii खू Je/Khuu खे Jo/Khe खो Gha/Kho
23 Śrāviṣṭha (श्रविष्ठा) or Dhanishta गा Gaa गी Gii गु Gu गे Ge
24 Shatabhisha (शतभिषा)or Śatataraka गो Go सा Saa सी Sii सू Suu
25 Pūrva Bhādrapadā (पूर्व भाद्रपद) से Se सो So दा Daa दी Dii
26 Uttara Bhādrapadā (उत्तर भाद्रपद) दू Duu थ Tha झ Jha ञ ña
27 Revati (रेवती) दे De दो Do च Cha ची Chii

ऊपर कहे गये नक्षत्र चरणों का प्रयोग जातकों(जन्म लेने वालों) के जन्म काल में नामकरण में, वधूवर मेलापक विचार में और ग्रहण आदि के समय में वेध आदि को जानने के लिये किया जाता है।

नष्टवस्तु ज्ञानार्थ नक्षत्रों की संज्ञा॥ Nashtavastu Gyanartha Nakshatron ki sangya

लोक व्यवहार में गत वस्तु के ज्ञान के लिये भी ज्योतिष का उपयोग किया जाता है।आचार्य रामदैवज्ञजी मुहूर्तचिन्ताणि नामक ग्रन्थ के मुहूर्त प्रकरण में मानव जीवन की प्रमुख समस्याओं को आधार मानकर स्पष्टता एवं संक्षेपार्थ पूर्वक नष्टधन के ज्ञान के लिये अन्धाक्षादि नक्षत्रों के विभाग को करते हैं। धन नष्ट वस्तुतः बहुत प्रकार से होता है। विशेषरूप से जैसे-

  1. विस्मृत- बहुत प्रकार के दुःखों से दुःखी मानव हमेशा चिन्ताग्रस्त दिखाई देता है। दुःखों के कारण मन में भी बहुत आघात प्राप्त करता है जिससे स्मरण शक्ति का ह्रास हो जाता है। इसलिये स्वयं के द्वारा कहीं स्थापित धन का कुछ समय बाद स्मरण नहीं रहता। उसी को कुछ समय बाद विस्मृति के कारण लुप्त धन एवं विस्मृत धन कहते हैं।
  2. लुप्त- क्लिष्ट स्थानों पर असावधानि के कारण मनुष्यों का धन गिर जाता है या लुप्त हो जाता है। अथवा समारोहों में, उत्सवोंमें अथवा विवाह आदि कार्यक्रमों में दुर्भाग्यके कारण ही संबंधी जनों के हाथ से बालक, स्त्री या वृद्ध अलग होते या खो जाते हैं उनकी खोजमें बहुत प्रयास करना पडता है। इन परिस्थियों में भी ज्योतिषका योगदान भी समय-समय पर प्राप्त होता रहता है।
  3. अपहृत- चोरों के द्वारा अथवा लुटेरों के द्वारा बल पूर्वक छीने गये धन को ही अपहृत धन कहा जाता है। उपर्युक्त प्रकर से नष्ट धनकी पुनः प्राप्ति होगी की नहीं इत्यादि प्रश्नों के उत्तरदेने के लिये अन्धाक्षादि नक्षत्रों के स्वरूप का प्रतिपादन किया आचार्यों ने।

चोरी हुई, रखकर भूल गई आदि वस्तुओं की प्राप्ति पुनः होगी की नहीं इसके ज्ञान के लिये बताई जा रही नक्षत्र संज्ञा का प्रयोग किया जा सकता है। रोहिणी नक्षत्र से अन्धक, मन्द, मध्य और सुलोचन संज्ञक ४भागों में नक्षत्रों को बाँटा गया है-

अन्धाक्षादिनक्षत्र सारिणी एवं उनका फल
क्रम/संज्ञा नक्षत्र नक्षत्र नक्षत्र नक्षत्र नक्षत्र नक्षत्र नक्षत्र गतवस्तु फल
अन्धाक्ष रोहिणी पुष्य उत्तराफाल्गुनी विशाखा पूर्वाषाढा धनिष्ठा रेवती शीघ्र लाभ
मन्दाक्ष मृगशिरा आश्लेषा हस्त अनुराधा उत्तराषाढा शतभिषा अश्विनी प्रयत्न लाभ
मध्याक्ष आर्द्रा मघा चित्रा ज्येष्ठा अभिजित् पूर्वाभाद्रपदा भरणी केवल जानकारी मिले
सुलोचन पुनर्वसु पूर्वाफाल्गुनी स्वाती मूल श्रवण उत्तराभाद्रपदा कृत्तिका अलाभ

नक्षत्र फल॥ Nakshatra Fala

आश्विन्यामतिबुद्धिवित्तविनयप्रज्ञायशस्वी सुखी याम्यर्क्षे विकलोऽन्यदारनिरतः क्रूरः कृतघ्नी धनी। तेजस्वी बहुलोद्भवः प्रभुसमोऽमूर्खश्च विद्याधनी। रोहिण्यां पररन्ध्रवित्कृशतनुर्बोधी परस्त्रीरतः॥

