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(अंग्रेजी भाषा में [[Upanishads (उपनिषदः)|यह लेख]] पढ़ें)
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(यह लेख धर्मविकी के ही अंग्रेजी भाषा में लिखे [[Upanishads (उपनिषदः)|लेख]] का अनुवाद है )
    
उपनिषद विभिन्न आध्यात्मिक और धर्मिक सिद्धांतों और तत्त्वों की व्याख्या करते हैं जो साधक को मोक्ष के उच्चतम उद्देश्य की ओर ले जाते हैं और क्योंकि वे वेदों के अंत में मौजूद हैं, उन्हें वेदांत (वेदान्तः) भी कहा जाता है। वे कर्मकांड में निर्धारित संस्कारों को रोकते नहीं किन्तु यह बताते हैं कि मोक्ष प्राप्ति केवल ज्ञान के माध्यम से ही हो सकती है।<ref name=":0">Gopal Reddy, Mudiganti and Sujata Reddy, Mudiganti (1997) ''Sanskrita Saahitya Charitra (Vaidika Vangmayam - Loukika Vangamayam, A critical approach)'' Hyderabad : P. S. Telugu University</ref>
 
उपनिषद विभिन्न आध्यात्मिक और धर्मिक सिद्धांतों और तत्त्वों की व्याख्या करते हैं जो साधक को मोक्ष के उच्चतम उद्देश्य की ओर ले जाते हैं और क्योंकि वे वेदों के अंत में मौजूद हैं, उन्हें वेदांत (वेदान्तः) भी कहा जाता है। वे कर्मकांड में निर्धारित संस्कारों को रोकते नहीं किन्तु यह बताते हैं कि मोक्ष प्राप्ति केवल ज्ञान के माध्यम से ही हो सकती है।<ref name=":0">Gopal Reddy, Mudiganti and Sujata Reddy, Mudiganti (1997) ''Sanskrita Saahitya Charitra (Vaidika Vangmayam - Loukika Vangamayam, A critical approach)'' Hyderabad : P. S. Telugu University</ref>
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उपनिषद् अंतिम खंड हैं, जो आरण्यकों के एक भाग के रूप में उपलब्ध हैं। चूंकि वे विभिन्न अध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धान्तों और तत्त्वों का वर्णन करते हैं जो एक साधक को मोक्ष के सर्वोच्च उद्देश्य की ओर ले जाते हैं और क्योंकि वे वेदों के अंत में मौजूद हैं, उन्हें वेदान्त भी कहा जाता है।
      
उपनिषद् अंतिम खंड हैं, जो आरण्यकों के एक भाग के रूप में उपलब्ध हैं। चूंकि वे विभिन्न अध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धान्तों और तत्त्वों का वर्णन करते हैं जो एक साधक को मोक्ष के सर्वोच्च उद्देश्य की ओर ले जाते हैं और क्योंकि वे वेदों के अंत में मौजूद हैं, उन्हें वेदान्त भी कहा जाता है।  
 
उपनिषद् अंतिम खंड हैं, जो आरण्यकों के एक भाग के रूप में उपलब्ध हैं। चूंकि वे विभिन्न अध्यात्मिक और धार्मिक सिद्धान्तों और तत्त्वों का वर्णन करते हैं जो एक साधक को मोक्ष के सर्वोच्च उद्देश्य की ओर ले जाते हैं और क्योंकि वे वेदों के अंत में मौजूद हैं, उन्हें वेदान्त भी कहा जाता है।  
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# उपनिषदों की प्राचीनता - जो अरण्यकों और ब्राह्मणों (वर्ण नहीं) के साथ संबंध पर आधारित हैं<ref name=":0" />
 
# उपनिषदों की प्राचीनता - जो अरण्यकों और ब्राह्मणों (वर्ण नहीं) के साथ संबंध पर आधारित हैं<ref name=":0" />
 
# देवताओं और अन्य पहलुओं के विवरण के आधार पर उपनिषदों की प्राचीनता और आधुनिकता<ref name=":1" /> (संदर्भ के पृष्ठ 256 पर श्री चिंतामणि विनायक द्वारा दिया गया है)
 
# देवताओं और अन्य पहलुओं के विवरण के आधार पर उपनिषदों की प्राचीनता और आधुनिकता<ref name=":1" /> (संदर्भ के पृष्ठ 256 पर श्री चिंतामणि विनायक द्वारा दिया गया है)
# प्रत्येक उपनिषद में दिए गए शांति पाठ के अनुसार<ref>Malladi, Sri. Suryanarayana Sastry (1982) ''Samskruta Vangmaya Charitra, Volume 1 Vaidika Vangmayam'' Hyderabad : Andhra Sarasvata Parishad</ref>
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# प्रत्येक उपनिषद में दिए गए शांति पाठ के अनुसार<ref name=":3" />
 
# गद्य या छंदोबद्ध रचनाओं वाले उपनिषदों की प्राचीनता और आधुनिकता (ज्यादातर डॉ. डेसन जैसे पश्चिमी भारतविदों द्वारा दी गई)<ref name=":0" />
 
# गद्य या छंदोबद्ध रचनाओं वाले उपनिषदों की प्राचीनता और आधुनिकता (ज्यादातर डॉ. डेसन जैसे पश्चिमी भारतविदों द्वारा दी गई)<ref name=":0" />
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कुछ लोग दुनिया को वास्तविक मानते हैं तो कुछ इसे भ्रम कहते हैं। एक आत्मा को ब्रह्म से अनिवार्य रूप से अलग कहते हैं, जबकि अन्य ग्रंथ दोनों की अनिवार्य समानता का वर्णन करते हैं। कुछ लोग ब्रह्म को लक्ष्य कहते हैं और आत्मा को जिज्ञासु, दूसरा दोनों की शाश्वत सच्चाई बताते हैं।  
 
