मनुष्य की निहित सम्पदाओं का नाश
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दुर्बलतायें
१. कर्मसंस्कृति का नाश और यन्त्र विकृति का प्रभाव इन दोनों के परिणाम स्वरूप मनुष्य अधिक से अधिक अपाहिज बन रहा है, अपनी ईश्वर प्रदत्त जन्मजात शक्तियों का क्षरण हो रहा है उसे देख ही नहीं सकता, और यदि देख सकता है तो उन्हें बचाने के लिये कुछ कर नहीं सकता । क्या यह स्थिति शोचनीय नहीं है ?
२. बच्चोंं का गर्भाधान ही दवाइयों की सहायता से होता है । ये दवाइयाँ जैविक नहीं होती हैं, वे विघटन नहीं हो सकता ऐसी सामग्री और प्रक्रिया से निर्मित होती हैं। वे जीवित शरीर के साथ समरस नहीं होतीं । यहीं से आपत्तियों का क्रम आरम्भ हो जाता है ।
३. गर्भावस्था में ही मधुमेह, रक्तचाप और हृदय की ओर जाने वाली रक्तवाहिनियों में अवरोध आदि जैसी घातक बिमारियाँ लग जाने का अनुपात बढ रहा है । इन बिमारियों का जन्म के बाद ठीक होना असम्भव है |
४. बच्चोंं की जन्मजात शारीरिक और मानसिक क्षमतायें कम ही होती हैं । जो बालक कम क्षमताओं के साथ ही जन्मे हैं उनकी क्षमता बढ़ाना असम्भव हो जाता है |
५. जन्म के बाद के वातावरण, माता के आहारविहार, बालक के आहारविहार उसके संगोपन की पद्धतियाँ और सामग्री, उसके खिलौने, मोबाइल, संगणक और टीवी के प्रयोग के कारण से उसकी शक्तियों का क्षरण होता है ।
६. जैसे जैसे आयु बढती जाती है रोग प्रतिरोधक शक्ति, श्रम और काम करने की शक्ति, स्मरणशक्ति और ग्रहणशक्ति आदि के विकास की सम्भावनायें तो दूर की बात है, उल्टे जो हैं वे भी क्षीण होती जाती हैं ।
७. बोली हुई सीधीसादी बात भी समझ में नहीं आना, बात का मर्म नहीं समझना, सूचितार्थ नहीं समझना, कार्यकारण सम्बन्ध नहीं समझना, मुद्दा समझा नहीं पाना, विचारों में कोई मौलिकता नहीं होना, बुद्धि की चमत्कृति देखकर आनन्द का अनुभव नहीं करना बौद्धिक दारिद्य है । हमारा सर्वसामान्य युवावर्ग इस दारिद्य का शिकार हुआ है ।
८. नित्यनिरन्तर मनोरंजन छढूँढते रहना, हर प्रकार की विलास की वस्तुओं से आकर्षित होना, किसी प्रकार के आकर्षण को नहीं रोक पाना, निकृष्ट वस्तुओं के प्रति भी लालयित होना, असंस्कारी पद्धति से खुशी व्यक्त करना आदि सब संयमहीन मन के लक्षण हैं जो सर्वत्र दिखाई दे रहे हैं ।
९. छोटी छोटी बातों में तनाव होना, जरा कहीं पर अवरोध देखा कि उत्तेजित हो जाना, जरा कहीं असफलता की सम्भावना देखी तो हताश हो जाना, कहीं भी परिस्थिति विपरीत हुई तो आत्महत्या करना, आदि आत्मघाती वृत्ति भारी मात्रा में पनप रही है । यह मन की दुर्बलता का ही मुखर लक्षण हैं |
१०. स्वार्थ के लिये अपमान सह लेना, स्वार्थ के लिये खुशामद करना, बलवान से ट्रेष होना और दुर्बल को दबाना, छीन सकते हैं तो कुछ भी छीनने में लूटने में सँकोच नहीं करना, झूठ, बेइमानी, चौरी आदि से परहेज नहीं होना, दया माया अनुकम्पा नहीं होना आसुरी और विकृत मन के लक्षण है ।
