पाठ्यकम उद्देश्य पुस्तिका
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संविधान के द्वारा अल्पसंख्यकों को अपने जीवन की शिक्षा का प्रावधान किया गया है। यह इसलिए था कि मान लिया गया था कि सामान्य सभी विद्यालयों में भारतीयता की, धार्मिक रीति के अनुरूप शिक्षा तो दी ही जाएगी[1]। लेकिन प्रत्यक्ष में ऐसा नहीं हो रहा है।
अर्नाल्ड टोयन्बी कहते हैं - मानव जाति को यदि आत्मनाश से बचाना हो तो, जिस प्रकरण का प्रारम्भ पश्चिम ने किया है, उस का अंत अनिवार्यता से भारतीय ही होना चाहिए। इस का कारण भारतीयता या हिन्दुत्व यह एक वैश्विक जीवनइष्टि है, यह है। हिन्दुत्व यह मानवता का दूसरा नाम है। सर्वे भवन्तु सुखिनः याने चर-अचर एेसे सभी जीव सुखी हौ, यह मेरा दायित्व है, मातृवत परदारेषु याने हर पराई स्त्री मेरे लिए माता समान है, वसुधैव कुटुबकम् याने सारी पृथ्वी मेरा कुटुब है, ऐसे वैश्विक विचार हमारी विशेषता भी हैं और इस लिए पहचान भी हैँ। अन्यां से भिन्नता या विशेषता से पहचान बनती है।
हिन्दू जीवन एक सुखी, समृद्ध, सुसंस्कृत जीवन होता है। एेसे जीवन के लिए हमारे पूर्वजौ ने समाज को एक व्यापक संगठन प्रणाली मेँ बाधा था। कुटुब भावना, प्रेम, सहानुभूति, परस्पर विश्वास की व्यावहारिक अभिव्यक्ति ही आध्यात्मिक जीवन है। एक ओर स्नेहपूर्णं आध्यात्मिक जीवन जीते हूए दूसरी ओर अभ्युदय याने भौतिक समृद्धि के लिए किए गए पुरुषार्थ के कारण ही भारत सोने की चिड़िया' भी था।
ऐसे श्रेष्ठ जीवन की शिक्षा से हमारे बच्चों को वंचित रखना उचित नही है। (जीवन की शिक्षाः तो हमारे बच्चो के साथ ही विश्व के सभी देशों के बच्चों के लिए अनिवार्य होनी चाहिए। वर्तमान भारतीय शिक्षा की इस कमी को ध्यान में लेकर इस “भारतीय/हिन्दू जीवन” का पाठ्यक्रम बनाया गया है।
ज्ञात से अज्ञात की ओर, सरल से कठिन/जटिल की ओर, स्थूल से सूक्ष्म की ओर, व्यक्त से अव्यक्त की ओर बढ़ती आयु के साथ विकसित होने वाले इंद्रियों तथा अंत:करण के विकास के अनुकूल ऐसे शिक्षा के ग्रहण ओर अंतरण के आधारभूत पहलुओं को ध्यान में रखकर यह पाठ्यक्रम बनाया गया है। क्रमश: ६, ७, ८, ९ वर्ष की आयु में मन; ९, १०, ११, १२ वर्ष की आयु में बुद्धि और १२, १३, १४, १५ वर्ष की आयु में अहंकार याने आत्मभान का विकास होता है। इसे भी ध्यान में रखा गया है। कक्षा १ से लेकर 3 री, ४ थी तक कण्ठस्थीकरण की ओर विशेष ध्यान दिया गया है। ४ थीं कक्षा से आगे इन कण्ठस्थीकरण के साथ में ही अर्थ बताकर समझ भी निर्माण की जाएगी।
