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ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गुरूकुलों में वर्ण तय होते थे। गुरूकुलों में प्रवेश से पूर्व घरों में बच्चे की रुचि जानने के प्रयास होते थे। प्राचीन काल से हमारे समाज में बच्चे की वृत्ति शिशु अवस्था में जानने की प्रथा थी। ७,८,९, महीने का बच्चा जब बैठने लग जाता था तो उस के सामने भिन्न भिन्न विकल्प रखे जाते थे। लेखनी / पुस्तक, तलवार / अन्य कोई हथियार, तराजू / बाट और परिचर्या / सेवा के साधन आदि। बच्चा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार उन में से एक वस्तू से खेलने लग जाता है। इस प्रकार वर्ण की एकदम मोटी पहचान कर तय किया जाता था कि बच्चे को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये। किस वर्ण के शिशु को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये यह हम आगे चलकर देखेंगे।
 
ऐसा कहा जाता है कि किसी समय गुरूकुलों में वर्ण तय होते थे। गुरूकुलों में प्रवेश से पूर्व घरों में बच्चे की रुचि जानने के प्रयास होते थे। प्राचीन काल से हमारे समाज में बच्चे की वृत्ति शिशु अवस्था में जानने की प्रथा थी। ७,८,९, महीने का बच्चा जब बैठने लग जाता था तो उस के सामने भिन्न भिन्न विकल्प रखे जाते थे। लेखनी / पुस्तक, तलवार / अन्य कोई हथियार, तराजू / बाट और परिचर्या / सेवा के साधन आदि। बच्चा अपनी स्वाभाविक प्रवृत्ति के अनुसार उन में से एक वस्तू से खेलने लग जाता है। इस प्रकार वर्ण की एकदम मोटी पहचान कर तय किया जाता था कि बच्चे को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये। किस वर्ण के शिशु को गुरूकुल में प्रवेश किस आयु में देना चाहिये यह हम आगे चलकर देखेंगे।
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और भी कहा गया है{{Citation needed}}-<blockquote>लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्</blockquote><blockquote>प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रंमित्रवदाचरेत् ॥</blockquote>इस सूत्र में भी यही बताया गया है कि बच्चे को ५ वर्षतक लाड प्यार से बढाना चाहिये। उसे डाँटना मारना नहीं चाहिये। इन पाँच वर्षों में उस का निरीक्षण करते रहना चाहिये। ऐसा करने से बच्चे की अभिव्यक्ति मुक्त रहेगी। और उसकी रुचि, उस का स्वभाव, उस के गुण और लक्षण समझना सहज और सरल हो जाएगा। इस के उपरांत बच्चे की रुचि, स्वभाव, गुण और लक्षणों के अनुरूप योग्य आयु में गुरूकुल में प्रवेश के लिये ले जाना होता था:<ref>मनुस्मृति 2-36, 2-37, 2-38</ref><blockquote>गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् ।</blockquote><blockquote>गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ॥ ( मनुस्मृति २-३६)</blockquote><blockquote>ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे</blockquote><blockquote>राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ ( मनुस्मृति २-३७)</blockquote><blockquote>आ षोडषाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते ।</blockquote><blockquote>आ द्वाविंशात्क्षत्रबंधोरा चतुर्विशतेर्विश: ॥ ( मनुस्मृति २-३८)</blockquote>अर्थ : ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस बच्चे में दिखाई दिये हों ऐसे बच्चे को गर्भधारणा से या प्रत्यक्ष जन्म से ५ वें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे वर्ष में और वैश्य को आठवें वर्ष में गुरुकुल में प्रवेश के लिये लाया जाता था ( उपर्युक्त -३७)।
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और भी कहा गया है{{Citation needed}}-<blockquote>लालयेत् पंचवर्षाणि दशवर्षाणि ताडयेत्</blockquote><blockquote>प्राप्ते तु षोडषे वर्षे पुत्रंमित्रवदाचरेत् ॥</blockquote>इस सूत्र में भी यही बताया गया है कि बच्चे को ५ वर्षतक लाड प्यार से बढाना चाहिये। उसे डाँटना मारना नहीं चाहिये। इन पाँच वर्षों में उस का निरीक्षण करते रहना चाहिये। ऐसा करने से बच्चे की अभिव्यक्ति मुक्त रहेगी। और उसकी रुचि, उस का स्वभाव, उस के गुण और लक्षण समझना सहज और सरल हो जाएगा। इस के उपरांत बच्चे की रुचि, स्वभाव, गुण और लक्षणों के अनुरूप योग्य आयु में गुरूकुल में प्रवेश के लिये ले जाना होता था:<ref>मनुस्मृति 2-36, 2-37, 2-38</ref><blockquote>गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनयनम् ।</blockquote><blockquote>गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विश: ॥ 2-36 ॥</blockquote><blockquote>ब्रह्मवर्चसकामस्य कार्यं विप्रस्य पंचमे</blockquote><blockquote>राज्ञो बलार्थिन: षष्ठे वैश्यस्येहार्थिनोऽष्टमे ॥ 2-37 ॥</blockquote><blockquote>आ षोडषाद् ब्राह्मणस्य सावित्री नातिवर्तते ।</blockquote><blockquote>आ द्वाविंशात्क्षत्रबंधोरा चतुर्विशतेर्विश: ॥ 2-38 ॥</blockquote>अर्थ : ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस बच्चे में दिखाई दिये हों ऐसे बच्चे को गर्भधारणा से या प्रत्यक्ष जन्म से ५ वें वर्ष में, क्षत्रिय को छठे वर्ष में और वैश्य को आठवें वर्ष में गुरुकुल में प्रवेश के लिये लाया जाता था ( उपर्युक्त 2-37)।
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गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित कर उपनयन किया जाता था। ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस में प्रकट हुए है उस का उपनयन आठवें वर्ष में क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन होता था। (-३८)
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गुरूकुल प्रवेश के बाद बच्चे को परखा जाता था। उस के उपरांत ही उस का वर्ण निश्चित कर उपनयन किया जाता था। ब्राह्मण के गुण लक्षण जिस में प्रकट हुए है उस का उपनयन आठवें वर्ष में क्षत्रिय का ग्यारहवें वर्ष में और वैश्य का बारहवें वर्ष में उपनयन होता था। (2-38)
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जो बच्चे इस आयु तक अपने को सिद्ध नहीं कर पाते उन की आगे भी परीक्षा चलती रहती थी। परीक्षा के आधारपर ब्राह्मण को उपनयन का सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय को बावीस वर्ष तक और वैश्य को चौबीस वर्ष तक अवसर होता था। (-३८)
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जो बच्चे इस आयु तक अपने को सिद्ध नहीं कर पाते उन की आगे भी परीक्षा चलती रहती थी। परीक्षा के आधारपर ब्राह्मण को उपनयन का सोलह वर्ष तक, क्षत्रिय को बावीस वर्ष तक और वैश्य को चौबीस वर्ष तक अवसर होता था। (2-38)
    
