Difference between revisions of "Vastu Shastra (वास्तु शास्त्र)"

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== वास्तुशास्त्र के विभाग ==
 
== वास्तुशास्त्र के विभाग ==
वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥
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वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-<blockquote>सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥(समरांगण सूत्र)</blockquote>अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं।
  
एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥</blockquote>अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं।
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== वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक एवं आचार्य ==
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वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है
  
== वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य ==
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* वास्तुशास्त्र का उद्भव कैसे हुआ?
वास्तुशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तु शास्त्र उपदेशकों का नाम प्राप्त होते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का नामोल्लेख प्राप्त होता है-<blockquote>भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः॥
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* वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य कौन थे?
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* वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा क्या है?
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* वास्तुशास्त्र के मुख्य ग्रन्थ कौन से हैं?
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* वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया।
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* वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है।
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वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है।
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=== वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक ===
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भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-<blockquote>ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान् । यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥</blockquote>पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप द्विजों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा के साथ-साथ द्विजत्व की भी चर्चा करते हैं-<blockquote>सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥</blockquote>धीरे-धीरे यह विद्या द्विजेतरों के हस्तगत हो गई और इस विद्या के अध्येताओं का ज्ञान और प्रयोग ह्रास के कारण यह विद्या अपना गरिमामय स्थान खो बैठी। विश्वकर्मा के शाप से दग्ध इस विद्या के अध्येता-शिल्पि विश्वकर्मा के शापित पुत्र कहलाये -<blockquote>ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः।मालाकारकर्मकार्रशंखकारकुविन्दकाः॥
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कुम्भकारः कांस्यकारःस्वर्णकारस्तथैव च।पतितास्तेब्रह्मशापाद अयाज्या वर्णसंकरा॥</blockquote>अर्थ- मालाकार, कर्मकार, शंखकार,कुविन्द,कुम्भकार,कांस्यकार,सूत्रधार,चित्रकार और स्वर्णकार ये विश्वकर्मा के शूद्रपुत्रों के रूप में विख्यात हुये। इस प्रकार विश्वकर्मा के ये सभी पुत्र विविध कलाओं में निष्णात थे।
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=== वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा ===
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वास्तुशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तुशास्त्र उपदेशकों का नाम प्राप्त होते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का नामोल्लेख प्राप्त होता है-<blockquote>भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः॥
  
 
ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती॥
 
ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती॥
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सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम् । स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ॥
 
सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम् । स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ॥
  
आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥(अग्नि०पु०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AF अग्निपुराण], अध्यायः ३९, श्लोक २/५।</ref></blockquote>विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है-<blockquote>इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥
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आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥(अग्नि०पु०)<ref>[https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%85%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%AA%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A4%AE%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9%E0%A5%AF अग्निपुराण], अध्यायः ३९, श्लोक २/५।</ref></blockquote>विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है-<blockquote>इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥(विश्व०प्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref>
 
 
वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥(विश्व०प्रकाश)</blockquote>इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।<ref>बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।</ref>
 
  
 
== वास्तुशास्त्र का महत्व ==
 
== वास्तुशास्त्र का महत्व ==

Revision as of 21:18, 2 January 2023


वैदिक वांगमय में वास्तु का सामान्य अर्थ गृह या भवन है। विशेष अर्थ-गृह निर्माण हेतु उपयुक्त भूखण्ड।

परिचय

परिभाषा

वास्तु शब्द की व्युत्पत्ति वस् निवासे- एक स्थान में वास करने की द्योतक, धातु से निष्पन्न होता है। वास्तु का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ है-

वसन्ति प्राणिनः अस्मिन्निति वास्तुः, तत्संबंधिशास्त्रं वास्तुशास्त्रम् ।(श०कल्प०)[1]

अर्थ- वह भवन जिसमें प्राणी निवास करते हैं, उसे वास्तु एवं वास्तु संबंधित विषयों का जिसमें वर्णन हो उसे वास्तुशास्त्र कहते हैं।

वास्तु के पर्यायवाची शब्द- आय, गृहभूः, गृहार्हभूमिः, वास्तु, वेश्मभूमिः और सदनभूमिः आदि शास्त्रों में वास्तु के पर्यायवाचक शब्द कहे गये हैं।[2]

