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=== बालक के जन्म से या विविध आयु की अवस्थाओं में वर्ण जानने के उपाय ===
 
=== बालक के जन्म से या विविध आयु की अवस्थाओं में वर्ण जानने के उपाय ===
१.  सर्व प्रथम तो बालक के गुण और स्वभाव का परिचय माता की गर्भावस्था से ही मिलने लग जाता है। जब पाँचवें महिने में बालक का हृदय बनने लगता है, तब माता के शरीर में दो हृदय होते है। इसे गर्भवती की दोहृद अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में माता की पसंद, पसंद या आदतों में परिवर्तन, माता के मन में विकसित भावनाएं आदि के माध्यम से बालक के स्वभाव की जानकारी मिलती है। बालक की वृत्ति कैसी होगी यह पता चलता है।
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# सर्व प्रथम तो बालक के गुण और स्वभाव का परिचय माता की गर्भावस्था से ही मिलने लग जाता है। जब पाँचवें महीने में बालक का हृदय बनने लगता है, तब माता के शरीर में दो हृदय होते है। इसे गर्भवती की दोहृद अवस्था कहा जाता है। इस अवस्था में माता की पसंद, पसंद या आदतों में परिवर्तन, माता के मन में विकसित भावनाएं आदि के माध्यम से बालक के स्वभाव की जानकारी मिलती है। बालक की वृत्ति कैसी होगी यह पता चलता है।
२.  प्रसूति के समय और जन्म के स्थान के अनुसार बालक की जन्म पत्रिका बनती है। पत्रिका में ग्रहों की स्थिति के अनुसार भी बालक का वर्ण जाना जा सकता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जन्म पत्रिका का कोई शास्त्रीय आधार नहीं होता। ज्योतिष कोई शास्त्र नहीं है। वह तो केवल अटकलबाजी होती है। वास्तव में वे यह नहीं जानते कि ज्योतिष दो प्रकार का होता है। ग्रह ज्योतिष और फल ज्योतिष। इन में ग्रह ज्योतिष तो शुध्द खगोल गणित है। खगोल शास्त्र है। पत्रिका में ग्रहों की स्थिति देख कर भविष्य बतानेमें, पर्याप्त अध्ययन और साधना के अभाव में वह अटकलबाजी बन जाता है। और एक बात वे नहीं जानते कि ज्योतिष वेदांग है। वेद के छ: अंगों में से एक है। ग्रह ज्योतिष को अशास्त्रीय कहना तो वेदों को अशास्त्रीय कहने जैसा है।
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# प्रसूति के समय और जन्म के स्थान के अनुसार बालक की जन्म पत्रिका बनती है। पत्रिका में ग्रहों की स्थिति के अनुसार भी बालक का वर्ण जाना जा सकता है। कुछ लोग ऐसा कहते हैं कि जन्म पत्रिका का कोई शास्त्रीय आधार नहीं होता। ज्योतिष कोई शास्त्र नहीं है। वह तो केवल अटकलबाजी होती है। वास्तव में वे यह नहीं जानते कि ज्योतिष दो प्रकार का होता है। ग्रह ज्योतिष और फल ज्योतिष। इन में ग्रह ज्योतिष तो शुध्द खगोल गणित है। खगोल शास्त्र है। पत्रिका में ग्रहों की स्थिति देख कर भविष्य बताने में, पर्याप्त अध्ययन और साधना के अभाव में वह अटकलबाजी बन जाता है। और एक बात वे नहीं जानते कि ज्योतिष वेदांग है। वेद के छ: अंगों में से एक है। ग्रह ज्योतिष को अशास्त्रीय कहना तो वेदों को अशास्त्रीय कहने जैसा है।
३.  बालक सोते समय उसे लोरियाँ सुनाई जातीं है। आचार्यों का, अवतारों का, त्यागी विद्वान ब्राह्मणों का, पराक्रमी विजयी शूर-वीरों का, व्यापारियों का, किसानों का, समाज पोषण का, कला कारीगरी का, सेवा परिचर्या का, ऐसे विभिन्न भावोंवाली लोरियों में बालक को कौनसी लोरियाँ पसंद है यह जानने से भी बालक के वर्ण की पुष्टि हो सकती है।
