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| उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं। | | उपर्युक्त योगों में वैधृति एवं व्यतीपात विवाह आदि शुभकर्मों में त्याज्य हैं। |
− | ===योगों के स्वामी ===
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| + | '''योगों के स्वामी''' |
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| नारदसंहिता में इन योगों के अधिपतियों का वर्णन महर्षि नारद जी ने निम्नलिखित प्रकार से किया है - <blockquote>योगेशा यमविष्ण्विन्दु धातृजीवनिशाकराः। इन्द्रतोयाहिवह्न्यर्क यमरुद्रुद्रऽतोयपाः॥गणेशरुद्रधनदत्वष्ट्रमित्र-षडाननाः। सावित्री कमला गौरी नासत्यौ पितरोऽदिति॥(नार०सं०)</blockquote>अर्थात् विष्कुम्भादि योगों में क्रमशः योगों के अधिपति यम, विष्णु, चन्द्र, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, इन्द्र, जल, सर्प, अग्नि, , सूर्य, भूमि, वायु, भग, वरुण, गणेश, रुद्र, कुबेर, विश्वकर्मा, मित्र, कार्तिकेय, सावित्री। लक्ष्मी, पार्वती, अश्विनी, पितर और दिति होते हैं। विष्कुम्भादि 27 योग एवं योगस्वामियों को इस सारणी के द्वारा भी समझा जा सकता है - | | नारदसंहिता में इन योगों के अधिपतियों का वर्णन महर्षि नारद जी ने निम्नलिखित प्रकार से किया है - <blockquote>योगेशा यमविष्ण्विन्दु धातृजीवनिशाकराः। इन्द्रतोयाहिवह्न्यर्क यमरुद्रुद्रऽतोयपाः॥गणेशरुद्रधनदत्वष्ट्रमित्र-षडाननाः। सावित्री कमला गौरी नासत्यौ पितरोऽदिति॥(नार०सं०)</blockquote>अर्थात् विष्कुम्भादि योगों में क्रमशः योगों के अधिपति यम, विष्णु, चन्द्र, ब्रह्मा, बृहस्पति, चन्द्रमा, इन्द्र, जल, सर्प, अग्नि, , सूर्य, भूमि, वायु, भग, वरुण, गणेश, रुद्र, कुबेर, विश्वकर्मा, मित्र, कार्तिकेय, सावित्री। लक्ष्मी, पार्वती, अश्विनी, पितर और दिति होते हैं। विष्कुम्भादि 27 योग एवं योगस्वामियों को इस सारणी के द्वारा भी समझा जा सकता है - |
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− | ===विष्कुम्भादि योग===
| + | '''विष्कुम्भादि योग'''<blockquote>यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)<ref name=":1">पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।</ref></blockquote>जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे विष्कुम्भादि योग जानिये। |
− | <blockquote>यस्मिनृक्षे स्थितो भानुर्यत्र तिष्ठति चन्द्रमा। एकीकृत्य त्यजेदेकं योगाः विष्कुम्भकादयः॥(बृह०अव०)<ref name=":1">पं०मदन गोपाल बाजपेयी, बृहदवकहडा चक्रम् ,सन् १९९८ वाराणसीः भारतीय विद्या प्रकाशन श्लो०९ (पृ०१़९)।</ref></blockquote>जिस नक्षत्र पर सूर्य हो और जिस नक्षत्र पर चन्द्रमा हो उन दोनों के नक्षत्र की संख्याओं को जोडकर एक घटायें , जो शेष बचे उसे विष्कुम्भादि योग जानिये। | |
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| ===आनन्दादि योग=== | | ===आनन्दादि योग=== |
