Difference between revisions of "Vrishti Vijnan in Jyotisha (ज्योतिष में वृष्टि विज्ञान)"

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'''चन्द्र नक्षत्र से वृष्टिज्ञान-''' रोहिणी निवास सिद्धान्त के अनुसार जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, उस समय चन्द्र अधिष्ठित नक्षत्र से, नक्षत्रों की गणना रोहिणी तक करनी चाहिए। १, २, ८, ९, १५, १६, २२ या २३ हो  तो रोहिणी का वास समुद्र में माना जाता है जो वर्षा की अधिकता की संसूचक है।
 
'''चन्द्र नक्षत्र से वृष्टिज्ञान-''' रोहिणी निवास सिद्धान्त के अनुसार जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, उस समय चन्द्र अधिष्ठित नक्षत्र से, नक्षत्रों की गणना रोहिणी तक करनी चाहिए। १, २, ८, ९, १५, १६, २२ या २३ हो  तो रोहिणी का वास समुद्र में माना जाता है जो वर्षा की अधिकता की संसूचक है।
  
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'''नाडीचक्रों से वृष्टिज्ञान -''' कुछ सिद्धान्तों के अनुसार २८ नक्षत्रों को २ नाडी चक्रों में विभक्त किया जा सकता है इसे द्विनाडी चक्र कहते  हैं। तीन नाडी चक्र में विभक्त होने पर त्रिनाडी चक्र, सात भागों में विभक्त होने पर सप्त नाडी चक्र कहा जाता है। तब नक्षत्रों के सापेक्ष सूर्य व चन्द्र की स्थितियों का निरीक्षण करके वर्षा का पूर्वानुमान किया जाता है। 
  
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'''दशतपा से वृष्टिज्ञान -''' दशातपा सिद्धान्त के अनुसार ज्येष्ठ अमावस्या से आषाढ शुक्ल दशमी तक के १० चान्द्रदिवसों के आधार पर ही आषाढ, श्रावण, भाद्रपद एवं आश्विन इन चार वर्षाकाल के मासों में वर्षायोग का ज्ञान होता है।
  
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निमित्त परीक्षण सिद्धान्त के अनुसार दीर्घावधि, मध्यमावधि एवं अल्पावधि वृष्टिज्ञान के निम्न आधार हैं-
 
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इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष की गणना के पश्चात् वृष्टिज्ञान में निम्नलिखित तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस आधार पर किसी भी वर्ष की सम्पूर्ण गणितीय प्रक्रिया पूर्ण कर वृष्टि का पूर्वानुमान कभी किया जा सकता है।  
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इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष की गणना के पश्चात् वृष्टिज्ञान में निम्नलिखित तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस आधार पर किसी भी वर्ष की सम्पूर्ण गणितीय प्रक्रिया पूर्ण कर वृष्टि का पूर्वानुमान कभी किया जा सकता है। दीर्घावधि पूर्वानुमान के लिये यह विधि सर्वाधिक सहायक है।
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==मानव जीवन में वृष्टि का प्रभाव==
 
==मानव जीवन में वृष्टि का प्रभाव==

Revision as of 09:30, 8 August 2023

भारतीय ज्योतिषशास्त्र की ऋतु-विज्ञान शाखा में भावी वृष्टि, अल्पवृष्टि, अतिवृष्टि, आँधी, तूफान और दुर्दिन आदि के परिज्ञान के लिये अनेकानेक विधियाँ वर्णित हैं। मानव का प्राण अन्न में ही है और अन्न की उत्पत्ति या नाश वृष्टि या वर्षा के अधीन है। वृष्टि सम्पूर्ण चराचर प्राणियों के लिये उनके जीवन का मूलाधार है। वृष्टि से ही जल की आपूर्ति होती है एवं जल का सम्पूर्ण सृष्टि के लिये अत्यधिक महत्व है। वृष्टि, अतिवृष्टि और अनावृष्टि आदि का पूर्वानुमान रूप परिज्ञान ज्योतिषशास्त्र के द्वारा किया जा सकता है। प्राचीन खगोलवेत्ता ऋषि-मुनि जिनके पास आज की तरह न तो विकसित वेधशालाएँ थीं और न ये आधुनिकतम सूक्ष्म परिणाम देने वाले वैज्ञानिक उपकरण, फिर भी अपने अनुभव तथा अतीन्द्रिय ज्ञान और छोटे-मोटे उपकरणों (बाँस - नलिकाओं आदि) के सहारे वे आकाशीय ग्रह-नक्षत्रों आदिका अध्ययन करके मौसम का वर्षों पूर्व ही पूर्वानुमान कर लेते थे।

