Varna System (वर्ण व्यवस्था)

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प्रस्तावना

वर्तमान में वर्ण व्यवस्था का अस्तित्व लगभग नष्ट हो गया है। वर्ण तो परमात्मा के बनाए होते हैं इसलिए उन्हें नष्ट करने की सामर्थ्य मनुष्य जाति में नहीं है। लेकिन वर्ण की शुद्धि, वृद्धि और समायोजन की व्यवस्था को हमने उपेक्षित और दुर्लक्षित कर दिया है। इस कारण जिन भिन्न भिन्न प्रकार की सामाजिक और व्यक्तिगत समस्याओं और अव्यवस्थाओं का सामना करना पड रहा है उसकी कल्पना भी हमें नहीं है। ब्राह्मण वर्ण के लोगों का प्रभाव समाज में बहुत हुआ करता था। इसे अंग्रेज जान गए थे। ऐसा नहीं कि उस समय के सभी ब्राह्मण बहुत तपस्वी थे, लेकिन ऐसे तप करनेवाले ब्राह्मण भी रहे होंगे। हम भी देखते हैं कि हिन्दुत्ववादी से लेकर कांग्रेसी तथा कम्यूनिस्ट विचारधारा के प्रारम्भ के नेताओं में ब्राह्मण वर्ण के लोग बड़ी संख्या में थे। डॉ. बाबासाहेब अम्बेडकर के लिए अत्यंत आदरणीय ऐसे उनके शिक्षक श्री आम्बावडेकर से लेकर तो उनके विविध आन्दोलनों में सहभागी कई नेता ब्राह्मण थे।

किसी व्यवस्था को तोड़ना तुलना में आसान होता है। लेकिन व्यवस्था निर्माण करना अत्यंत कठिन काम होता है। हमने वर्ण व्यवस्था का कोई विकल्प ढूँढे बिना ही इसे नष्ट होने दिया है यह बुद्धिमानी का लक्षण तो नहीं है। ऐसे तो हम नहीं थे। इस परिप्रेक्ष में हमें वर्ण व्यवस्था को समझना होगा।[1]

वर्ण के कई अर्थ

लक्ष्मण शास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति ज्ञानकोष में वर्ण इस शब्द के कई अर्थ दिये है। एक है 'रंग'। लाल, पीला आदि सात रंग और इन के एक दूसरे में मिलाने से निर्माण होने वाली अनगिनत छटाओं को वर्ण की संज्ञा दी हुई है। दूसरा अर्थ 'ध्वनि' है। हमारे स्वर यंत्र से जो ध्वनि निकलती है, उसे भी वर्ण कहते है। इस ध्वनि को विशिष्ट चिन्हों के आधार पर जाना जाता हे। इन चिह्नों को हम अक्षर भी कहते है और वर्ण भी कहते है। स्वर और व्यंजनों के अक्षरों की माला को हम अक्षरमाला भी कहते है और वर्णमाला भी कहते है।

वर्ण का तीसरा और जो इस लेख के लिये लागू अर्थ है वह है 'वृत्ति या स्वभाव'। मनुष्य जाति का उस की प्रवृत्तियों या स्वभाव के अनुसार वर्गीकरण होता है। यह वर्गीकरण अत्यंत स्वाभाविक होता है। और हर समाज में होता ही है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र यह वे चार वर्ग है।

वर्ण और वरण इन शब्दों में साम्य है। वरण का अर्थ है चयन करना। जो वरण किया जाता है उसे वर्ण कहते है। जन्म लेने वाला जीव अपने पूर्वजन्मों के कर्मो के अनुसार नये जन्म में ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' लेकर आता है। अपने पूर्वजन्मों के कर्मों से ‘स्वभाव या प्रवृत्ति' का वरण करता है। नये जन्म में बच्चा न केवल स्वभाव या प्रवृत्ति का वरण करता है, अपने माता पिता और व्यावसायिक कुशलता का यानी जाति का भी वरण करता है। इस कारण जाति व्यवस्था, व्यापक वर्ण व्यवस्था का हिस्सा बन जाती है। वर्ण व्यवस्था कहने से जाति व्यवस्था का और वर्ण व्यवस्था का दोनों का बोध होता है। दोनों को अलग नहीं किया जा सकता।

हर मनुष्य का स्वभाव, उस की प्रवृत्तियाँ, उस के गुण, उस की क्षमताएं, उस की व्यावसायिक कुशलताएं आदि भिन्न होते है। विशेष प्रकार के काम वह सहजता से कर सकता है। इन सहज कर्मों का विवरण हम आगे देखेंगे। मनुष्य जब अपने इन गुणों के आधारपर अपने काम के स्वरूप का व्यवसाय का या आजीविका का चयन और निर्वहन करता है तब उस का व्यक्तिगत जीवन और साथ ही में समाज का जीवन भी सुचारू रूप से चलता है। इसी को व्यवस्था में बिठाकर उसे वर्ण व्यवस्था का नाम दिया गया था।