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− | आनन्दादि योग - वार और नक्षत्र के समाहार से तात्कालिक आनन्दादि २८ योगों का प्रादुर्भाव होता है। इन योगों को ज्ञात करने के हेतु वार विशेष को निर्दिष्ट नक्षत्र से विद्यमान नक्षत्र तक साभिजित् गणना की जाती है। इनके साधन हेतु रामदैवज्ञ जी ने मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण में लिखा है कि - <blockquote>दास्त्रादर्के मृगादिन्दौ सार्पाद्भौमे कराद्बुधे। मैत्राद्गुरौ भृगौ वैश्वाद्गण्या मन्दे च वारुणात्॥(मुहू० चिन्ता०) </blockquote>अर्थात् आनन्दादि योगों का ज्ञान करने के लिये रविवार को अश्विनी से, सोमवार को भरणी से, मंगल को आश्लेषा से, बुध को हस्त से, गुरू को अनुराधा से, शुक्र को उत्तराषाढा से तथा शनिवार को शतभिषा से और उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना पर प्राप्त नक्षत्र की संख्या को ही उस दिन के वर्तमान आनन्दादि योग का क्रमांक जानना चाहिये। आनन्दादि योगों को सारणी के अनुसार जान सकते हैं - | + | आनन्दादि योग - वार और नक्षत्र के समाहार से तात्कालिक आनन्दादि २८ योगों का प्रादुर्भाव होता है। इन योगों को ज्ञात करने के हेतु वार विशेष को निर्दिष्ट नक्षत्र से विद्यमान नक्षत्र तक साभिजित् गणना की जाती है। इनके साधन हेतु रामदैवज्ञ जी ने मुहूर्तचिन्तामणि के शुभाशुभ प्रकरण में लिखा है कि - <blockquote>दास्त्रादर्के मृगादिन्दौ सार्पाद्भौमे कराद्बुधे। मैत्राद्गुरौ भृगौ वैश्वाद्गण्या मन्दे च वारुणात्॥(मुहू० चिन्ता०) </blockquote>अर्थात् आनन्दादि योगों का ज्ञान करने के लिये रविवार को अश्विनी से, सोमवार को भरणी से, मंगल को आश्लेषा से, बुध को हस्त से, गुरू को अनुराधा से, शुक्र को उत्तराषाढा से तथा शनिवार को शतभिषा से और उस दिन के चन्द्र नक्षत्र तक गणना पर प्राप्त नक्षत्र की संख्या को ही उस दिन के वर्तमान आनन्दादि योग का क्रमांक जानना चाहिये। <blockquote>आनन्दः कालदण्डश्च धूम्रो धाताऽथ पञ्चमः। सौम्यो ध्वाङ्क्षोऽपि केतुश्च श्रीवत्सो वज्रमुद्गरौ॥ |
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| + | छत्रं मित्रं मानसञ्च पद्मलुम्बौ ततः क्रमात्। उत्पातमृत्युकालाश्च सिद्धिश्चापि शुभोऽमृतः॥ |
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| + | मुसलं गदमातङौ राक्षसश्च चरः स्थिरः। प्रवर्धमान इत्येते योगा नामसदृक् फलाः॥<ref>पं० श्रीदेवचन्द्र झा, [https://ia601009.us.archive.org/7/items/vyavaharikjyotishsarvasvampt.devchandrajha/Vyavaharik%20Jyotish%20Sarvasvam%20-%20Pt.%20Dev%20Chandra%20Jha.pdf व्यावहारिकं ज्यौतिषसर्वस्वम्] , सन् १९९५, चौखम्बा संस्कृत प्रतिष्ठान (पृ० १०)।</ref> </blockquote>'''अर्थ-''' आनन्द, कालदण्ड, धूम्र, धाता, सौम्य, ध्वांक्ष, केतु, श्रीवत्स, वज्र, मुद्गर, छत्र, मित्र, मानस, पद्म, लुम्ब, उत्पात, मृत्यु, काल, सिद्धि, शुभ, अमृत, मुसल, गद, मातंग, राक्षस, चर, स्थिर तथा प्रवर्धमान। ये आनन्दादि योग भी नामसदृश फलदायक हैं। तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण रूप पञ्चांग में योग का भी स्थान है। योग द्विविध हैं। विष्कुम्भादि योग तथा आनन्दादि योग। पञ्चाङ्गान्तर्गत विष्कुम्भादि योग ग्राह्य हैं तथा आनन्दादि योग यात्रादि में विचारणीय हैं। आनन्दादि योगों को सारणी के अनुसार जान सकते हैं - |
