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== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
 
== वर्ण संतुलन व्यवस्था ==
वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।  
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वर्ण संतुलन व्यवस्था इस नाम की किसी व्यवस्था का संदर्भ धार्मिक (भारतीय) साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन ऐसी व्यवस्था तो रही होगी। स्वभाव से ही मानव स्खलनशील होने से समाज में वर्ण संतुलन अव्यवस्थित होता रहा होगा। इस असंतुलन को ठीक करने के लिये भी कोई व्यवस्था रही होगी। समाज का सतत निरीक्षण कर आवश्यकता के अनुसार गुरूकुलों में ब्राह्मण या फिर क्षत्रिय वर्णों के परस्पर और समाज में अपेक्षित अनुपात को व्यवस्थित करने के लिये जन्म से मिले मुख्य वर्ण से भिन्न दूसरे क्रमांक के मुख्य वर्ण के संस्कार और शिक्षा की व्यवस्था की जाती होगी।  
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समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी भारतीय साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से शायद संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौर पर यह अनुपात ठीक ही लगता है।
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समाज में अपेक्षित वर्णों के अनुपात का संदर्भ भी धार्मिक (भारतीय) साहित्य में नहीं मिलता है। लेकिन चाणक्य सूत्रों से शायद संकेत मिल सकते है। राजा के सलाहकार कैसे और कितने हों इस विषय में चाणक्य सूत्रों में बताया गया है कि राजा को विद्वान सलाहकार मंत्रियों की मदद से राज्य चलाना चाहिये। ३ ब्राह्मण, ८ क्षत्रिय, २१ वैश्य और ३ शूद्र मंत्रियों का मंत्रिमंडल रहे। विद्वान सलाहकार मंत्री हों यह कहना ठीक ही है। लेकिन साथ में जब वर्णश: संख्या दी जाती है तब उस का संबंध समाज में विद्यमान वर्णश: संख्या से हो सकता है। इस अनुपात को व्यवस्थित रखने की व्यवस्था गुरूकुलों में की जाती होगी। मोटे तौर पर यह अनुपात ठीक ही लगता है।
    
== वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता ==
 
== वर्णों में श्रेष्ठता - कनिष्ठता ==
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जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।   
 
जो बातें एक छोटी इकाई में पायी जातीं है वैसीं हीं बातें बडी इकाई में भी पायी जातीं है। जो गुणधर्म धातु के एक छोटे कण में पाये जाते है वही गुणधर्म एक बडे धातुखण्ड में भी पाए जाते है। उसी प्रकार जो गुणधर्म एक छोटी जीवंत इकाई में पाये जाते है वही गुणधर्म बडी और विशाल ऐसी जीवंत इकाई में भी पाये जाते है। जैसे जन्म, शैशव, यौवन, जरा और मरण सभी जीवंत इकाई में स्वाभाविक बातें है। यह सिद्धांत की बात है। उसी तरह हम सब के अनुभव की भी बात है। एक परिवार में भी ऐसी चार वृत्तियों के काम होते ही है।   
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इस दृष्टि से भारतीय जाति व्यवस्था में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। भारतीय मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल भारतीय समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
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इस दृष्टि से धार्मिक (भारतीय) जाति व्यवस्था में एक जाति में भी उन्हीं गुणधर्मों का होना जो एक जीवंत इकाई जैसे मनुष्य या एक जीवंत बडी इकाई समाज या राष्ट्र में पाये जाते है, उन का होना यह स्वाभाविक ही है। इस का कारण है कि जाति भी एक जीवंत इकाई है। धार्मिक (भारतीय) मान्यता के अनुसार समाज की कल्पना एक विराट समाज पुरूष के रूप में की गयी है। जैसे एक सामान्य मनुष्य के भिन्न भिन्न अंग मनुष्य के लिए भिन्न भिन्न क्रियाएं करते है। इसी तरह यह कहा गया कि समाज में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र इन चार वर्णों के लोग हर समाज में होते ही है। यह केवल धार्मिक (भारतीय) समाज में होते है ऐसी बात नहीं है। जिन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है ऐसे विश्व के सभी समाजों का निरीक्षण करने से यह ध्यान में आ जाएगा कि उन में भी ऐसी चार वृत्तियों के लोग पाये जाते है। उन समाजों में वर्णव्यवस्था नहीं है लेकिन वर्ण तो हैं ही।  
    
इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगों का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  
 
इस तर्क के आधार पर यदि कहा जाए कि हर जाति एक जीवंत इकाई होने के कारण इस में भी ऐसी ही चार वृत्तियों के लोगों का होना अनिवार्य है, स्वाभाविक है तो इस तर्क को गलत नहीं कहा जा सकता। अर्थात् हर जाति में चार वर्णों के लोग होते ही है, इसे मान्य करना होगा। कोई भी शास्त्र इसे नकारता नहीं है।  

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