चान्द्रे सौम्यमनोऽटनः कुटिलदृक् कामातुरो रोगवान् आर्द्रायामधनश्चलोऽधिकबलः क्षुद्रक्रियाशीलवान् । मूढात्मा च पुनर्वसौ धनबलख्यातः कविः कामुकस्तिष्ये विप्रसुरप्रियः सघनधी राजप्रियो बन्धुमान् ॥

सार्पे मूढमतिः कृतघ्नवचनः कोपी दुराचारवान् । गर्वी पुण्यरतः कलत्रवशगो मानी मघायां धनी॥ फल्गुन्यां चपलः कुकर्मचरितस्त्यागी दृढः कामुको। भोगी चोत्तरफल्गुनीभजनितो मानी कृतज्ञः सुधीः॥

हस्तर्क्षे यदि कामधर्मनिरतः प्राज्ञोपकर्ता धनी। चित्रायामतिगुप्तशीलनिरतो मानी परस्त्रीरतः॥ स्वातयां देवमहीसुरप्रियकरो भोगी धनी मन्दधीः। गर्वी दारवशो जितारिरधिकक्रोधी विशाखोद्भवः॥

मैत्रे सुप्रियवाग् धनीः सुखरतः पूज्यो यशस्वी विभु र्ज्येष्ठायामतिकोपवान् परवधूसक्तो विभुर्धार्मिकः। मूलर्क्षे पटुवाग्विधूतकुशलो धूर्तः कृतघ्नो धनी पूर्वाषाढभवो विकारचरितो मानी सुखी शान्तधीः॥

मान्यः शान्तः सुखी च धनवान् विश्वर्क्षजः पण्डितः। श्रोणायां द्विजदेवभक्ति निरतो राजा धनी धर्मवान् ॥ आशालुर्वसुमान वसूडुजनितः पीनोरूकण्ठः सुखी। कालज्ञः शततारकोद्भवनरः शान्तोऽल्पभुक् साहसी॥

पूर्वप्रोष्ठपदि प्रगल्भवचनो धूर्तो भयार्तो मृदु श्चाहिर्बुध्न्यजमानवो मृदुगुणस्त्यागी धनी पण्डितः। रेवत्यामुरूलाञ्छनोपगतनुः कामातुरः सुन्दरो मन्त्री पुत्रकलत्रमित्रसहितो जातः स्थिरः श्रीरतः॥

नक्षत्र अध्ययन का महत्व॥ Nakshatra Adhyayan ka Mahatva

प्राचीन भारत में ग्रहों के प्रतिदिन के स्थिति ज्ञान का दैनिक जीवन में बहुत महत्व था। नक्षत्रों की दैनिक स्थिति के अध्ययन की मुख्य उपयोगिता निम्नानुसार है-

  1. मौसम पूर्वानुमान
  2. कृषि कार्य
  3. दैनिक जीवन
  4. मानव स्वास्थ्य
  5. फलित ज्योतिष

सारांश॥ Summary

भूमण्डलस्थ समस्त चराचर जगत में जड-चेतन के रूप में समस्त जीव-जंतु, वनस्पति तथा प्राणियों पर जो प्रभाव दृग्गोचर होता है, वह नक्षत्रों के प्रभाव के कारण ही होता है। चूंकि आकाशस्थ नक्षत्रों का कभी क्षरण नहीं होता इसलिए महर्षियों द्वारा इनको "नाक्षरति इति नक्षत्र" इस प्रकार की संज्ञा से उद्बोधित किया है। यह खगोलस्थ 360॰ अंशात्मक भचक्र, राशिचक्र अथवा नक्षत्र चक्र कह देते हैं इस प्रकार तीनों शब्द एक ही अर्थ को द्योतित करते हैं। नक्षत्रों का कारक चन्द्रमा है और इसको नक्षत्रपति तथा उडुपति कहा जाता है।

उद्धरण॥ References

  1. रघुनंदन प्रसाद गौड, नाक्षत्र ज्योतिष, मनोज पॉकेट बुक्स, दिल्ली (पृ० 20)।
  2. पं० श्रीदेवचन्द्र झा, व्यावहारिकं ज्यौतिषसर्वस्वम् , सन् १९९५, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान (पृ० १०)।
  3. आकाशीय पिण्ड एवं भारतीय पंचांग, विज्ञान की पुस्तक, राजस्थान बोर्ड, कक्षा-9, अध्याय-12, (पृ० 143)।
  4. 4.0 4.1 श्री विन्ध्येश्वरीप्रसाद द्विवेदी, म्हूर्तचिन्तामणि, पीयूषधारा टीका, शुभाशुभ प्रकरण, सन् २०१८, वाराणसीः चौखम्बा सुरभारती प्रकाशन (पृ०१०/११)
  5. नारदपुराणम्- पूर्वार्धः,अध्यायः ५६, (श्लो०सं०-२०४-२१०)।
  6. रत्नलाल शर्मा, नक्षत्र, राशि एवं ग्रहों का पारस्परिक सम्बन्ध, सन् 2021, इंदिरा गांधी राष्ट्रीय मुक्त विश्वविद्यालय, नई दिल्ली (पृ० 287)।