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| |+(सुगमता पूर्वक आनन्दादि योगों को जानने के लिये सारिणी)<ref name=":0" /> | | |+(सुगमता पूर्वक आनन्दादि योगों को जानने के लिये सारिणी)<ref name=":0" /> |
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| |अनुराधा | | |अनुराधा |
| |उ०षाढा | | |उ०षाढा |
− | |शतभिषा | + | | शतभिषा |
| |अश्विनी | | |अश्विनी |
| |मृगशिरा | | |मृगशिरा |
Line 444: |
Line 450: |
| |कृत्तिका | | |कृत्तिका |
| |पुनर्वसु | | |पुनर्वसु |
− | |पू०फाल्गु | + | | पू०फाल्गु |
| |स्वाती | | |स्वाती |
| |- | | |- |
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| |पूर्वाषाढा | | |पूर्वाषाढा |
| |धनिष्ठा | | |धनिष्ठा |
− | |रेवती | + | | रेवती |
| |रोहिणी | | |रोहिणी |
| |पुष्य | | |पुष्य |
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Line 486: |
| |ज्येष्ठा | | |ज्येष्ठा |
| |- | | |- |
− | | 23 | + | |23 |
| |गद | | |गद |
| |अशुभ | | |अशुभ |
| |श्रवण | | |श्रवण |
− | | उत्तराभाद्रपदा | + | |उत्तराभाद्रपदा |
| |कृत्तिका | | |कृत्तिका |
| |पुनर्वसु | | |पुनर्वसु |
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| |मूल | | |मूल |
| |- | | |- |
− | | 24 | + | |24 |
− | |मातंग | + | | मातंग |
| |शुभ | | |शुभ |
| |धनिष्ठा | | |धनिष्ठा |
− | | रेवती | + | |रेवती |
− | | रोहिणी | + | |रोहिणी |
− | |पुष्य | + | | पुष्य |
| |उ०फाल्गु | | |उ०फाल्गु |
| |विशाखा | | |विशाखा |
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| |शतभिषा | | |शतभिषा |
| |अश्विनी | | |अश्विनी |
− | |मृगशिरा | + | | मृगशिरा |
| |आश्लेषा | | |आश्लेषा |
| |हस्त | | |हस्त |
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| |- | | |- |
| |26 | | |26 |
− | | चर | + | |चर |
| |शुभ | | |शुभ |
| |पूर्वाभाद्रपदा | | |पूर्वाभाद्रपदा |
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| |- | | |- |
| |28 | | |28 |
− | |प्रवर्धमान | + | | प्रवर्धमान |
| |शुभ | | |शुभ |
| |रेवती | | |रेवती |
Line 551: |
Line 557: |
| | | |
| सैद्धान्तिक दृष्टि से किसी भी योग की क्षय या वृद्धि नहीं होती अपितु भारतीय काल गणना परम्परा में अनेक कालमानों के समवेत व्यवहार के कारण अधिकमास। क्षयमास तथा तिथि, नक्षत्रों की ह्रास-वृद्धि की तरह ही योगों के ह्रास-वृद्धि की आभासिक स्थिति उत्पन्न होती है। | | सैद्धान्तिक दृष्टि से किसी भी योग की क्षय या वृद्धि नहीं होती अपितु भारतीय काल गणना परम्परा में अनेक कालमानों के समवेत व्यवहार के कारण अधिकमास। क्षयमास तथा तिथि, नक्षत्रों की ह्रास-वृद्धि की तरह ही योगों के ह्रास-वृद्धि की आभासिक स्थिति उत्पन्न होती है। |
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| पंचांगों सहित प्रायोगिक जीवन में योगों की क्षय वृद्धि का विषय वास्तविक स्थिति के ज्ञान हेतु हमें प्रेरित करता है। अतः हम यहां योगों के क्षय-वृद्धि स्वरूप को देखते हैं - | | पंचांगों सहित प्रायोगिक जीवन में योगों की क्षय वृद्धि का विषय वास्तविक स्थिति के ज्ञान हेतु हमें प्रेरित करता है। अतः हम यहां योगों के क्षय-वृद्धि स्वरूप को देखते हैं - |
