Difference between revisions of "Vedon me bhumi samrkshan(वेदो में भूमि संरक्षण)"

From Dharmawiki
Jump to navigation Jump to search
(नया लेख बनाया)
(नया लेख बनाया)
Line 8: Line 8:
  
 
पृथ्वी के प्रति व्यक्तिगत तौर पर यह प्रार्थना यह दर्शाती हे कि वैदिक ऋषि पृथ्वी को लेकर कितना संवेदनशील हे। अगर ऐसी ही संवेदना हम भी हमारे मनों में रखें तो भूमि का संरक्षण स्वयंमेव ही हो जायेगा।
 
पृथ्वी के प्रति व्यक्तिगत तौर पर यह प्रार्थना यह दर्शाती हे कि वैदिक ऋषि पृथ्वी को लेकर कितना संवेदनशील हे। अगर ऐसी ही संवेदना हम भी हमारे मनों में रखें तो भूमि का संरक्षण स्वयंमेव ही हो जायेगा।
 +
[[File:Capture ३२.jpg|center|thumb|मृदा संरक्षण ]]
 +
 +
 
  
 
वेदों के अनुसार पृथ्वी हम सबका आश्रय स्थल है। यह हमें पोषित करती हे, पालती है। हमें धारण करती हे। इसलिए इसका संरक्षण करना हमारा दायित्व है। अथर्ववेद में ऋषि कहता है कि हे भूमि! जब तक यम सूर्य के साथ आपके निबन्ध रूपों का दर्शन करूँ, तब तक मेरी दृष्टि उत्तम और अनुकूल क्रिया को नष्ट न करे-  <blockquote>'''यावत्‌ तेऽभि विपश्यानि भूमे सूर्येव मेदिना।'''
 
वेदों के अनुसार पृथ्वी हम सबका आश्रय स्थल है। यह हमें पोषित करती हे, पालती है। हमें धारण करती हे। इसलिए इसका संरक्षण करना हमारा दायित्व है। अथर्ववेद में ऋषि कहता है कि हे भूमि! जब तक यम सूर्य के साथ आपके निबन्ध रूपों का दर्शन करूँ, तब तक मेरी दृष्टि उत्तम और अनुकूल क्रिया को नष्ट न करे-  <blockquote>'''यावत्‌ तेऽभि विपश्यानि भूमे सूर्येव मेदिना।'''
Line 14: Line 17:
  
 
यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के विभिन्न रूपों के संरक्षण की कामना करता है।
 
यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के विभिन्न रूपों के संरक्षण की कामना करता है।
 +
[[File:Capture ३३.jpg|center|thumb|भूमि संरक्षण ]]
 +
  
 
ऋग्वेद के ऋषि अथर्वा का कहना हे कि हमें पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए क्योंकि यह पृथ्वी हम सबका भरण-पोषण करती है, हमारी सम्पत्ति की रक्षा करती है, दृढ आधार वाली है, अपने में स्वर्ण को समायें हुए है , सदैव चालयमान है, सभी को सुख प्रदान करती है, अग्नि का पोषण करने वाली है , इन्द्र को प्रधान मानने वाली ऐसी भूमि धन-बल के बीच हमें सुरक्षित रखे-<blockquote>'''“विश्वम्भरा रसुचानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो विनेशनी'''
 
ऋग्वेद के ऋषि अथर्वा का कहना हे कि हमें पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए क्योंकि यह पृथ्वी हम सबका भरण-पोषण करती है, हमारी सम्पत्ति की रक्षा करती है, दृढ आधार वाली है, अपने में स्वर्ण को समायें हुए है , सदैव चालयमान है, सभी को सुख प्रदान करती है, अग्नि का पोषण करने वाली है , इन्द्र को प्रधान मानने वाली ऐसी भूमि धन-बल के बीच हमें सुरक्षित रखे-<blockquote>'''“विश्वम्भरा रसुचानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो विनेशनी'''
Line 20: Line 25:
  
 
पृथ्वी के संरक्षण के लिए अथर्ववेद का ऋषि अपनी चिंता व्यक्त करता है और कहता हे कि हे पृथ्वी! तेरी गोद में हम निरोग बनें। अपनी धातु को दीर्घ काल  तक बनाये रखते हुए तेरे लिए बलिदान देने लायक बने रहें। यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के संरक्षण के लिए अपना बलिदान तक देने की बात कहता हे-
 
पृथ्वी के संरक्षण के लिए अथर्ववेद का ऋषि अपनी चिंता व्यक्त करता है और कहता हे कि हे पृथ्वी! तेरी गोद में हम निरोग बनें। अपनी धातु को दीर्घ काल  तक बनाये रखते हुए तेरे लिए बलिदान देने लायक बने रहें। यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के संरक्षण के लिए अपना बलिदान तक देने की बात कहता हे-
 