समाज में विभूति संयम

देशिक शास्त्र[2] के अनुसार और पहले बताए वर्ण और जाति व्यवस्था के मूल आधार के अनुसार मनुष्य का स्वार्थ और समाज के हित में संतुलन बनाये रखने के लिये तथा समाज की आवश्यकताओं की निरंतर आपूर्ति के लिये यह व्यवस्थाएं स्थापित की गईं थीं। हर समाज घटक को कुछ विशेष त्याग भी करना होता था याने जिम्मेदारियाँ थीं और अन्यों से कुछ विशेष महत्वपूर्ण, ऐसी कुछ श्रेष्ठ बातें याने कुछ विभूतियाँ प्राप्त होतीं थीं। मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह वे चार विभूतियाँ थीं। इन के बदले में समाज के लिये कुछ त्याग भी करना होता था। इनको हम इस लेख में देख सकते हैं।

ब्राह्मण वर्ण के व्यक्ति को ज्ञानार्जन और ज्ञानदान की, समाज को श्रेष्ठतम आदर्शों का अपने प्रत्यक्ष व्यवहार के माध्यम से मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी थी। भिक्षावृत्ति से जीने का आग्रह था। इस के प्रतिकार में ब्राह्मण समाज सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी माना जाता था। अपने बल, कौशल, निर्भयता, न्यायदृष्टि के आधारपर समाज का संरक्षण करने के लिये जान की बाजी लगाने की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के व्यक्ति को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे ऐश्वर्य और सत्ता की विभूति समाज से प्राप्त होती थी। समाज के पोषण के लिये उत्पादन, वितरण और व्यापार की जिम्मेदारी वैश्य को दी गई थी। इस के प्रतिकार में उसे संपत्ति संचय और आरामयुक्त जीवन की, विलास की विभूति समाज की ओर से प्राप्त होती थी। शूद्र को विभूति के रूप में मिलती थी निश्चिन्तता। और इस के प्रतिकार में उस की जिम्मेदारी थी कि वह अन्य तीनों वर्णों के व्यक्तियों की सेवा करे। जिस से उन्हें अपने कर्तव्यों की पूर्ति के लिये अध्ययन अनुसंधान, प्रयोग और व्यवहार के लिये अवकाश प्राप्त हो सके।

जिस समाज में विभूति संयम की जगह विभूति संभ्रम निर्माण होता है वह समाज रोगग्रस्त हो जाता है। ब्राह्मण होने के नाते सम्मान चाहिये और शूद्रों की भाँति निश्चिन्तता भी चाहिये यह नहीं चलेगा। या क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य और वैश्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और विलास भी मिलें यह नहीं चल सकता। वर्तमान शिक्षा और लोकतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के कारण प्रत्येक को ब्राह्मण की तरह सम्मान चाहिये, क्षत्रियों की तरह ऐश्वर्य, वैश्यों की तरह संपत्ति संचय के अधिकार और शूद्र की तरह निश्चिन्तता ऐसा सभी चाहिये। वर्तमान दुर्व्यवस्था का यह भी एक प्रबल कारण है कि वर्तमान सामाजिक जीवन के प्रतिमान के कारण विभूति संभ्रम निर्माण हो गया है। और वर्तमान लोकतंत्र और वर्तमान शिक्षा दोनों इस संभ्रम में वृद्धि कर रहें हैं। इस लोकतंत्र में समाज के लिये त्याग करने के लिये कोई तैयार नहीं है लेकिन मान, ऐश्वर्य, विलास और निश्चिन्तता यह चारों विभूतियाँ हर एक को चाहिये। समाज के लिये त्याग करने की किसी की तैयारी नहीं होने से समाज की संस्कृति भी नष्ट होती है।

स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारियां

मानव जीवन का सामाजिक स्तर पर लक्ष्य स्वतंत्रता है। स्वतंत्रता तीन प्रकार की होती है। आर्थिक स्वतंत्रता, शासनिक स्वतंत्रता और स्वाभाविक स्वतंत्रता। स्वाभाविक स्वतंत्रता में शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश होता है। पूरे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा करने की जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है। इसी तरह शासनिक और आर्थिक इन दोनों स्वतंत्रताओं का समावेश शासनिक स्वतंत्रता में हो जाता है। शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी क्षत्रिय वर्ण के लोगों की है। और आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी वैश्य की है। स्वाभाविक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का कोई अवरोध नहीं हो। ऐसे ही शासनिक स्वतंत्रता का अर्थ है मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म को जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का शासनिक अवरोध नहीं हो। इसी तरह आर्थिक स्वतंत्रता से तात्पर्य है कि मनुष्य को अपने किसी भी स्वाभाविक कर्म जो अन्यों का अहित करनेवाला नहीं है, के करने में किसी भी प्रकार का आर्थिक अवरोध न हो। इस प्रकार से सारे समाज की स्वाभाविक (सर्वोच्च) स्वतंत्रता की जिम्मेदारी लेने के कारण (लेने वाला) ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी बनता है। ऐसी जिम्मेदारी न लेने वाला ब्राह्मण सर्वोच्च सम्मान का अधिकारी नहीं बन सकता। इसी तरह जो क्षत्रिय, समाज की शासनिक स्वतंत्रता की रक्षा की जिम्मेदारी नहीं लेता वह भी दूसरे क्रमांक के सम्मान का अधिकारी नहीं रहता। यही बात आर्थिक स्वतंत्रता के सम्बन्ध में वैश्य के लिए भी लागू है।