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# बालक के सोने के समय उसे लोरियाँ सुनाई जातीं है। आचार्यों का, अवतारों का, त्यागी विद्वान ब्राह्मणों का, पराक्रमी विजयी शूर-वीरों का, व्यापारियों का, किसानों का, समाज पोषण का, कला कारीगरी का, सेवा परिचर्या का, ऐसे विभिन्न भावों वाली लोरियों में बालक को कौन सी लोरियाँ पसंद है यह जानने से भी बालक के वर्ण की पुष्टि हो सकती है।
४.  लोरियों की ही तरह विभिन्न वर्णों के महापुरूष और महान स्त्रियों की कहाँनियों में बच्चे को कौनसी कहानियाँ पसंद है इस के आधारपर भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है।  
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# लोरियों की ही तरह विभिन्न वर्णों के महापुरूष और महान स्त्रियों की कहानियों में बच्चे को कौन सी कहानियाँ पसंद है इस के आधार पर भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है।
५.  जब बालक बैठने लग जाता है उस के आसपास लेखन की सामुग्री, किताबें, धार नहीं है ऐसे छोटे छोटे शस्त्र, तराजू और बाट, परिचर्या के साधन आदि रखकर यह निरीक्षण किया जाता है की वह किन वस्तुओं को अधिक पसंद करता है, किन वस्तुओं को लेने और खेलने का प्रयास करता है। इन निरीक्षणों के आधारपर भी वर्ण की मोटी मोटी पुष्टि हो सकती है।  
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# जब बालक बैठने लग जाता है उस के आसपास लेखन की सामुग्री, किताबें, धार नहीं है ऐसे छोटे छोटे शस्त्र, तराजू और बाट, परिचर्या के साधन आदि रखकर यह निरीक्षण किया जाता है की वह किन वस्तुओं को अधिक पसंद करता है, किन वस्तुओं को लेने और खेलने का प्रयास करता है। इन निरीक्षणों के आधारपर भी वर्ण की मोटी मोटी पुष्टि हो सकती है।
६.  बालक जब खेलने लगता है तो कैसे खेल उसे पसंद आते है, खेलों में उस की भूमिका कैसी रहती है, उस का व्यवहार कैसा रहता है इस से भी बालक के वर्ण की पुष्टि हो सकती है। ऐसा कहते है कि चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चयन चंद्रगुप्त के खेल और उस खेल में चंद्रगुप्त की भूमिका और व्यवहार देखकर किया था।  
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# बालक जब खेलने लगता है तो कैसे खेल उसे पसंद आते है, खेलों में उस की भूमिका कैसी रहती है, उस का व्यवहार कैसा रहता है इस से भी बालक के वर्ण की पुष्टि हो सकती है। ऐसा कहते है कि चाणक्य ने चंद्रगुप्त का चयन, चंद्रगुप्त के खेल और उस खेल में चंद्रगुप्त की भूमिका और व्यवहार देखकर किया था।  
७.  चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वराशतक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
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# चाणक्य का सूत्र कहता है - लालयेत पंचवर्षाणि दश वर्षाणि ताडयेत् । इस का अर्थ है कि पाँच वर्ष तक बालक को लाड प्यार ही देना चाहिये। कोई बात उस के मन के विपरीत नहीं करनीं चाहिये। इस का यह अर्थ नहीं है कि बच्चे को आग में भी हाथ डालने देना चाहिये। इस से उस बच्चे का जो स्वभाव है वैसा ही व्यवहार बच्चा करता है। भयमुक्त और दबावमुक्त ऐसे वातावरण में बच्चा उसके स्वभाव के अनुरूप ही सहजता से व्यवहार करता है। बच्चे के इस सहज व्यवहार से भी वर्ण की पुष्टि हो सकती है। शुध्द सात्विक स्वभाव ब्राह्मण वर्ण का, सात्विक और राजसी का मेल क्षत्रिय वर्ण का, राजसी और तामसी का मेल वैश्य वर्ण का और तामसी स्वभाव शूद्र वर्ण का परिचायक होता है।
८. जिन बच्चों की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चों के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
