Vedanga Jyotish (वेदाङ्गज्योतिष)

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ज्योतिष शास्त्र की गणना वेदाङ्गों में की जाती है। वेद अनन्त ज्ञानराशि हैं। धर्म का भी मूल वेद ही है। इन वेदों के अर्थ गाम्भीर्य तथा दुरूहता के कारण कालान्तर में वेदाङ्गों की रचना हुई। वेदाङ्ग शब्द के द्वारा षडङ्गों का बोध होता है। इस लेख में मुख्य रूप से ज्योतिष को वेदाङ्ग का हिस्सा बताया गया है, इसलिए वेदाङ्गज्योतिष शब्द का प्रयोग किया गया है, जो महर्षि लगध द्वारा प्रणीत ग्रन्थ है। भारतवर्ष के गौरवास्पद विषयों में वेदाङ्गज्योतिष का प्रमुख स्थान है। वेदाङ्गवाङ्मय में व्याकरणादि अन्य का भी प्रचार प्रसार है किन्तु वेदाङ्गज्योतिष ज्योतिषविद्या में और कालगणना पद्धति में अतीव महत्वपूर्ण स्थान रखने वाले वेदों में उपलब्ध ज्योतिषशास्त्र के स्वरूप को पूर्णता की ओर अग्रसर करने में वेदाङ्गज्योतिष विषयक ग्रन्थ की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वैदिक काल में जीवन के साथ ज्योतिष का उद्देश्य यज्ञों को करने के लिए उपयुक्त समय का ज्ञानप्राप्त करना वैदिकधर्मकृत्यों के कालों के निरूपण में यह ग्रन्थ अत्यन्त प्रामाणिक माना गया है। आधुनिक सामान्य भाषा में ज्योतिष शब्द का अर्थ पूर्वानुमान ज्योतिष (फलित ज्योतिष) से है , परन्तु वेदाङ्गज्योतिष में ज्योतिष शब्द खगोल विज्ञान के विज्ञान से जुड़ा है जिसमें गणित सम्मिलित है।

परिचयः || Introduction

अयनचलन के विचार के लिये अत्यन्त उपयोगी करीब ३४०० वर्ष प्राचीन आलेख, जो भूमण्डल के अन्य देशों के ज्योतिषवाग्मय में सर्वथा अनुपलब्ध है, इस ग्रन्थ में उपलब्ध होने से कालगणना पद्धति के विषय में इस ग्रन्थ का लौकिक महत्त्व भी विलक्षण और अद्वितीय है। भारतवर्ष का नवीन इतिहास नाम के ग्रन्थ में डा० ईश्वरी प्रसाद जी ने लिखा है-

ईसा के पूर्व द्वितीय शताब्दी के आसपास ज्योतिषशास्त्र की अनेक बातें भारतीयों ने यूरोप से सीखीं। वे रोम और यूनान को ज्योतिषशास्त्र का घर समझते थे। ज्योतिष के अनेक यूनानी ग्रन्थों का अनुवाद संस्कृत में किया गया एवं भारतीय पञ्चागों का भी यूनानियों की सलाह से संशोधन हुआ। कुन्दन लाल शर्मा ने वैदिक वाग्मय का बृहद इतिहास नामके ग्रन्थ के षष्ठ खण्ड में लिखा है- यद्यपि भारतीय ज्योतिषियों ने वेदांग ज्योतिष के सिद्धान्त का परित्याग प्रथम ईसवी शती के आरंभ में करके यूनानी सिद्धान्त को स्वीकार करके अपनी गणना पद्धति में परिवर्तन तथा संशोधन कर लिया था तो भी वैदिक ब्राह्मणों में वर्तमान वेदवेदाग ग्रन्थों के नित्य ब्रह्मयज्ञ की परम्परा के बल से ३४०० वर्ष पुराना वेदागज्योतिष ग्रन्थ उपलब्ध है। अब भी वैदिकब्राह्मण ब्रह्मयज्ञ में लगधप्रोक्त वेदाङ ज्योतिष ग्रन्थ पढा जाता है।

वेदाङ्गज्योतिष की परिभाषा॥ Definition of Vedanga Jyotisha

वेदाङ्ग शब्द की उत्पत्ति वेद तथा अङ्ग इन दो शब्दों के मिलने से हुई है वेद का सामान्य अर्थ है ज्ञान। शब्दकल्पद्रुम में अङ्ग की परिभाषा इस प्रकार की गई है-

अङ्ग-अङ्य्न्ते ज्ञायन्ते एभिरिति अङ्गानि। (शब्दकल्पद्रुम भाग १ )

जिनके द्वारा किसी वस्तु के स्वरूप को जानने में सहायता प्राप्त होती हो उन्हैं अङ्ग कहते हैं। वेद के स्वरूप को समझाने में सहायक ग्रन्थ वेदाङ्ग कहे गए हैं।