हमारी नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के विषय में कुछ भी नहीं जानती। इस लिए वह यूरोप अमेरिका का अंधानुकरण करती है। नई पीढ़ी को यह समझाना कि हमारे पूर्वज अत्यंत प्रतिभाशाली, चराचर के हित के लिए जीनेवाले और महान क्रियाशील लोग थे। समूची मानव जाति हमारे पूर्वजों की ऋणी है। लाख प्रयासों के उपरांत भी मानव जाति हमारे पूर्वजों के ऋण से उऋण नहीं हो सकती। हमारे शरीरों में उपस्थित गुणसूत्र (06165) उन्हीं पूर्वजौ से हम मिले है। उन मं प्रतिभा दूसटूस कर भरी हई है। आवश्यकता है हम उन के चरित्र से प्रेरणा लं, संकल्प करं ओर भारत पुनः जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में विश्वगुरु बनाएँ।
कण्ठस्थीकरण
आयु के अनुसार उपर्युक्त कण्ठस्थीकरण के साहित्य के अर्थ जानना ओर उन आदर्श को जीवन मेँ उतारने की प्रेरणा ल्ेना। सामान्यतः आयु जैसे बढ़ती जाती है, बुद्धि का स्तर तो बढ़ता है लेकिन कण्ठस्थीकरण की क्षमता कम होती जाती है। इसलिए १ ली से ४ थी कक्षा तक कण्ठस्थीकरण को अधिक महत्व देना। आगे कण्ठस्थ की हुई बातों के अर्थ समझना और उस की श्रेष्ठ बातें व्यवहार में लाने का बुद्धियुक्त प्रयास करना होता है। कण्ठस्थ की हुई बातें आजीवन साथ देती हैं।
- वेद, उपनिषद, श्रीमदभगवद्गीता आदि से चुने हुए - ऋचाएँ, मंत्र, शांतिपाठ और श्लोक आदि
- रहीम, तुलसी, कबीर आदि भारतीय संतों के दोहे
-. भारतीय जीवनइष्टि के महत्त्वपूर्ण सूत्र
- भारतीय जीवनशैली याने व्यवहार के सूत्र
टिप्पणी : ऋचाएँ, मंत्र, श्लोक, दोहे, सूत्र ये रचनाएँ बहुत कम शब्दों मैं जीवन के मर्मबिन्दुओं की शिक्षा देनेवाली या मर्म समज्ञाने वाली होती है।
भारतीय जीवनदृष्टि
समाज जीवन की श्रेष्ठता का आधार उस की श्रेष्ठ जीवनइष्टि होती है। जीव ओर जगत की ओर देखने की भारतीय दृष्टि एकात्मता, समग्रता ओर धर्म सर्वोपरिता की है। सृष्टि निर्माण की भारतीय मान्यता के अनुसार परमात्मा ने अपने में से ही सारी सृष्टि का सृजन किया है। इस लिए कण कण में भगवान होते हैं। मुझ में जो आत्मतत्व है वही जगत के सभी जीवों में विद्यमान है। याने सृष्टि के सारे अस्तित्वों मे *एकात्मता' है। इस कारण हम सब एक दूसरे से 'आत्मीयता' से बंधे हुए हैं। इस आत्मीयता को ही हम ‘Hes Mae कहते हैं। जब कोई यह ठीक से समझ जाता है की सृष्टि के सब अस्तित्वों से मैं कुटूंब भावना से जुड़ता हूँ तब ये मेरा है ये पराया ऐसी भावना नहीं रह जाती।
सारी पृथ्वी याने वसुधा ही मेरे लिए एक कुटुब बन जाती है। इस लिए हमारे पूर्वज कहते थे -
अयं निजं परोवेति गणना लघु चेतसाम् ।
उदार चरितानां तु वसुधैव कुटुबकम्' ॥