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# जिन बच्चों की जन्मपत्रिकाएं या तो बनीं नहीं है या जिनकी जन्मतिथि और समय ठीक से ज्ञात नहीं है ऐसे बच्चों के लिये १५ वर्ष के बाद जब हस्त-रेखाएं कुछ पक्की होने लगती है हस्त-सामुद्रिक या हस्त-रेखा देखकर भी बच्चे या मनुष्य के वर्ण का अनुमान लगाया जा सकता है।  
९.  जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है की उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगों का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगों को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और जाति व्यवस्था के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
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# जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ लगता है, सहजता से सफलता नहीं मिलती तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस के वर्ण से मेल नहीं खाता । उसी तरह जब किसी को व्यवसाय या नित्यकर्म बोझ नहीं लगता है, सहजता से सफलता मिलती है तब यह स्पष्ट है कि उस का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उस की जाति और उस के वर्ण से मेल खाता है । इस कसौटी का उपयोग जिन का वर्तमान व्यवसाय और काम का स्वरुप उन की जाति और उन के वर्ण से मेल खाता है ऐसे लोगों का समाज में प्रतिशत जानने तक ही सीमित है । उतने प्रतिशत लोगों को वर्ण और जाति यह व्यवस्थाएं शास्त्रसंमत ही है, और जाने अनजाने में तथा पूर्व पुण्य के कारण, वर्ण और जाति व्यवस्था के तत्वों का पालन होनेसे वे सुखी है, यह ठीक से समझाना होगा । आगे भी इन लाभों को बनाए रखने के लिये उन्हे प्रेरित करना होगा। उन का अनुसरण करने के लिये औरों को भी प्रेरित करना होगा।
    
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
 
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।  
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वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।  
समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से शायद संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौरपर यह अनुपात ठीक ही लगता है।
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समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से शायद संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौर पर यह अनुपात ठीक ही लगता है।
    
== वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता ==
 
== वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता ==
विविध वर्णों के स्वाभाविक कर्म हमने देखे। इन कर्मों का समाज की दृष्टि से महत्व ध्यान में लेकर वर्णों में सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मण फिर क्षत्रिय, फिर वैश्य और अंत में शूद्र ऐसी पहले से दूसरा कनिष्ठ, दूसरे से तीसरा कनिष्ठ और तीसरे से चौथा कनिष्ठ ऐसी मान्यता समाज में दृढमूल हो गई। यह स्वाभाविक भी है। जैसे मनुष्य के शरीर के मस्तिष्क, हाथ, पेट और पैर यह सभी महत्वपूर्ण होते है। किंतु जब शरीर पर संकट आता है तब सबसे अधिक महत्व मस्तिष्क को उस के उपरांत हाथों को, उस के बाद पेट को और सबसे अंत में पैरों को महत्व दिया जाता है। समाज के हित के लिये नि:स्वार्थ भाव से जो जितना अधिक त्याग करेगा, जो जितना अधिक उपयोगी होगा उसे उतनी अधिक प्रतिष्ठा मिलना तो स्वाभाविक ही है।  