वास्तुशास्त्र के विभाग

वास्तुशास्त्रमें काल अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है और काल का ज्ञान कालविधानशास्त्र ज्योतिष के अधीन है अतः काल के ज्ञान के लिये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान होना आवश्यक है। वास्तुशास्त्र के अनेक आचार्यों ने ज्योतिष को वास्तुशास्त्र का अंग मानते हुये ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान वास्तुशास्त्र के अध्येताओं के लिये अनिवार्य कहा है। समरांगणसूत्रधारकार ने वास्तुशास्त्र के आठ अंगों का वर्णन करते हुये अष्टांगवास्तुशास्त्र का विवेचन किया है, और इन आठ अंगों के ज्ञान के विना वास्तुशास्त्र का सम्यक् प्रकार से ज्ञान होना संभव नहीं है। वास्तुशास्त्र के आठ अंग इस प्रकार हैं-

सामुद्रं गणितं चैव ज्योतिषं छन्द एव च। सिराज्ञानं तथा शिल्पं यन्त्रकर्म विधिस्तथा॥एतान्यंगानि जानीयाद् वास्तुशास्त्रस्य बुद्धिमान् । शास्त्रानुसारेणाभ्युद्य लक्षणानि च लक्षयेत् ॥(समरांगण सूत्र)

अर्थ- सामुद्रिक, गणित, ज्योतिष, छन्द, शिराज्ञान, शिल्प, यन्त्रकर्म और विधि ये वास्तुशास्त्र के आठ अंग हैं।

वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक एवं आचार्य

वास्तुशास्त्र में गृहनिर्माण की परम्परा अत्यन्त सुनियोजित विधि से पाण्डुलिपियों में संरक्षित है, जिसके अध्ययन से ज्ञात होता है कि यह समस्त ज्ञानधारा एकाएक नहीं उत्पन्न हुई परन्तु कई पीढियों के अनुसंधान एवं दैवीय शक्तियों से सम्पन्न आचार्यों के परिश्रम के फलस्वरूप वर्तमान कालमें हमें प्राप्त हुई है। वास्तुशास्त्रीय ग्रन्थों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि वास्तु शब्द व्यापक अर्थ को समाहित किये हुये है। यह शब्द मात्र गृह के अर्थ में नहीं परन्तु गृह से संबंध रखने वाले धार्मिक, व्यवसायिक तथा समस्त भवनों के अर्थ में प्रयुक्त है

  • वास्तुशास्त्र का उद्भव कैसे हुआ?
  • वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य कौन थे?
  • वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा क्या है?
  • वास्तुशास्त्र के मुख्य ग्रन्थ कौन से हैं?
  • वास्तुशास्त्र के इस स्वरूप का वर्णन अनेक आचार्यों ने समय-समय पर किया।
  • वास्तुशास्त्र के अध्ययन से भारतीय संस्कृति की वैज्ञानिक एवं समृद्ध परम्परा का ज्ञान होता है।

वास्तुशास्त्रीय परम्परामें देश-काल तथा परिस्थिति के आधार पर कालक्रमानुसार परिवर्तन भी होता रहा है, परन्तु इस परिवर्तन में वास्तुशास्त्र के मूलभूत सिद्धान्तों सिद्धान्तों का पूर्णतः संरक्षण किया गया, जिससे आज भी हमें वास्तुशास्त्र का वही शुद्ध स्वरूप प्राप्त होता है।

वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक

भारतीय परम्परा में प्रत्येक भारतीयशास्त्र के उद्भव के मूल में ईश्वरीय तत्व को स्वीकार किया गया है। वास्तुशास्त्र का मूल उद्गम ब्रह्मा जी से माना जाता है। ब्रह्माजी को वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक के रूप में माना जाता है। पुराणों के अनुसार पृथु ने जब पृथ्वी को समतल किया और ब्रह्मा जी से पृथ्वी पर नगर-ग्राम आदि की रचना के सम्बन्ध में निवेदन किया-

ग्रामान् पुरः पत्तनानि दुर्गाणि विविधानि च। घोषान् व्रजान् सशिविरानाकारान् खेटखर्वटान् । यथा सुखं वसन्ति स्म तत्र तत्राकुतोभयाः॥

पृथु के इस निवेदन को सुनकर ब्रह्मा जी ने अपने चारों मुखों से विश्वकर्मा आदि की उत्पत्ति की। ब्रह्मा के पूर्व मुख से विश्वभू, दक्षिण मुख को विश्वविद्, पश्चिम मुख को विश्वस्रष्टा और उत्तरमुख को विश्वस्थ कहा जाता है। इस शास्त्र के अध्येताओं और आचार्यों की अपनी विशिष्ट परम्परा थी। इसका शास्त्रीय और प्रायोगिक स्वरूप द्विजों के ही परिश्रम का परिणाम था। वास्तुकला मर्मज्ञ सूत्रधार के गुणों की चर्चा के साथ-साथ द्विजत्व की भी चर्चा करते हैं-