+
[[File:Capture ३४.jpg|center|thumb|वन सरंक्षण सर्वस्व बलिदान]]
 
+
<blockquote>'''उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं पतु पृथिवि रसूताः'''
चित्र 4.3 वन सरंक्षण सर्वस्व बलिदान<blockquote>'''उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं पतु पृथिवि रसूताः'''
 
  
 
'''दीर्घ न आपुः प्रतिबुहयमाना वयं तुश्यं बलिहृतः स्याम।।'''</blockquote>( अथर्ववेद 12.1.62)
 
'''दीर्घ न आपुः प्रतिबुहयमाना वयं तुश्यं बलिहृतः स्याम।।'''</blockquote>( अथर्ववेद 12.1.62)
Line 42: Line 46:
  
 
महात्मा गांधी जी ने भी कहा था कि यह प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में तो समर्थ है परन्तु किसी के लालच को पूर्ण करने में नहीं। यहां पर गांधी जी प्रकृति के अतिदोहन को रोके जाने की और संकेत देते हैं तथा कहते हैं कि प्रकृति का समावेशी संरक्षण करते हुए उपयोग किया जाये तो मनुष्य जाति को सभी जरुरतें पूरी हो सकती हैं।  
 
महात्मा गांधी जी ने भी कहा था कि यह प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में तो समर्थ है परन्तु किसी के लालच को पूर्ण करने में नहीं। यहां पर गांधी जी प्रकृति के अतिदोहन को रोके जाने की और संकेत देते हैं तथा कहते हैं कि प्रकृति का समावेशी संरक्षण करते हुए उपयोग किया जाये तो मनुष्य जाति को सभी जरुरतें पूरी हो सकती हैं।  
 
+
[[File:Capture ३५.jpg|center|thumb|राष्ट्रपिता महात्मा गांधी]]
 
 
चित्र 4.4 राष्ट्रपिता महात्मा गांधी
 
  
 
हमें हमारे आसपास के पर्यावरण, भूमि के दोहन के प्रति सचेत रहना चाहिए और जितना भी हो सके मिलजुल कर पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए।
 
हमें हमारे आसपास के पर्यावरण, भूमि के दोहन के प्रति सचेत रहना चाहिए और जितना भी हो सके मिलजुल कर पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए।

Revision as of 00:43, 30 September 2022

प्रस्तावना

पृथ्वी ही ऐसा स्थल हे जिसने जैव विविधता का पोषक और रक्षण किया है। “माता भूमिः पुत्रोऽहम्‌ पृथित्याः” वेदों में भूमि संरक्षण माता रूपी भूमि कौ रक्षा के अन्तर्भाव में ही निहित है। अथर्ववेद के पृथ्वी सूक्त में तो यहां तक कहा गया है कि भूमि की रक्षा के लिए हम आत्म-बलिदान के लिए तैयार रहें-

“वयं तुश्यं बलिहृतःस्याम।”

वैदिक संस्कृति में भूमि के संरक्षण पर अत्यधिक बल दिया गया है। अथर्ववेद का पृथ्वी सूक्त इस विषय में उल्लेखनीय हे-

“यत्रे भूमि विखनामि क्षिप्रं तदपि रोहतु। माते मर्म विमृग्वरि मा ते हृदयमर्पितम्‌।।

( अथर्ववेद 12.1.35)


अर्थात्‌ हे भूमि! मैं अगर तेरा कोई भी भाग खोदू तो यह तुरंत भर जावे। हे खोजने लायक पृथ्वी! में ऐसा कुछ न कसू जिससे आपके मर्मस्थल पर चोट पहुँचे और न ही आपको कोई हानि पहुँचाऊ।

पृथ्वी के प्रति व्यक्तिगत तौर पर यह प्रार्थना यह दर्शाती हे कि वैदिक ऋषि पृथ्वी को लेकर कितना संवेदनशील हे। अगर ऐसी ही संवेदना हम भी हमारे मनों में रखें तो भूमि का संरक्षण स्वयंमेव ही हो जायेगा।

मृदा संरक्षण


वेदों के अनुसार पृथ्वी हम सबका आश्रय स्थल है। यह हमें पोषित करती हे, पालती है। हमें धारण करती हे। इसलिए इसका संरक्षण करना हमारा दायित्व है। अथर्ववेद में ऋषि कहता है कि हे भूमि! जब तक यम सूर्य के साथ आपके निबन्ध रूपों का दर्शन करूँ, तब तक मेरी दृष्टि उत्तम और अनुकूल क्रिया को नष्ट न करे-

यावत्‌ तेऽभि विपश्यानि भूमे सूर्येव मेदिना। तावन्मे चक्षुर्मा मेण्टोतरामुत्तरां समास्‌। |