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विविध वर्णों के स्वाभाविक कर्म हमने देखे। इन कर्मों का समाज की दृष्टि से महत्व ध्यान में लेकर वर्णों में सम्मान की दृष्टि से ब्राह्मण फिर क्षत्रिय, फिर वैश्य और अंत में शूद्र ऐसी पहले से दूसरा कनिष्ठ, दूसरे से तीसरा कनिष्ठ और तीसरे से चौथा कनिष्ठ ऐसी मान्यता समाज में दृढमूल हो गई। यह स्वाभाविक भी है। जैसे मनुष्य के शरीर के मस्तिष्क, हाथ, पेट और पैर यह सभी महत्वपूर्ण होते है। किंतु जब शरीर पर संकट आता है तब सबसे अधिक महत्व मस्तिष्क को उस के उपरांत हाथों को, उस के बाद पेट को और सबसे अंत में पैरों को महत्व दिया जाता है। समाज के हित के लिये नि:स्वार्थ भाव से जो जितना अधिक त्याग करेगा, जो जितना अधिक उपयोगी होगा उसे उतनी अधिक प्रतिष्ठा मिलना तो स्वाभाविक ही है।
हमने पूर्व में देखा है कि ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी समूचे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा की होती है, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की आश्वस्ति की है और वैश्य की जिम्मेदारी समाज के प्रत्येक घटक की आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की है। इस प्रकार से ब्राह्मण की जिम्मेदारी सबसे अधिक होने से उसे सर्वोच्च सम्मान क्षत्रिय को उससे कम तथा वैश्य को उससे भी कम सम्मान मिले यह न्यायोचित ही है। परमात्मा ने सृष्टि में कुछ भी एक जैसा नहीं बनाया है। एक पेड के लाखों पत्ते होते है। लेकिन कोई दो पत्ते एक जैसे नहीं होते । वनस्पति के गुणों की दृष्टि से एक श्रेष्ठ और दूसरा कनिष्ठ होता ही है। इसी तरह दो मनुष्यों में एक श्रेष्ठ और दूसरा कनिष्ठ होता ही है। लेकिन श्रेष्ठ कनिष्ठ होने से मानव के साथ पशू जैसे व्यवहार का कोई समर्थन नहीं किया जा सकता। वर्ण व्यवस्था में, जिस प्रकार और जिस अर्थ से आरोप किया जाता है उच्च-नीचता को कोई स्थान नहीं है।
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हमने पूर्व में देखा है कि ब्राह्मण वर्ण की जिम्मेदारी समूचे समाज की स्वाभाविक स्वतंत्रता की रक्षा की होती है, क्षत्रिय वर्ण की जिम्मेदारी शासनिक स्वतंत्रता की आश्वस्ति की है और वैश्य की जिम्मेदारी समाज के प्रत्येक घटक की आर्थिक स्वतंत्रता की रक्षा करने की है। इस प्रकार से ब्राह्मण की जिम्मेदारी सबसे अधिक होने से उसे सर्वोच्च सम्मान क्षत्रिय को उससे कम तथा वैश्य को उससे भी कम सम्मान मिले यह न्यायोचित ही है।
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परमात्मा ने सृष्टि में कुछ भी एक जैसा नहीं बनाया है। एक पेड के लाखों पत्ते होते है। लेकिन कोई दो पत्ते एक जैसे नहीं होते । वनस्पति के गुणों की दृष्टि से एक श्रेष्ठ और दूसरा कनिष्ठ होता ही है। इसी तरह दो मनुष्यों में एक श्रेष्ठ और दूसरा कनिष्ठ होता ही है। लेकिन श्रेष्ठ कनिष्ठ होने से मानव के साथ पशू जैसे व्यवहार का कोई समर्थन नहीं किया जा सकता। वर्ण व्यवस्था में, जिस प्रकार और जिस अर्थ से आरोप किया जाता है उच्च-नीचता को कोई स्थान नहीं है।
    
== वर्ण परिवर्तन ==
 
== वर्ण परिवर्तन ==
भारतीय समाज की व्यवस्थाओं की विशेषता यह रही है की यह पर्याप्त लचीली रही है । बालक के जन्म से वर्ण जानने की और उसे सुनिश्चित करने की, वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था क्षीण हो जानेसे वर्ण व्यवस्था को आनुवांशिक बनाया गया होगा। या शायद आनुवांशिक वर्ण व्यवस्था में त्रुटियाँ आ जाने से वर्ण के अनुसार शिक्षा और संस्कार की गुरुकुलों की योजना चलाई गयी होगी। दोनों ही व्यवस्थाओं में अपवाद तो होंगे ही। यह जानकर वर्ण परिवर्तन की भी व्यवस्था रखी गई थी। हम देखते है कि वेश्यापुत्र जाबालि को गुरूकुल की ओर से उस के गुण लक्षण ध्यान में लेकर ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआथा।  
