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शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-44</ref> <blockquote>परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् । </blockquote><blockquote>एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्  ।। 18-44।।</blockquote><blockquote>एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया  ॥<ref>मनुस्मृति 1-91</ref> </blockquote>मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगों की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है।  
 
शूद्र का एकमेव कर्म परिचर्या बताया है:<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-44</ref> <blockquote>परिचर्यात्मकं कर्म शूद्रस्यपि स्वभावजम् । </blockquote><blockquote>एकमेव तु शूद्रस्य प्रभु: कर्म समादिशत्  ।। 18-44।।</blockquote><blockquote>एतेषामेव वर्णानाम् शुश्रुषामनसूयया  ॥<ref>मनुस्मृति 1-91</ref> </blockquote>मन में द्वेषभाव न रखते हुए अन्य तीनों वर्णों के लोगों की असूया न रखते हुए सेवा आदि करना शूद्र के कर्म है।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा: (भ. गीता १८-४)</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात (भ. गीता १८-४७)</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।  
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श्रीमद्भगवद्गीता में आगे बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-4</ref>: <blockquote>स्वे स्वे कर्मण्यभिरत: संसिद्धिं लभते नरा ।। 18-4 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से ही सिद्धि प्राप्त होती है। अन्य वर्ण के स्वभावज कर्मों को करने से नहीं । आगे और बताया है<ref>श्रीमद्भगवद्गीता 18-47</ref> <blockquote>श्रेयान स्वधर्मों विगुणा: परधर्मात्स्वनुष्ठितात ।। 18-47 ।।</blockquote>याने अपने वर्ण के स्वभावज कर्म हेय लगने पर भी उन्हे ही करना चाहिये।  
    
महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगमसंपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है इसलिए उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।  
 
महाभारत में शांतिपर्व १८९.४ और ८ में तथा अनुशासन पर्व में शंकर पार्वती से कहते हैं कि हीन कुल में जन्मा हुआ शूद्र भी यदि आगमसंपन्न याने धर्मज्ञानी हो तो उसे ब्राह्मण मानना चाहिए। इसका अर्थ है यदि वह इतनी योग्यतावाला है तो केवल शूद्र के घर में पैदा हुआ है इसलिए उसे ब्राह्मणत्व नकारना उचित नहीं है। डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर जैसे लोगों के विषय में ही शायद ऐसा कहा होगा ऐसा लगता है।  
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कहा है{{Citation needed}}<blockquote>न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।</blockquote><blockquote>कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥</blockquote>अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ ' जन्म से ' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है।  
 
कहा है{{Citation needed}}<blockquote>न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।</blockquote><blockquote>कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥</blockquote>अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ ' जन्म से ' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है।  
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यह तो हुआ जो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था।<blockquote>शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: ।</blockquote><blockquote>वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ ( मनुस्मृति १०-४३)</blockquote>आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।
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यह तो हुआ जो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था<ref>मनुस्मृति 10-43</ref>:<blockquote>शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: ।</blockquote><blockquote>वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ ( मनुस्मृति १०-४३)</blockquote>आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।
    
एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है।
 
एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है।
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