सुशीलश्चतुरो दक्षः शास्त्रज्ञो लोभवर्जितः। क्षमायुक्तो द्विजश्चैव सूत्रधार स उच्यते॥

धीरे-धीरे यह विद्या द्विजेतरों के हस्तगत हो गई और इस विद्या के अध्येताओं का ज्ञान और प्रयोग ह्रास के कारण यह विद्या अपना गरिमामय स्थान खो बैठी। विश्वकर्मा के शाप से दग्ध इस विद्या के अध्येता-शिल्पि विश्वकर्मा के शापित पुत्र कहलाये -

ततो बभूवुः पुत्राश्च नवैते शिल्पकारिणः।मालाकारकर्मकार्रशंखकारकुविन्दकाः॥ कुम्भकारः कांस्यकारःस्वर्णकारस्तथैव च।पतितास्तेब्रह्मशापाद अयाज्या वर्णसंकरा॥

अर्थ- मालाकार, कर्मकार, शंखकार,कुविन्द,कुम्भकार,कांस्यकार,सूत्रधार,चित्रकार और स्वर्णकार ये विश्वकर्मा के शूद्रपुत्रों के रूप में विख्यात हुये। इस प्रकार विश्वकर्मा के ये सभी पुत्र विविध कलाओं में निष्णात थे।

वास्तुशास्त्र की आचार्य परम्परा

वास्तुशास्त्र की शास्त्रीय परम्परा की प्राचीनता विभिन्न प्राचीन पौराणिक ग्रन्थों में संकलित वास्तुशास्त्र उपदेशकों का नाम प्राप्त होते हैं। मत्स्यपुराण के अनुसार वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक अट्ठारह आचार्यों का नामोल्लेख प्राप्त होता है-

भृगुरत्रिर्वसिष्ठश्च विश्वकर्मा मयस्तथा। नारदो नग्नजिच्चैव विशालाक्षः पुरन्दरः॥

ब्रह्माकुमारो नन्दीशः शौनको गर्ग एव च। वासुदेवोऽनिरुद्धश्च तथा शुक्रबृहस्पती॥

अष्टादशैते विख्याता वास्तुशास्त्रोपदेशकाः। संक्षेपेणोपदिष्टन्तु मनवे मत्स्यरूपिणा॥(मत्स्य०पु०)[3]

अर्थात् 1.भृगु 2.अत्रि 3.वसिष्ठ 4.विश्वकर्मा 5.मय 6.नारद 7.नग्नजित् 8.विशालाक्ष 9.पुरन्दर 10.ब्रह्म 11.कुमार 12.नन्दीश 13.शौनक 14.गर्ग 15.वासुदेव 16.अनिरुद्ध 17.शुक्र 18.बृहस्पति। ये अठारह वास्तुशास्त्र प्रवर्तक मत्स्यपुराण के अनुसार हैं। अग्निपुराण में वास्तुशास्त्र प्रवर्तकों की सूची इससे भी लम्बी है, जिसमें पच्चीस आचार्यों के नामों का उल्लेख किया गया है-

व्यस्तानि मुनिभिर्लोके पञ्चविंशतिसंख्यया। हयशीर्षं तन्त्रमाद्यं तन्त्रं त्रैलोक्यमोहनम्॥

वैभवं पौष्करं तन्त्रं प्रह्लादं गार्ग्यगालवम् ।नारदीयं च सम्प्रश्नं शाण्डिल्यं वैश्वकं तथा॥

सत्योक्तं शौनकं तन्त्रं वसिष्ठं ज्ञान-सागरम् । स्वायम्भुवं कापिलञ्च तार्क्ष्य-नारायणीयकम् ॥

आत्रेयं नारसिंहाख्यमानन्दाख्यं तथारुणकम् । बौधायनं तथार्षं तु विश्वोक्तं तस्य सारतः॥(अग्नि०पु०)[4]

विश्वकर्मा प्रकाश में भी वास्तुके प्रवर्तक आचार्यों के बारे में संक्षिप्त उल्लेख है-