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भारतीय समाज की व्यवस्थाओं की विशेषता यह रही है की यह पर्याप्त लचीली रही है । बालक के जन्म से वर्ण जानने की और उसे सुनिश्चित करने की, वर्ण के अनुसार संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था क्षीण हो जाने से वर्ण व्यवस्था को आनुवांशिक बनाया गया होगा। या शायद आनुवांशिक वर्ण व्यवस्था में त्रुटियाँ आ जाने से वर्ण के अनुसार शिक्षा और संस्कार की गुरुकुलों की योजना चलाई गयी होगी। दोनों ही व्यवस्थाओं में अपवाद तो होंगे ही। यह जानकर वर्ण परिवर्तन की भी व्यवस्था रखी गई थी। हम देखते है कि वेश्यापुत्र जाबालि को गुरूकुल की ओर से उस के गुण लक्षण ध्यान में लेकर ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआथा।  
प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे। महाभारत में लिखा है -  
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शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: । ( महाभारत शांतिपर्व ६३-४)
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प्रत्यक्ष में भी जो अपने जन्म से प्राप्त वर्ण के अनुसार विहित कर्म नहीं करते थे उन के वर्ण बदल जाते थे।  
अर्थ है शूद्र के क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है।
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आगे और कहा है-
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महाभारत में लिखा है -<blockquote>शूद्रो राजन् भवति ब्रह्मबंधुर्दुश्चरित्रो यश्च धर्मादपेत: ।( महाभारत शांतिपर्व ६३-४)</blockquote>अर्थ है शूद्र क्षत्रिय बन जाते है। ब्राह्मण गलत कर्म करने से शूद्र बन जाते है।
शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते । न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ॥ ( महाभारत शांतिपर्व १९८-८)
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अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वल्मिकी जेसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये।  
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आगे और कहा है-<blockquote>शूद्रे चैतद्भवेल्लक्ष्यं द्विजे तच्च न विद्यते ।</blockquote><blockquote>न वै शूद्रो भवेच्छुद्रो ब्राह्मणो न च ब्राह्मण: ॥ ( महाभारत शांतिपर्व १९८-८)</blockquote>अर्थ है ब्राह्मण के गुण यदि शूद्र में दिखाई देते है तो वह शूद्र नहीं (ब्राह्मण है) और शूद्र के गुण यदि ब्राह्मण में दिखाई देते है तो वह ब्राह्मण नहीं (शूद्र है)। महर्षि वेदव्यास, वाल्मिकी जैसे इस के कई उदाहरण हम जानते है। इन का जन्म ब्राह्मण कुल में नहीं हुआथा। मछुआरे के कुल में जन्म लेकर भी जैसे ही ‘वाल्या मछुआरे’ ने ब्राह्मण के गुण और लक्षण व्यक्त किये, उसे ब्राह्मण वर्ण प्राप्त हुआ। वह वाल्मिकी बन गये। लेकिन वाल्या से वाल्मिकी वह अकस्मात नहीं बने। इस के लिये उन्हें भी दीर्घ तप करना पडा। ब्राह्मण वर्ण का सा व्यवहार कई वर्षों तक करते रहने के उपरांत ही उन्हें ब्राह्मण का सम्मान प्राप्त हुआथा। उन में ब्राह्मण वर्ण के गुण लक्षण तो जन्म से हीं रहे होंगे, जो सूप्तावस्था में थे। महर्षि नारद के उपदेश से वही उभरकर प्रकट हो गये।
जब ब्राह्मण वर्ण के माता पिता बच्चे को उस का वर्ण जाने बिना ही ब्राह्मण वर्ण के संस्कार करते है। लेकिन उस के स्वभाव, गुण लक्षण जो वह बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आया है वह वैश्य वर्ण के है। उस स्थिति में वह बच्चा न तो अच्छा ब्राह्मण बनेगा और न ही अच्छा वैश्य बनगा।