कुछ लोग दुनिया को वास्तविक मानते हैं तो कुछ इसे भ्रम कहते हैं। एक आत्मा को ब्रह्म से अनिवार्य रूप से अलग कहते हैं, जबकि अन्य ग्रंथ दोनों की अनिवार्य समानता का वर्णन करते हैं। कुछ लोग ब्रह्म को लक्ष्य कहते हैं और आत्मा को जिज्ञासु, दूसरा दोनों की शाश्वत सच्चाई बताते हैं।  
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इन चरम स्थितियों के बीच, विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं। तथापि सभी भिन्न अवधारणाएं उपनिषदों पर आधारित हैं। यह ध्यान में रखना चाहिए कि इस तरह के विचार और दृष्टिकोण भारतवर्ष में अनादि काल से मौजूद रहे हैं और इन विचारधाराओं के संस्थापक उन प्रणालियों के उत्कृष्ट प्रवक्ता हैं। ऐसा ही षडदर्शनों से जुड़े ऋषियों और महर्षियों के साथ है - वे इन विचारों के सबसे अच्छे प्रतिपादक या कोडिफायर थे।<ref>Swami Madhavananda author of A Bird's-Eye View of the Upanishads (1958) ''The Cultural Heritage of India, Volume 1 : The Early Phases (Prehistoric, Vedic and Upanishadic, Jaina and Buddhist).'' Calcutta : The Ramakrishna Mission Institute of Culture. (Pages 345-365)</ref>  
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इन चरम स्थितियों के बीच, विभिन्न प्रकार के दृष्टिकोण मिलते हैं। तथापि सभी भिन्न अवधारणाएं उपनिषदों पर आधारित हैं। यह ध्यान में रखना चाहिए कि इस तरह के विचार और दृष्टिकोण भारतवर्ष में अनादि काल से मौजूद रहे हैं और इन विचारधाराओं के संस्थापक उन प्रणालियों के उत्कृष्ट प्रवक्ता हैं। ऐसा ही षडदर्शनों से जुड़े ऋषियों और महर्षियों के साथ है - वे इन विचारों के सबसे अच्छे प्रतिपादक या कोडिफायर थे।<ref name=":5">Swami Madhavananda author of A Bird's-Eye View of the Upanishads (1958) ''The Cultural Heritage of India, Volume 1 : The Early Phases (Prehistoric, Vedic and Upanishadic, Jaina and Buddhist).'' Calcutta : The Ramakrishna Mission Institute of Culture. (Pages 345-365)</ref>  
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यद्यपि इन छह विचारधाराओं में से प्रत्येक उपनिषदों से अपना अधिकार प्राप्त करने का दावा करती है, लेकिन वेदांत ही है जो पूरी तरह उपनिषदों पर आधारित है। उपनिषदों में सर्वोच्च सत्य जैसे और जब ऋषियों द्वारा देखे जाते हैं, दिए जाते हैं, इसलिए उनमें व्यवस्थित विधि की कमी हो सकती है।<ref>Swami Madhavananda author of A Bird's-Eye View of the Upanishads (1958) ''The Cultural Heritage of India, Volume 1 : The Early Phases (Prehistoric, Vedic and Upanishadic, Jaina and Buddhist).'' Calcutta : The Ramakrishna Mission Institute of Culture. (Pages 345-365)</ref>   
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यद्यपि इन छह विचारधाराओं में से प्रत्येक उपनिषदों से अपना अधिकार प्राप्त करने का दावा करती है, लेकिन वेदांत ही है जो पूरी तरह उपनिषदों पर आधारित है। उपनिषदों में सर्वोच्च सत्य जैसे और जब ऋषियों द्वारा देखे जाते हैं, दिए जाते हैं, इसलिए उनमें व्यवस्थित विधि की कमी हो सकती है।<ref name=":5" />   
    
बादरायण द्वारा सूत्र रूप (ब्रह्म सूत्र) में उपनिषदों के विचारों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न हुआ किन्तु यह कार्य उनके द्वारा निर्धारित अर्थों को व्यक्त करने में विफल रहा। इसके परिणामस्वरूप ब्रह्म सूत्रों का भी उपनिषदों के समान हश्र हुआ - अर्थात टीकाकारों ने उन्हें अपनी इच्छाओं और प्रशिक्षण के अनुसार व्याख्या की।  
 
बादरायण द्वारा सूत्र रूप (ब्रह्म सूत्र) में उपनिषदों के विचारों को व्यवस्थित करने का प्रयत्न हुआ किन्तु यह कार्य उनके द्वारा निर्धारित अर्थों को व्यक्त करने में विफल रहा। इसके परिणामस्वरूप ब्रह्म सूत्रों का भी उपनिषदों के समान हश्र हुआ - अर्थात टीकाकारों ने उन्हें अपनी इच्छाओं और प्रशिक्षण के अनुसार व्याख्या की।  
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वह, जिस ब्रह्म का वर्णन किसी दूसरे के बिना किया गया है, वह अनन्त, निरपेक्ष और सनातन है, उसे निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है। निर्गुण ब्रह्म, गुणों के बिना, नाम और रूप के परे है, जिसे किसी भी उपमा या सांसारिक वर्णन से नहीं समझा जा सकता है।
 
