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दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6
 
दक्षिणायनमावृत्तो महीं निविशते रविः॥ 3-3-6
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क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।
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क्षेत्रभूते ततस्तस्मिन्नोषधीरोषधीपतिः।
 
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दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7
दिवस्तेजः समुद्धृत्य जनयामास वारिणा॥ 3-3-7
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निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।
 
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ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8
निषिक्तश्चन्द्रतेजोभिः स्वयोनौ निर्गते रविः।
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[[:Category:Moon God|''Moon God'']] [[:Category:चंद्रमा|''चंद्रमा'']] [[:Category:चंद्र देव|''चंद्र देव'']]
 
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ओषध्यः षड्रसा मेध्यास्तदन्नं प्राणिनां भुवि॥ 3-3-8
      
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।
 
एवं भानुमयं ह्यन्नं भूतानां प्राणधारणम्।
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पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9
 
पितैष सर्वभूतानां तस्मात्तं शरणं व्रज॥ 3-3-9
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राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।
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राजानो हि महात्मानो योनिकर्मविशोधिताः।
 
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उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10
उद्धरन्ति प्रजाः सर्वास्तप आस्थाय पुष्कलम्॥ 3-3-10
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भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।
 
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तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11
भीमेन कार्तवीर्येण वैन्येन नहुषेण च।
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तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।
 
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तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12
तपोयोगसमाधिस्थैरुद्धता ह्यापदः प्रजाः॥ 3-3-11
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[[:Category:Penance|''Penance'']] [[:Category:tapasya|''tapasya'']]
 
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तथा त्वमपि धर्मात्मन्कर्मणा च विशोधितः।
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तप आस्थाय धर्मेण द्विजातीन्भर भारत॥ 3-3-12
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जनमेजय उवाच
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कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।
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विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13
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वैशम्पायन उवाच
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शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।
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क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14
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धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।
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नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15
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धौम्य उवाच
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सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।
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गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16
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पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।
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सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17
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इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।
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ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18
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वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।
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धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19
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कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।
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कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20
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संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।
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पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21
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कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।
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वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22
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भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।
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स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23
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अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।
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जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24
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मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।
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धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25
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द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।
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स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26
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देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।
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चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27
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एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।
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नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28
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सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।
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वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29
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सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।
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लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30
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इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।
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विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31
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वैशम्पायन उवाच
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एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।
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विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32
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धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।
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पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33
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सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।
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योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34
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गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।
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शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35
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युधिष्ठिर उवाच
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त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।
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त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36
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त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।
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अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37
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त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।
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त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38
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त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।
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स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39
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तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।
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सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40
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त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।
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सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41
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उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।
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दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42
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गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये च मानुषाः।
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ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43
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वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।
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वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44
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सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।
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न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45
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सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।
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न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46
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ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।
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त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47
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त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।
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देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48
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त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।
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सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49
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तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।
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विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50
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न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।
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शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51
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त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।
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त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52
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तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।
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न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53
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आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।
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त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54
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यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।
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तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55
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मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।
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मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56
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संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।
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संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57
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त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।
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सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58
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कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।
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संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59
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त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।
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त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60
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त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।
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विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61
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सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।
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मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62
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दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।
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आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63
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सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।
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अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64
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न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।
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ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65
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सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।
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त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66
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त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।
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अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67
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ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।
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माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68
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क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।
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ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69
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वैशम्पायन उवाच
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एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।
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ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।
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दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70
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विवस्वानुवाच
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यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।
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अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71
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फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।
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गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।
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यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72
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फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।
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चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।
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धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥
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इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73
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वैशम्पायन उवाच
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एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74
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इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।
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तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74
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यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।
  −
 