परिचय

भारत कृषि-प्रधान देश है। यहाँ की ऋतुओं में कृषि की दृष्टि से वर्षा ऋतु अधिक उपयोगी मानी जाती है। कब जल वृष्टि होगी, कब नहीं इसका ज्ञान होने पर ही किसान कृषि कार्यों के सम्बन्ध में अधिक सतर्क रह सकते हैं। ऋतुओं के दैनन्दिन पर्यवेक्षण से आगामी वर्षा का अधिकांश ज्ञान सम्भव है। भारतीय आचार्यों ने ऋतु सम्बन्धी वर्षा, वायु, मेघ और आकाशीय विद्युत आदि के विषय में अनुसन्धान करके अपने अनुभवों को लिपिबद्ध किया है। ज्योतिषशास्त्रीय ग्रन्थों में जैसे- बृहत् संहिता, मेघमाला और बृहद्दैवज्ञ रंजन आदि में वह संग्रह रूप में भी उपलब्ध है।[1]

रामायण, महाभारत, पुराणों विशेषकर वायुपुराण, ब्रह्मपुराण , विष्णुपुराण , मत्स्यपुराण एवं अग्निपुराण में मेघों द्वारा होने वाली वर्षा का विस्तृत वर्णन उपलब्ध है। ज्योतिषशास्त्र में संहिता ग्रन्थों में बृहत्संहिता, भद्रबाहुसंहिता, नारद संहिता, मेघमाला, प्राच्य भारतीयम् , ऋतुविज्ञानम् , कृषिपाराशर, कादम्बिनी, आर्षवर्षावायुविज्ञानम् , अद्भुतसागर, मयूरचित्रम् , बृहद्दैवज्ञरञ्जन, वृष्टिप्रबोध आदि में मेघ निर्माण , मेघों का वर्गीकरण एवं मेघों द्वारा होने वाली वर्षा का विशेष वर्णन प्राप्त होता है[2]

परिभाषा

मेघाज्जलबिन्दुपतनम् वृष्टिः।(शब्दकल्पद्रुम)

मानव जीवन में वृष्टि ज्ञान का महत्व

जिस वस्तु के द्वारा हम सब प्रभावित होते हैं वह वस्तु हम सब के लिये महत्वपूर्ण होती है। जैसे वृष्टि हम सब को इस प्रकार प्रभावित करती है कि जल के विना हम सब का जीवन ही सम्भव नहीं है। वृष्टिज्ञान के द्वारा हम सब स्वयं का जीवन व्यवस्थित रूप से निर्वहन करने में समर्थ होते हैं- जैसा कि तैत्तिरीय संहिता में कहा गया है-

अग्निर्वा इतो वृष्टिमुदीरयति मरुतः सृष्टां नायन्ति।(तै०सं० ७/५/२)

वृष्टिमूला कृषिः सर्वा वृष्टिमूलं च जीवनम्। तस्मादादौ प्रयत्नेन वृष्टिज्ञानं समाचरेत् ॥(कृषिपाराशरः अध्यायः-२/वृष्टिखण्ड श्लोक- १)

पराशर जी का कथन है- सम्पूर्ण कृषि का मूल कारण वृष्टि है एवं वृष्टि ही जीवन का भी मूल है, अतएव प्रारम्भ में प्रयत्नपूर्वक वृष्टि का ज्ञान करना चाहिये।[3]

  1. कहावतों द्वारा वर्षा ज्ञान
  2. ग्रहों के परस्पर युद्ध से
  3. वायु परीक्षा द्वारा
  4. अनावृष्टि योग
  5. अतिवृष्टि योग

वृष्टि के आधार

वृष्टि का पूर्वानुमान करने की अनेक विधियाँ हैं जिनको हम दो विभागों में विभक्त कर सकते हैं शास्त्रीय एवं आधुनिक। शास्त्रीय अर्थात् हमारे देश में प्राचीन ग्रन्थों, लोकोक्तियों आदि द्वारा वर्षाज्ञान की परम्परागत विधि जिसमें बिना किसी महंगे सामान की सहायता के ही पंचांगादिकों के द्वारा वृष्टि का पूर्वानुमान किया जाता है। यह भारतीय मनीषियों की स्वयं अन्वेषण प्रक्रिया द्वारा प्राप्त की हुई विद्या है। आधुनिक अर्थात् सम्प्रति वैज्ञानिकों द्वारा कृत्रिम उपग्रहादि महंगे उपकरणों की सहायता से वर्षा का पूर्वानुमान करने की विधि का नाम है। जो अत्यंत व्ययसाध्य होने के कारण बडे प्रतिष्ठानों द्वारा ही संभव है। यहाँ दोनों विधियों के द्वारा प्रायोगिक परिशीलन प्रस्तुत किया जा रहा है।