वह, जिस ब्रह्म का वर्णन किसी दूसरे के बिना किया गया है, वह अनन्त, निरपेक्ष और सनातन है, उसे निर्गुण ब्रह्म कहा जाता है। निर्गुण ब्रह्म, गुणों के बिना, नाम और रूप के परे है, जिसे किसी भी उपमा या सांसारिक वर्णन से नहीं समझा जा सकता है।
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छांदोग्य उपनिषद् महावाक्यों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्मतत्व का विस्तार करता है।<blockquote>एकमेवाद्वितीयम्।  (छांदोग्य उपन. 6.2.1) (एक एवं अद्वितीय)<ref>Chandogya Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC Adhyaya 6])</ref></blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्म । (छांदोग्य उपन.  3.14.1) (यह सब वास्तव में ब्रह्म है)<ref>Chandogya Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9 Adhyaya 3])</ref></blockquote>श्वेताश्वतार उपनिषद  कहता है:<blockquote>यदाऽतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्नचासच्छिव एव केवलः ...(श्वेता. उपन.  4 .18)<ref>Shvetashvatara Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A4%E0%A5%8D/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%83_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 Adhyaya 4])</ref> जब न तो दिन था और न ही रात, न ही ब्रह्मांड (जिसका कोई रूप है) और न ही कोई रूप था, केवल उस शुद्ध पवित्र सिद्धांत का अस्तित्व था जो '''एक''' को दर्शाता है।<ref>N. S. Ananta Rangacharya (2003) ''Principal Upanishads (Isa, Kena, Katha, Prasna, Mundaka, Mandookya, Taittiriya, Mahanarayana, Svetasvatara) Volume 1.''Bangalore : Sri Rama Printers</ref></blockquote>ये सामान्य और सुप्रसिद्ध उदाहरण निर्गुण या निराकार ब्रह्म की धारणा को स्पष्ट करते हैं।
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छांदोग्य उपनिषद् महावाक्यों के माध्यम से निर्गुण ब्रह्मतत्व का विस्तार करता है।<blockquote>एकमेवाद्वितीयम्।  (छांदोग्य उपन. 6.2.1) (एक एवं अद्वितीय)<ref name=":6">Chandogya Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%AC Adhyaya 6])</ref></blockquote><blockquote>सर्वं खल्विदं ब्रह्म । (छांदोग्य उपन.  3.14.1) (यह सब वास्तव में ब्रह्म है)<ref>Chandogya Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%9B%E0%A4%BE%E0%A4%A8%E0%A5%8D%E0%A4%A6%E0%A5%8B%E0%A4%97%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D/%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83_%E0%A5%A9 Adhyaya 3])</ref></blockquote>श्वेताश्वतार उपनिषद  कहता है:<blockquote>यदाऽतमस्तन्न दिवा न रात्रिर्न सन्नचासच्छिव एव केवलः ...(श्वेता. उपन.  4 .18)<ref name=":8">Shvetashvatara Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A5%87%E0%A4%A4%E0%A4%BE%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%B5%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A4%E0%A5%8D/%E0%A4%9A%E0%A4%A4%E0%A5%81%E0%A4%B0%E0%A5%8D%E0%A4%A5%E0%A4%83_%E0%A4%85%E0%A4%A7%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%BE%E0%A4%AF%E0%A4%83 Adhyaya 4])</ref> जब न तो दिन था और न ही रात, न ही ब्रह्मांड (जिसका कोई रूप है) और न ही कोई रूप था, केवल उस शुद्ध पवित्र सिद्धांत का अस्तित्व था जो '''एक''' को दर्शाता है।<ref>N. S. Ananta Rangacharya (2003) ''Principal Upanishads (Isa, Kena, Katha, Prasna, Mundaka, Mandookya, Taittiriya, Mahanarayana, Svetasvatara) Volume 1.''Bangalore : Sri Rama Printers</ref></blockquote>ये सामान्य और सुप्रसिद्ध उदाहरण निर्गुण या निराकार ब्रह्म की धारणा को स्पष्ट करते हैं।
    
'''प्रणव (ओंकार) द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मण'''
 
'''प्रणव (ओंकार) द्वारा प्रतिपादित ब्राह्मण'''
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==== ब्रह्म का सगुण स्वरूप ====
 