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पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75
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विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।
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उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76
     −
आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
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जनमेजय उवाच
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कथं कुरूणामृषभः स तु राजा युधिष्ठिरः।
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विप्रार्थमाराधितवान्सूर्यमद्भुतदर्शनम्॥ 3-3-13
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वैशम्पायन उवाच
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शृणुष्वावहितो राजञ्शुचिर्भूत्वा समाहितः।
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क्षणं च कुरु राजेन्द्र सम्प्रवक्ष्याम्यशेषतः॥ 3-3-14
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धौम्येन तु यथा पूर्वं पार्थाय सुमहात्मने।
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नामाष्टशतमाख्यातं तच्छृणुष्व महामते॥ 3-3-15
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[[:Category:Sun God|''Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']]
   −
एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77
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धौम्य उवाच
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सूर्योऽर्यमा भगस्त्वष्टा पूषार्कः सविता रविः।
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गभस्तिमानजः कालो मृत्युर्धाता प्रभाकरः॥ 3-3-16
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पृथिव्यापश्च तेजश्च खं वायुश्च परायणम्।
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सोमो बृहस्पतिः शुक्रो बुधोऽङ्गारक एव च॥ 3-3-17
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इन्द्रो विवस्वान्दीप्तांशुः शुचिः शौरिः शनैश्चरः।
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ब्रह्मा विष्णुश्च रुद्रश्च स्कन्दो वै वरुणो यमः॥ 3-3-18
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वैद्युतो जाठरश्चाग्निरैन्धनस्तेजसां पतिः।
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धर्मध्वजो वेदकर्ता वेदाङ्गो वेदवाहनः॥ 3-3-19
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कृतं त्रेता द्वापरश्च कलिः सर्वमलाश्रयः।
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कला काष्ठा मुहूर्ताश्च क्षपा यामस्तथा क्षणः॥ 3-3-20
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संवत्सरकरोऽश्वत्थः कालचक्रो विभावसुः।
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पुरुषः शाश्वतो योगी व्यक्ताव्यक्तः सनातनः॥ 3-3-21
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कालाध्यक्षः प्रजाध्यक्षो विश्वकर्मा तमोनुदः।
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वरुणः सागरोंऽशुश्च जीमूतो जीवनोऽरिहा॥ 3-3-22
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भूताश्रयो भूतपतिः सर्वलोकनमस्कृतः।
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स्रष्टा संवर्तको वह्निः सर्वस्यादिरलोलुपः॥ 3-3-23
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अनन्तः कपिलो भानुः कामदः सर्वतोमुखः।
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जयो विशालो वरदः सर्वधातुनिषेचिता॥ 3-3-24
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मनःसुपर्णो भूतादिः शीघ्रगः प्राणधारकः।
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धन्वन्तरिर्धूमकेतुरादिदेवोऽदितेः सुतः॥ 3-3-25
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द्वादशात्मारविन्दाक्षः पिता माता पितामहः।
 +
स्वर्गद्वारं प्रजाद्वारं मोक्षद्वारं त्रिविष्टपम्॥ 3-3-26
 +
देहकर्ता प्रशान्तात्मा विश्वात्मा विश्वतोमुखः।
 +
चराचरात्मा सूक्ष्मात्मा मैत्रेयः करुणान्वितः॥ 3-3-27
 +
एतद्वै कीर्तनीयस्य सूर्यस्यामिततेजसः।
 +
नामाष्टशतकं चेदं प्रोक्तमेतत्स्वयंभुवा॥ 3-3-28
 +
[[:Category:108 names of Sun God|''108 names of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव|''सूर्य देव'']] [[:Category:१०८|''१०८'']]
   −
शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।
+
सुरगणपितृयक्षसेवितं ह्यसुरनिशाचरसिद्धवन्दितम्।
 +
वरकनकहुताशनप्रभं प्रणिपतितोऽस्मि हिताय भास्करम्॥ 3-3-29
 +
सूर्योदये यः सुसमाहितः पठेत्स पुत्रदारान्धनरत्नसञ्चयान्।
 +
लभेत जातिस्मरतां नरः सदा धृतिं च मेधां च स विन्दते पुमान्॥ 3-3-30
 +
इमं स्तवं देववरस्य यो नरः प्रकीर्तयेच्छुचिसुमनाः समाहितः।
 +
विमुच्यते शोकदवाग्निसागराल्लभेत कामान्मनसा यथेप्सितान्॥ 3-3-31
 +
[[:Category:Worship of Sun God|''Worship of Sun God'']] [[:Category:सूर्य देव आराधना|''सूर्य देव आराधना'']]
   −
धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78
+
वैशम्पायन उवाच
 +
एवमुक्तस्तु धौम्येन तत्कालसदृशं वचः।
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विप्रत्यागसमाधिस्थः संयतात्मा दृढव्रतः॥ 3-3-32
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धर्मराजो विशुद्धात्मा तप आतिष्ठदुत्तमम्।
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पुष्पोपहारैर्बलिभिरर्चयित्वा दिवाकरम्॥ 3-3-33
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सोऽवगाह्य जलं राजा देवस्याभिमुखोऽभवत्।
 +
योगमास्थाय धर्मात्मा वायुभक्षो जितेन्द्रियः॥ 3-3-34
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गाङ्गेयं वार्युपस्पृश्य प्राणायामेन तस्थिवान्।
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शुचिः प्रयतवाग्भूत्वा स्तोत्रमारब्धवांस्ततः॥ 3-3-35
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[[:Category:Worship|''Worship'']] [[:Category:पुजा|''पुजा'']]
   −
सङ्ग्रामे जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।
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युधिष्ठिर उवाच
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त्वं भानो जगतश्चक्षुस्त्वमात्मा सर्वदेहिनाम्।
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त्वं योनिः सर्वभूतानां त्वमाचारः क्रियावताम्॥ 3-3-36
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त्वं गतिः सर्वसांख्यानां योगिनां त्वं परायणम्।
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अनावृतार्गलद्वारं त्वं गतिस्त्वं मुमुक्षताम्॥ 3-3-37
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त्वया संधार्यते लोकस्त्वया लोकः प्रकाश्यते।
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त्वया पवित्रीक्रियते निर्व्याजं पाल्यते त्वया॥ 3-3-38
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त्वामुपस्थाय काले तु ब्राह्मणा वेदपारगाः।
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स्वशाखाविहितैर्मन्त्रैरर्चन्त्यृषिगणार्चितम्॥ 3-3-39
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तव दिव्यं रथं यान्तमनुयान्ति वरार्थिनः।
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सिद्धचारणगन्धर्वा यक्षगुह्यकपन्नगाः॥ 3-3-40
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त्रयस्त्रिंशच्च वै देवास्तथा वैमानिका गणाः।
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सोपेन्द्राः समहेन्द्राश्च त्वामिष्ट्वा सिद्धिमागताः॥ 3-3-41
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उपयान्त्यर्चयित्वा तु त्वां वै प्राप्तमनोरथाः।
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दिव्यमन्दारमालाभिस्तूर्णं विद्याधरोत्तमाः॥ 3-3-42
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गुह्याः पितृगणाः सप्त ये दिव्या ये मानुषाः।
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ते पूजयित्वा त्वामेव गच्छन्त्याशु प्रधानताम्॥ 3-3-43
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वसवो मरुतो रुद्रा ये च साध्या मरीचिपाः।
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वालखिल्यादयः सिद्धाः श्रेष्ठत्वं प्राणिनां गताः॥ 3-3-44
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सब्रह्मकेषु लोकेषु सप्तस्वप्यखिलेषु च।
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न तद्भूतमहं मन्ये यदर्कादतिरिच्यते॥ 3-3-45
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सन्ति चान्यानि सत्त्वानि वीर्यवन्ति महान्ति च।
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न तु तेषां तथा दीप्तिः प्रभावो वा यथा तव॥ 3-3-46
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ज्योतींषि त्वयि सर्वाणि त्वं सर्वज्योतिषां पतिः।