वृष्टि ज्ञान के शास्त्रीय आधार

परम्परागत वृष्टिविज्ञान के अनुसार वर्षासम्भव ज्ञान के दो आधार हैं-

  1. निमित्त परीक्षण विधि।
  2. गणितीय सैद्धान्तिक विधि।

निमित्त परीक्षण विधि

इस विधि से वर्षा ज्ञान के लिये निम्न तथ्यों का समय-समय पर निरीक्षण करते रहने से वृष्टिज्ञान की महत्त्वपूर्ण जानकारी उपलब्ध होती है।

  1. वातावरणीय परिवर्तन - तापमान, वायुदाब एवं वायु दिशा, आर्द्रता आदि वातावरणीय परिवर्तन के सामान्य निरीक्षण निरीक्षण द्वारा वर्षा का पूर्वानुमान किया जा सकता है।
  2. जैविक हलचल - वातावरण में कोई भी परिवर्तन होने पर जीवजन्तुओं के व्यवहार में परिवर्तन होने लगता है। पशु पक्षी अपने व्यवहार से मौसम परिवर्तन एवं वर्षा आदि का पूर्वानुमान हमें प्रदान करते हैं।पशु, पक्षी, कीट, पतंग, पेड पौधे, मछलियाँ आदि जैविक प्राणियों के व्यवहार से परिवर्तन का निरीक्षण करने पर हमें वर्षा का ज्ञान हो जाता है। उदाहरण के लिये जैसे- गर्मियों के मौसम में अधिक आर्द्रता(उमस) होने पर चिडियाँ मिट्टी को खोद कर उसमें लोटने लगती है जो घटना शीघ्र ही वर्षा होने की सूचना प्रदान करती हैं।
  3. रासायनिक परिवर्तन - वातावरण में अनुभव होने वाले रासायनिक परिवर्तन भी वर्षा होने की सूचना हमें दे देते हैं। कुछ जैविक और अकार्बनिक रासायन यौगिक मिलकर वातावरण में फैल जाते हैं जिनसे हमें वर्षा का ज्ञान हो सकता है। उदाहरण के लिये जब चारों दिशाओं में धुन्ध से भरा हुआ वातावरण हो तो शीघ्र ही वर्षा होने की सम्भावना बनती है।
  4. भौतिक परिवर्तन - सूर्य, चन्द्र आदि के चारों ओर दिखाई देने वाला भौतिक परिवर्तन वस्तुतः वातावरण के कारण होता है। उदाहरण के लिये - जब हमें चन्द्रमा के चारों ओर मुर्गे की आँख के रंग की भाँति हल्का पीला प्रभामण्डल (परिवेश) दिखाई देता है, तो यह शीघ्र वर्षा होने का सूचक है।
  5. आकाशीय परिवर्तन - मेघों की आकृति, बिजली चमकना, आंधी-तूफान, कुहरा-धुन्ध, बादलों की गडगडाहट, इन्द्रधनुष आदि भी शीघ्र वर्षा होने की सूचना देते हैं।

गणितीय सैद्धान्तिक विधि

भारतीय परम्परा में वर्षा ज्ञान की कई सैद्धान्तिक पद्धतियाँ हैं जो सामान्य गणितीय प्रक्रिया या पंचांग के द्वारा आसानी से वर्षा सम्भव ज्ञान करा देती हैं।

ग्रह नक्षत्र से वृष्टि ज्ञान - ग्रहों की आकाशीय स्थिति एवं ग्रह-नक्षत्रों के परस्पर संयुति से भी वर्षा के योग एवं आधार बनते हैं। जैसे- बुध या शुक्र वक्रगामी होते हैं तो वर्षा की कम सम्भावना बनती है और जब शनि एवं मंगल, धनिष्ठा नक्षत्र में स्थित हो तो कोई सम्भावना नहीं बनती है।