ओर जब कुटुंब भावना होती है तब हम सब के सुख की कामना करते है। सब सुखी हौ एेसा प्रयास करते है। ओर कहते है - सर्वे भवन्तु सुखिनः। तब हम समग्रता मे सोचने लग जाते है। अपने सुख के साथ ही औरों के सुख की भी चिंता करते हैं। ऐसा करने के लिए हमें विश्व के संचालन के नियमों को जानना आवश्यक होता है। विश्व संचालन के याने प्रकृति के नियमों को ही “धर्म' कहते हैं। अलग अलग इकाई के संदर्भ में जब हम विश्व संचालन के नियमों को समझते हैं तब उन नियमों को उस इकाई का धर्म कहते हैं। जैसे शरीर धर्म। शरीर बना रहे, बलवान रहे, प्राणवान रहे, कौशल्यवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए मेरे प्रकृति के अनुसार जो जो करना चाहिए उसे ही शरीर धर्म कहते हैं। इसी तरह समाज धर्म को हम समझ सकते हैं। समाज बना रहे, बलवान रहे, कौशल्यवान रहे, प्राणवान रहे, तितिक्षावान रहे इस के लिए जिन नियमों का पालन करना होता है उन्हें ही समाज धर्म कहते हैं। धर्म भारतीय समाज का प्राण है। मानवता और पशुता में अंतर धर्म के कारण ही होता है। कहा है -
आहारनिद्राभयमैथुनं च सामान्यमेतत् पशुभिर्नराणाम्
धर्मो हि तेषामधिको विशेषो धर्मेण हीना पशुभिः समानाः ।।
अर्थः आहार निद्रा, भय ओर मैथुन ये प्राणिक आवेग तो सभी प्राणियों मँ होते है। मानव भी प्राणी होने से मानव मँ भी होते है। लेकिन यदि मानव धर्म का पालन नहीं करता है, वह पशु ही रह जाता है। इस के लिए “धर्मः क्या है यह भी समझना आवश्यक है। लेकिन कई समाजों की मान्यता है की परमात्मा होता ही नहीं है। एेसे समाज बलवान होने के बाद अन्य समाज के लोगों को लूटते हैं, बलात्कार करते हैं, गुलाम बनाते हैं। विश्व में जितने भी अन्याय, अत्याचार हुए हैं वे ऐसे अनात्मवादी समाजों द्वारा ही हुए हैं। आज विश्व में ऐसी जीवनइष्टि के अनुसार जीनेवाले लोगों का प्रभुत्व है। भारतीयता की शिक्षा के अभाव में हम भी उन के जैसे अभारतीय बनने लगे हैं। इस कारण से भरी हिन्दुत्व की शिक्षा के माध्यम से गति, व्याप्ति ओर शक्ति के साथ समाज के हिन्दुत्व को याने भारतीयता जगाने की आवश्यकता है।
भारतीय जीवन के व्यवहार सूत्र : उपर्युक्त भारतीय जीवनदृष्डि के अनुसार व्यवहार करने के विए मार्गदर्शक व्यवहार सूत्र। यह व्यवहार (सर्वे भवन्तु सुखिनः' के लिए होता है। समाज की जगत ओर जीवन की ओर देखने की दृष्टि के अनुसार समाज व्यवहार करता है। पुनः पुनः एक ही प्रकार का व्यवहार करने से उस समाज के व्यवहार के सूत्र बन जाते हैं। इन्हें जीवनशैली भी कहते हैं।
सर्वे भवन्तु सुखिन: याने सब सुखी हों, इस के प्रयास करना। आत्मवत् सर्वभूतेषु याने मेँ जैसे व्यवहार की अन्यो से अपेक्षा रखता हूँ वैसा व्यवहार मैंने औरों से करना। मातृवत् परदारेषु याने हर पराई स्त्री को माता मानना। वसुधैव कुटुंबकम् याने सारा विश्व मेरे लिए कुटुंब है ऐसा मान कर व्यवहार करना। एकं सत् विप्राः बहूधा वदति याने प्रत्येक मानव की समज्ञ भिन्न होती है, उस का आदर करना। नर करनी करे तो नर का नारायण बन सकता है। करेगा सो भरेगा जैसा कर्मसिद्धांत का वैज्ञानिक विचार ध्यान में रखकर सदाचार से जीना। धर्म अर्थ काम और मोक्ष ये चार पुरुषार्थ, अष्टांग योग आदि भारतीय जीवन के व्यवहार सूत्र है।