वर्ण व्यवस्था यह इस सामाजिक विभूति संयम को और स्वतंत्रता की रक्षा की व्यवहार में आश्वस्ति हेतु निर्माण की गई व्यवस्था है।

वर्ण व्यवस्था और वर्ण अनुशासन

परमात्मा ने सृष्टि को संतुलन के साथ बनाया है। संतुलन बनाए रखने की व्यवस्था भी की है। अर्थात् मनुष्य निर्माण किया है तो उस की आवश्यकताओं की पूर्ति के लिये प्राकृतिक संसाधन भी बनाए है। मनुष्य समाज ठीक से जी सके इस लिये चार प्रकार की प्रवृत्तियों के लोगों को आवश्यक अनुपात में परमात्मा पैदा करता ही रहता है। इसी लिये श्रीमद्भगवद्गीता[3] में भगवान कहते है:

चातुर्वर्ण्यम् मया सृष्टं गुणकर्म विभागश: (4-13)

जिस वर्ण का वह मनुष्य होता है उस के गुण लक्षण अन्य वर्ण के मनुष्य से भिन्न होते है। हिन्दू समाज की विशेषता यह रही की इस के मार्गदर्शकों ने, पूर्वजन्मों के कर्मों के अनुसार नये जन्म में वर्ण विशेष का ‘स्वभाव ‘ लेकर आये मनुष्य के इन वर्णों के गुण लक्षणों को समझकर, समाज में इन का संतुलन बनाये रखने के लिये इन्हें एक व्यवस्था में ढाला। जन्म से या शिशु अवस्था से वर्ण तय होने से वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा के माध्यम से बालक के वर्णगत गुणों में शुद्धि और वृद्धि की जा सकती है। इसी व्यवस्था को वर्ण व्यवस्था कहते है। वर्ण व्यवस्था के दो प्रमुख अंग है।

  1. वर्ण विशेष के गुण लक्षण लेकर आये शिशु / बालक का 'स्वभाव' और गुण लक्षणों को समझना। अर्थात शिशु / बालक का वर्ण तय करना।
  2. शिशु / बालक के तय किये वर्ण के गुण लक्षणों में शुद्धि और वृद्धि के लिये अनुकूल और अनुरूप संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था करना। ऐसा करने से वर्णगत गुणों की तीव्रता में शुद्धि और वृद्धि होती है। समाज सुसंस्कृत बनता है।

जीवंत इकाई के अंग

मनुष्यों के स्वभाव के वर्गीकरण के अनुसार चार वर्ग बनते है। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र। इन प्रवृत्तियों के अनुसार वह वर्ग विशिष्ट प्रकार के कर्म ही अच्छी तरह कर सकता है। इन वर्गों की विशिष्ट प्रवृत्तियों की चर्चा हम आगे करेंगे। अभी इतना हम समझ लें की हर जीवंत इकाई में इन चार प्रवृत्तियों के अनुसार कर्म करनेवाला उस समाज का या जीवंत इकाई का कोई अंग अवश्य होता है। जैसे मनुष्य का शरीर। यह एक जीवंत इकाई है। इस में भी ब्राह्मण की भूमिका में सिर, क्षत्रिय की भूमिका में हाथ, वैश्य की भूमिका में पेट और शूद्र की भूमिका में पैर काम करते है।

ॠग्वेद के पुरूषसूक्त में (१०-९०) और यजुर्वेद (यजुर्वेद ३१-११) में भी यही बताया गया है[4]

ब्राह्मणोऽस्य मुखमासिद् बाहू राजन्य: कृत: ।

ऊरू तदस्य यद्वैश्य पदभ्याँ शूद्रोऽअजायत ॥

जीवंत इकाई के हर अंग का महत्व होता है। किसी भी अंग की हानि, अंगी की यानी जीवंत इकाई की हानि होती है। मनुष्य के शरीर में जैसे पैर की हानि शरीर की हानि होती है इसी तरह समाज में किसी भी मनुष्य की या वर्ण की या जाति की हानि होती है। किंतु इस का अर्थ यह नहीं की हाथ का काम कान करने लगे। हाथ का काम अलग है और कान का काम अलग है। प्रत्येक का मनुष्य के अस्तित्व का अलग महत्व है। अलग प्रयोजन है। जिस प्रकार हम शरीर के प्रत्येक अंग के स्वास्थ्य की चिंता करते है, उसी प्रकार से समाज में विभिन्न घटकों का महत्व कम अधिक होने पर भी सभी के साथ, हम अपने शरीर के प्रत्येक अंग के साथ, वह अपना अंग है यह ध्यान में रखकर जैसा व्यवहार करते है, वैसा यानी ‘मेरा अपना सगा’ जैसा व्यवहार तो होना ही चाहिये ।