==== ब्रह्म का सगुण स्वरूप ====
The next important concept is that of Saguna Brahman, also Supreme like the Nirguna Brahman, except that here there are a few limiting adjuncts (name, form etc), called variously as Atman, Jivatma, Inner Self, Self, Consciousness etc. The Individual Self, Atman, is the internal ruler, the that immortal part of a visible entity, which includes all living beings including humans, animals and trees. The discussion about Brahman being gross and subtle is raised by Satyakama as explained in the Prashnopanishad.
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अगली महत्वपूर्ण अवधारणा सगुण ब्रह्म की है, जो निर्गुण ब्रह्म की तरह सर्वोच्च है, सिवाय इसके कि यहां कुछ सीमित सहायक (नाम, रूप आदि) हैं, जिन्हें विभिन्न रूप से आत्मा, जीव, आंतरिक आत्मा, आत्मा, चेतना आदि कहा जाता है।
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यह व्यक्तिगत ब्रह्म, आत्मा, आंतरिक और सनातन है, जिसमें मनुष्यों, जानवरों और पेड़ों सहित सभी जीवित प्राणी शामिल हैं। प्रश्नोपनिषद में बताया गया है कि ब्रह्म के स्थूल और सूक्ष्म होने की चर्चा सत्यकाम द्वारा उठाई गई है:<blockquote>एतद्वै सत्यकाम परं चापरं च ब्रह्म यदोङ्कारः । (प्रश्न उप. 5.2)<ref>Prashnopanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4%A8%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A4%E0%A5%8D/%E0%A4%AA%E0%A4%9E%E0%A5%8D%E0%A4%9A%E0%A4%AE%E0%A4%83_%E0%A4%AA%E0%A5%8D%E0%A4%B0%E0%A4%B6%E0%A5%8D%E0%A4 Prashna 5])</ref>  </blockquote>अर्थः हे सत्यकाम, निश्चय ही यह ओंकार परम और निम्न ब्रह्म है।<ref name=":4" />
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बृहदारण्यकोपनिषद् में भी ब्राह्मण के दो रूपों के अस्तित्व के बारे में बताया गया है-सत् और असत्।<ref>Sharma, Ram Murthy. (1987 2nd edition) ''Vaidik Sahitya ka Itihas'' Delhi : Eastern Book Linkers</ref> <blockquote>द्वे वाव ब्रह्मणो रूपे मूर्तं चैवामूर्तं च मर्त्यं चामृतं च स्थितं च यच्च सच्च त्यच्च ॥ बृहद. उप. 2.3.1 ॥<ref>Brhdaranyaka Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_2p Adhyaya 2])</ref></blockquote>अर्थः ब्रह्म की दो अवस्थाएं हैं, स्थूल (रूप, शरीर और अंगों के साथ) और सूक्ष्म (निराकार), मरणशील और अमर, सीमित और अनंत, अस्तित्वगत और अस्तित्व से परे। <ref>Swami Madhavananda, (1950). ''The Brhdaranyaka Upanishad with the commentary of Sankaracharya.'' Mayavati: Avaita Ashrama</ref>यह दूसरा, निम्नतर, स्थूल, मर्त्य, सीमित ब्रह्म नहीं है, बल्कि वह सीमित ब्रह्म प्रतीत होता है और इस प्रकार वह प्रकट होता है, सगुण -गुणों से युक्त है। सूक्ष्म निराकार ब्रह्म को पहले ही निर्गुण ब्रह्म कहा जा चुका है। <blockquote>यो दिवि तिष्ठन्दिवोऽन्तरो यं द्यौर्न वेद यस्य द्यौः शरीरं यो दिवमन्तरो यमयत्य् एष त आत्माऽन्तर्याम्यमृतः ॥ बृहद. उप. 3.7.8 <ref>Brhdaranyaka Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_3p Adhyaya 3])</ref>॥</blockquote>वेदान्त दर्शन [[Bahupurushavada (बहुपुरुषवादः)|बहुपुरुष]] की विचारधारा के अनुसार सगुण ब्रह्म की विभिन्न व्याख्याओं के आधार पर बहुलता की अवधारणा पर व्यापक रूप से वाद-विवाद करता है।
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==== आत्मा और ब्रह्म की एकता ====
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उपनिषदों में आत्मा के विषय पर मुख्य रूप से चर्चा हुई है । कुछ विद्वानों का मत है कि ब्रह्म (सर्वोच्च वास्तविकता, सार्वभौम सिद्धांत, जीव-चेतना-आनंद) और आत्मा समान है (अद्वैत सिद्धांत), जबकि अन्य विद्वानों का मत है कि आत्मा ब्रह्म का ही भाग है  किन्तु (विशिष्टाद्वैत और द्वैत सिद्धान्त) समान नहीं हैं।
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इस प्राचीन वाद विवाद से ही हिंदू परंपरा में विभिन्न द्वैत और अद्वैत सिद्धांतों विकसित हुए। [[Brahman (ब्रह्मन्)|ब्रह्म]] लेख के तहत इन पहलुओं के बारे में अधिक चर्चा की गई है। छान्दोग्य उपनिषद् के महावाक्यों में ब्रह्म और आत्मा को एक ही रूप में प्रस्तावित किया गया था। उनमे से एक इस प्रकार है - (मूल श्लोक में '''महावाक्य''' उपस्थित है) <blockquote>स य एषोऽणिमैतदात्म्यमिदँ सर्वं तत्सत्यँ स आत्मा '''तत्त्वमसि''' श्वेतकेतो | (छांदोग्य उपन. 6.8.7)</blockquote>अर्थ: जो यह सूक्ष्म सारतत्त्व है, उसे यह सब आत्मा के रूप में प्राप्त हुआ है, वही सत्य है, वही आत्मा है, '''तुम ही वह हो''', श्वेताकेतु।<ref>Swami Gambhirananda. (1983) ''Chandogya Upanishad With the Commentary of Sri Sankaracharya.'' Calcutta : Advaita Ashrama</ref>
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माण्डूक्य उपनिषद् में एक और महावाक्य इस बात पर जोर देता है<blockquote>सर्वं ह्येतद् ब्रह्मा'''यमात्मा ब्रह्म''' सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ (माण्डूक्य उप 2)<ref>Mandukya Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AE%E0%A4%BE%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%A1%E0%A5%81%E0%A4%95%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D 12 Mantras])</ref> ॥</blockquote>अर्थ: यह सब निश्चय ही ब्रह्म है, '''यह आत्मा ब्रह्म है''', आत्मा, जैसे कि यह है, चार-चतुर्थांशों से युक्त है।<ref>Swami Gambhirananda (1989 Second Edition) ''Eight Upanishads, Volume 2 (Aitareya, Mundaka, Mandukya, Prashna)'' Calcutta: Advaita Ashrama</ref>