( अथर्ववेद 12.01.33) |

यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के विभिन्न रूपों के संरक्षण की कामना करता है।

भूमि संरक्षण


ऋग्वेद के ऋषि अथर्वा का कहना हे कि हमें पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए क्योंकि यह पृथ्वी हम सबका भरण-पोषण करती है, हमारी सम्पत्ति की रक्षा करती है, दृढ आधार वाली है, अपने में स्वर्ण को समायें हुए है , सदैव चालयमान है, सभी को सुख प्रदान करती है, अग्नि का पोषण करने वाली है , इन्द्र को प्रधान मानने वाली ऐसी भूमि धन-बल के बीच हमें सुरक्षित रखे-

“विश्वम्भरा रसुचानी प्रतिष्ठा हिरण्यवक्षा जगतो विनेशनी वैश्वानरं बिभ्रती भूमिरग्निसिद्ध ऋषना द्रविणे नोदघातु।

( अथर्ववेद 12.01.6)

पृथ्वी के संरक्षण के लिए अथर्ववेद का ऋषि अपनी चिंता व्यक्त करता है और कहता हे कि हे पृथ्वी! तेरी गोद में हम निरोग बनें। अपनी धातु को दीर्घ काल  तक बनाये रखते हुए तेरे लिए बलिदान देने लायक बने रहें। यहाँ पर ऋषि पृथ्वी के संरक्षण के लिए अपना बलिदान तक देने की बात कहता हे-

वन सरंक्षण सर्वस्व बलिदान

उपस्थास्ते अनमीवा अयक्ष्मा अस्मभ्यं पतु पृथिवि रसूताः दीर्घ न आपुः प्रतिबुहयमाना वयं तुश्यं बलिहृतः स्याम।।

( अथर्ववेद 12.1.62) अर्थववेद का ऋषि सचेत करते हुए कहता है कि यदि समय रहते पृथ्वी को संरक्षित नहीं किया गया तो मनुष्य प्रजाति को दुष्परिणम भुगतने के लिए तैयार रहना चाहिए क्योंकि जिस प्रकार अश्व धूल कणों को हिला देता है उसी प्रकार यह हर्षदायिनी, अग्रगामिनी, संसार की रक्षा करने वाली, वनस्पतियों और औषधियों की ग्रहणस्थली पृथ्वी ने उन मनुष्यों को हमेशा ही हिलाया हे जो इसका सरंक्षण न कर हानि पहुंचाते हे-

अश्व इव रजो दुन्धुवे नि तान जनान्‌ य आक्षियन पृथिवी यादजायत्‌। मन्द्राग्रेत्वरी भुवनस्य गोपा वनस्पतीनां गृभिरोषधीनाम्‌।।

( अर्थववेद 12.1.57) ऋग्वेद का ऋषि पृथ्वी को माता के रूप में दर्जा प्रदान करता है-

“( ) पिता जनिता नाभिस्त्र बन्युर्मे माता पृथिवी महीयम्‌।

(ऋग्वेद 1.164.23) |

अर्थात्‌ आकाश मेरे पिता है, बन्धु वातावरण मेरी नाभि है और यह पृथ्वी मेरी माता है जो कि सबसे महान हेै।

वृहदारण्पकोपनिषद्‌ में याज्ञवल्क्य ऋषि मैत्रेयी को समझाते हुए कहते हैं कि यह पृथ्वी सभी भूतों (मूल तत्वों) का मधु है और सब भूत इस पृथ्वी के मधु हैं-

इयं पृथ्वी सर्वेषां भूतानां मध्वस्यै पृथिव्यै सर्वाणि भूतानि मयु।

( वृहदारण्यकोपनिषद्‌ 2.5)


जब वेदिक ऋषि पृथ्वी के सरंक्षण के प्रति इतने सचेत हैं तो हमें भी प्रकृति का अतिदोहन नहीं करना चाहिए, बल्कि पृथ्वी के संरक्षण पर बल देना चाहिए।

महात्मा गांधी जी ने भी कहा था कि यह प्रकृति हमारी आवश्यकताओं को पूर्ण करने में तो समर्थ है परन्तु किसी के लालच को पूर्ण करने में नहीं। यहां पर गांधी जी प्रकृति के अतिदोहन को रोके जाने की और संकेत देते हैं तथा कहते हैं कि प्रकृति का समावेशी संरक्षण करते हुए उपयोग किया जाये तो मनुष्य जाति को सभी जरुरतें पूरी हो सकती हैं।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी

हमें हमारे आसपास के पर्यावरण, भूमि के दोहन के प्रति सचेत रहना चाहिए और जितना भी हो सके मिलजुल कर पृथ्वी का संरक्षण करना चाहिए।