ये सभी सूत्र वैश्विक हैं। विश्व के प्रत्येक मानव के लिए उपयुक्त हैं। इन सूत्रों के माध्यम से नई पीढ़ी को जीवन दृष्टि ओर व्यवहार का मार्गदर्शन करना भी इस पाठ्यक्रम का उदेश्य है।
भारत का परिचय
भारत एक अति प्राचीन राष्ट्र है। राष्ट्र यह कोई मात्र जमीन का टुकड़ा नही है। राष्ट्र की भूसांस्कृतिक अवधारणा को समज्ञाना। राष्ट के इतिहास को बिगाड़ने से राष्ट्र का वर्तमान और भविष्य दोनों बिगड़ जाते है। इस बिए इतिहास को बिगाड़ना राष्ट द्रोह है। भारत की भूमि के साथ, भारतीय समाज के साथ और भारतीय संस्कृति के साथ प्रेम राष्ट्र प्रेम है। इन तीनों के साथ खिलवाड़ करना Use ale है इसे बच्चों के मन पर अंकित करना।
भौगोलिक विस्तार का संक्षिप्त परिचय : सांस्कृतिक भारत का परिचय, पवित्र नदियाँ, पर्वत, तीर्थक्षेत्र आदि का परिचय। इस का प्रयोजन है - भारतीय समाज मे ऊपर ऊपर दिखाई देनेवाली भौगोलिक, प्रादेशिक, भाषा, भूषा (वस्त्र), भवन, भोजन आदि की विविधता के नीचे जो सांस्कृतिक एकता है उसे समज्ञना। हम केवल जन्म से भारतीय नहीं है। हम भारतीय संस्कृति को मानते हैँ इस लिए हम भारतीय हैं। इस बात को मनपर अंकित करना। भारतीय संस्कृति मँ भूमि माता होती है। जीवन का आधार पृथ्वी, जीवनी शक्ति याने प्राण शक्ति का संचार करने वाली वायु, जीने के लिए अनिवार्य ऐसे जल के दाता वरुण, जीवनी शक्ति के स्त्रोत सूर्यं आदि पर्यावरण के सभी घटक हमारे लिए देवता होते है। ये हमारे लिए पवित्र हैं। इन के प्रदूषण का विचार तो शुद्ध अभारतीय है।
भारतीय राष्ट्रीय साहित्य का उचित विस्तार से परिचय : वेद, उपनिषद, दर्शन, पुराण, रामायण, महाभारत आदि का संक्षिप्त परिचय। यह साहित्य हमारे पुरखोँ से प्राप्त हमारी धरोहर है। इस लिए इसे हमने जानना आवश्यक है। और केवल यह हमारी धरोहर है इतना ही नहीं तो यह विश्व का सर्वोत्तम साहित्य है, इसे मन पर अंकित करना आवश्यक है। हमारी सर्वोत्तम की कसौटी सर्वे भवन्तु सुखिनः' से सुसंगतता है। हमारा सारा साहित्य यहीं बताता है की कण कण में भगवान होते हैं। इस भाव को लेकर सुख, समृद्धि, स्वतन्त्रता को कैसे प्राप्त किया जाता है, इस का मार्गदर्शन इस साहित्य में है। अति चंचल मन को कैसे एकाग्र करना, मन को बुद्धि का अनुगामी बनाना यह इस में हमें मिलता है। इच्छाओं को धर्म के अनुकूल कैसे रखना होता है, परमसुख की प्राप्ति कैसे होती है, जिसे जानने के उपरांत आगे कुछ जानना शेष नहीं रह जाता ऐसा ज्ञान इस में उपलब्ध है। श्रेष्ठ जीवन जीने के लिए समाज का संगठन कैसा होता है, श्रेष्ठ शिक्षण, रक्षण और पोषण व्यवस्थाओं का स्वरूप कैसा होता है और इन्हें कैसे निर्माण किया जाता है इस का मार्गदर्शन भी हमारे इस राष्ट्रीय साहित्य में है।