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==== मनस ====
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मनस (मन के समतुल्य नहीं बल्कि उस अर्थ में उपयोग किया जाता है) को प्रज्ञा, चित्त, संकल्प के रूप में भी जाना जाता है जो एक वृति या अस्तित्व की अवस्थाओं में संलग्न है (योग दर्शन ऐसी 6 अवस्थाओं का वर्णन करता है)। भारत में प्राचीन काल से ही मनुष्य के चिंतन की प्रकृति को मानव के मूल तत्व के रूप में समझा जाता रहा है। मनस के रहस्य को खोलना और जीवन पर इसके प्रभाव पर भारत वर्ष में गहरी शोध हुई है। इस शोध ने मानव जाति के दार्शनिक विचारों को गहरा करने में , और  जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक मानकों पर निश्चित प्रभाव डालने में निर्णायक भूमिका निभायी है। मनस के अध्ययन ने कला और विज्ञान के क्षेत्रों में बहुत योगदान दिया है। यह एक तथ्य है कि भारत में सभी दार्शनिक विचार और ज्ञान प्रणालियां वेदों से स्पष्ट रूप से या अंतर्निहित रूप से निकलती हैं। उपनिषद, जो वेदों के अभिन्न अंग  हैं, वैदिक विचारों के दार्शनिक शिखर का प्रतिनिधित्व करते हैं और मनस पर गहन चर्चा उनकी इस विशिष्टता में योगदान करती हैं।
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ऐतरेय उपनिषद् ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ-साथ ब्रह्मांडीय मस्तिष्क की उत्पत्ति का वर्णन अनुक्रमिक तरीके से करता है। <blockquote>हृदयं निरभिद्यत हृदयान्मनो मनसश्चन्द्रमा । (ऐत. उप. 1.1.4)<ref>Aitareya Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%90%E0%A4%A4%E0%A4%B0%E0%A5%87%E0%A4%AF%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D All Adhyayas] )</ref></blockquote>अर्थ: एक हृदय खुला और उसमे से मन निकला, इस आंतरिक अंग मन से तत्पश्चात चंद्रमा की उत्पत्ति हुई। विचार वह शक्ति बन जाता है जो सृष्टि के पीछे विद्यमान है  और ब्रह्मांडीय मन या ब्रह्मांडीय बुद्धि के विचार से प्रेरित होकर सृष्टि की प्रक्रिया को प्रेरित करता है।<blockquote>बृहदारण्यक उपनिषद कहता है - एतत्सर्वं मन एव ॥ बृहद. उप. 1.5.3 ॥<ref>Brhadaranyaka Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_1a Adhyaya 1])</ref>  अर्थ: यह सब मन ही है</blockquote>ईशावास्य उपनिषद में मनस का उल्लेख है।<blockquote>अनेजदेकं मनसो जवीयो ॥ ईशा. उप. 4॥<ref>Isavasyopanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%88%E0%A4%B6%E0%A5%8B%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A4%E0%A5%8D All Mantras])</ref></blockquote>अर्थ: आत्मा के मन से तेज होने का संदर्भ। यहाँ गति को मस्तिष्क की संपत्ति के रूप में वर्णित किया गया है।
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बृहदारण्यक उपनिषद आगे कहता है<blockquote>सर्वेषा सङ्कल्पानां मन एकायनम् ॥ बृहद. उप. 4.5.12॥<ref>Brhadaranyaka Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_4p Adhyaya 4])</ref> <ref>Swami Madhavananda, (1950). ''The Brhdaranyaka Upanishad with the commentary of Sankaracharya.'' Mayavati: Avaita Ashrama</ref>  अर्थ: सभी कल्पनाओं और विचार-विमर्शों के लिए मनस एक आधार है।</blockquote>छांदोग्य उपनिषद् में वर्णित किया गया है कि मनस चेतना नहीं है अपितु जड़तत्त्व का एक सूक्ष्म रूप है जैसा कि शरीर। आगे यह भी कहा गया है कि अन्न का सेवन तीन प्रकार से पाचन के पश्चात किया जाता है। सबसे स्थूल भाग मल बन जाता है, मध्य भाग मांस बन जाता है और सूक्ष्म भाग मन बन जाता है। (छांदोग्य उपन. 6.5.1 )<ref name=":7">N. S. Ananta Rangacharya (2003) ''Principal Upanishads (Chandogya Upanishad) Volume 2.'' Bangalore : Sri Rama Printers</ref>
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वेदों के अनुष्ठान, मनस को शुद्ध करना, कर्म पद्धति को अनुशासित करना और जीव को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता करना, इन सभी कार्यों में सहयोग देते हैं । <ref name=":4" />
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==== माया ====
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[[Maya (माया)|माया]] (जिसका अर्थ सदैव भ्रम नहीं होता) एक अन्य महत्वपूर्ण अवधारणा है जिसका उल्लेख उपनिषदों में किया गया है। परम तत्व या परमात्मा अपनी माया शक्ति के बल ब्रह्मांड को चित्रित करता है और जीवात्मा (प्रकट ब्रह्म) इस माया में उलझ जाता है। जीवात्मा इस माया में तब तक उलझ रहता है जब तक कि उसे यह अनुभव नहीं होता कि उसका वास्तविक स्वरूप परमात्मा का है। उपनिषदों में माया के बारे में सिद्धान्त का उल्लेख इस प्रकार किया गया है:
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छान्दोग्य उपनिषद् में बहुलवाद की व्याख्या इस प्रकार की गई है -<blockquote>तदैक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तत्तेजोऽसृजत । तत्तेज ऐक्षत बहु स्यां प्रजायेयेति तदपोऽसृजत ।(छांदोग्य उपन. 6.2.3)<ref name=":6" /></blockquote>उस 'सत्' ने विचार किया कि मैं कई बन सकता हूँ, मैं पैदा हो सकता हूँ। फिर 'इसने' तेजस (अग्नि) का निर्माण किया। अग्नि ने विचार किया कि मैं कई बन सकता हूँ, मैं पैदा हो सकता हूँ। उसने 'अप' या जल बनाया।<ref name=":7" />