वर्णों की विशेषताएं

मनुष्य जो भी कुछ ज्ञानेंद्रियों के माध्यम से अनुभव करता है उसे वह दिमाग में संग्रहित करता है। उस का विश्लेषण करता है और शरीर के विभिन्न कर्मेन्द्रियों को 'कर्म करने की' सूचना देता है। सामान्यत: कर्मेंद्रिय इस सूचना के अनुसार कर्म करते है। जब किसी मनुष्य में मस्तिष्क या कर्मेन्द्रिय इस प्रकार से काम नहीं करते इसे अस्वस्थता का या रोग का लक्षण माना जाता हे। समाज में मस्तिष्क की भूमिका ब्राह्मण वर्ण के लोगों की होती है। ब्राह्मण ज्ञान प्राप्त करते है। फिर उस ज्ञान का विश्लेषण कर मानव समाज की समस्याओं को सुलझाने के लिये सुझाव देते है। समाज में यदि कुछ अनिष्ट निर्माण हुए हैं तो उनकी प्राथमिक जिम्मेदारी ब्राह्मण वर्ण के लोगों की है।

मनुष्य के शरीर में हाथ बाहर के खतरों से शरीर की रक्षा करते है। कहीं खुजली होती है, मोच आती है तो ऐसी शरीर की अंतर्गत समस्याओं के निवारण का भी काम करते है। इसी तरह समाज में क्षत्रिय वर्ण के लोग समाज का बाहरी और आंतरिक खतरों से रक्षण करते है।

मानव शरीर में पेट भोज्य पदार्थों को ग्रहण करता है। उन्हें पचाकर शरीर के विभिन्न अंगों का और इंद्रियों का पोषण करता है। यही कार्य समाज में वैश्य वर्ण के लोग करते है। यह लोग समाज के लिये उपयुक्त पदार्थ बनाकर समाज के भिन्न भिन्न अंगों को आवश्यकतानुसार वितरण करते है।

मानव शरीर का चौथा अंग है 'पाँव'। यह शरीर के भार को ठीक से वहन करता है। उठने, बैठने, चलने, दौडने की सभी क्रियाएं पाँव ही करते है। मानव समाज में भी चौथा वर्ग होता है। इसे शूद्र कहा जाता है। यह पूर्ण समाज की सेवा के लिये ही निर्माण होता है।

जिस प्रकार से हर स्वस्थ मानव शरीर में यह चारों अंग अपना अपना काम करते है, स्वस्थ समाज में भी चार स्वभावों के याने चार वर्णों या वर्गों के लोग करते है। जिस प्रकार से मानव शरीर में चारों अंग महत्वपूर्ण होते है उसी प्रकार समाज में भी यह चारों वर्ण महत्वपूर्ण होते है। जिस प्रकार से मानव शरीर में एक भी अंग को हानि पहुंचने से पूरे शरीर की हानि होती है उसी प्रकार से समाज में भी किसी एक भी वर्ण के कर्म में गडबडी होने से पूरे समाज को हानि होती है।

वर्णों के कर्म

श्रीमद्भगवद्गीता में चारों वर्णों के 'स्व' भावज कर्म बताये हैं। श्रीमद्भगवद्गीता योग 'शास्त्र' है। इस में प्रस्तुत सूत्र हजारों वर्षों से आज तक प्रासंगिक है और आगे भी रहेंगे। 'स्व' भावज कर्म यानी जिनको करने से करने वाले को बोझ नहीं लगता।

ब्राह्मण के गुण और कर्मों के लक्षणों का वर्णन है[5]

शमो दमस्तप: शाप्रचं क्षान्तिरार्जवमेव च ।

ज्ञानं विज्ञानमास्तिक्यं ब्रह्मकर्म स्वभावजम् ॥ 18-42 ॥

अर्थात् शम ( मनपर नियंत्रण), दम (इंद्रियों का दमन), तप (कार्य के लिये कठिनाई का सामना करने की शक्ति), शौच (अंतर्बाह्य पवित्रता/शुचिता - जल और माटी से शरीर की और धनशुद्धि, आहारशुद्धि और आचारशुद्धि से आसक्ति, कपट, द्वेषभाव आदि को दूर करने वाली आंतरिक शुद्धि), शान्ति (बिना हडबडाए व्यवहार करना), आस्तिक्यम् (आस्तिक बुध्दि), ज्ञान (ब्रह्म) और विज्ञान(अष्टधा प्रकृति) की समझ और वैसा व्यवहार। मनुस्मृति में ब्राह्मण के कर्म बताए गये हैं[6]:

अध्यापनमध्ययनं यजनं याजनं तथा ।

दानं प्रतिग्रहंचैव ब्राह्मणानामकल्पयत् ॥ 1-88 ॥

अर्थ : पढना / पढाना, यज्ञ करना/कराना और दान लेना/देना यह ब्राह्मण के कर्म है। इसी प्रकार से क्षत्रिय के गुण लक्षण बताए गये है[7]:

शौर्यं तेजो धृतिर्दाक्ष्यं युध्दे चाप्यपलायनम् ।

दानमीश्वरभावश्च क्षात्रं कर्म स्वभावजम् ।। 18-43 ।।

शौर्य, तेज, धैर्य, कार्य-दक्षता, युध्द में से भागना नहीं, दान देने का स्वभाव और ईश्वर भाव यानीं रक्षक के भाव से व्यवहार करना - क्षत्रिय के गुण/लक्षण है। क्षत्रिय के कर्म मनुस्मृति में बताए गये हैं[8]:

प्रजानां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।

विषयेष्वप्रसक्तिश्च क्षत्रियस्य समासत: ॥ 1-89 ॥

प्रजा की रक्षा करना, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, विषयों में अनासक्त रहना यह क्षत्रिय के स्वभाविक कर्म है। वैश्य के विषय में कहा है[9]

कृषिगोरक्षवाणिज्यं वैश्यकर्म स्वभावजम् ।। 18-44 ।।

अर्थ : खेती करना, गौ आदि धन की रक्षा और संवर्धन करना और व्यापार करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है। वैश्यों के कर्म के विषय में लिखा है[10]:

पशूनां रक्षणं दानमिज्याध्ययनमेव च ।

वणिक्पथं कुसीदंच वैश्यस्य कृषिमेव च ॥ 1-90 ॥

अर्थ : पशूपालन, दान देना, यज्ञ करना, अध्ययन करना, व्यापार करना, साहुकारी और खेती करना यह वैश्य के स्वाभाविक कर्म है। शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है:[11]

परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् ।

एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत् ।। 18-44।।

एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया ॥[12]

मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगों की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है। श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है[13]:

स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा ।। 18-4 ।।

याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है[14]

श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात ।। 18-47 ।।

याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।

महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगम संपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है इसलिए उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।

वर्ण निश्चिति और वर्ण शिक्षा

प्रत्येक मानव में सत्व, रज और तम तीनों गुण होते ही है। लेकिन जो गुण उस में प्रबल होगा उसी प्रकार का मानव उसे माना जाता है। सत्व गुण प्रबल होने से सात्विक और तमोगुण प्रबल होने से तामसी स्वभाव वाला। उसी प्रकार से प्रत्येक मानव में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र के ऐसे चारों वर्णों के गुण और कर्मों के लक्षण तो कम अधिक प्रमाण में होते ही है। लेकिन जब उस में ब्राह्मण वर्ण के गुण प्रबल होंगे तब उसे ब्राह्मण वर्ण वाला माना जाता है। शूद्र वर्ण के गुण प्रबल होंगे तब उसे शूद्र वर्ण वाला ही माना जाता है।

ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गुरूकुलों में वर्ण तय होते थे। गुरूकुलों में प्रवेश से पूर्व घरों में बच्चे की रुचि जानने के प्रयास होते थे। प्राचीन काल से हमारे समाज में बच्चे की वृत्ति शिशु अवस्था में जानने की प्रथा थी। ७,८,९, महीने का बच्चा जब बैठने लग जाता था तो उस के सामने भिन्न भिन्न विकल्प रखे जाते थे। लेखनी / पुस्तक, तलवार / अन्य कोई हथियार, तराजू / बाट और परिचर्या / सेवा के साधन आदि। बच्चा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार उन में से एक वस्तू से खेलने लग जाता है। इस प्रकार वर्ण की एकदम मोटी पहचान कर तय किया जाता था कि बच्चे को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये। किस वर्ण के शिशु को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये यह हम आगे चलकर देखेंगे।

और भी कहा गया है[citation needed]-

लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्

प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रंमित्रवदाचरेत् ॥

इस सूत्र में भी यही बताया गया है कि बच्चे को ५ वर्ष तक लाड प्यार से बढाना चाहिये। उसे डाँटना मारना नहीं चाहिये। इन पाँच वर्षों में उस का निरीक्षण करते रहना चाहिये। ऐसा करने से बच्चे की अभिव्यक्ति मुक्त रहेगी। और उसकी रुचि, उस का स्वभाव, उस के गुण और लक्षण समझना सहज और सरल हो जाएगा। इस के उपरांत बच्चे की रुचि, स्वभाव, गुण और लक्षणों के अनुरूप योग्य आयु में गुरूकुल में प्रवेश के लिये ले जाना होता था:[15]

गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् ।

गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ॥ 2-36 ॥

ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे

राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ 2-37 ॥

आ षोडषाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते ।

आ द्वाविंशात्क्षत्रबंधोरा चतुर्विशतेर्विश: ॥ 2-38 ॥

अर्थ : ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस बच्चे में दिखाई दिये हों ऐसे बच्चे को गर्भधारणा से या प्रत्यक्ष जन्म से ५ वें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे वर्ष में और वैश्य को आठवें वर्ष में गुरुकुल में प्रवेश के लिये लाया जाता था ( उपर्युक्त 2-37)।

गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित कर उपनयन किया जाता था। ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस में प्रकट हुए है उस का उपनयन आठवें वर्ष में क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन होता था। (2-38)

जो बच्चे इस आयु तक अपने को सिद्ध नहीं कर पाते उन की आगे भी परीक्षा चलती रहती थी। परीक्षा के आधारपर ब्राह्मण को उपनयन का सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय को बावीस वर्ष तक और वैश्य को चौबीस वर्ष तक अवसर होता था। (2-38)

इस आयु तक जो अपने को इन तीन वर्णों के योग्य सिद्ध नहीं कर पाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण प्राप्त होता था। अपने को सिद्ध करने का पूरा अवसर मिलने के कारण और अपनी अक्षमता समझ में आने से जिसे शूद्र वर्ण प्राप्त होता था उस में सामान्यत: अन्य वर्णों के लोगों के प्रति असूया का भाव पनपता नहीं था।

बगैर किसी भेदभाव के हर बच्चे को उस के स्वभाव, गुण, लक्षणों के अनुसार वर्ण की प्राप्ति होती थी। इसलिये एक वर्ण के मानव का दूसरे वर्ण के मानव के साथ कोई द्वेषभाव नहीं रहता था। अपने स्वभाव के अनुसार कर्म करने की दृष्टि से शिक्षण और प्रशिक्षण प्राप्त होने से बच्चा अपने स्वाभाविक कर्मों में और व्यवसाय में भी कुशल बन जाता था। अपनी व्यावसायिक कुशलता का अभिमान संजोता था। अपने व्यवसाय को उसे बोझ नहीं होता था। व्यवसाय के काम में आनंद लेता था और लोगों को भी आनंद ही बाँटता था। बालक के जन्म से वर्ण जानने के और उसे और सुनिश्चित करने के कई उपाय हुआ करते थे। इन में से कुछ तो हर माता पिता को पता होते थे। ऐसे कुछ उपायों का विवरण हम आगे देखेंगे।

आगे गुरूकुलों में केवल ब्राह्मण और क्षत्रिय की ही शिक्षा होने लगी। वैश्य बच्चों की व्यावसायिक कुशलता की शिक्षा परिवार में और धर्म की शिक्षा लोक-शिक्षा के माध्यम से होने लगी। काल के प्रवाह में आवश्यकता के अनुसार ऐसे परिवर्तन तो हुए होंगे।

बालक के जन्म से या विविध आयु की अवस्थाओं में वर्ण जानने के उपाय

  1. सर्व प्रथम तो बालक के गुण और स्वभाव का परिचय माता की गर्भावस्था से ही मिलने लग जाता है। जब पाँचवें महीने में बालक का हृदय बनने लगता है, तब माता के शरीर में दो हृदय होते है। इसे गर्भवती की दोहृद अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में माता की पसंद, पसंद या आदतों में परिवर्तन, माता के मन में विकसित भावनाएं आदि के माध्यम से बालक के स्वभाव की जानकारी मिलती है। बालक की वृत्ति कैसी होगी यह पता चलता है।
  2. प्रसूति के समय और जन्म के स्थान के अनुसार बालक की जन्म पत्रिका बनती है। पत्रिका में ग्रहों की स्थिति के अनुसार भी बालक का वर्ण जाना जा सकता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जन्म पत्रिका का कोई शास्त्रीय आधार नहीं होता। ज्योतिष कोई शास्त्र नहीं है। वह तो केवल अटकलबाजी होती है। वास्तव में वे यह नहीं जानते कि ज्योतिष दो प्रकार का होता है। ग्रह ज्योतिष और फल ज्योतिष। इन में ग्रह ज्योतिष तो शुध्द खगोल गणित है। खगोल शास्त्र है। पत्रिका में ग्रहों की स्थिति देख कर भविष्य बताने में, पर्याप्त अध्ययन और साधना के अभाव में वह अटकलबाजी बन जाता है। और एक बात वे नहीं जानते कि ज्योतिष वेदांग है। वेद के छ: अंगों में से एक है। ग्रह ज्योतिष को अशास्त्रीय कहना तो वेदों को अशास्त्रीय कहने जैसा है।
  3. बालक के सोने के समय उसे लोरियाँ सुनाई जातीं है। आचार्यों का, अवतारों का, त्यागी विद्वान ब्राह्मणों का, पराक्रमी विजयी शूर-वीरों का, व्यापारियों का, किसानों का, समाज पोषण का, कला कारीगरी का, सेवा परिचर्या का, ऐसे विभिन्न भावों वाली लोरियों में बालक को कौन सी लोरियाँ पसंद है यह जानने से भी बालक के वर्ण की पुष्टि हो सकती है।
  4. लोरियों की ही तरह विभिन्न वर्णों के महापुरूष और महान स्त्रियों की कहानियों में बच्चे को कौन सी कहानियाँ पसंद है इस के आधार पर भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है।
  5. जब बालक बैठने लग जाता है उस के आसपास लेखन की सामुग्री, किताबें, धार नहीं है ऐसे छोटे छोटे शस्त्र, तराजू और बाट, परिचर्या के साधन आदि रखकर यह निरीक्षण किया जाता है की वह किन वस्तुओं को अधिक पसंद करता है, किन वस्तुओं को लेने और खेलने का प्रयास करता है। इन निरीक्षणों के आधारपर भी वर्ण की मोटी मोटी पुष्टि हो सकती है।
  6. बालक जब खेलने लगता है तो कैसे खेल उसे पसंद आते है, खेलों में उस की भूमिका कैसी रहती है, उस का व्यवहार कैसा रहता है इस से भी बालक के वर्ण की पुष्टि हो सकती है। ऐसा कहते है कि चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चयन, चंद्रगुप्त के खेल और उस खेल में चंद्रगुप्त की भूमिका और व्यवहार देखकर किया था।
  7. चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
  8. जिन बच्चों की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चों के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।
  9. जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगों का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगों को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और जाति व्यवस्था के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।