सूर्य संक्रमण से वृष्टिज्ञान- सौर संक्रान्ति एवं सौरमास के कुछ विशिष्ट दिवसों के अध्ययन से दीर्घकालीन या तात्कालीन वर्षा की भविष्यवाणी की जा सकती है।

चन्द्र नक्षत्र से वृष्टिज्ञान- रोहिणी निवास सिद्धान्त के अनुसार जब सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है, उस समय चन्द्र अधिष्ठित नक्षत्र से, नक्षत्रों की गणना रोहिणी तक करनी चाहिए। १, २, ८, ९, १५, १६, २२ या २३ हो तो रोहिणी का वास समुद्र में माना जाता है जो वर्षा की अधिकता की संसूचक है।

नाडीचक्रों से वृष्टिज्ञान - कुछ सिद्धान्तों के अनुसार २८ नक्षत्रों को २ नाडी चक्रों में विभक्त किया जा सकता है इसे द्विनाडी चक्र कहते हैं। तीन नाडी चक्र में विभक्त होने पर त्रिनाडी चक्र, सात भागों में विभक्त होने पर सप्त नाडी चक्र कहा जाता है। तब नक्षत्रों के सापेक्ष सूर्य व चन्द्र की स्थितियों का निरीक्षण करके वर्षा का पूर्वानुमान किया जाता है।

दशतपा से वृष्टिज्ञान - दशातपा सिद्धान्त के अनुसार ज्येष्ठ अमावस्या से आषाढ शुक्ल दशमी तक के १० चान्द्रदिवसों के आधार पर ही आषाढ, श्रावण, भाद्रपद एवं आश्विन इन चार वर्षाकाल के मासों में वर्षायोग का ज्ञान होता है।

निमित्त परीक्षण द्वारा वृष्ट्यावधि -

निमित्त परीक्षण सिद्धान्त के अनुसार दीर्घावधि, मध्यमावधि एवं अल्पावधि वृष्टिज्ञान के निम्न आधार हैं-

1. वार्षिक वृष्टि के हेतु

  • आषाढी योग
  • फाल्गुनी योग
  • स्वाती योग

2. मासिक एवं पाक्षिक वृष्टि के हेतु

  • मेघ गर्भधारण सिद्धान्त
  • वायुगर्भधारण सिद्धान्त
  • प्रवर्षण सिद्धान्त
  • रोहिणी योग
  • स्वाती योग
  • आषाढी योग
  • दशातपा सिद्धान्त
  • मासिक ऋतु परीक्षण सिद्धान्त

3. दैनिक वृष्टि के हेतु

  • मेघ गर्भधारण सिद्धान्त
  • वायुगर्भधारण सिद्धान्त
  • प्रवर्षण सिद्धान्त
  • रोहिणी योग
  • स्वाती योग
  • आषाढी योग
  • दशातपा सिद्धान्त
  • सद्योवृष्टि सिद्धान्त
  • अनावृष्टिलक्षण सिद्धान्त

गणितीय सिद्धान्त द्वारा वृष्ट्यावधि

इस सिद्धान्त के अनुसार सम्पूर्ण वर्ष की गणना के पश्चात् वृष्टिज्ञान में निम्नलिखित तत्वों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। इस आधार पर किसी भी वर्ष की सम्पूर्ण गणितीय प्रक्रिया पूर्ण कर वृष्टि का पूर्वानुमान कभी किया जा सकता है। दीर्घावधि पूर्वानुमान के लिये यह विधि सर्वाधिक सहायक है।

1. वार्षिक वृष्टि के हेतु-

संवत्सर

संवत्सर अधिकारी

गुरूवर्ष

विंशोपक

शकाब्दसंख्या

आर्द्राप्रवेश

मेघनाम

रोहिणीवास

जलाढक

2. मासिक वृष्टि के हेतु-

द्विनाडी

त्रिनाडी

सप्तनाडी

वृष्टि सम्बन्धि विविध योग

दैनिक वृष्टि के हेतु

मानव जीवन में वृष्टि का प्रभाव

ग्रह एवं वृष्टि

ऋतु - चक्रका प्रवर्तक सूर्य होता है। सूर्य जब आर्द्रा नक्षत्र (सौर - गणना) में प्रवेश करता है, तभी से औपचारिक रूप से वर्षा-ऋतुका प्रारम्भ माना जाता है। भारतीय पंचागकार प्रतिवर्ष आर्द्रा-प्रवेश-कुण्डली आदि के द्वारा का भविष्यवाणी करते हैं। आर्द्रासे ९ नक्षत्रपर्यन्त वर्षाका समय माना जाता है।