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श्वेताश्वतार उपनिषद् कहता है -<blockquote>क्षरं प्रधानममृताक्षरं हरः क्षरात्मानावीशते देव एकः । तस्याभिध्यानाद्योजनात्तत्त्वभावाद्भूयश्चान्ते विश्वमायानिवृत्तिः ॥ १० ॥ (श्वेता. उपन. 1. 10)<ref name=":7" /></blockquote>जड़तत्त्व (प्रधान) क्षार या नष्ट होने वाला है। जीवत्मान अमर होने के कारण अक्षर या अविनाशी है। वह, एकमात्र परम तत्व, जड़तत्त्व और आत्मा दोनों पर शासन करता है। उसका ध्यान करने से (अभिध्यानात्), उसके साथ योग में होने से (योजनात्), उसके साथ तादात्म्य के ज्ञान से (तत्त्वभावाद्), अंत में, संसार की माया से मुक्ति प्राप्त होती है।<ref name=":7" /><ref>Sarma, D. S. (1961) ''The Upanishads, An Anthology.'' Bombay : Bharatiya Vidya Bhavan</ref><ref>Swami Tyagisananda (1949) ''Svetasvataropanisad.'' Madras : Sri Ramakrishna Math</ref>
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श्वेताश्वतार उपनिषद् आगे कहता है -<blockquote>छन्दांसि यज्ञाः क्रतवो व्रतानि भूतं भव्यं यच्च वेदा वदन्ति । अस्मान्मायी सृजते विश्वमेतत्तस्मिंश्चान्यो मायया सन्निरुद्धः ॥ ९ ॥(श्वेता. उपन. 4.9)</blockquote>श्रुति (छंदासि), यज्ञ और क्रत, व्रत, अतीत, भविष्य और जो कुछ वेदों में घोषित है, वह सब अविनाशी ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं। ब्रह्म अपने माया की शक्ति से ब्रह्मांड को चित्रित करता है। उस ब्रह्मांड में जीवात्मा माया के भ्रम के कारण फंस जाता है।<ref name=":7" /><blockquote>मायां तु प्रकृतिं विद्यान्मायिनं च महेश्वरम् । तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥ १० ॥ (श्वेता. उपन. 4.10)<ref name=":8" /></blockquote>जान लें कि प्रकृति माया है और वह सर्वोच्च तत्व (महेश्वर) माया का निर्माता है। पूरा ब्रह्मांड जीवात्माओं से भरा हुआ है जो उसके अस्तित्व के अंग हैं।<ref name=":7" />
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बृहदारण्यक उपनिषद कहता है -
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इदं वै तन्मधु दध्यङ्ङाथर्वणोऽश्विभ्यामुवाच । तदेतदृषिः पश्यन्नवोचत् ।रूपरूपं प्रतिरूपो बभूव तदस्य रूपं प्रतिचक्षणाय ।
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Meaning : Verily, O Satyakama, this Omkara is the Supreme and the lower Brahman. Brhdaranyaka Upanishad also says the following about the existence of two forms of Brahman - the Sat and Asat forms.
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इन्द्रो मायाभिः पुरुरूप ईयते युक्ता ह्यस्य हरयः शता दशेतिय् अयं वै हरयो ऽयं वै दश च सहस्रणि बहूनि चानन्तानि च ।
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Meaning : There are two states of Brahman, मूर्तं । gross (with form, body and organs) and अमूर्तं । subtle (formless), mortal (मर्त्यं) and immortal (अमृतं), finite and infinite, existent and beyond (existence). This second, lower, gross, mortal, finite, existent Brahman is not "another" but is Brahman conditioned - therefore limited, manifesting and is thus Saguna with Attributes. The subtle formless Brahman has already been described as Nirguna Brahman.
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तदेतद्ब्रह्मापूर्वमनपरमनन्तरमबाह्यम् अयमात्मा ब्रह्म सर्वानुभूरित्यनुशासनम् ॥ १९ ॥ (बृहद. उप. 2.5.19)<ref>Brhdaranyaka Upanishad ([https://sa.wikisource.org/wiki/%E0%A4%AC%E0%A5%83%E0%A4%B9%E0%A4%A6%E0%A4%BE%E0%A4%B0%E0%A4%A3%E0%A5%8D%E0%A4%AF%E0%A4%95_%E0%A4%89%E0%A4%AA%E0%A4%A8%E0%A4%BF%E0%A4%B7%E0%A4%A6%E0%A5%8D_2p Adhyaya 2])</ref>
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The Vedanta Darshana extensively debates the concept of Plurality (the Manyness, [[Bahupurushavada (बहुपुरुषवादः)|Bahupurushas]]) based on the various explanations of Saguna Brahman according to that particular school of thought.
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दर्शन, (विशेष रूप से श्री आदि शंकराचार्य का वेदांत दर्शन) इस माया को संसार के बंधन के कारण के रूप में उजागर करते हैं और यह कहते हैं कि ब्रह्म ही वास्तविक है और बाकी सब असत्य है