वर्ण संतुलन व्यवस्था

वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।

समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी धार्मिक (धार्मिक) साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से शायद संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौर पर यह अनुपात ठीक ही लगता है।

वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता

विविध वर्णों के स्वाभाविक कर्म हमने देखे। इन कर्मों का समाज की दृष्टि से महत्व ध्यान में लेकर वर्णों में सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मण फिर क्षत्रिय, फिर वैश्य और अंत में शूद्र ऐसी पहले से दूसरा कनिष्ठ, दूसरे से तीसरा कनिष्ठ और तीसरे से चौथा कनिष्ठ ऐसी मान्यता समाज में दृढमूल हो गई। यह स्वाभाविक भी है। जैसे मनुष्य के शरीर के मस्तिष्क, हाथ, पेट और पैर यह सभी महत्वपूर्ण होते है। किंतु जब शरीर पर संकट आता है तब सबसे अधिक महत्व मस्तिष्क को उस के उपरांत हाथों को, उस के बाद पेट को और सबसे अंत में पैरों को महत्व दिया जाता है। समाज के हित के लिये नि:स्वार्थ भाव से जो जितना अधिक त्याग करेगा, जो जितना अधिक उपयोगी होगा उसे उतनी अधिक प्रतिष्ठा मिलना तो स्वाभाविक ही है।

हमने पूर्व में देखा है कि ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी समूचे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा की होती है, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की आश्वस्ति की है और वैश्य की जिम्मेदारी समाज के प्रत्येक घटक की आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की है। इस प्रकार से ब्राह्मण की जिम्मेदारी सबसे अधिक होने से उसे सर्वोच्च सम्मान क्षत्रिय को उससे कम तथा वैश्य को उससे भी कम सम्मान मिले यह न्यायोचित ही है।

परमात्मा ने सृष्टि में कुछ भी एक जैसा नहीं बनाया है। एक पेड के लाखों पत्ते होते है। लेकिन कोई दो पत्ते एक जैसे नहीं होते । वनस्पति के गुणों की दृष्टि से एक श्रेष्ठ और दूसरा कनिष्ठ होता ही है। इसी तरह दो मनुष्यों में एक श्रेष्ठ और दूसरा कनिष्ठ होता ही है। लेकिन श्रेष्ठ कनिष्ठ होने से मानव के साथ पशू जैसे व्यवहार का कोई समर्थन नहीं किया जा सकता। वर्ण व्यवस्था में, जिस प्रकार और जिस अर्थ से आरोप किया जाता है उच्च-नीचता को कोई स्थान नहीं है।

वर्ण परिवर्तन

धार्मिक समाज की व्यवस्थाओं की विशेषता यह रही है की यह पर्याप्त लचीली रही है । बालक के जन्म से वर्ण जानने की और उसे सुनिश्चित करने की, वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था क्षीण हो जाने से वर्ण व्यवस्था को आनुवांशिक बनाया गया होगा। या शायद आनुवांशिक वर्ण व्यवस्था में त्रुटियाँ आ जाने से वर्ण के अनुसार शिक्षा और संस्कार की गुरुकुलों की योजना चलाई गयी होगी। दोनों ही व्यवस्थाओं में अपवाद तो होंगे ही। यह जानकर वर्ण परिवर्तन की भी व्यवस्था रखी गई थी। हम देखते है कि वेश्यापुत्र जाबालि को गुरूकुल की ओर से उस के गुण लक्षण ध्यान में लेकर ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआथा।

