महर्षि विरजानंद जी - महापुरुषकीर्तन श्रंखला
This article relies largely or entirely upon a single source.May 2020) ( |
महर्षि विरजानन्द:[1] (1779-1868 ई.)
वैदिक विद्यामार्तण्डो योऽखिलपाखण्डविभेत्ता येन दयानन्दर्षिसमानं, नररत्नं समपादि।
यस्याभ्यन्तरनेत्रे झास्तां, दिव्यतेजसा पूर्णे चन्दनीयकमनीयपदोऽसौ, विरजानन्दमहात्मा।।
जो वैदिक विद्या के सूर्य-समान होकर समस्त पाखण्ड का खण्डन करने वाले थे, जिन्होंने ऋषि दयानन्द जैसे नवरत्न को प्राप्त किया था, जिन के अन्दर के नेत्र दिव्य तेज से पूर्ण थे, वे महात्मा विरजानन्द वन्दना के योग्य सुन्दर चरणों वाले थे।
आर्षग्रन्थाध्ययनविलोपो जातो भारतवर्षे सर्वतरैवानार्षपुस्तकाध्ययने जना निमग्नाः।
दृष्ट्वानिष्टं खलु परिणामं, बद्धपरिकरो धीरो वन्दनीयकमनीयपदोऽसौ, विरजानन्दमहात्मा।।
भारत में आषग्रन्थों के अध्ययन का लोप हो गया, सर्वत्र लोग अनार्ष ग्रन्थों के अध्ययन में निमग्न हो गये, इस के अनिष्ट परिणाम को देखकर उस के निवारणार्थ कटिबद्ध धैर्यशाली महात्मा विरजानन्द जी अत्यन्त वन्दनीय हैं।
कथं दक्षिणा देया भगवन् धनरहितेन मयेयम् दयानन्दयतिमेवं चिन्तातुरमवलोक्य नितान्तम्।
मैवं विधां दक्षिणामीहे माकार्षीस्त्वं चिन्तां समाश्वासयन्नित्थं वन्द्यो, विरजानन्दमहात्मा।।
भगवन्! मैं धनरहित कैसे गुरुदक्षिणा दूँ? संन्यासी दयानन्द को इस प्रकार अत्यन्त चिन्तातुर देखकर मैं ऐसी दक्षिणा नहीं चाहता, तू चिन्ता न कर, इस तरह शिष्य को आश्वासन देते हुये महात्मा विरजानन्द वन्दनीय हैं।
बैदिकमार्ग सरलं त्यक्त्वा जनाः शुद्धमतिहीनाः, इतस्ततो भ्रष्टा अतिदीनाः, शोचनीयगतिमाप्ताः।
सन्मार्ग सन्दश्य वत्स तान्, दलितान् पतितानुद्धर, एवं वदन्नुदारो वन्द्यो विरजानन्दमहात्मा ।।
सरल वैदिक मार्ग को छोड़ कर शुद्ध-बुद्धि रहित लोग इधर-उधर भटकते हुए अत्यन्त दीन होकर शोचनीय दशा को प्राप्त हो रहे हैं। हे प्रिय शिष्य ! उन को सन्मार्ग दिखा कर दलित, पतित जनों का उद्धार कर। इस प्रकार उपदेश देते हुए उदार महात्मा विरजानन्द वन्दनीय हैं।
आर्षान् ग्रन्थानपठित्वा येऽनार्षपुस्तकेष्वास्थां, कृत्वा सम्प्रदायशतभक्ता भूत्वातीव विभक्ताः।
निगमागमदीक्षां त्वं तेभ्यो दत्वा ध्वान्तं परिहर, इमां दक्षिणामुररीकुर्वन् विरजानन्दयतीङ्यः ।।
आर्ष ग्रन्थों को न पढ़कर, अनार्ष पुस्तकों में ही विशवास रख कर जो सैकड़ों सम्प्रदायों के भक्त बन कर अत्यन्त विभक्त हो रहे हैं, उन को वेद-शास्त्र की दीक्षा दे कर अन्धकार का नाश कर। इस दक्षिणा को स्वीकार करते हुए विरजानन्द संन्यासी पूजनीय हैं।
अन्तेवासी येन दयानन्दर्षिसमानोऽलम्भि, यस्य ख्यातिस्तत्कृतसुकृतैरखिले भुवने व्याप्ता।
त्यागतपस्यामूर्तिरुदारो गुरुरादर्शाचायाँ, वन्दनीयकमनीयपदोऽसौ विरजानन्दमहात्मा ।।
जिन्होंने ऋषि दयानन्द जैसे योग्य शिष्य को प्राप्त किया, जिन की कीर्ति उन के किए उत्तम पुण्य कार्यो से सारे संसार में व्याप्त हो गई, त्याग और तपस्या की मूर्ति उदार आदर्श गुरु और आचार्य महात्मा विरजानन्द अत्यन्त वन्दनीय हैं।
स्वतन्त्रतार्थ[2] कृते विप्लवे, येन गृहीतो भागः, तथा प्रेरिता भूपाः कर्तु कान्तिमुत्तमां घोराम्।
देशोन्नतिहितशुभा भावना भरिताः प्रियतमशिष्ये, नवयुगनिर्माता किल वन्द्यो विरजानन्दमहात्मा ।।
स्वतन्त्रतार्थ की गई सन् १८५७ की क्रान्ति में जिन्होंने भाग लिया तथा राजाओं को उत्तम घोर क्रान्ति करने की प्रेरणा की, जिन्होंने अपने प्रियतम शिष्य दयानन्द में देशोन्नति के लिए उत्तम भावनाएं भर दीं, ऐसे नवयुग निर्माता महात्मा विरजानन्द निश्चय से वन्दनीय हैं।
References
- ↑ महापुरुषकीर्तनम्, लेखक- विद्यावाचस्पति विद्यामार्तण्ड धर्मदेव; सम्पादक: आचार्य आनन्दप्रकाश; प्रकाशक: आर्ष-विद्या-प्रचार-न्यास, आर्ष-शोध-संस्थान, अलियाबाद, मं. शामीरेपट, जिला.- रंगारेड्डी, (आ.प्र.) -500078
- ↑ एतद्विषयकानि प्रमाणानि पं० पृथिवीसिंह विद्यालंकारकृते ' राजस्थान का इतिहास' इति ग्रन्थेऽवलोकनीयानि।