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अगली महत्वपूर्ण अवधारणा सगुण ब्रह्म की है, जो निर्गुण ब्रह्म की तरह सर्वोच्च है, सिवाय इसके कि यहां कुछ सीमित सहायक (नाम, रूप आदि) हैं, जिन्हें विभिन्न रूप से आत्मा, जीव, आंतरिक आत्मा, आत्मा, चेतना आदि कहा जाता है। "" "" "" " अर्थः हे सत्यकाम, निश्चय ही यह ओंकार परम और निम्न ब्रह्म है। "" "" "" " बृहदारण्यकोपनिषद् में भी ब्राह्मण के दो रूपों के अस्तित्व के बारे में बताया गया है-सत् और असत्। अर्थः ब्रह्म की दो अवस्थाएं हैं, स्थूल (रूप, शरीर और अंगों के साथ) और सूक्ष्म (निराकार), मरणशील और अमर, सांत और अनंत, अस्तित्व और उससे परे (अस्तित्व)। यह दूसरा, निम्नतर, स्थूल, मर्त्य, सांत, सत् ब्रह्म नहीं है, बल्कि वह ब्रह्म है-अतएव वह सीमित है, प्रकट होता है और इस प्रकार वह सगुण है-गुणों से युक्त है. सूक्ष्म निराकार ब्रह्म को पहले ही निर्गुण ब्रह्म कहा जा चुका है। वेदान्त दर्शन उस विशेष विचारधारा के अनुसार सगुण ब्रह्म की विभिन्न व्याख्याओं के आधार पर बहुलता की अवधारणा पर व्यापक रूप से बहस करता है। "" "" "" " आत्मा और ब्रह्म की एकता "" "" "" " कुछ विद्वानों का मत है कि ब्रह्म (सर्वोच्च सद्वस्तु & #44. सार्वभौम सिद्धांत & #44. जीव-चेतना & #44. आनन्द) & #44. और अद्वैत सिद्धांत (अद्वैत सिद्धांत) के समान है & #44. जबकि अन्य विद्वानों का मत है कि & #44. आत्मा ब्रह्म का ही भाग है & #44. किन्तु वेदांत के विशिष्टाद्वैत और द्वैत सिद्धान्त (विशिष्टाद्वैत और द्वैत सिद्धान्त) समान नहीं हैं। "" "" "" " छान्दोग्य उपनिषद् के महावाक्यों में ब्रह्म और आत्मा को एक ही रूप में प्रस्तावित किया गया था। जो यह सूक्ष्म सारतत्त्व है, उसे यह सब आत्मा के रूप में प्राप्त हुआ है, वही सत्य है, वही आत्मा है, तुम ही वह हो, श्वेताकेतु। "" "" "" " माण्डूक्य उपनिषद् में एक और महावाक्य इस बात पर जोर देता है "" "" "" " यह सब निश्चय ही ब्रह्म है, यह आत्मा ब्रह्म है, आत्मा, जैसे कि यह है, चार-चतुर्थांशों से युक्त है। "" "" "" " मानस मानस (मन के समतुल्य नहीं बल्कि उस अर्थ में उपयोग किया जाता है) को प्रज्ञा, चित्त, सम्कल्प के रूप में भी जाना जाता है जो एक वृति या अस्तित्व की अवस्थाओं में संलग्न है (योग दर्शन ऐसे 6 राज्यों का वर्णन करता है). भारत में प्राचीन काल से ही मनुष्य के चिंतन की प्रकृति को मानव के मूल तत्व के रूप में समझा जाता रहा है. मानव जाति के दार्शनिक विचारों को गहरा करने में मानस के रहस्य को खोलना और जीवन पर इसके प्रभाव निर्णायक साबित होते हैं, जो जीवन के सामाजिक-सांस्कृतिक मानकों पर निश्चित प्रभाव डालते हैं. मानस के अध्ययन ने कला और विज्ञान के क्षेत्रों में बहुत योगदान दिया है. यह एक तथ्य है कि भारत में सभी दार्शनिक विचार और ज्ञान प्रणालियां वेदों से स्पष्ट रूप से या अंतर्निहित रूप से निकलती हैं. उपनिषदों को वैदिक विचार और वैदिक चर्चाओं में उनकी विशिष्टता पर उनकी विशिष्टता पर योगदान करने के लिए एक अभिन्न अंग हैं "" "" "" " ऐतरेय उपनिषद् ब्रह्मांड की उत्पत्ति के साथ-साथ ब्रह्मांडीय मस्तिष्क की उत्पत्ति का वर्णन अनुक्रमिक तरीके से करता है। "" "" "" " एक हृदय खुल गया और मन उससे निकला. आंतरिक अंग, मन से चंद्रमा आया। "" "" "" " विचार वह शक्ति बन जाता है जो सृष्टि के पीछे विद्यमान ब्रह्मांडीय मन या ब्रह्मांडीय बुद्धि के विचार से प्रेरित होकर सृष्टि की प्रक्रिया को प्रेरित करती है. जबकि बृहदारण्यक कहते हैं "" "" "" " यह सब मन ही है, इशावास्य उपनिषद् में मानस का उल्लेख है। "" "" "" " "" "" "" " आत्मा के मन से तेज होने का संदर्भ. यहाँ गति को मस्तिष्क की संपत्ति के रूप में वर्णित किया गया है. बृहदारण्यक आगे कहता है कि इसका अर्थ है सभी कल्पनाओं और विचार-विमर्शों के लिए मानस समान आधार है। "" "" "" " मानस चेतना नहीं है अपितु जड़तत्त्व का एक सूक्ष्म रूप है जैसा कि शरीर को छांदोग्य उपनिषद् में वर्णित किया गया है. और यह भी कहा गया है कि अन्न का सेवन तीन प्रकार से पाचन के पश्चात किया जाता है. सबसे स्थूल भाग मल बन जाता है और मध्य भाग मांसाहार बन जाता है. सूक्ष्म भाग मन बन जाता है. "" "" "" " वेदों के अनुष्ठान, मानस को शुद्ध करना, कर्म पद्धति को अनुशासित करना और जीव को ब्रह्मज्ञान प्राप्त करने के मार्ग पर अग्रसर होने में सहायता करना। "" "" "" " माया "" "" "" " माया (जिसका अर्थ सदैव भ्रम नहीं होता) एक अन्य महत्वपूर्ण अवधारणा है जिसका उल्लेख उपनिषदों में किया गया है. परम सत्ता या परमात्मा अपनी माया शक्ति के बल पर इस माया में तब तक उलझ जाते हैं जब तक कि उन्हें यह ज्ञात नहीं होता कि इसका वास्तविक स्वरूप परमात्मा का है. उपनिषदों में माया के बारे में सिद्धान्त का उल्लेख इस प्रकार किया गया है. "" "" "" " छान्दोग्य उपनिषद् में बहुलवाद की व्याख्या इस प्रकार की गई है - "" "" "" " उस 'सत्' ने सोचा कि मैं कई बन सकता हूँ मैं पैदा हो सकता हूँ '. फिर' इसने 'तेजस (आग) बनाया. आग ने सोचा कि मैं कई बन सकता हूँ मैं पैदा हो सकता हूँ'. उसने 'अप' या पानी बनाया। "" "" "" " "" "" "" " श्वेताश्वतार उपनिषद् कहता है - "" "" "" " जड़तत्त्व (प्रधान) क्षार या नष्ट होने वाला है. जीवत्मान अमर होने के कारण अक्षरा या अविनाशी है. वह, एकमात्र परम सत्ता, जड़तत्त्व और आत्मा दोनों पर शासन करता है. उसके साथ योग में उसके होने पर ध्यान करने से, उसके साथ तादात्म्य के ज्ञान से, अंत में, संसार की माया से मुक्ति प्राप्त होती है। "" "" "" " श्रुति (चन्दनसी), यज्ञ और क्रत, व्रत, अतीत, भविष्य और जो कुछ वेदों में घोषित है, वह सब अविनाशी ब्रह्म से उत्पन्न हुए हैं. ब्रह्म अपने माया की शक्ति से ब्रह्मांड को चित्रित करता है. तथापि, उस ब्रह्मांड में ब्रह्म के रूप में जीवात्मा माया के भ्रम में फंस जाता है। "" "" "" " बृहदारण्यक उपनिषद कहता है - "" "" "" " सरगा "" "" "" " उपनिषदों में सृष्टि सिद्धांत (ब्रह्मांड की उत्पत्ति के सिद्धांत) प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं जो दर्शन शास्त्रों के आने पर