प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे।

महाभारत में लिखा है:[16]

शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: ।। 63-4 ।।

अर्थ है शूद्र क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है। आगे और कहा है:[17]

शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।

न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ।। 198-8 ।।

अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वाल्मिकी जैसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये।

जब ब्राह्मण वर्ण के माता पिता बच्चे को उस का वर्ण जाने बिना ही ब्राह्मण वर्ण के संस्कार करते है। लेकिन उस के स्वभाव, गुण लक्षण जो वह बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आया है वह वैश्य वर्ण के है। उस स्थिति में वह बच्चा न तो अच्छा ब्राह्मण बनेगा और न ही अच्छा वैश्य बनगा।

यह व्यवस्था बौद्ध काल में भी चलती आई थी। बौद्ध साहित्य में भी इस के प्रमाण मिलते है।

कहा है[citation needed]

न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।

कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥

अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ 'जन्म से' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है। यह तो हुआ जो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था[18]:

शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: ।

वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ।। 10-43 ।।

आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।

एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है।

- भगवान ॠषभदेव की १००० संतानें थीं। उन में से एक भरत तो राजा बना और ८० पुत्र ब्राह्मण बने।

- क्षत्रिय मुद्गल जाति के वंशज कालंतर से मौद्गल्य (ब्राह्मण) बने।

- नहुष राजा का पुत्र संयाति तपोबल से ब्राह्मण बना।

- राजा बलि के कुछ वंशज क्षत्रिय और कुछ ब्राह्मण बने।

- गृत्समति, वत्स और भर्ग के वंशजों को भिन्न भिन्न वर्ण प्राप्त हुए।

- विश्वामित्र, मांधाता, कपि, पुरूकुत्स, सत्य, अनुवाहन, अजामीढ़, कक्षीवान, विष्णुवृध्द आदि जाति से क्षत्रिय लोग तप से ब्राह्मण बने।

श्रीमद्भागवत में भी ऐसे कई उदाहरण दिये गये है।

वर्तमान में भी जो शूद्र माने जाते है, उनके बच्चों की जन्मपत्रियों को देखें तो दिखाई देगा कि चारों वर्णों के बच्चे उन में है। और जो ब्राह्मण माने जाते है, ऐसे कई ब्राह्मणों के बच्चों की जन्मपत्रियों के अनुसार उन में ब्राह्मण वर्ण का कोई भी बच्चा नहीं है। तात्पर्य यह है कि पूरा परिवार एक वर्ण का ही हो यह आवश्यक नहीं है। एक ही परिवार में भिन्न वर्ण के लोगों का होना स्वाभाविक है। लेकिन माता पिता से, आनुवांशिकता से आये पूर्वजों के अन्वयागत संस्कार या व्यावसायिक कुशलताओं के संस्कार आनुवांशिक होने से पूरा परिवार होगा उसी जाति का जो उन के पुरखों की थी।

यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे

जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।

इस दृष्टि से धार्मिक (धार्मिक) जाति व्यवस्था में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (धार्मिक) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (धार्मिक) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।

इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगों का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।

References

  1. जीवन का धार्मिक प्रतिमान-खंड १, अध्याय १५ लेखक - दिलीप केलकर
  2. बद्रीशा ठुलधरिया, प्रकाशक पुनरुत्थान प्रकाशन पृष्ठ ९६
  3. श्रीमद्भगवद्गीता 4-13
  4. ॠग्वेद पुरूषसूक्त (१०-९०) और यजुर्वेद (३१-११)
  5. श्रीमद्भगवद्गीता 18-42
  6. मनुस्मृति: 1-88
  7. श्रीमद्भगवद्गीता 18-43
  8. मनुस्मृति 1-89
  9. श्रीमद्भगवद्गीता 18-44
  10. मनुस्मृति 1-90
  11. श्रीमद्भगवद्गीता 18-44
  12. मनुस्मृति 1-91
  13. श्रीमद्भगवद्गीता 18-4
  14. श्रीमद्भगवद्गीता 18-47
  15. मनुस्मृति 2-36, 2-37, 2-38
  16. महाभारत शांतिपर्व 63-4
  17. महाभारत शांतिपर्व 198-8
  18. मनुस्मृति 10-43

अन्य स्रोत:

1. प्रजातंत्र अथवा वर्णाश्रम व्यवस्था, लेखक गुरुदत्त, प्रकाशक हिन्दी साहित्य सदन, नई दिल्ली

2. हिंदूंचे समाज रचना शास्त्र, लेखक गोविन्द महादेव जोशी,

3. हिंदूंचे अर्थशास्त्र भाग १, लेखक गोविन्द महादेव जोशी

4. संस्कृति कोश, लेखक लक्ष्मण शास्त्री जोशी

5. श्रीमद्भागवत पुराण