इस आयु तक जो अपने को इन तीन वर्णों के योग्य सिद्ध नहीं कर पाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण प्राप्त होता था। अपने को सिद्ध करने का पूरा अवसर मिलने के कारण और अपनी अक्षमता समझ में आने से जिसे शूद्र वर्ण प्राप्त होता था उस में सामान्यत: अन्य वर्णों के लोगों के प्रति असूया का भाव पनपता नहीं था।
 
इस आयु तक जो अपने को इन तीन वर्णों के योग्य सिद्ध नहीं कर पाते थे, उन्हें शूद्र वर्ण प्राप्त होता था। अपने को सिद्ध करने का पूरा अवसर मिलने के कारण और अपनी अक्षमता समझ में आने से जिसे शूद्र वर्ण प्राप्त होता था उस में सामान्यत: अन्य वर्णों के लोगों के प्रति असूया का भाव पनपता नहीं था।
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प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे।  
 
प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे।  
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महाभारत में लिखा है:<ref>महाभारत शांतिपर्व 63-4</ref><blockquote>शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: ।( महाभारत शांतिपर्व ६३-४)</blockquote>अर्थ है शूद्र क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है।
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महाभारत में लिखा है:<ref>महाभारत शांतिपर्व 63-4</ref><blockquote>शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: ।। 63-4 ।।</blockquote>अर्थ है शूद्र क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है।
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आगे और कहा है:<ref>महाभारत शांतिपर्व 198-8</ref><blockquote>शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।</blockquote><blockquote>न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ॥ ( महाभारत शांतिपर्व १९८-८)</blockquote>अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वाल्मिकी जैसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये।
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आगे और कहा है:<ref>महाभारत शांतिपर्व 198-8</ref><blockquote>शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।</blockquote><blockquote>न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ।। 198-8 ।। </blockquote>अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वाल्मिकी जैसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये।
    
जब ब्राह्मण वर्ण के माता पिता बच्चे को उस का वर्ण जाने बिना ही ब्राह्मण वर्ण के संस्कार करते है। लेकिन उस के स्वभाव, गुण लक्षण जो वह बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आया है वह वैश्य वर्ण के है। उस स्थिति में वह बच्चा न तो अच्छा ब्राह्मण बनेगा और न ही अच्छा वैश्य बनगा।
 
जब ब्राह्मण वर्ण के माता पिता बच्चे को उस का वर्ण जाने बिना ही ब्राह्मण वर्ण के संस्कार करते है। लेकिन उस के स्वभाव, गुण लक्षण जो वह बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आया है वह वैश्य वर्ण के है। उस स्थिति में वह बच्चा न तो अच्छा ब्राह्मण बनेगा और न ही अच्छा वैश्य बनगा।
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कहा है{{Citation needed}}<blockquote>न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।</blockquote><blockquote>कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥</blockquote>अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ ' जन्म से ' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है।  
 
कहा है{{Citation needed}}<blockquote>न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।</blockquote><blockquote>कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥</blockquote>अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ ' जन्म से ' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है।  
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यह तो हुआ जो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था<ref>मनुस्मृति 10-43</ref>:<blockquote>शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: ।</blockquote><blockquote>वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ ( मनुस्मृति १०-४३)</blockquote>आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।
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यह तो हुआ जो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था<ref>मनुस्मृति 10-43</ref>:<blockquote>शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: ।</blockquote><blockquote>वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ।। 10-43 ।।</blockquote>आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।
    
एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है।
 
एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है।
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