प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हैं। सृष्टि सिद्धांत प्रस्ताव करता है कि ईश्वर सभी प्राणियों को अपने अन्दर से विकसित करता है। "" "" "" " वैश्य "" "" "" " यद्यपि सभी उपनिषदों में घोषणा की गई है कि संसार के प्रवाह में उलझे मानव जीवन का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है जो मोक्ष की ओर ले जाता है, परम पुरुषार्थ, प्रत्येक उपनिषद् में उनके सिद्धांतो के बारे में अपनी विशिष्ट विशेषताएं हैं। "" "" "" " ऐतरेय उपनिषद् ब्रह्म की विशेषताओं को स्थापित करता है। बृहदारण्यक उच्चतर लोकों को पथ प्रदान करता है। कथा एक जीव की मृत्यु के बाद के मार्ग के बारे में शंकाओं की चर्चा करती है। श्वेताश्वतार कहती हैं कि जगत और परमात्मा माया हैं। मुंडकोपनिषद् ने इस तथ्य पर जोर दिया कि पूरा ब्रह्मांड परब्रह्म के अलावा कुछ भी नहीं है इशावास्य परिभाषित करता है कि ज्ञान वह है जो आत्मा को देखता है और परमात्मा दुनिया में व्याप्त है। तैत्तिरीयोपनिषद् यह घोषणा करता है कि ब्रह्मज्ञान मोक्ष की ओर ले जाता है। छांदोग्योपनिषद् इस बात की रूपरेखा देता है कि जन्म कैसे होता है और ब्रह्म तक पहुंचने के रास्ते कैसे होते हैं। #Prasnopanishad आत्मा की प्रकृति से संबंधित प्रश्नों का तार्किक उत्तर देता है। मांडुक्य उपनिषद् में आत्मा को ब्राह्मण घोषित किया गया है "" "" "" " उदाहरण के लिए, छांदोग्य उपनिषद् में अहिंसा (अहिंसा) को एक नैतिक सिद्धांत के रूप में घोषित किया गया है. अन्य नैतिक अवधारणाओं की चर्चा जैसे दमाह (संयम, आत्म-संयम), सत्य (सच्चाई), दान (दान), आर्जव (अपाखंड), दया (करुणा) और अन्य सबसे पुराने उपनिषदों और बाद के उपनिषदों में पाए जाते हैं. इसी तरह, कर्म सिद्धांत बृहदारण्यक उपनिषदों में प्रस्तुत किया गया है, जो सबसे पुराना उपनिषद् है। "" "" "" " महावक्य उपनिषदों में ब्राह्मण की सबसे अनूठी अवधारणा पर कई महाव्रत-क्या या महान कथन हैं जो भारतवर्ष से संबंधित ज्ञान खजाने में से एक है। "" "" "" " प्रसन्ना त्रयी उपनिषदों में भगवद् गीता और ब्रह्म सूत्र के साथ वेदांत की सभी शाखाओं के लिए तीन मुख्य स्रोतों में से एक का निर्माण किया गया है. वेदांत आत्मा और ब्रह्म के बीच संबंध और ब्रह्म और विश्व के बीच संबंध के बारे में प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता है। वेदांत की प्रमुख शाखाओं में अद्वैत, विशिष्ठद्वैत, द्वैत और निम्बार्क के द्वैतद्वैत, वल्लभ के सुद्धाद्वैत और चैतन्य के अचिन्त्य भेदाभेद आदि शामिल हैं। "" "" "" " "" "" "" "
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==== सर्ग ====
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सरगा "" "" "" " उपनिषदों में सृष्टि सिद्धांत (ब्रह्मांड की उत्पत्ति के सिद्धांत) प्रचुर मात्रा में पाए जाते हैं जो दर्शन शास्त्रों के आने पर प्रस्फुटित और पल्लवित हुए हैं। सृष्टि सिद्धांत प्रस्ताव करता है कि ईश्वर सभी प्राणियों को अपने अन्दर से विकसित करता है। "" "" "" " वैश्य "" "" "" " यद्यपि सभी उपनिषदों में घोषणा की गई है कि संसार के प्रवाह में उलझे मानव जीवन का लक्ष्य ज्ञान प्राप्त करना है जो मोक्ष की ओर ले जाता है, परम पुरुषार्थ, प्रत्येक उपनिषद् में उनके सिद्धांतो के बारे में अपनी विशिष्ट विशेषताएं हैं। "" "" "" " ऐतरेय उपनिषद् ब्रह्म की विशेषताओं को स्थापित करता है। बृहदारण्यक उच्चतर लोकों को पथ प्रदान करता है। कथा एक जीव की मृत्यु के बाद के मार्ग के बारे में शंकाओं की चर्चा करती है। श्वेताश्वतार कहती हैं कि जगत और परमात्मा माया हैं। मुंडकोपनिषद् ने इस तथ्य पर जोर दिया कि पूरा ब्रह्मांड परब्रह्म के अलावा कुछ भी नहीं है इशावास्य परिभाषित करता है कि ज्ञान वह है जो आत्मा को देखता है और परमात्मा दुनिया में व्याप्त है। तैत्तिरीयोपनिषद् यह घोषणा करता है कि ब्रह्मज्ञान मोक्ष की ओर ले जाता है। छांदोग्योपनिषद् इस बात की रूपरेखा देता है कि जन्म कैसे होता है और ब्रह्म तक पहुंचने के रास्ते कैसे होते हैं। #Prasnopanishad आत्मा की प्रकृति से संबंधित प्रश्नों का तार्किक उत्तर देता है। मांडुक्य उपनिषद् में आत्मा को ब्राह्मण घोषित किया गया है "" "" "" " उदाहरण के लिए, छांदोग्य उपनिषद् में अहिंसा (अहिंसा) को एक नैतिक सिद्धांत के रूप में घोषित किया गया है. अन्य नैतिक अवधारणाओं की चर्चा जैसे दमाह (संयम, आत्म-संयम), सत्य (सच्चाई), दान (दान), आर्जव (अपाखंड), दया (करुणा) और अन्य सबसे पुराने उपनिषदों और बाद के उपनिषदों में पाए जाते हैं. इसी तरह, कर्म सिद्धांत बृहदारण्यक उपनिषदों में प्रस्तुत किया गया है, जो सबसे पुराना उपनिषद् है। "" "" "" " महावक्य उपनिषदों में ब्राह्मण की सबसे अनूठी अवधारणा पर कई महाव्रत-क्या या महान कथन हैं जो भारतवर्ष से संबंधित ज्ञान खजाने में से एक है। "" "" "" " प्रसन्ना त्रयी उपनिषदों में भगवद् गीता और ब्रह्म सूत्र के साथ वेदांत की सभी शाखाओं के लिए तीन मुख्य स्रोतों में से एक का निर्माण किया गया है. वेदांत आत्मा और ब्रह्म के बीच संबंध और ब्रह्म और विश्व के बीच संबंध के बारे में प्रश्नों का उत्तर देने का प्रयास करता है। वेदांत की प्रमुख शाखाओं में अद्वैत, विशिष्ठद्वैत, द्वैत और निम्बार्क के द्वैतद्वैत, वल्लभ के सुद्धाद्वैत और चैतन्य के अचिन्त्य भेदाभेद आदि शामिल हैं। "" "" "" " "" "" "" "
    
==References==
 
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