वृष्टि का गर्भ काल

वर्षा की रचना को गर्भ काल कहते हैं, इसके तीन भेद हैं- [4]

  1. गर्भ काल- आदित्य की किरणों द्वारा जल आकाश मण्डल में पहुँचाया जाना गर्भ काल कहलाता है।
  2. पोषण काल- समुद्र से सूर्य की किरणों द्वारा जो जल आकाश में ठहरता है अर्थात् इकट्ठा होता है, उसे पोषण काल कहते हैं।
  3. प्रसव काल- पृथ्वी पर जल की वर्षा होना उसे प्रसव काल कहते हैं।

पाश्चात्य एवं प्राच्य वृष्टिविज्ञान

प्रायः एक सौ वर्ष पूर्व प्रारम्भ हुआ आधुनिक मौसम विज्ञान आज तक पूर्णरूप से भारतीय परिवेश में अपनी प्रामाणिकता स्थापित नहीं कर सका। जिसके कारण उत्पन्न बढती हुई जनसंख्या की समस्या, उसके लिए निर्धारित अन्न, रहन-सहन, यह सब अव्यवस्थित हो गया है। आधुनिक मौसम विज्ञान की वृष्टि विधा कृषि उपयोगी पूर्ण रूप से संतोषजनक नहीं है। अत्याधुनिक मौसम विज्ञान में मौसम की भविष्यवाणियाँ वह अत्याधुनिक संगणकों द्वारा की जाती है जो कृषि के लिये पूर्णतया उपयोगी नहीं है। न्यूनतम कृषि उपयोगी १०/१५ दिन पूर्व के पूर्वानुमान में भी आधुनिक मौसम विज्ञान अभी तक पूर्ण रूप में सक्षम नहीं है। इस सन्दर्भ में यद्यपि कार्य हो रहा है परन्तु उसके परिणाम अभी तक सन्तोष जनक नहीं हैं। अत एव आधुनिक मौसम वैज्ञानिक भी प्राचीन भारतीय विधियों एवं उनके मौसम के पूर्वानुमान के लिये उपयोग में लाने के निमित्त चर्चा करते हुए दिख रहे हैं। जैसे- डॉ० डे० एवं उनके सहयोगी जो सुप्रसिद्ध मौसम वैज्ञानिक हैं, उन्होंने मौसम नामक पत्रिका सन् २००४ में ''नक्षत्र आधारित वर्षा एवं मौसम पर विस्तृत चर्चा की है। कुछ और वैज्ञानिक भी इस क्षेत्र में वैज्ञानिक आधार पर भारतीय प्राचीन विधा को आधार मानकर कार्य कर रहे हैं। जैसे वेदमूर्ति केतन काले के साथ डॉ०टी० वेणुगोपाल एवं उनके सहयोगी यज्ञात् भवति पर्जन्यः नामक परियोजना पर कार्य कर रहे हैं। ये लोग प्रसिद्ध मौसम वैज्ञानिक हैं। प्राचीन विचारों एवं पृष्ठभूमि को देखकर एस० के० मिश्रा ने पंचाङ्ग पर आधारित मौसम की भविष्यवाणियों पर अपना शोध प्रबन्ध प्रो० वी०के०दुबे, अध्यक्ष-विस्तार शिक्षा, कृषि संस्थान के निर्देशन एवं प्रो० रामचन्द्र पाण्डेय, अध्यक्ष ज्योतिष विभाग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी, के सह निर्देशन में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के कृषि संस्थान

उद्धरण

  1. आचार्य भास्करानन्द लोहानी, भारतीय ज्योतिष और मौसम विज्ञान, सन् २०१२, एल्फा पब्लिकेशन नई सडक, दिल्ली(पृ० २)।
  2. दुर्गेश कुमर शुक्ल , ज्योतिषशास्त्र में वृष्टिविज्ञान , सन् २०१७, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय, भूमिका,(पृ० १३)।
  3. जगजीवनदास गुप्त, ज्योतिष-रहस्य (प्रथम खण्ड), सन् १९८५, मोतीलाल बनारसीदास वाराणसी (पृ०७४)।
  4. पं० कंवरलाल द्विवेदी, वृष्टि विज्ञान रहस्य, श्री सरस्वती प्रकाशन अलमेर (पृ० १०)।