११. किसी में श्रद्दा नहीं होना, किसी के विश्वास के पात्र नहीं बनना, छलना, प्रपंच, धोखाधडी करके पैसा कमाने में संकोच नहीं करना, दवाई, आहार सामग्री आदि में भी मिलावट करने में संकोच नहीं होना, डॉक्टरों, शिक्षकों और होटेल मालिकों द्वारा विद्यार्थियों, कग्णों और खानेवालों के प्रति मानवीय नहीं होना स्वार्थवृत्ति की परिसीमा है । ये उदाहरण भी तो सार्वत्रिक हैं ।
१२. साहसी वृत्ति नहीं होना, देशभक्ति नहीं होना, सामाजिक दायित्वबोध नहीं होना भी आम बात हैं ।
१३. परीक्षा के प्रश्नपत्र आसान बनाकर, कच्चे उत्तरों के भी अधिक अंक देकर, परीक्षा में सबको उत्तीर्ण कर, बिना परीक्षा के ही उत्तीर्ण कर, यन्त्रों, वाहनों और सामग्री देकर सब कुछ आसान बनाकर, कहीं पर भी शरीर, मन और बुद्धि को न कसकर मनुष्य को प्राप्त शक्तियों को दिनप्रतिदिन हम क्षीण ही तो कर रहे हैं । हमें ईश्वरप्रदत्त इन क्षमताओं का मानो कोई मूल्य ही नहीं है ।
मूल कारण पश्चिमी शिक्षा
१४. पश्चिमी शिक्षा का इसके साथ क्या सम्बन्ध है ? क्या यह सब युरोप या अमेरिका कर रहा है ? यहाँ अभी तो वर्णन किया उससे तो उन देशों में स्थिति अच्छी है । इतने दुर्गुण और दुर्गति वहाँ नहीं हैं । भारत में आज की स्थिति के निर्माता तो सब धार्मिक ही हैं । हम ही यह सब कर रहे हैं । फिर पश्चिमी शिक्षा को क्यों दोष देना चाहिये ?
१५, यह बात सत्य है कि भारत की आज की दुर्गति धार्मिकों के द्वारा ही हो रही है । परन्तु इन सब दोषों की जनक और दोषों का निवारण नहीं करने वाली तो शिक्षा ही है । भारत में आज भी धार्मिक शिक्षा नहीं है । शिक्षा के पश्चिमीकरण से हम मुक्त नहीं हुए हैं । उसे वैसा का वैसा चला रहे हैं । उससे जनमी ये समस्यायें हैं ।
१६. क्या खाद्य पदार्थों में मिलावट करना किसी पाठ्यक्रम में सिखाया जाता है ? क्या देशद्रोह किसी विद्यालय में सिखाया जाता है ? क्या चोरी करना सिखाया जाता है ? ऐसा तो कोई कर नहीं सकता । फिर हम समाज की दुर्गति का दोष शिक्षा के माथे क्यों मढते हैं?
१७. पैसा कमाने के लिये कुछ भी हो सकता है। अर्थशास््र का नैतिकता से कोई सम्बन्ध नहीं है ऐसा सिखाने से अर्थविषयक अप्रामाणिकता अलग से सिखाने की आवश्यकता नहीं होती । मैं कुछ भी करने के लिये स्वतन्त्र हूँ ऐसा सिखाने से स्वार्थी बनने के लिये और कुछ सिखाने की आवश्यकता नहीं पड़ती । व्यक्तिकेन्द्री समाजरचना का सिद्धान्त सिखाने के बाद स्वार्थी होना अलग से सिखाने की आवश्यकता नहीं रहती । काम करने वाला छोटा है ऐसा सिखाने से शोषण करने की कला अलग से सिखाने की आवश्यकता नहीं होती । विभिन्न विषयों के जो मूल सिद्धान्त हैं वे ही सारे सामाजिक सांस्कृतिक दृषणों के मूल स्रोत हैं । अतः दोष तो शिक्षा का ही है । हमारा दोष यह है कि हम ऐसी शिक्षा को चला रहे हैं ।