ज्योतिषं- ज्योतिः सूर्य्यादीनां ग्रहाणां गत्यादिकं प्रतिपाद्यतया अस्त्यस्येति अच् । वेदाङ्ग-शास्त्रविशेषः तत् ग्रहणादिगणनशास्त्रम् ज्योतिषम् ।

वेदाङ्गज्योतिष के विषय॥ Contents of Vedanga Jyotisha

लगधप्रोक्त वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में मुख्यतः निम्नाङ्कित विषयों का प्रतिपादन किया गया है-[1]

  1. युग॥ Yuga - वेदों में कालमान की बडी इकाई के रूप में युग का उल्लेख मिलता है। कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि इन चारों युगों के नामों का भी व्यवहार अनेक स्थलों पर किया गया है किन्तु इनके परिमाण का उल्लेख नहीं मिलता है। कृतादि युगों के अतिरिक्त पञ्च संवत्सरात्मक युगों का भी उल्लेख है। पॉंचों संवत्सरों के नाम इस प्रकार है- सम्वत्सर, परिवत्सर, इदावत्सर, अनुवत्सर और इद्वत्सर। कहीं कहीं इद्वत्सर को अनुवत्सर भी कहा गया है।
  2. सम्वत्सर॥ Samvatsara- संवत्सर द्वादश मासों का
  3. अयन॥ Ayana- अयन दो कहे गए हैं- उत्तरायण और दक्षिणायन। सायन मकर से लेकर मिथुन पर्यन्त उत्तरायण और सायन कर्क से लेकर धनु पर्यन्त दक्षिणायन होता है।
  4. ऋतु॥ Season- अयन से ठीक छोटा कालमान ऋतु है। वैदिक साहित्य में सामान्यतया छः ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त होता है। शिशिर, वसन्त, ग्रीष्म, वर्षा, शरद तथा हेमन्त ऋतुओं का उल्लेख प्राप्त हो रहा है।
  5. मास॥ month- ऋतु से ठीक छोटा कालमान मास है। पञ्च वर्षीय युग के प्रारम्भ में माघ मास तथा समाप्ति पर पौष मास का निर्देश वेदाङ्गज्योतिष में किया गया है। मासों की संख्या बारह है- माघ, फाल्गुन, चैत्र, वैशाख, ज्येष्ठ, आषाढ, श्रावण, भाद्रपद, आश्विन, कार्तिक, मार्गशीर्ष तथा पौष।
  6. पक्ष ॥ Paksha- एक मास में दो पक्ष होते हैं। शुक्लपक्ष एवं कृष्ण पक्ष। प्रत्येक पक्ष पन्द्रह दिनों(तिथियों) का होता है।
  7. तिथि॥ Tithi- शास्त्रों में दो प्रकार की तिथियॉं प्रचलित हैं। सौर तिथि एवं चान्द्र तिथि। सूर्य की गति के अनुसार मान्य तिथि को सौर तिथि तथा चन्द्रगति के अनुसार मान्य तिथि को चान्द्र तिथि कहते हैं।
  8. वार॥ Day- वार शब्द का अर्थ है अवसर अर्थात् नियमानुसार प्राप्त समय होता है। तदनुसार वार शब्द का प्रकृत अर्थ यह होता है कि जो अहोरात्र (सूर्योदय से सूर्योदय होने ) पर्यन्त जिसकी स्थिति होती है उसे वार कहते हैं।
  9. करण Karana-
  10. मुहूर्त्त॥ Muhurta-
  11. पर्व॥ parva-
  12. विषुवत् तिथि॥ vishuvat-
  13. नक्षत्र॥ nakshatra-
  14. अधिकमास॥ adhikamasa-

उपर्युक्त ये विषय प्रतिपादित हैं। श्रौतस्मार्तधर्म कृत्यों में इन की ही अपेक्षा होने से इस वेदाङ्गज्योतिष ग्रन्थ में इन विषयों का ही मुख्यतया प्रतिपादन किया गया है।

वेदाङ्गज्योतिष का काल निर्धारण॥ Time Determination of Vedang Jyotish

वेदाङ्ग होने के कारण निश्चित रूप से वेदाङ्गज्योतिषका ग्रन्थ बहुत प्राचीन प्रतीत होता है। इस सन्दर्भ में अनेक प्रमाण इनसे सम्बन्धित ग्रन्थों में ऋक् ज्योतिष, याजुष् ज्योतिष तथा आथर्वण ज्योतिष में प्राप्त होते हैं।[2]

उद्धरण॥ References

  1. शिवराज आचार्यः कौण्डिन्न्यायनः, वेदाङ्गज्योतिषम् , भूमिका,वाराणसीःचौखम्बा विद्याभवन (पृ०१२)।
  2. सुनयना भारती, वेदाङ्गज्योतिष का समीक्षात्मक अध्ययन,सन् २०१२, दिल्ली विश्वविद्यालय, अध्याय ०३, (पृ०१००-१०५)।