इन विचारों में शिक्षित होने से ही हमारे पूर्वजों ने भारत को आध्यात्मिक और ऐहिक दोनों क्षेत्रों में विश्वगुरु बनाया था। हमारे पूर्वजों का संक्षिप्त परिचय : भारतवर्ष के काश्मीर से कन्याकुमारी और उपगणस्थान से कामरूप तक के विभिन्न प्रदेशों में जन्मे, अध्यात्म से लेकर विज्ञान और प्रौद्योगिकी जैसे जीवन के सभी क्षेत्रों में अपने योगदान से भारत का नाम उज्वल करनेवाले महापुरुष और मातृवर्ग का परिचय। इन में महाज्ञानी महर्षि व्यास, वाल्मिकी जैसे श्रेष्ठ आचार्य हैं। कण कण में भगवान होते हैं, इस मूलतत्व का ही विचार और प्रसार करनेवाले भक्तिमार्गी वैष्णव, शैव आदि संत इन में हैं। विश्व में निर्माण हुई दुष्ट शक्तियों को नष्ट करनेवाले सम्राट राजा-महाराजा आदि इन में हैं। ब्रहमाण्ड की विशालता को और परमाणू की सूक्ष्मता को जाननेवाले वैज्ञानिक इन में हैं। शून्य से ९ तक के अंक, मूल गणितीय प्रक्रियाएँ, अनंत की अवधारणा आदि की प्रस्तुति कर विश्व को सदा के लिए ऋणी बनाने वाले गणिती इन में हैं।
इन मे संगीतकार है, नाट्यशास्त्र के निर्माता है, कलाकार हैं, कवी हैं, अपने जीवंत शरीर को लोकसेवा के लिए दान करनेवाले दधीचि आदि देवतुल्य लोग इन में हैं। आजीवन समाज की सेवा मैं तिल तिल कर जलनेवाले समाजसेवक इन में हैं। .... और महत्त्वपूर्ण बात यह है की भारत के किसी भी प्रदेश में ऐसे महापुरुषों की कोई कमी नहीं है, इसे भी विद्यार्थियों के मन पर अंकित किया जाएगा। भारत को समग्रता मैं समझकर उस में व्याप्त एकात्मता के दर्शन करना हम सब के लिए अत्यंत महत्वपूर्णं है।
गौरवशाली भारत का विश्व को योगदान
भारत ने याने हमारे पूर्वजौ ने मानव जाति के दीर्घं कालीन जीवन के प्रत्येक क्षेत्र मै जो अनमोल योगदान दिया है उस के ऋण से मानव जाति कभी उऋण नहीं हो सकती। हमारे याने भारतीय पूर्वजौ ने जो मानव जीवन को श्रेष्ठ बनाने मँ गौरवशाली योगदान दिये हैं। उन में से नमूने के तौर पर बच्चों को अवगत कराना आवश्यक है। इस से उन के मन में अपने पूर्वजों जैसा ही योगदान देने की प्रेरणा जगेगी।
भारतीय सामाजिक संगठन और व्यवस्थाएँ
यह हमारे पूर्वजों की ही विशेषता रही है की उन्होंने समाज धर्म को ठीक से समझा। समाज धर्म के पालन से समाज की धारणा होती है। समाज सुखी समृद्ध, सुसंस्कृत और चिरृंजीवी बनाता है। जो प्राकृतिक है उस के अनुकूल रहकर समूचे समाज को एक समाजव्यापि संगठन में बांधा गया था। इसे वर्णाश्रम धर्म इसी लिए कहते हैं, क्यों कि इस से समाज की धारणा होती है। यह सम्पूर्ण समाज का संगठन है। आज तक विश्व के अन्य किसी भी मानव समाज ने प्रकृति सुसंगत, सर्वहितकारी ऐसा सामाजिक संगठन निर्माण नहीं किया है। एकात्मता, समग्रता और धर्म पर आधारित शिक्षण, रक्षण और पोषण की सामाजिक व्यवस्थाओं का निर्माण किया गया था। इन सब को समाज जीवन में Hes भावना को ओतप्रोत बनाकर आधार दिया गया था। साथ ही में समाज धर्म के मार्ग पर चले इस इष्टि से निरंतर चौकन्ना रहनेवाल्री धर्म व्यवस्था का भी निर्माण किया था।