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| ==विचार-विमर्श== | | ==विचार-विमर्श== |
− | ज्योतिषशास्त्र में तिथि, वार एवं नक्षत्र की तरह योगों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। परन्तु योगों की परिकल्पना अपेक्षाकृत तिथि आदि से दुरूह थी। क्योंकि चन्द्र-सूर्य का अन्तरात्मक मान तिथि है किन्तु संयोगात्मक मान योग का निर्माण करता है। | + | ज्योतिषशास्त्र में तिथि, वार एवं नक्षत्र की तरह योगों का भी महत्वपूर्ण स्थान है। परन्तु योगों की परिकल्पना अपेक्षाकृत तिथि आदि से दुरूह थी। क्योंकि चन्द्र-सूर्य का अन्तरात्मक मान तिथि है किन्तु संयोगात्मक मान योग का निर्माण करता है। पञ्चांग के प्रसंग में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से दो प्रकार के योगों की मुख्यतया उपलब्धि होती है जिनमें आनन्दादि योग नक्षत्र और वारों के संयोग से वहीं विष्कुम्भादि योग सूर्य-चन्द्रमा के स्पष्ट मानों की युति से परिभाषित होते हैं। |
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− | पञ्चांग के प्रसंग में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से दो प्रकार के योगों की मुख्यतया उपलब्धि होती है जिनमें आनन्दादि योग नक्षत्र और वारों के संयोग से वहीं विष्कुम्भादि योग सूर्य-चन्द्रमा के स्पष्ट मानों की युति से परिभाषित होते हैं। | |
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| भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत सैद्धांतिक प्रक्रिया में योगों का कोई स्थान या उपयोगिता नहीं है फिर भी संहिता, मुहूर्त एवं फलित की उपयोगिता की दृष्टि से प्रायः प्रत्येक सिद्धांत ग्रन्थों के स्पष्टाधिकार में पञ्चांग साधन के अंतर्गत योग साधन की स्पष्ट विधि वर्णित है। योग अपने नाम एवं गुण के अनुरूप मुहूर्त और फलादेश में शुभाशुभत्व को प्रभावित करते हैं। इसीलिये योगों की उपादेयता का वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भारतीय ज्योतिष में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से योग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। जिनमें विष्कुम्भादि योग चल एवं आनन्दादि योग स्थिर होते हैं। पञ्चांग के अन्तर्गत विष्कुम्भादि योगों का ही ग्रहण किया जाता है। जो सूर्य एवं चन्द्रमा के स्पष्ट योग पर आधारित है। | | भारतीय ज्योतिष शास्त्र के अंतर्गत सैद्धांतिक प्रक्रिया में योगों का कोई स्थान या उपयोगिता नहीं है फिर भी संहिता, मुहूर्त एवं फलित की उपयोगिता की दृष्टि से प्रायः प्रत्येक सिद्धांत ग्रन्थों के स्पष्टाधिकार में पञ्चांग साधन के अंतर्गत योग साधन की स्पष्ट विधि वर्णित है। योग अपने नाम एवं गुण के अनुरूप मुहूर्त और फलादेश में शुभाशुभत्व को प्रभावित करते हैं। इसीलिये योगों की उपादेयता का वर्णन अनेक ग्रन्थों में प्राप्त होता है। भारतीय ज्योतिष में आनन्दादि एवं विष्कुम्भादि भेद से योग मुख्यतः दो प्रकार के होते हैं। जिनमें विष्कुम्भादि योग चल एवं आनन्दादि योग स्थिर होते हैं। पञ्चांग के अन्तर्गत विष्कुम्भादि योगों का ही ग्रहण किया जाता है। जो सूर्य एवं चन्द्रमा के स्पष्ट योग पर आधारित है। |