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त्वयि सत्यं च सत्त्वं च सर्वे भावाश्च सात्त्विकाः॥ 3-3-47
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त्वत्तेजसा कृतं चक्रं सुनाभं विश्वकर्मणा।
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देवारीणां मदो येन नाशितः शार्ङ्गधन्वना॥ 3-3-48
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त्वमादायांशुभिस्तेजो निदाघे सर्वदेहिनाम्।
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सर्वौषधिरसानां च पुनर्वर्षासु मुञ्चसि॥ 3-3-49
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तपन्त्यन्ये दहन्त्यन्ये गर्जन्त्यन्ये तथा घनाः।
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विद्योतन्ते प्रवर्षन्ति तव प्रावृषि रश्मयः॥ 3-3-50
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न तथा सुखयत्यग्निर्न प्रावारा न कम्बलाः।
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शीतवातार्दितं लोकं यथा तव मरीचयः॥ 3-3-51
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त्रयोदशद्वीपवतीं गोभिर्भासयसे महीम्।
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त्रयाणामपि लोकानां हितायैकः प्रवर्तसे॥ 3-3-52
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तव यद्युदयो न स्यादन्धं जगदिदं भवेत्।
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न च धर्मार्थकामेषु प्रवर्तेरन्मनीषिणः॥ 3-3-53
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आधानपशुबन्धेष्टिमन्त्रयज्ञतपःक्रियाः।
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त्वत्प्रसादादवाप्यन्ते ब्रह्मक्षत्रविशां गणैः॥ 3-3-54
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यदहर्ब्रह्मणः प्रोक्तं सहस्रयुगसम्मितम्।
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तस्य त्वमादिरन्तश्च कालज्ञैः परिकीर्तितः॥ 3-3-55
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मनूनां मनुपुत्राणां जगतोऽमानवस्य च।
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मन्वन्तराणां सर्वेषामीश्वराणां त्वमीश्वरः॥ 3-3-56
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संहारकाले सम्प्राप्ते तव क्रोधविनिःसृतः।
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संवर्तकाग्निस्त्रैलोक्यं भस्मीकृत्यावतिष्ठते॥ 3-3-57
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त्वद्दीधितिसमुत्पन्ना नानावर्णा महाघनाः।
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सैरावताः साशनयः कुर्वन्त्याभूतसम्प्लवम्॥ 3-3-58
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कृत्वा द्वादशधाऽऽत्मानं द्वादशादित्यतां गतः।
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संहृत्यैकार्णवं सर्वं त्वं शोषयसि रश्मिभिः॥ 3-3-59
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त्वामिन्द्रमाहुस्त्वं रुद्रस्त्वं विष्णुस्त्वं प्रजापतिः।
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त्वमग्निस्त्वं मनः सूक्ष्मं प्रभुस्त्वं ब्रह्म शाश्वतम्॥ 3-3-60
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त्वं हंसः सविता भानुरंशुमाली वृषाकपिः।
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विवस्वान्मिहिरः पूषा मित्रो धर्मस्तथैव च॥ 3-3-61
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सहस्ररश्मिरादित्यस्तपनस्त्वं गवाम्पतिः।
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मार्तण्डोऽर्को रविः सूर्यः शरण्यो दिनकृत्तथा॥ 3-3-62
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दिवाकरः सप्तसप्तिर्धामकेशी विरोचनः।
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आशुगामी तमोघ्नश्च हरिताश्वश्च कीर्त्यसे॥ 3-3-63
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सप्तम्यामथवा षष्ठ्यां भक्त्या पूजां करोति यः।
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अनिर्विण्णोऽनहङ्कारी तं लक्ष्मीर्भजते नरम्॥ 3-3-64
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न तेषामापदः सन्ति नाधयो व्याधयस्तथा।
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ये तवानन्यमनसः कुर्वन्त्यर्चनवन्दनम्॥ 3-3-65
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सर्वरोगैर्विरहिताः सर्वपापविवर्जिताः।
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त्वद्भावभक्ताः सुखिनो भवन्ति चिरजीविनः॥ 3-3-66