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यह व्यवस्था बौद्ध काल में भी चलती आई थी। बौद्ध साहित्य में भी इस के प्रमाण मिलते है। कहा है-
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जब ब्राह्मण वर्ण के माता पिता बच्चे को उस का वर्ण जाने बिना ही ब्राह्मण वर्ण के संस्कार करते है। लेकिन उस के स्वभाव, गुण लक्षण जो वह बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आया है वह वैश्य वर्ण के है। उस स्थिति में वह बच्चा न तो अच्छा ब्राह्मण बनेगा और न ही अच्छा वैश्य बनगा।
न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो । कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥
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अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ ' जन्म से ' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है।
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यह व्यवस्था बौद्ध काल में भी चलती आई थी। बौद्ध साहित्य में भी इस के प्रमाण मिलते है।  
यह तो हुआजो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था।
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शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: । वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥   ( मनुस्मृति १०-४३)
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कहा है-<blockquote>न जच्चा वसलो होति, न जच्चा होति ब्राह्मणो ।</blockquote><blockquote>कम्मणा वसलो होति, कम्मणा होति ब्राह्मणा ॥</blockquote>अर्थ है जन्म से कोई वैश्य या ब्राह्मण नहीं होता। वह होता है उस के कर्मों से। इस में यह समझना ठीक होगा कि यहाँ ' जन्म से ' का अर्थ ( किसी विशिष्ट वर्ण जैसे ) ब्राह्मण वर्ण के पिता से या ब्राह्मण कुल में केवल जन्म लेने से वह ब्राह्मण नहीं होता, इस बात से है। किंतु स्वभाव, गुण लक्षण तो हर बच्चा अपने जन्म से ही लेकर आता है। इस बात को अमान्य नहीं किया है। अर्थात् ब्राह्मण कुल में क्षत्रिय या वैश्य या शूद्र वर्ण या स्वभाव और गुण लक्षणों वाला बच्चा जन्म ले सकता है।  
आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।
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यह तो हुआ जो जन्म (कुल) से मिले वर्ण के अनुसार कर्म नहीं करता है उस की अवस्था का वर्णन। किंतु कुछ ऐसे भी लोग थे जो आनुवांशिकता के कारण किसी वर्ण के माने गये थे। किंतु अपने गुण कर्मों से उन्हों ने अपने वास्तविक स्वभाव के अनुसार वर्ण को प्राप्त किया। यह लचीलापन व्यवस्था में रखा गया था।<blockquote>शनकैस्तु क्रियालोपादिमा: क्षत्रियजातय: ।</blockquote><blockquote>वृशलत्वं गता लोके ब्राह्मणादर्शनेन च ॥ ( मनुस्मृति १०-४३)</blockquote>आनुवांशिकता का महत्व ध्यान में रखकर दीर्घकालीन विशेष प्रयासों के बाद वर्ण परिवर्तन को मान्यता मिलती थी। मन में आने मात्र से वर्ण परिवर्तन नहीं किया जा सकता। विश्वामित्र को ब्राह्मण वर्ण की प्राप्ति के लिये २४ वर्ष की साधना करनी पडी थी।
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एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है।
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- भगवान ॠषभदेव की १००० संतानें थीं। उन में से एक भरत तो राजा बना और ८० पुत्र ब्राह्मण बने।
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- क्षत्रिय मुद्गल जाति के वंशज कालंतर से मौद्गल्य (ब्राह्मण) बने।