इति प्रोक्तं वास्तुशास्त्रं पूर्वंगर्गाय धीमते। गर्गात्पराशरः प्राप्तस्तस्मात्प्राप्तो वृहद्रथः॥वृहद्रथाद्विश्वकर्मा प्राप्तवान् वास्तुशास्त्रकम् ।स एव विश्वकर्मा जगतो हितायाकथयत्पुनः॥(विश्व०प्रकाश)

इस प्रकार विश्वकर्माप्रकाश में उल्लिखित नामों के अनुसार गर्ग, पराशर, वृहद्रथ तथा विश्वकर्मा ये वास्तुशास्त्र के प्रवर्तक आचार्य हुये हैं। उपरोक्त विवरण से प्रतीत होता है कि मत्स्यपुराणोक्त वास्तुप्रवर्तकों की नामावली की अपेक्षा अग्नि पुराण की सूची काल्पनिक है जिसमें पुनरुक्ति दोष है। इन सूचियों के आचार्यों में कुछ ज्ञान-विज्ञान के देवता, कुछ वैदिक या पौराणिक ऋषि, कुछ असुर और कुछ सामान्य शिल्पज्ञ हैं।[5]

वास्तुशास्त्र का महत्व

वास्तुशास्त्र एवं वृक्ष विचार

भारतीय संस्कृतिमें वृक्ष संरक्षण, वृक्षारोपण तथा संवर्धन को विशेष महत्व दिया गया है। यही नहीं देवमयी भारतीय संस्कृतिमें तो वृक्षों की पूजा का विधान भी है। वृक्ष तीव्रगति से बढ रहे प्रदूषण के दुष्प्रभाव को रोकने में पूर्ण सक्षम हैं, एवं प्राणिमात्र के स्वास्थ्य के लिये नितान्त लाभप्रद विशुद्ध वायु भी प्रदान करते हैं। वास्तव में पेड-पौधों का मानव-जीवन से सीधा संबंध है, इसीलिये वास्तुशास्त्र के अनुसार आवास स्थलों में वृक्षारोपण का उल्लेख है।

गृह-भूमि के वातावरण को प्रदूषणमुक्त एवं पवित्र बनाने के लिये वास्तुशास्त्रोक्त पेड-पौधों को लगाना महत्त्वपूर्ण है। इस सन्दर्भ में बृहत्संहिता में कहा है-

वर्जयेत्पूर्वतोऽश्वत्थं प्लक्षं दक्षिणतस्तथा। न्यग्रोधं पश्चिमे भागे उत्तरे वाप्युदुम्बरम् ॥

अश्वत्थे तु भयं ब्रूयात् प्लक्षे ब्रूयात्पराभवम् ।न्यग्रोधे राजतः पीडा नेत्रामयमुदुम्बरे॥

वटः पुरस्तात् धन्यः स्याद् दक्षिणे चाप्युदुम्बरः। अश्वत्थःपश्चिमे धन्यः प्लक्षस्तूत्तरतः शुभः॥(बृह०सं०)

अर्थ- भूखण्ड की पूर्व दिशा में पीपल, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश), पश्चिम में वट(बरगद) और उत्तर में गूलर का वृक्ष नहीं होना चाहिये। पूर्व दिशा में पीपल के होने से गृहस्वामी को भय, दक्षिण में प्लक्ष(पलाश) होने से पराभव, पश्चिम में वट वृक्ष होने से शासन की ओर से दण्ड भय और उत्तर में गूलर का वृक्ष होने से भवन वासियों को नेत्र-व्याधि होती है। यदि पश्चिम में पीपल, उत्तर में पलाश, पूर्व में वट वृक्ष और दक्षिण में गूलर का वृक्ष हो तो शुभ है।

गृहवाटिका में त्याज्य वृक्ष

उद्धरण॥

  1. शब्दकल्पद्रुम पृ०४/३५८।
  2. डॉ० सुरकान्त झा, ज्योतिर्विज्ञानशब्दकोषः, सन् २००९, वाराणसीः चौखम्बा कृष्णदास अकादमी, मुहूर्त्तादिसर्ग, (पृ०१३७)।
  3. मत्स्य पुराण, अध्याय २५२, श्लोक २/४।
  4. अग्निपुराण, अध्यायः ३९, श्लोक २/५।
  5. बलदेव उपाध्याय, संस्कृत वांग्मय का बृहद् इतिहास, प्रो०देवी प्रसाद त्रिपाठी, वास्तुविद्या, सन् २०१२, लखनऊःउत्तर प्रदेश संस्कृत संस्थान, (पृ०७६)।