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त्वं ममाप्यन्नकामस्य सर्वातिथ्यं चिकीर्षतः।
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अन्नमन्नपते दातुमभितः श्रद्धयार्हसि॥ 3-3-67
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ये च तेऽनुचराः सर्वे पादोपान्तं समाश्रिताः।
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माठरारुणदण्डाद्यास्तांस्तान्वन्देऽशनिक्षुभान्॥ 3-3-68
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क्षुभया सहिता मैत्री याश्चान्या भूतमातरः।
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ताश्च सर्वा नमस्यामि पान्तु मां शरणागतम्॥ 3-3-69
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वैशम्पायन उवाच
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एवं स्तुतो महाराज भास्करो लोकभावनः।
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ततो दिवाकरः प्रीतो दर्शयामास पाण्डवम्।
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दीप्यमानः स्ववपुषा ज्वलन्निव हुताशनः॥ 3-3-70
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मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79
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विवस्वानुवाच
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यत्तेऽभिलषितं किञ्चित्तत्त्वं सर्वमवाप्स्यसि।
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अहमन्नं प्रदास्यामि सप्त पञ्च च ते समाः॥ 3-3-71
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फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।
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गृह्णीष्व पिठरं ताम्रं मया दत्त नराधिप।
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यावद्वर्त्स्यति पाञ्चाली पात्रेणानेन सुव्रत॥ 3-3-72
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फलमूलामिषं शाकं संस्कृतं यन्महानसे।
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चतुर्विधं तदन्नाद्यमक्षय्यं ते भविष्यति।
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धनं च विविधं तुभ्यमित्युक्त्वान्तरधीयत॥
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इतश्चतुर्दशे वर्षे भूयो राज्यमवाप्स्यसि॥ 3-3-73
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वैशम्पायन उवाच
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वैशम्पायन उवाच
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एवमुक्त्वा तु भगवांस्तत्रैवान्तरधीयत॥ 3-3-74
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इमं स्तवं प्रयतमनाः समाधिना पठेदिहान्योऽपि वरं समर्थयन्।
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तत्तस्य दद्याच्च रविर्मनीषितं तदाप्नुयाद्यद्यपि तत्सुदुर्लभम्॥ 3-3-74
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यश्चेदं धारयेन्नित्यं शृणुयाद्वाप्यभीक्ष्णशः।
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पुत्रार्थी लभते पुत्रं धनार्थी लभते धनम्॥ 3-3-75
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विद्यार्थी लभते विद्यां पुरुषोऽप्यथवा स्त्रियः।
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उभे सन्ध्ये पठेन्नित्यं नारी वा पुरुषो यदि॥ 3-3-76
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आपदं प्राप्य मुच्येत बद्धो मुच्येत बन्धनात्।
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एतद्ब्रह्मा ददौ पूर्वं शक्राय सुमहात्मने॥ 3-3-77
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शक्राच्च नारदः प्राप्तो धौम्यस्तु तदनन्तरम्।
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धौम्याद्युधिष्ठिरः प्राप्य सर्वान्कामानवाप्तवान्॥ 3-3-78
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सङ्ग्रामे च जयेन्नित्यं विपुलं चाप्नुयाद्वसु।
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मुच्यते सर्वपापेभ्यः सूर्यलोकं स गच्छति॥ 3-3-79
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वैशम्पायन उवाच
 
  लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।
 
  लब्ध्वा वरं तु कौन्तेयो जलादुत्तीर्य धर्मवित्।
 
  जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80
 
  जग्राह पादौ धौम्यस्य भ्रातॄंश्च परिषस्वजे॥ 3-3-80
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