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- नहुष राजा का पुत्र संयाति तपोबल से ब्राह्मण बना।
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- राजा बलि के कुछ वंशज क्षत्रिय और कुछ ब्राह्मण बने।
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- गृत्समति, वत्स और भर्ग के वंशजों को भिन्न भिन्न वर्ण प्राप्त हुए।
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- विश्वामित्र, मांधाता, कपि, पुरूकुत्स, सत्य, अनुवाहन, अजामीढ़, कक्षीवान, विष्णुवृध्द आदि जाति से क्षत्रिय लोग तप से ब्राह्मण बने।
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श्रीमद्भागवत में भी ऐसे कई उदाहरण दिये गये है।
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एक जाति के माता पिता के घर भिन्न भिन्न वर्णों के लोग जन्म लेते थे। इस के कई उदाहरण लक्ष्मणशास्त्री जोशी द्वारा लिखित संस्कृति कोश में मिलते है। - भगवान ॠषभदेव की १००० संतानें थीं। उन में से एक भरत तो राजा बना और ८० पुत्र ब्राह्मण बने।
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वर्तमान में भी जो शूद्र माने जाते है, उनके बच्चों की जन्मपत्रियों को देखें तो दिखाई देगा कि चारों वर्णों के बच्चे उन में है। और जो ब्राह्मण माने जाते है, ऐसे कई ब्राह्मणों के बच्चों की जन्मपत्रियों के अनुसार उन में ब्राह्मण वर्ण का कोई भी बच्चा नहीं है। तात्पर्य यह है कि पूरा परिवार एक वर्ण का ही हो यह आवश्यक नहीं है। एक ही परिवार में भिन्न वर्ण के लोगों का होना स्वाभाविक है। लेकिन माता पिता से, आनुवांशिकता से आये पूर्वजों के अन्वयागत संस्कार या व्यावसायिक कुशलताओं के संस्कार आनुवांशिक होने से पूरा परिवार होगा उसी जाति का जो उन के पुरखों की थी।
- क्षत्रिय मुद्गल जाति के वंशज कालंतर से मौद्गल्य (ब्राह्मण) बने।
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- नहुष राजा का पुत्र संयाति तपोबल से ब्राह्मण बना।
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- राजा बलि के कुछ वंशज क्षत्रिय और कुछ ब्राह्मण बने।
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- गृत्समति, वत्स और भर्ग के वंशजों को भिन्न भिन्न वर्ण प्राप्त हुए।
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- विश्वामित्र, मांधाता, कपि, पुरूकुत्स, सत्य, अनुवाहन, अजामीढ़, कक्षीवान, विष्णुवृध्द आदि जाति से क्षत्रिय लोग
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  तप से ब्राह्मण बने।    .....श्रीमद्भागवत में भी ऐसे कई उदाहरण दिये गये है।
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वर्तमान में भी जो शूद्र माने जाते है, उनके बच्चों की जन्मपत्रीयों को देखें तो दिखाई देगा कि चारों वर्णों के बच्चे उन में है। और जो ब्राह्मण माने जाते है, ऐसे कई ब्राह्मणों के बच्चों की जन्मपत्रीयों के अनुसार उन में ब्राह्मण वर्ण का कोई भी बच्चा नहीं है। तात्पर्य यह है कि पूरा परिवार एक वर्ण का ही हो यह आवश्यक नहीं है। एक ही परिवार में भिन्न वर्ण के लोगों का होना स्वाभाविक है। लेकिन माता पिता से, आनुवांशिकता से आये पूर्वजों के अन्वयागत संस्कार या व्यावसायिक कुशलताओं के संस्कार आनुवांशिक होने से पूरा परिवार होगा उसी जाति का जो उन के पुरखों की थी।
      
== यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे ==
 
== यत् पिंडे तत् ब्रह्माण्डे ==
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