कृतिपाठ
विचार कितने भी श्रेष्ठ हों जबतक वे आचरण में नहीं लाए जाते, सब व्यर्थ हैं। इस लिए जो बातें बच्चे सीख रहे हैं उन्हें आचरण में लाने की प्रेरणा देना भी आवश्यक है।
- अच्छी आदतें डालना। श्रेष्ठ परम्पराएँ चलाना।
- शारीरिक व्यायाम
- मन (विकारों) का संयम सीखना - बुद्धि का विकास (विवेक/मन का नियंत्रण)
- कौटूंबिक दायित्व के लिए सक्षम बनना - सामाजिक दायित्व के लिए सक्षम बनना
कृतिपाठ के माध्यम से पाठ्यक्रम में जो प्रस्तुत कक्षा में सीखा जा रहा है उसे जीवन में उतारने का प्रयास किया गया है।
पाठ्यक्रम की फलनिष्पत्ति
हमारी जीवनटृष्टि, जीवनशैली याने व्यवहार के सूत्र, सामाजिक संगठन ओर व्यवस्थाएं इन सबा का मिलाकर एक जीवन का प्रतिमान याने नमूना निर्माण किया था। यह पाठ्यक्रम सुखी समृद्ध, सुसंस्कृत ओर चिरंजीवी भारतीय जीवन की शिक्षा का पाठ्यक्रम है।
आयु के अनुसार पाठ्यक्रम में अपेक्षित बिन्दु
कक्षा १, २, 9 याने ६, ७, ८ ९ वर्ष की आयु के लिए: यह मुख्यतः मन के विकास का काल होता है। मन के विकास का अर्थ है - एकाग्रता, षड्विकारौ से मुक्ति, इच्छाशक्ति, कल्पनाशक्ति, सदगुणविकास, संयम आदि का विकास। मन का विकास इस आयु के उपरांत कम ही होता है। इस आयु मै कण्ठस्थीकरण की क्षमता अच्छी होती है। इस लिए कक्षा १ और २ में मौखिक परंपरा से सीखने की प्रक्रिया चलेगी। परीक्षाएँ भी मौखिक ही होंगी। कक्षा ३ से धीरे धीरे लिखने पढ़ने का और लिखित परीक्षा का विचार होगा।
१. केवल विजय, शौर्य, त्याग, तपस्या, सत्यनिष्ठा, सदाचार, सहयोग, सादगी, संयम, स्वावलंबन, स्वतन्त्रता, देशभक्ति आदि का इतिहास। सांस्कृतिक भारत का दर्शन करना। अपार विविधताओं में सांस्कृतिक एकता को समझना।
२. संस्कृति, कुटुंब, ग्राम, जनपद, प्रांत, भाषा, समाज, सामाजिक संगठन, सामाजिक व्यवस्थाएँ, देश, राष्ट्र, आन्तराष्ट्रीय संबंध आदि की जानकारी।
३. सृष्टि निर्माण की मान्यता, हिन्दू जीवनदृष्टि और व्यवहार सूत्रों की जानकारी और प्रेरणा। शाकाहार ही मानवीय आहार है, सात्विक आहार, दैवासुर गुणसंपदा, आदतें।
०८« स्वभाव के अनुसार काम करने के लाभ और मार्गदर्शन, कौटूंबिक उद्योगों का महत्व समझाना। जाति व्यवस्था, ग्रामकुल, HEA ITAA प्रणालियों की जानकारी। कौटुबिक सबध - कुटुंब भावना। भगवान शंकर का कुटुब - आदर्श कुटुंब
५ समग्र विकास की अवधारणा। खेल, व्यायाम, सूर्यनमस्कार। शरीर का महत्व समझाना।
६. धर्म की समझ। शरीरधर्म, पुत्रधर्म, पड़ोसी धर्म, उपर्युक्त सभी में धर्म का महत्व समझाना।
References
- ↑ दिलीप केलकर, भारतीय शिक्षण मंच